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है एवं शरीर के 23 भाग में आत्म प्रदेश समा जाते है। अर्थात् 500 धनुषवाले की आत्मा 333 % धनुष जितनी बनती है। यह अनिश्चित आकार है।
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IIIIIIII
IIIIIIHI.
A-B= 45 लाख योजन
E-F= एक राजलोक .
A-C= 333 75 धनुष G-H= 45 लाखथ योजन
I-J= 8 योजन
C-G= 3 गाउ. 1667 - धनुष A-G= 1 योजन K-L= 45 लाख योजन मनुष्य लोक .
आत्माओं के ऊर्ध्वगमन के हेतु एवं उपमा (1) पूर्व प्रयोग : हाथ से फेंकी हुई गेंद के समान कर्म मुक्त आत्मा ऊँची जाती है। (2) बंधच्छेद : बंधन मुक्त बने कपास के समान कर्म बंधन से मुक्त आत्मा ऊँची जाती है। (3) असंग : मिट्टी के लेप से मुक्त तुंबडे के समान कर्म मुक्त आत्मा ऊँची जाती है। (4) तथागति परिणाम : आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन होने से आत्मा ऊँची जाती है।
इन चार कारणों से आत्मा ऊर्ध्वगमन करती है। एक समय में 7 राज का अंतर काट कर लोकाग्र भाग तक अस्पृशद् गति से पहुंचती है। आगे धर्मास्तिकाय नहीं होने के कारण लोकाग्र भाग में स्थिर बनती है। जैसे ज्योत से ज्योत मिलती है। वैसे एक ही स्थान में अनंत आत्माएँ रहती है। ये मुक्त आत्मा लोकाग्र में अधर लटकी हुई हैं। क्योंकि सिद्धशीला तो लोकाग्र से 1 योजन = 8000 धनुष दूर है। उसमें ऊपर के 333 5 धनुष भाग में आत्मा रहती है। अर्थात् सिद्ध के जीव सिद्धशीला से 3 गाउ 1667 धनुष की दूरी पर है।