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ऐसी व्यवस्था हो कि बैठाकर, काँसी की थाली में आदर-बहुमान भाव पूर्वक साधर्मिक भक्ति करवाएँ तो सामनेवाले का शासन के प्रति अहोभाव तो बढ़ेगा ही, साथ ही वह व्यक्ति थाली धोकर पीने, झूठा नहीं छोड़ने तथा बातें नहीं करने के लिए सहजता से प्रेरित हो जाएँगा। अन्यथा पैसा खर्च ज्यादा और लाभ कम जैसी बात हो जाएँगी। यदि हम विवेकपूर्वक, जयणा पूर्वक कम पैसों में सादगी से कोई भी महोत्सव करवाएँ तो पैसों की बहुत ज्यादा बचत होगी। साथ ही बची हुई राशि को यथायोग्य सातों क्षेत्र में खर्च करने से दुगुना फायदा होगा, अन्यथा हम मूल फायदे से भी वंचित रह जायेंगे। आजकल श्रीसंघ के पास पैसों की कमी नहीं है परंतु उसके सदुपयोग के लिए विवेक की कमी है। जरुरत है उस विवेक को जागृत करने की, जिससे हम सही लाभ को प्राप्त कर शीघ्र ही मोक्ष मार्ग को प्राप्त कर पायेंगे।
जरा सोचिए आपके पास जितने रुपये हे या तो उतने नवकार गिन लीजिए। यदि उसके लिए आप तैयार न हो तो आपने जितने
नवकार गिने हो उतने रुपये रखकर बाकि के रुपयों को सन्मार्ग पर सद्व्यय कर दीजिए। दोनों में से एक भी विकल्प
स्वीकारने की आपकी तैयारी है?