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जिन जन्म्याजी.... उस समय 64 इद्रों के सिंहासन कम्पायमान होते हैं। अवधिज्ञान से इन्द्र प्रभु के जन्म को जानते हैं।
अवधिज्ञान से भगवान के जन्म को जानकर सब इन्द्र अपने-अपने अधिकार वाले सभी विमानों में सुनाई दे ऐसा बड़ा सुघोषा घंट बजवाते हैं। इस घंट के नाद से सभी देवलोक में प्रभु जन्म की सूचना मिलती है तथा सभी देवों को प्रभु जन्मोत्सव के लिए मेरुपर्वत पर पधारने का आमंत्रण मिलता है। इस घंट की सुमधुर ध्वनि से सभी को अर्हानंद का अनुभव होता है। घंट-नाद से सर्व विमानों की छोटीछोटी घंटियाँ भी बजने लगती हैं। उन घंटियों के नाद में प्रभु का मेरु पर्वत पर जन्म महोत्सव करने जाने की घोषणा होती है। इससे सभी देवी-देवता मेरु पर्वत की ओर गमन करते हैं।
दिशिनायकजी : पूरा ढाई द्वीप 5 सीता एवं 5 सीतोदा नदियों के कारण दक्षिणार्ध एवं उत्तरार्ध इन दो भागों में बँट जाता है। जब उत्तरार्ध की 85 विजयों में प्रभु का जन्म होता है। तब उस दिशा के नायक इशानेन्द्र जन्म महोत्सव के अधिकारी बनते हैं एवं जब दक्षिणार्ध की 85 विजयों में प्रभु का जन्म होता है। तब उस दिशा के नायक सौधर्मेन्द्र प्रभु के जन्माभिषेक के अधिकारी बनते हैं। ___एम सांभलीजी : सुघोषा आदि घंट की आवाज़ को सुनकर सभी देव मेरुपर्वत की ओर जाते हैं एवं भरत क्षेत्र में भगवान का जन्म हुआ है, इस अपेक्षा से सौधर्मेन्द्र अपने परिवार के साथ पालक विमान में बैठकर भरत क्षेत्र में आने के लिए निकलते हैं। सर्व प्रथम देवलोक से रवाना होकर
असंख्य योजन तिर्छा आते हैं। फिर असंख्य योजन नीचे जाने पर नंदीश्वर द्वीप आता हैं। वहाँ 1 लाख योजन के “पालक विमान” का संकोच करते है एवं संकोच करते-करते प्रभु के जन्म स्थान पर आते हैं। वहाँ आकर प्रभु तथा माता को वंदन कर एवं बधाई देते हुए कहते हैं कि - “हे रत्नकुक्षि धारिणी ! माता. ! मैं शक्र नामक सौधर्मेन्द्र आपके पुत्र का सुंदर जन्म महोत्सव करूंगा”, इस प्रकार कहकर माता के पास प्रभु के प्रतिबिंब को स्थापित कर माता को अवस्वापिणी निद्रा देते हैं। फिर कई देव-देवी साथ में होने पर भी भक्ति के अतिरेक से स्वयं पाँच वैक्रिय रुप बनाते हैं। एक से भगवान को कर संपुट में धारण करते हैं, एक से छत्र धारण करते हैं, एक से आगे वज्र उछालते हैं एवं दो रुप से चामर वींजते हैं। इस प्रकार भगवान को लेकर सौधर्मेन्द्र मेरु पर्वत पर आते हैं। उस समय अन्य देव-देवियाँ भी हर्ष से नाच गान करते हुए प्रभु के साथ मेरुपर्वत पर आते हैं।
___मेरु उपरजी .... मेरु पर्वत के पांडुक वन में चारों दिशाओं में चार बड़ी-बड़ी शिलाएँ हैं। उसमें से सौधर्मेन्द्र प्रभु को दक्षिण की अतिपांडुकंबला शिला पर रहे सिंहासन पर अभिषेक के लिए ले आते हैं। इतने में दूसरे 63 इन्द्र भी वहाँ पहुँच जाते हैं।