SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीक्षा के पश्चात् पारणे के दिन जब अर्जुनमाली मुनि गोचरी वहोरने जाने लगे तब लोग कहने लगे कि “यह हत्यारा है। इसने मेरे पिता को मारा।” इसी प्रकार कोई माँ, भाई, बहन, पुत्र, पति आदि का घातक बताकर उन्हें अपमान भरे शब्दों से धिक्कारने लगे। परंतु अर्जुनमाली मुनि - “यह सब मेरे ही कर्मों का फल है" ऐसा सोचकर सब कुछ समतापूर्वक सहन करने लगे। इस प्रकार प्रचंड समता भाव से सारे उपसर्गों को सहन करते-करते उन्होंने अंत में अनशन कर सर्व घाति कर्मों को क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया। छः महिने तक नित्य सात-सात जीवों की हत्या करने से छः महिनों के 180 दिनों में कुल 1260 जीवों का घात किया। जिसके प्रायश्चित के रुप में छ: महिने तक उत्कृष्ट तप करके अंत में केवली बनकर मोक्ष में गए। अतः घोर से घोर पापी भी उसी भव में प्रायश्चित कर लेने से मोक्ष में जा सकता है। इसलिए किये हुए पापों की इसी भव में शुद्ध आलोचना कर लेनी चाहिए। 8 खंधक ऋषि जितशत्रु राजा तथा धारिणी रानी को खंधक नामक पुत्र था। एक दिन धर्मघोष मुनि की देशना सुनकर उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। माता-पिता की आज्ञा लेकर उन्होंने संयम जीवन अंगीकार किया। इस संसार सागर को अस्थिर जानकर खंधक ऋषि छट्ठ-अट्ठमादि उग्र तप के साथ समिति-गुप्ति का पालन करते हुए विचर रहे थे। एक दिन वे अपनी सांसारिक बहन का ससुराल जिस नगरी में था, उस नगरी में पधारें। वे राज महल के नीचे से गुज़र रहे थे। तब राजमहल के झरोखे में बैठी उनकी बहन की नज़र मुनिवर पर पड़ी। उन्हें देखते ही उसने अपने भाई मुनि को पहचान लिया। भाई मुनि की ऐसी कृश-काया देखकर रानी को बहुत दुःख लगा। उसने सोचा “ओह ! मैं इतने राजभोग में मस्त हूँ और मेरे भाई की यह स्थिति है।" ऐसा सोचते ही रानी की आँखों में आँसू आ गए। राजा ने यह सारा दृश्य देख लिया तथा उन्होंने अनुमान लगाया कि “जरुर यह मेरी रानी का कोई पुराना प्रेमी होगा।” इससे राजा को बहुत क्रोध आया। उन्होंने तुरंत अपने सैनिकों को बुलाकर कहा “जाओ, उस मुनि की खाल (चमड़ी) उतारकर मेरे समक्ष उपस्थित करो।" राजसेवक आज्ञा का पालन करने हेतु मुनि के पास गए तथा उन्हें सारी बात बताई। यह सुन क्षमा के भंडार मुनि आनंद विभोर हो गए। अपने कर्मों को तोड़ने के लिए सामने से आए निमित्त को वे इतनी सहजता से जाने नहीं देना चाहते थे। उन्होंने राजसेवकों से कहा कि “भाई, आप सुखपूर्वक अपने राजा की आज्ञा का पालन करें। बहुत वर्षों तक त्याग-तप करने से यह काया कृश बन गई है। अतः चमड़ी उतार ने में आपको थोड़ी तकलीफ तो होगी। परंतु फिर भी मैं अपनी काया को वोसिरा देता हूँ। तत्पश्चात्
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy