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________________ - चत कर भव रुक्मिराजा क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा की रुक्मिणी नामक पुत्री थी। यौवनवय में एक सुंदर राजकुमार के साथ उसका विवाह करवा दिया गया। विवाह सानंद संपन्न हुआ। परंतु कर्मवशात् विवाह के दिन ही रुक्मिणी के पति की मृत्यु हो जाने से दुर्भाग्य वश उसकी सारी खुशियाँ गम में पलट गई। अत्यंत शोकाकुल बनी रुक्मिणी ने अपने पति के साथ चिता में प्रवेश करने का निर्णय किया। उसने यह निर्णय अपने पिताजी को बताया। उसके पिताजी ने उसे समझाते हुए कहा - “पुत्री ! इस जगत में हर व्यक्ति दुःखी ही है। परंतु महान तो वही बनता है, जो दुःखों का सामना करता है। मैं तुम्हारे दुःख को समझ सकता हूँ, परंतु मृत्यु की शरण लेना यह दुःख मुक्ति का सच्चा उपाय नहीं है।” रुक्मिणी ने दुःखित स्वर में कहा। "पिताजी ! मैं दुःखों से डरकर मरना नहीं चाहती, परंतु मुझे डर है कि भर युवानी के कारण इस विधवा के वेश में कहीं आपके कुल को कलंकित न कर दूँ।” रुक्मिणी के विचार सुनकर राजा का हृदय गद् गद् हो गया, उनकी आँखों में हर्ष के आँसू आ गए। उन्होंने कहा,“रुक्मिणी । शील संबंधी तुम्हारी सावधानी सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई। परंतु पुत्री ऐसी कल्पना से अपने मानव जीवन को खत्म करना यह उचित नहीं है। यह अमूल्य मानव भव तो सुकृतों से भरने के लिए हैं।” तब रुक्मिणी ने कहा - "पिताजी इतना कहने मात्र से मेरी समस्या का समाधान नहीं हो जाता, मेरे शील की रक्षा का क्या ?" तब राजा ने कहा - “रुक्मिणी ! मैं तुम्हारे लिए एक अलग महल की व्यवस्था कर दूंगा। तुम वहाँ रहकर उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करना। साध्वीजी भगवंतों की शुभ निश्रा में रहकर धर्माराधना करना।” रुक्मिणी को पिताजी की यह बात जंच गई। तत्पश्चात् वह एकांत में प्रसन्नतापूर्वक निर्मल ब्रह्मचर्य का पालन करने लगी। कुछ समय बाद पिताजी की मृत्यु हो गई। राजपुत्र नहीं होने के कारण सब ने मिलकर सर्वानुमति से उत्कृष्ट ब्रह्मचारिणी रुक्मिणी का राज्याभिषेक कर दिया। उस समय से वह 'रुक्मिराजा' के नाम से जानी जाने लगी। राजा बनने के पश्चात् निर्मल-ब्रह्मचर्य के कारण उसकी कीर्ति दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई। उसके ब्रह्मचर्य के प्रभाव से राज्य व्यवस्थित रुप से चलने लगा। एक दिन रुक्मिणी के ब्रह्मचर्य की ख्याति सुनकर ‘शीलसन्नाह' नामक एक ब्रह्मचर्य प्रेमी राजकुमार रुक्मि राजा के दर्शन करने के लिए पधारें, तथा राजसभा में परदेशियों के विभाग में उचित स्थान पर बैठे।
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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