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मने आवतो भव एवो आपजो....! शाश्वत तीर्थाधिराज सिद्धगिरिराज के पावन ___ धन्य साधु जीवन ! समग्र जीवन में प्रभु की चरणों में मेरी समाधि मृत्यु हुई है एवं महाविदेह में शरणागति, दर्शन तो प्रभु का, स्तवना तो प्रभु की, जन्म हुआ है । माता के साथ मैं भी रोज कान में श्रवण तो प्रभु का, वांचन प्रभु का, लेखन समवसरण में प्रभु की देशना सुनता हूँ | 8 वर्ष की प्रभु का, मन में स्मरण तो प्रभु का, रोम-रोम में आयु होते ही परमात्मा की क्षायिक प्रीति ऐसी स्पंदन तो प्रभु का, बस प्रत्येक कर्म प्रभु के लिए | होती है कि परमात्मा के मुख के दर्शन बिना कैसे प्रत्येक कर्म के कर्ता प्रभु, सभी प्रभु का, सभी जीया जाये ? कैसे रहा जाये ? फिर देशना पूर्ण
जगह प्रभु, सभी में प्रभु, एक क्षण भी प्रभु का होते ही परमात्मा के पास जाकर सर्व विरति देने
वियोग नहीं और सतत, सरल एवं सहज रीत से के लिए विनंती करता हूँ | इच्छकारी भगवन्
प्रभु निश्रा, प्रभु के सानिध्य का सहज योग । स्व के पसाय करी सर्व विरति दंडक उच्चरावोजी...
अस्तित्व का सर्वथा विलय और पूर्ण रुप से प्रभु ____प्रभु कहते है, "अहो ! यह कितने सुंदर छोटे की शरणागति । संसार के सर्व संबंध का पूर्ण बालक है। यह सर्व विरति के लिए प्रार्थना कर रहे
विश्राम और परमात्मा के सर्व संबंधों का है" और तब परमात्मा रजोहरण प्रदान करके शरणागति भाव से बिनशरती स्वीकार और सर्वविरति दंडक का उच्चारण करते है । करेमि परमात्मा में ही पूर्ण विश्राम । भंते... और जैसे ही रजोहरण मेरे हाथ में आया मेरे हृदय का आनंद शब्द के रुप में व्यक्त हुआ। अहो ! अहो ! प्रभु धन्य घड़ी ! धन्य दिन ! धन्य भाग्य ! महा पुण्योदय से, महा सद्भाग्य से आपने अपार करुणा करके मुझे महा कल्याणकारी मोक्ष प्राप्त करने के राजमार्ग रुप सर्वविरति धर्म प्रदान किया । प्रभु मुझ जैसे बालक पर आपकी कैसी दया ? कैसी करुणा ? आपका कितना प्रेम कि इतना सुंदर जीवन दिया । कैसी निर्दोषता कि किसी भी जीव की हिंसा नहीं । छ:काय के जीवों को अभयदान । कैसी निष्पापता के जीवन में 18 पापस्थानक का नाम ही नहीं । कैसी निष्कामता कि मोक्ष के सिवाय दूसरी कोई इच्छा ही नहीं । जगत के सर्व ऋणानुबंध का सर्वथा त्याग एवं एक मात्र प्रभु के ऋणानुबंध में रहने का अमूल्य
कोटि-कोटि नमस्कार हो साधु जीवन को...! अवसर।