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________________ सांतनु अपनी पत्नी से विचार विमर्श कर रहे थे, कि “अब क्या करें? कुछ समझ में नहीं आ रहा?" तब पत्नी ने सलाह दी कि “एक काम करो आप चोरी करो।” जिनदास ने कहा “क्या?" “हाँ ! मैं सही कह रही हूँ। जिनदास सेठ प्रतिक्रमण में अपना मूल्यवान हार उतारकर रखते हैं। उसे आप चुरा लो।" यह सुनकर एक बार तो सांतनु को एक झटका लगा परंतु सांतनु को अपनी पत्नी पर पूरी श्रद्धा थी। क्योंकि कुंजीदेवी स्वयं श्राविका थी। उसके पास वीतराग का धर्म था। उसने कुछ सोच-विचार कर ही ऐसी सलाह दी होगी। ऐसा सोचकर दूसरे दिन सांतनु वह हार चुरा कर घर पहुंचा। इधर जब जिनदास सेठ ने हार नहीं देखा तो विचार किया कि “आज मेरे पास सांतनु के सिवाय अन्य कोई व्यक्ति नहीं था। हो न हो हार जरुर सांतनु ने ही लिया है।” पर उस समय जिनदास बिना कुछ बोले ही घर आ गए। उसी रात्रि में सांतनु को विचार आया कि मैंने कभी जीवन में अनीति-अन्याय का कार्य नहीं किया। यदि मैं पकड़ा गया तो ? मेरे पूर्वजों के मेहनत से कमाई हुई ख्याति पर कलंक लग जाएँगा। उन्होंने अपने विचार अपनी पत्नी को बताएँ। तब कुंजीदेवी ने धीरता पूर्वक कहा “आप किसी प्रकार की चिंता न करें। अब यह हार आप जिनदासजी की दुकान में ही गिरवी रख कर आइए।" सांतनु दूसरे दिन डरते हृदय से जिनदास की दुकान पर गये तथा वह हार गिरवी रखने को कहा। जिनदास सेठ सांतनु की परिस्थिति से परिचित थे। अतः उन्होंने अनजान बनकर 5 हज़ार रुपये देकर हार गिरवी पर ले लिया। सांतनु दुःखी मन से घर पहुंचा। पत्नी ने समझाया कि “दुःखी होने की जरुरत नहीं है। अब इस नीति के धन से व्यापार करो। देखना यह नीति का धन क्या रंग लाता है।" सांतनु ने धंधा शुरु किया। कुछ ही समय में पूर्ववत् धन कमाया। परन्तु फिर भी मन में चोरी करने का पश्चाताप था। एक दिन अपने पाप का इकरार करने की भावना से ब्याज सहित रुपये लेकर सांतनु जिनदास सेठ के पास गया और कहा-“सेठजी ! यह आपकी रकम” सेठ ने कहा- “हाँ ! भाई दे दीजिए तथा अपना हार वापिस ले जाइए।" उस समय सांतनु रो पड़ा और सेठ से कहा “सेठजी अनजान क्यों बन रहे हो किसका हार वापिस दे रहे हो?” उस समय जिनदास सेठ की आँखों में भी आँसू आ गए और वे बोले - सांतनु गलती मेरी ही है। हम दोनों एक ही गद्दी पर बैठने वाले, टीप आदि में भी एक समान पैसे देने वाले। फिर भी तुम्हारी परिस्थिति बिगड़ी तो मैंने ध्यान ही नहीं दिया। गुन्हेगार तुम नहीं मैं हूँ। इतना कहकर दोनों गले लग गए यह है परमात्मा का शासन। ऐसी होती है, साधर्मिक भक्ति।
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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