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6. पूर्ण चंद्र, 7. उदय होता तेजस्वी सूर्य 8. विशाल ध्वज, 9. पूर्ण कलश, 10. पद्म सरोवर, 11. क्षीर समुद्र, 12. विमान, 13. रत्नों की राशी 14. धूम रहितं अग्निशिखा । इतने भव्य तथा स्पष्ट स्वप्नों को देखकर माता अतिशय हर्षित हो जाती है।
परमात्मा का च्यवन होते ही इन्द्र महाराजा का सिंहासन चलायमान होता है। अपने अवधिज्ञान से तारक तीर्थंकर प्रभु का च्यवन जानकर वे अत्यधिक आनंद विभोर हो जाते है। त्रिलोकीनाथ तरणतारण जहाज प्रभु की स्तुति करने के लिए बड़े अहोभाव पूर्वक सिंहासन से सात-आठ कदम आगे आकर शक्रस्तव (नमुत्थुणं ) सूत्र द्वारा प्रभु की स्तुति - ते - स्तवना करते हैं। भगवान की माता रात्री में ही राजा के
पास जाकर स्वप्न सुनाकर उसके अर्थ को ग्रहण करती
है। राजा कहते है- “तूं तीर्थंकर पुत्र को जन्म देगी, जिसे तीन भुवन नमस्कार करेंगे।” यह सुनकर माता हर्षित होती है। गर्भ के प्रभाव से विश्व में मिथ्यात्वं का जोर घट जाता है। सर्व जीव सुख का अनुभव करते हैं और माता आनंद एवं धर्म पूर्वक रात्री व्यतीत करती है।
शुभ लग्ने जिन जनमिया.... जब सर्व ग्रह उच्च स्थान में होते हैं, ऐसी शुभ घड़ी में भगवान का जन्म होता है। भगवान के पाँचों कल्याणक में नारकी में भी सुख की लहर क्षण - मात्र के लिए फैल जाती है। अर्थात् अन्यत्र तो अवश्य सुख फैलता ही है ।
प्रभु के जन्म से संपूर्ण पृथ्वी नाच उठती है। प्रकृति पूर्ण कलाओं से खिल उठती है। पक्षी खुशी से ऐसा कलरव करते है-मानो प्रभु के जन्मोत्सव के मंगलगीत गा रहे हो। मंद-मंद पवन प्रभु जन्म की सूचना पृथ्वी पर फैला रहा हो इस प्रकार बहता है । छः ऋतुएँ मानो प्रभु जन्मोत्सव मनाने आई हो, ऐसा सुन्दर वातावरण सर्जन करती है। सारे वृक्ष, फल, फूल, लताएँ प्रभु जन्म के आनंद को व्यक्त करने के लिए खिल उठती हैं। पूरी सृष्टि एक उपवन की तरह महकने लगती है। प्रभु के जन्म के समय सृष्टि का वर्णन करती स्तवन की पंक्तियाँ
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“मंद पवन और ऋतु मनुहारी, खिले पुष्प, फल और लतारी,
सृष्टि सकल लागे एक उपवन प्रकृति मनोहार रे.....”
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भगवान के पांच कल्याणक में सात नरक में होनेवाला प्रकाश
प्रथम नरक में
दूसरी नरक में
तीसरी नरक में
चौथी नरक में
तेजस्वी सूर्य समान
आच्छादित (बादल से ढके हुए) सूर्य समान
तेजस्वी चन्द्र समान
आच्छादित चन्द्र समान
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