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साध्वीजी ने स्वयं के पाप का प्रायश्चित माया करके दूसरों के नाम से पूछा । त्रिलोकगुरु सर्वज्ञ परमात्मा तो जानते ही थे कि दूसरों के नाम से लक्ष्मणा साध्वीजी जो पूछ रही हैं वह स्वयं की ही बात है, परंतु परमात्मा मौन रहे। प्रभु ने लक्ष्मणा साध्वीजी से कुछ भी नहीं पूछा कि “इस तरह क्यों पूछ रही हो ? यह तो माया है,” क्योंकि परमात्मा जानते थे कि इस जीव की भवितव्यता ही ऐसी है। अब किसी भी उपाय द्वारा कुछ भी होना असंभव है। अतः परमात्मा ने उन्हें प्रायश्चित प्रदान किया ।
लक्ष्मणा साध्वीजी ने प्रायश्चित को तुरंत ही पूर्ण कर दिया परंतु प्रायश्चित लेते वक्त की हुई माया की आलोचना उन्होंने नहीं की। अपनी माया के पाप को धोने के लिए वह स्वयं अपने मन से ज्यादा तप करने लगी। कुल पचास वर्ष तक उन्होंने घोर तप किया। दो उपवास के पारणे तीन उपवास, तीन उपवास के पारणे चार उपवास, चार उपवास के पारणे पाँच उपवास इस प्रकार का उग्र तप कुल 10 वर्ष तक किया। फिर एक उपवास के पारणे दो उपवास का तप दो वर्ष तक किया। पारणे में भी लुखी नीवि की। उसके बाद मात्र सेके हुए अनाज़ खाकर दो वर्ष तक तप किया। तत्पश्चात् मासक्षमण के पारणे मासक्षमण लगातार 16 वर्ष तक किए और उसके बाद सतत आयंबिल का तप 20 वर्ष तक किया। ऐसे कुल 50 वर्ष तक घोरतप करने के बावजूद भी माया की आलोचना नहीं लेने के कारण पाप का प्रायश्चित नहीं हुआ।
आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त कर वेश्या के घर अति रुपवती दासी के रुप में उत्पन्न हुइ । देश्या के घर से भागकर छः महिनें तक श्रेष्ठी के घर पर रही। सेठानी ने ईर्ष्या के कारण उसे मारकर उसके टुकड़े-टुकड़े करके गीद्ध आदि पक्षिओं को खिला दिए ।
इसके बाद बहुत भव भ्रमण करते हुए नरदेव चक्रवर्ती का स्त्री रत्न बनी। वहाँ से, मरकर छट्ठी नरक में गई। वहाँ से कुत्ते की योनि में उत्पन्न हुई। अनेक बार जन्म-मरण को प्राप्त करके निर्धन ब्राह्मण बनी। अनुक्रम से व्यंतर, फिर वहाँ से 7 भव तक पाड़ा बनी। वहाँ से नरक गमन, मनुष्य-मछली अनार्य देश में स्त्री रुप में उत्पन्न हुई। वहाँ से मरकर छट्ठी नरक में, वहाँ से कोढ़ रोग वाली मनुष्य बनी। बाद में पशु-स् - सर्प आदि योनि में उत्पन्न हुई। मरकर पाँचवी नरक में गई। इस प्रकार चार गति में परिभ्रमण करके लक्ष्मणा का जीव आने वाली चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर श्री पद्मनाभ स्वामी के काल में किसी गाँव में कुबड़ी स्त्री होगी। वहाँ कुछ पुण्योदय के कारण श्री पद्मनाभ प्रभु के दर्शन प्राप्त होंगे। कर्म के विपाक को जानकर शुद्ध आलोचना कर सिद्ध पद को प्राप्त करेगी।
इस चरित्र से यह समझने जैसा है कि लक्ष्मणा साध्वीजी ने आलोचना ली तथा प्रायश्चित पूर्ण भी किया। परंतु आलोचना करते वक्त की हुई माया की उन्होंने पुनः आलोचना नहीं ली। परिणाम स्वरुप उन्हें 80 चौबीसी तक इस संसार में भ्रमण करते हुए कई दुःखों को सहन करना पड़ा।
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