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4. सदासोम
एक नगर में सदाचंद नामक सेठ रहते थे। वे वहाँ के बहुत बड़े व्यापारियों में गिने जाते थे। देश परदेश में उनका धंधा चलता था। एक बार समुद्र में तूफान आने के कारण सेठ के जहाज परदेश से आते हुए उसमें फँस गये। लेकिन अब तक डूबे की नहीं इसके समाचार लोगों को नहीं मिले थे। फिर भी लोगों ने मान लिया कि जहाज डूब गए हैं। इसलिए उन्होंने अफवाह फैलाई कि सदाचंद सेठ की पेढ़ी उठने वाली है यह सुनकर अनेक लोग अपनी जमा की हुई रकम सेठ के पास लेने आए। सेठ ने लेनदारों को शक्य था उतना दे दिया ।
एक दिन एक बड़ा व्यापारी अपने 1 लाख रुपये लेने के लिए सेठ के घर आया। परिस्थिति वशात् सेठ ने कहा “भाई थोड़े दिन रुक जाओ। अभी तक जहाज के समाचार नहीं आए है।" लेकिन लेनदार तो मानने के लिए तैयार ही नहीं हुआ । सदाचंद सेठ बहुत परेशानी में आ गए कि अब मैं क्या करूँ? उन्होंने परमात्मा का स्मरण किया और नवकार मंत्र का ध्यान धरना शुरु किया । तभी उन्हें सोमचंद सेठ की याद आई और उन्होंने अहमदाबाद निवासी सोमचंद सेठ को रोते-रोते एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने पत्र लेकर आने वाले को 1 लाख रुपये देने को कहा। पत्र लिखते समय आँसू की दो बूँदै पत्र पर गिरी। लेनदार वह पत्र लेकर सोमचंद सेठ के वहाँ पहुँचा तथा उन्हें पत्र दिया। सोमचंद सेठ ने सदाचंद सेठ की मात्र ख्याति सुनी थी। न तो उनके बीच कोई व्यापारिक संबंध थे और ना ही कोई पहचान। सोमचंद सेठ ने उस पत्र को उलट-पलट कर पढ़ा। सदाचंद सेठ का खाता तो उनकी पुस्तक में कही नज़र नहीं आया। विचार करते-करते वह सदाचंद सेठ के पत्र को देख रहे थे कि अचानक आँसू की बूँद से भीगे हुए पत्र के भाग पर उनकी नज़र पड़ी। अतः उन्होंने. तय कर दिया कि जरुर सदाचंद सेठ ने परिस्थिति वशात् यह पत्र लिखा है। और उन्होंने उस व्यापारी को एक लाख रुपये दे दिये। एवं उसकी कोई हुंडी बही खाते में दर्ज नहीं की। कैसी ज्वलंत साधर्मिक भक्ति !
इस तरफ थोड़े दिन बाद सदाचंद सेठ के सारे जहाज वापस आ गए। व्यापार व्यवस्थित हो गया। थोड़ा धन कमाने के बाद सदाचंद सेठ अपना ऋण उतारने के उद्देश्य से एक लाख रुपये लेकर अहमदाबाद पहुँचे। सोमचंद सेठ से मिलने के बाद वे बोले “सेठजी यह आपके एक लाख रुपये।” सोमचंद सेठ ने कहा, “आप कौन हो ?” तब वे बोले “मैं सदाचंद सेठ हूँ। कुछ महिनें पूर्व मेरे पत्र लिखने पर आपने एक लाख की हुंडी स्वीकार की थी। आपने उस वक्त मेरी सहायता की उसके लिए धन्यवाद। आप यह राशि स्वीकार कर मुझे ऋण मुक्त कीजिए।” तब सोमचंद सेठ ने बहीखाता