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राजसभा में चारों तरफ नज़र डालते हुए रुक्मि राजा की दृष्टि एवं शीलसन्नाह की दृष्टि परस्पर मिली। शीलसन्नाह का रुप एवं यौवन देखकर रुक्मि राजा की दृष्टि में विकार उत्पन्न हो गया। "अहो ! क्या अद्भूत रुप है।” रुक्मि राजा की आँखों में उत्पन्न हुआ विकार राजकुमार की नज़र से बच नहीं पाया। वह तुरंत राजसभा से निकल गया। राजकुमार अत्यंत खेद करने लगा एवं स्वयं के रुप को धिक्कारते हुए सोचने लगा कि, “धिक्कार है मेरे इस रुप को जिसने सर्वत्र प्रख्यात बनी हुई ब्रह्मचारिणी को भी लुभा दिया। अहो ! कैसी भयंकर है यह कामवासना। इतने वर्षों तक की हुई उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य की साधना मात्र दृष्टि में निष्फल हो गई।” वैराग्य उत्पन्न होने से राजकुमार ने संसार का त्याग कर संयम ग्रहण किया। क्रमशः गीतार्थ आचार्य बने। एक दिन विचरते-विचरते क्षितिप्रतिष्ठित नगर में आचार्य भगवंत का पदार्पण हुआ। आचार्य भगवंत के वैराग्यवर्धक उपदेश को सुनकरं रुक्मिराजा का अंतःकरण भी वैराग्य वासित हो गया।
उन्होंने आचार्य भगवंत को हाथ जोड़कर निवेदन किया कि गुरुदेव ! भवजलधि से पार उतारने. में जहाज समान चारित्र जीवन मुझे प्रदान करने की कृपा करें। इस भवंसमुद्र से मेरा उद्धार कीजिए। विशाल राजपाट का त्याग करके साध्वी बनने का उत्कृष्ट वैराग्य देखकर आचार्य भगवंत ने भी अनुमति दे दी। परन्तु आचार्यश्री ने उन्हें चारित्र जीवन स्वीकार ने से पूर्व अति महत्त्वपूर्ण भव-आलोचना करने की प्रेरणा दी। गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त कर रुक्मि राजा ने अपने जीवन की किताब खोलनी शुरु की। बचपन से लेकर आज दिन तक की जीवन रुपी किताब के पन्ने खुलते गए। परंतु जैसे ही जीवन का वह पन्ना आया जब किसी राजकुमार को देखकर उनका मन विकृत हो गया था तब अहंकार ने उनके मन पर कब्जा जमा दिया। उन्होंने सोचा यदि मैंने यह बात बता दी तो मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? मेरी ब्रह्मचारिणी की पदवी का क्या होगा? अतः उन्होंने उस पन्ने को अनदेखा कर बाकि सारी आलोचना ले ली।
_आचार्य भगवंत को तो सारी बात मालूम ही थी। अतः उन्होंने कहा- “रुक्मि याद करो और कुछ बाकि तो नहीं रह गया?” रुक्मि राजा ने कहा - “नहीं गुरुदेव सब कुछ कह दिया है।” तब आचार्य श्री ने सोचा “अभी भले ही ये आलोचना नहीं कर रहे हैं, परंतु दीक्षा लेने के पश्चात् सूत्रों का अध्ययन करने से इनका वैराग्य प्रबल बनेगा। तब दोष छिपाने से होने वाले परिणामों को समझकर अपने आप प्रायश्चित कर लेंगे।" ऐसा सोचकर आचार्यश्री ने उन्हें दीक्षा प्रदान कर दी। दीक्षा के पश्चात् रुक्मि साध्वीजी ज्ञान, ध्यान, तप, साधना द्वारा अपना जीवन व्यतीत करने लगी। कुछ वर्षों के बाद आचार्यश्री ने जीवन का संध्याकाल नज़दीक जानकर जिनाज्ञानुसार अनशन करने का निर्णय किया तथा अनशन