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पाठशाला
पाठशाला अर्थात् संस्कार मंदिर। जैन कुल में जन्म लेने से आप जैन तो बन गए, लेकिन जैन कैसे होने चाहिए? उसका सही शिक्षण पाठशाला से ही प्राप्त होता है। व्यक्ति के जीवन में जितनी जरुरत व्यवहारिक शिक्षण की है, उससे कई गुणा अधिक आवश्यकता संस्कारों के बीजारोपण करनेवाली धार्मिक शिक्षा की है। पाठशाला यानि क्या? (1) जो हमें सम्यग् ज्ञान देती है उसका नाम है पाठशाला। (2) जो बच्चों में शील रक्षा के संस्कारों का रोपण करती है, उसका नाम है पाठशाला। (3) जो शासन रक्षा का बल देती है उसका नाम है पाठशाला। (4) जो हमें खुमारी, धैर्य, सत्त्व, शौर्य,साहस से जीना सिखाती है, उसका नाम है पाठशाला। (5) जो दुःख के समय में समाधि एवं समाधान की राह दिखाती है, उसका नाम है पाठशाला। पाठशाला का महत्त्व : वर्तमान की शिक्षण पद्धति से विकृत बनते बच्चों के दिमाग को सुसंस्कृत बनाने के लिए पाठशाला एक संजीवनी औषधि के समान है। माँ बच्चों के जीवन निर्वाह की चिंता करती है, जबकि पाठशाला वह है जो बच्चों के जीवन निर्माण की चिंता करती हैं। प्रत्येक गाँव-शहर में साधु-साध्वी का योग प्राप्त होना नामुमकिन है और यदि प्राप्त हो भी जाए तो मात्र चातुर्मास के चार महिने के लिए। इतने कम समय में ज्ञान की संपूर्ण शिक्षा प्राप्त करना संभव नहीं हैं। ऐसे में पाठशाला ही एक ऐसा स्थान है जहाँ जाकर व्यक्ति हर दिन ज्ञान प्राप्त कर सकता है। दीपक को ज्वलंत रखने के लिए जिस प्रकार तेल या घी की जरुरत होती हैं आज उतनी ही जरुरत सम्यग् ज्ञान देने वाली पाठशाला की है। क्योंकि बच्चे कच्चे घड़े के समान होते हैं। उस कच्चे घड़े को कुंभार जैसा आकार देना चाहे वैसा आकार दे सकता है। लेकिन घड़ा पक्का बनने के बाद यदि कुंभार उसका आकार बदलना चाहे तो वह घड़ा टूट जायेगा, लेकिन उसका आकार परिवर्तित नहीं होगा। ठीक उसी प्रकार बच्चों की छोटी उम्र संस्कार ग्रहण करने की होती है। उस समय उन्हें जैसे संस्कार दिए जाते हैं, उन्हीं संस्कारों में बच्चों का जीवन ढल जाता है। बड़े होने के बाद उनमें संस्कारों का रोपण करने जाएँगे तो उनकी वही हालत होगी जो पक्के घड़े की होती है। छोटी उम्र में बच्चों की स्मरण शक्ति बहुत तेज होती है। ऐसे समय में उन्हें पाठशाला भेजने से बच्चे स्वयं के, परिवार के एवं शासन के भविष्य को उज्जवल बना सकते हैं।
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