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________________ ज्ञान यानि क्या? ज्ञान यह आत्मा का विशेष गुण है। किसी भी पदार्थ की जानकारी प्राप्त होना, उसे ज्ञान कहते है। ज्ञान के कितने प्रकार है? ज्ञान के दो प्रकार है। (1) सम्यग ज्ञान - विवेक सहित यथार्थ वस्तु को जानना। (2) मिथ्या ज्ञान - मोह, राग, द्वेष, अविवेक द्वारा वस्तु की जानकारी। ज्ञान के कितने भेद है? ज्ञान के पाँच भेद हैं। (1) मतिज्ञान - मन एवं इन्द्रियों की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान। (2) श्रुतज्ञान - जो सुनने से होता है, अर्थात् शास्त्र वचन से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान। (3) अवधिज्ञान - इन्द्रियों की सहायता के बिना मर्यादित द्रव्यादि को जिससे जाना जाता है। वह अवधिज्ञान है। यह ज्ञान देव-नारकी को जन्म से होता है एवं मनुष्य, तिर्यंच को लब्धि हो तो ही होता है। यहाँ तक के तीन ज्ञान सम्यक्त्वी को ज्ञान रुप में और मिथ्यात्वी को अज्ञान रुप में परिणमन होते हैं। (4) मनः पर्यवज्ञान - जिस ज्ञान से अढ़ी द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन के भावों को जान सकते हैं। (5) केवल ज्ञान -जिस ज्ञान से तीनों काल के सर्व जीवों के सर्व पर्यायों को एक साथ हाथ में रहे हुए आँवले की तरह एक ही समय में जान सकते हैं यानि कि जिसमें जगत की एक भी वस्तु अज्ञात नहीं रहती है, वह केवलज्ञान है। ज्ञानप्राप्ति का क्रम : 1. वाचना : निर्जरा के लिए यथोचित सूत्र को देना अथवा ग्रहण करना। इससे ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा होती है। 2. पृच्छना - गुरु के पास सीखे गये विषय का चिंतन करना एवं उसमें उत्पन्न हुई शंकाओं को जिज्ञासा पूर्वक पूछना। इससे आकांक्षा मोहनीय कर्म का क्षय होता है। 3. परावर्तना - गुरु से प्राप्त समाधान से जो विषय शुद्ध बना है, उसे याद करना व उसका बार-बार स्वाध्याय करना। इससे व्यंजन (अक्षर) की लब्धि प्राप्त होती है।
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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