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दोनों ही स्थिति में मज़ा ही मज़ा
विशाल वनराजी से घीरी हुई टेकरी पर एक बाबाजी रहते थे। सात आठ विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। विद्यार्थी ही जंगल में से सुके लकड़े लाकर रसोई कर सबको खाना खिलाते थे। एक दिन पढ़ते हुए लड़कों ने आकर समाचार दिए कि, “गुरुजी, गुरुजी ! सात-आठ गाय कहीं से आ गई है।"
गुरुजी ने कहा, “भले ! वहाँ कुछ बांध कर छांव कर दो, माताजी वहाँ सुख से रह सके।” उस तरीके से छांव की गई। गाय आराम से रहने लगी, दूध मिलने लगा, दही-घी होने लगा। पूरा परिवार मौज में आ गया। दिन सुख में बीतते थे। एक दिन वही लड़कें इकट्ठे होकर गुरुजी से कहने आए - “गुरुजी, गुरुजी ! वे सब गाय कहीं चली गई है।” गुरुजीने कहा - "चलो अच्छा हुआ। गोबर साफ करना मिटा।” सभी विद्यार्थियों ने कहा- “जब गाय आई तब आपने कहा कि गौरस मिलेगा और अब उसका मालिक आकर सब गायों को लेकर चला गया तो आप कहते हो कि गोबर साफ करना मिटा, आपको तो दोनों ही स्थिति में अच्छा ही दिखता है?”
गुरुजी ने कहा “हाँ, पढ़ाई का यही सार है। दृष्टि एसी बन जाय कि जो अच्छा हो वही नज़र आये, और जो देखे उसमें से भी अच्छा ही ढूंढे।” हमें अच्छा देखने के लिए ही आँखे मिली है, इससे सार्थकता उसी में है कि जो देखों वह अच्छा ही देखों।