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________________ पाँचवीं नरक में छट्ठी नरक में सातवीं नरक में छप्पन दिक्कुमारी कृत जन्म महोत्सव सांभलो कलश जिन : प्रभु का जन्म होते ही 56 दिक्कुमारिकाओं का आसन चलायमान होता है। ये देवियाँ कुँवारी होती है। अनेक अन्य देवियों की स्वामिनी है। गजदंत पर्वत एवं रुचक द्वीप के पर्वत पर इनका वास स्थान है। अवधिज्ञान से प्रभु के जन्म को जानकर अति प्रसन्न होती हुई प्रभु के जन्म स्थान पर आती है एवं सम्पूर्ण सूतिका कर्म कर खुशियाँ मनाती है । इनके कार्य एवं स्थान56 दिक्कुमारिकाओं के स्थान संख्या कार्य 4 गजदंत के नीचे अधोलोक की मेरु पर्वत पर ऊर्ध्वलोक की दक्षिण रुचक की पूर्व रुचक की उत्तर रुचक की पश्चिम रुचक की अधोभाग रुचक की विदिशा रुचक की 8 8 8 8 8 8 4 ग्रह समान नक्षत्र समान तारा समान 4 सूतिका गृह बनाती है एवं भूमि शुद्धि करती है। सुगंधी जल छिटकती है। कलश भरकर धारण करती है। दर्पण धारण करती है। चामर धारण करती है। पंखा करती है। रक्षापोटली बांधती है। दीपक ग्रहण करती है। 56 56 दिक्कुमारिकाएँ स्वकार्य करने के पश्चात् तीन कदली गृह (केले के पत्तों से घर) बनाती है। उसमें से प्रथम में प्रभु तथा प्रभु माता को पीठी चोलती है। दूसरे में स्नान कराती है। तीसरे में वस्त्रालंकार पहनाकर कुसुम से पूजा करती है एवं नज़र न लगे इसलिए अरणी के काष्ट को जलाकर उसकी राख की पोटली बांधकर प्रभु तथा माता को शय्या पर पधराती है। फिर माता एवं प्रभु को नमस्कार करके माता को कहती है कि, - “तुम्हारा पुत्र हमें अति प्रिय है एवं जब तक मेरु, सूर्य एवं चंद्र है तब तक आपका पुत्र चिरंजीवी बनें।” ऐसे आशिष देकर भगवान के गुण गाती गाती अपने स्थान पर जाती हैं।
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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