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________________ प्रथम 249 अभिषेक हो जाने के बाद इशानेन्द्र सौधर्मेन्द्र से कहते है कि “प्रभुजी को क्षण भर के लिए मुझे दीजिए।" उस समय इशानेन्द्र की गोद में प्रभु को बिठाकर सौधर्मेन्द्र भक्ति से वृषभ (बैल) का रुप धारण कर सींग में कलशों के पानी को भरकर 250 वां अभिषेक करते हैं। इन्द्र प्रभु के सामने वृषभ रुप धारण कर प्रभु के आगे स्वयं को पशु तुल्य बताते हैं। प्रभु के कल्याणक के समय में विशिष्ट प्रकार का विश्वमंगल होता है। फिर पुष्पादि से प्रभु को पूजकर केसर के छांटने करते हैं। आरती एवं मंगल दीपक कर पुनः प्रभु का जय-जयकार एवं भेरी-भुंगल एवं तालियाँ बजाते-बजाते प्रभु को हाथ में लेकर प्रभु के घर आकर माता को पुत्र अर्पण करते हैं। फिर माता से कहते हैं - "हे माता ! ये प्रभु आपके पुत्र हैं एवं हमारे जैसे सेवक के स्वामी है।" तब सौधर्मेन्द्र रम्भा आदि पाँच इन्द्राणियों को प्रभु के लालन-पालन आदि के लिए धाव-माता के रुप में स्थापित करते हैं। वहाँ बत्रीश क्रोड़ सोना, मणिमाणेक रत्न आदि की वृष्टि करते हैं एवं हर्ष के अतिरेक में नंदीश्वर द्वीप में अट्ठाई महोत्सव कर अपने निवास स्थान पर चले जाते हैं। वहाँ पर भगवान कब दीक्षा लेंगे एवं केवलज्ञान प्राप्त करेंगे, उसकी प्रतिक्षा करते हुए हमेशा प्रभु के गुणगान करते रहते हैं। तपागच्छ के नायक सिंहसूरीश्वरजी के बड़े शिष्य पन्यास सत्यविजयजी हुए। उनके शिष्य कपूरविजयजी, उनके शिष्य क्षमाविजयजी, उनके शिष्य यशोविजयजी, उनके शिष्य शुभविजयजी एवं उनके शिष्य पं. वीरविजयजी ने यह जिन-जन्म महोत्सव गाया है। उत्कृष्ट से 170 भगवान विचरण करते हुए मिलते हैं एवं वर्तमान में बीस विहरमान है। भूतकाल एवं भविष्य में अनंत तीर्थंकर हुए है एवं होंगे। उन सभी तीर्थंकर परमात्मा का जन्म कल्याणक जो गाते हैं, वे तथा कर्ता श्री वीरविजयजी महाराज आनंद मंगल युक्त अति सुख को पाते हैं एवं प्रत्येक घर में हर्ष की बधाई होती है। चुने हुए मोती 'देना' उसका नाम दान नहीं, छोडना' उसका नाम दान है। धन के ममत्व के साथ नाम का भी ममत्व छोड़ना वही सच्चा दान है। धन छोड़ देते है, परंतु मैंने छोडा है यह न छूटे तो? नाम के लिए दान देना वह दान का अजीर्ण है। दान करने से धर्म नहीं होता, दान पचे तो धर्म होता है। 122
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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