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________________ सम्यग् ज्ञान के अभाव में छोडने लायक क्या है? अपनाने लायक क्या है? यह समझ ही नहीं पाते। जबकि सम्यग् ज्ञान के प्रकाश में व्यक्ति अपने कार्य के परिणाम को जान सकता है। गुरुदेव के पास जाये तब शरम न आए कि गुरुवंदन कैसे करें? प्रभु के पास जाये तब यह संकोच न रहे कि विधि सहित दर्शन-पूजन एवं चैत्यवंदन कैसे करें? महान कर्म निर्जरा कराने वाली प्रतिक्रमण की क्रिया करें तब यह समस्या न आए कि सामायिक किस तरह लेनी? और प्रतिक्रमण किस तरह करना? इन सारी दुविधाओं का एक ही समाधान है पाठशाला। पाठशाला ही एक ऐसी संस्था है जहाँ छोटी से छोटी विधि से लेकर बड़ी से बड़ी क्रियाएँ एवं अनुष्ठान सम्यग् रीति से सिखाएँ जाते हैं। पाठशाला में समान वय के बच्चे होने से एक-दूसरे को पढ़ते देख, रात्रिभोजन, कंदमूल टी.वी., अभक्ष्य आदि त्याग करते देख बच्चों में भी त्याग का उत्साह सहजता से आ जाता है। साथ ही पाठशाला से मिलनेवाले इनाम से बच्चों के अंदर धर्म करने का विशेष उत्साह बढ़ता है। घर पर बच्चों को चाहे कितने भी इनाम दे पर बच्चे खुश नहीं होते, जितने पाठशाला या बाहर से मिलनेवाले एक छोटे से इनाम से बच्चे खुश हो जाते हैं। इससे बच्चे निरंतर पाठशाला जाने के आदी बन जाते हैं। परिणाम स्वरुप जीवन में रही हुई विकृति- संस्कृति में एवं वासना भावना में परिवर्तित हो जाती है। पूर्वकाल में संस्कारी एवं शिक्षित माँ ही बच्चों की पाठशाला कहलाती थी। वह अपने बच्चों को गाथा देती, धार्मिक बातें करती, महापुरुषों के चरित्र सुनाती। इस प्रकार अपने बच्चों को वह अपूर्व संस्कारित बनाती थी। लेकिन दुःख की बात है कि वर्तमान की माताओं में ही यह संस्कार व शिक्षण नहीं रहे तो वे भला अपने बच्चों को क्या संस्कार देगी? खैर, बच्चों को संस्कारित करने के लिए ही यह पाठशालाएँ शुरु हुई हैं। आज हमारा जैन समाज सभी पहलू से हर क्षेत्र में अग्रसर हो गया है किन्तु अध्ययन के क्षेत्र में वह उतना ही पीछे जा रहा है। आज मासक्षमण करने वाले तपस्वी का सोने की चैन से बहुमान किया जाता है, लेकिन कोई अतिचार याद करें तो उसे किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। छःरी पालित संघ, तीर्थयात्रा, स्वामीवात्सल्य, उपधान आदि में श्रीसंघ उन्हें अच्छी रकम देकर खूब प्रोत्साहन दे रहे हैं। श्रीसंघ को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि यदि वर्तमान में पाठशाला पर ध्यान नहीं दिया गया तो कुछ ही वर्षों बाद समाज से सुसंस्कृत युवा वर्ग ही लुप्त हो जाएंगे। इसलिए श्रीमंत वर्ग से मेरा यह निवेदन है कि दूसरे क्षेत्र की तरह पाठशाला में भी अपने रुपयों का ज्यादा दान करते रहें क्योंकि प्रभावना व इनाम के आकर्षण बिना पाठशाला नहीं चल
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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