SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप जैसे चाहो वैसे मेरी इस काया को उलट-पलट कर अपना कार्य पूर्ण कर सकते हो। अंत में मैं राजा सहित आप सभी को भी खूब-खूब धन्यवाद देता हूँ जो आप लोग मेरे कर्मों को क्षय करने में मेरी इतनी मदद कर रहे हो।” उन्होंने चारों शरण स्वीकार किए। जगत के सर्व जीवों से क्षमायाचना कर अपनी काया को वोसिरा कर खंधक ऋषि काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर खड़े हो गए। अनिच्छा से राजसेवकों ने अपना कार्य शुरु किया। चमड़ी उतारने की असह्य पीड़ा को एक तरफ रखकर खंधक ऋषि शुभ ध्यान में मग्न हो गए। क्षपकश्रेणी पर आरुढ़ होकर अपने घाति कर्मों का क्षय किया। उसी क्षण आयुष्य कर्म पूरा हो जाने के कारण शेष अघाति कर्मों का भी नाश कर खंधक ऋषि अंतकृत् केवली बनकर अनंत आनंद वेदन के स्थान रुप सिद्धगति को प्राप्त हुए। उसी वक्त खून से लथपथ उनकी मुँहपत्ति को माँस का पिंड समझकर एक पक्षी उसे लेकर उड़ रहा था। अचानक रानी जहाँ महल में खड़ी थी वही उसकी चोंच में से मुँहपत्ति गिर गई। रानी ने उस मुँहपत्ति को पहचान लिया तथा तुरंत राजसेवकों को बुलाकर सारी बात पूछी। राजसेवकों ने राजाज्ञा के बारे में बताया। अपने भाई मुनि की इतनी निर्दयी मौत सुनकर रानी बेहोश हो गई। होश में आते ही वह ज़ोर-ज़ोर से रुदन करने लगी। जब राजा को सच्चाई ज्ञात हुई तब उनके भी पश्चाताप का पार नहीं रहा। राजा मुनि के देह के पास जाकर सोचने लगे कि - "धिक्कार है मेरे जीवन को, धिक्कार है मेरी आत्मा को, महासमतावान् ऐसे मुनि को निष्कारण ही इतनी निर्दयता पूर्वक मारने का आदेश दिया। हे प्रभु ! मेरी क्या गति होगी? मुझे कहाँ स्थान मिलेगा? इस प्रकार पश्चाताप की धारा बहने लगी तथा संसार के स्वरुप को समझकर राजा-रानी दोनों ने संयम अंगीकार किया। अपने किए हुए पापों की आलोचना कर वह राजा भी अपने कर्मों का क्षय कर केवली बनकर मोक्ष में गए। धन्य है खंधक ऋषि को, जिन्होंने इतना दुष्कर परिषह समता भाव से सहन कर सिद्ध पद को प्राप्त किया। धन्य है उस राजा को ! जिन्होंने ऋषि हत्या के प्रायश्चित में राजवैभव छोड़कर संयम जीवन अंगीकार किया तथा केवली बनकर कई जीवों का कल्याण किया। जहाँ परमात्मा ने एकेन्द्रियादि जीवों की हत्या में भी महापाप बताया है। वहाँ मात्र पंचेन्द्रिय ही नहीं, अपितु एक पंचमहाव्रतधारी मुनि की हत्या करने के बावजूद भी राजा ने शुद्ध भावों से आलोचना कर सिद्धगति प्राप्त कर ली। इससे यह सिद्ध होता है कि बड़े पाप की भी शुद्ध आलोचना करने पर सारे पाप धूल जाते हैं। परन्तु इसके विपरीत छोटे से पाप को भी यदि छुपाए तो वह अति भयंकर परिणाम देनेवाला होता है। आईए यह देखते है लक्ष्मणासाध्वीजी के जीवन चरित्र के माध्यम. से।
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy