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________________ * सामनेवाला व्यक्ति गुणवान समझकर हमारी भक्ति कर रहा है, तो हम भी गुणानुरागी बनने का तथा गुणों को आत्मसात् करने का प्रयास करें। * विशेष में स्वामीवात्सल्य में भोजन करने का अधिकार मात्र साधर्मिक (श्रावक-श्राविकाओं) को ही है। इसलिए जो भी जैन हो वे भोजन का एक दाना भी नीचे गिराएँ बिना थाली धोकर पीयें। वर्ना 48 मिनिट के पश्चात् असंख्य समूर्च्छिम पंचेन्द्रिय जीवों की घोर हिंसा का पाप लगता है। साधर्मिक भक्ति में विवेक स्वामीवात्सल्य के नाम पर आजकल होड़, दिखावा ज्यादा होने लगा है। ऐसे साधर्मिक भक्ति में प्रायः परमात्मा की आज्ञा गौण हो जाती है तथा लोक-संज्ञा की प्रधानता होती है अर्थात् लोगों को खुश करने तथा अपना नाम करने के भाव ज्यादा होते हैं। हम जिस उद्देश्य से स्वामीवात्सल्य करवाते हैं वस्तुतः हमारे भावों के परमाणु भोजन के माध्यम से सामनेवाले तक पहुँचते हैं। जिससे सामने वाले व्यक्ति को भी उसी के अनुसार भाव आते हैं। यदि हम परमात्मा की आज्ञा को नज़र के सामने रखकर जयणापूर्वक गुणवान श्रावकों की भक्ति के उद्देश्य से साधर्मिक वात्सल्य करवाते हैं तो सामने वालों को भी परमात्मा के शासन के प्रति अहोभाव प्रगट होते हैं। तथा यदि हम स्वयं की कीर्ति, प्रशंसा या नाम के लिए प्रभु आज्ञा से निरपेक्ष बनकर मात्र स्वाद की प्रधानता रखते है तो लोग भी उसी के अनुरुप अपनी स्वाद वृत्ति का पोषण कर प्रशंसा करते है। जिससे स्वामीवात्सल्य करवाने वाले के अहं का पोषण होता है, तथा खाने वाले की स्वाद वृत्ति सें आहार संज्ञा का पोषण होता है यानि कि दोनों को ही नुकसान होता है। यह तो हमारे जिनशासन की बलिहारी है कि शासन में की जानेवाली छोटी से छोटी क्रिया स्वयं के लिए ही नहीं अपितु दूसरों के पुण्योपार्जन में भी निमित्त बनती है। ऐसे में आजकल साधर्मिक भक्ति जैसे बड़े अनुष्ठान में पुण्य के बदले पाप कर्म का बंध होने की संभावना ज्यादा हो गई है। आजकल स्वामीवात्सल्य में बफे - सिस्टम आदि के रुप में यह अजयणा धीरे-धीरे आने लगी है। ऐसे सिस्टम लोगों को झूठा छोड़ने, खाते-खाते बोलने के लिए प्रेरित करते हैं। शादी के समारोह में जिस प्रकार रात्रिभोजन, कंदमूल, अभक्ष्य, अजयणा ने घर कर लिया है। उसी प्रकार हमारी बेदरकारी के कारण वैसी ही हालत स्वामीवात्सल्य की हो गई है। यानि कि मोक्ष में ले जाने वाली क्रिया ही दुर्गति के राह पर ले जानेवाली बन गई है। इसके बदले यदि श्रीसंघ में 20
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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