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लक्ष्मणा राजकुमारी
यह प्रसंग आज से 79 चौवीसी पहले का है। उस काल में लक्ष्मणा नामक एक राजकुमारी हुई। पूर्वकृत् पाप कर्म के उदय से विवाह मंडप में ही पति की मृत्यु हो गई । जिससे वह बाल विधवा बन गई। तत्पश्चात् वैधव्य का पालन करते हुए कुछ समय बाद पूर्ण रुप से संसार से विरक्त होकर उन्होंने संयम जीवन स्वीकार किया।.
एक दिन लक्ष्मणा साध्वीजी परमात्मा की देशना श्रवण करने जा रही थी। उसी समय रास्ते में कुछ क्षण के लिए ईर्यासमिति का पालन करने में चुक गई और उनकी दृष्टि ऊपर उठी। वहाँ उन्होंने एक वृक्ष पर चकला-चकली के युगल को मैथुन क्रीडा करते हुए देखा। यह क्रिया देखते ही उनके मन में हलचल मच गई। उन्होंने सोचा कि “परमात्मा ने साधु जीवन में मैथुन सेवन की छूट क्यों नहीं दी ? अरे हाँ ! अब समझ में आया कि तीर्थंकर प्रभु छूट कैसे दे सकते हैं? स्त्री वेद, पुरुष वेद के उदय का दुःख तो उन्हें होता ही नहीं है। यदि परमात्मा ने वेदोदय के दुःख का अनुभव किया होता तो उसकी छूट अवश्य देते।” दूसरे ही क्षण उनके विचार पलट गए। इतने भयंकर कुविचार के लिए लक्ष्मणा साध्वीजी को पश्चाताप होने लगा। उन्होंने अपने पाप को धिक्कारते हुए सोचा कि, " अरे यह मैंने क्या विचार किया? भगवान तो सर्वज्ञ है, उनको तीन काल का ज्ञान है। वेदोदय की वेदना का साक्षात् अनुभव करे या न करे इसमें उनको क्या फरक पड़ता है ? बिना अनुभव के भी ज्ञान से वे सब कुछ जानते ही है। वेदोदय के दुःख के साथ-साथ उन्होंने यह भी देखा है कि वेदोदय के आधीन होने से जीव कितना दुःखी होता है ? उसे कितने भवों तक भटकना पड़ता है? इसी कारण अपार करुणा के सागर परमात्मा ने ऐसी अशुभ क्रिया की छूट नहीं दी ।"
लक्ष्मणा साध्वीजी को अब अपने किए पर बहुत पश्चाताप होने लगा। उन्होंने सोचा कि, "मैंने कितना अशुभ विचार किया है। मेरी क्या गति होगी ? आज यहाँ साक्षात् परमात्मा देशना दे रहे हैं। मैं वहाँ जाकर अपनी की हुई भूल का प्रायश्चित कर अपनी आत्मा को पुनः विशुद्ध कर लूँ।” प्रायश्चित लेने के ऐसे विचार से साध्वीजी ने जैसे ही पैर उठाया कि उनके पैर में काँटा चुभ गया। काँटा चुभना एक अपशुकन माना जाता है। इसलिए लक्ष्मणा साध्वीजी के विचार पुनः पलटने लगे। उन्होंने सोचा "मेरी छाप जगत में महासती बाल विधवा तथा उच्च शीयलवती के रुप में हैं। यदि मैं अपना यह विचार सबके सामने प्रगट कर दूँ तो लोगों में मेरी कितनी निंदा होगी। अब क्या करूँ ? प्रायश्चित तो करना ही है। परंतु मुझे स्वयं को ऐसा कुविचार आया यह बताने के बदले यदि मैं परमात्मा से एसे पूछें कि यदि किसी को ऐसा विचार आए तो क्या प्रायश्चित आता है ? तो मेरा कार्य हो जाएँगा और बाद में परमात्मा जो प्रायश्चित देंगे वह कर लूँगी। ऐसा निश्चित कर वे देशना सुनने गए। देशना के पश्चात् लक्ष्मणा
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