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________________ "आवस्सएण एएण, 'यद्यपि 'श्रावक 'अनेक आरंभ, समारंभ और अपरिग्रह आश्रव सावओ 'जइ वि 'बहुरओ होइ; वाला होता है तथापि इस आवश्यक (प्रतिक्रमण) क्रिया द्वारा 'दुक्खाण मंतकिरिअं वह 'दुःखों का अन्त (नाश) "काही अचिरेण "कालेण।।41।। 'स्वल्प "काल में ही "कर लेता है।।41 ।। 'आलोयणा बहुविहा, 'पाँच अणुव्रत रुप मूलगुण और सात व्रत रुप उत्तरगुण के विषय में न य 'संभरिआ पडिक्कमण काले; आलोचना 'बहुत प्रकार की होती है, वह सारी 'मूलगुण 'उत्तरगुणे, यदि प्रतिक्रमण के समय 'याद नहीं आयी हो, 'तं "निंदे तं च "गरिहामि।।42।। तो उन सब की मैं निंदा और "गर्दा करता हूँ।।42।। 'तस्स ‘धम्मस्स 'केवलि पन्नत्तस्स 'केवली भगवंत के कहे हुए 'उस 'श्रावकधर्म की अब्भुट्टिओ मि आराहणाए आराधना करने के लिए मैं सावधान (उद्यत) हुआ हूँ और 'विरओमि 'विराहणाए 'श्रावकधर्म की विराधना से निवृत्त (अलग) हुआ हूँ। 'तिविहेण "पडिक्कतो, 'त्रिविधयोगपूर्वक "अतिचारों (दोषों) से निवृत्त होकर "वंदामि "जिणे "चउव्वीसं।।4311 "ऋषभदेवादि चौबीस "जिनेश्वरों को भाव से "वंदन करता हूँ।।43।। 'जावंति 'चेइआई, 'जितने 'चैत्य (मंदिर) और बिंब 'उढे अ अहे अतिरिअलोए अ; ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, 'ति लोक में है, सव्वाइं ताई "वंदे, वहाँ रहे हुए उन सब जिनबिंबों को "इह "संतो तत्थ 'संताई।।44|| मैं "यहाँ "रहा हुआ "वंदन करता हूँ।।44।। 'जावंत के वि 'साह, जितने भी साधु 'भरहेरवय-महाविदेहे अ, भरत, ऐरावत और महाविदेह रुप पंद्रह कर्मभूमि में विद्यमान हैं।। सव्वेसिं 'तेसिं "पणओ 'तिविहेण, जो तीन दंडों से रहित है, 'तिदंड विरयाणं ।।45।। 'उन सबको 'त्रिविध योग से "वंदन करता हूँ।।45।।
SR No.002439
Book TitleJainism Course Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManiprabhashreeji
PublisherAdinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi
Publication Year2012
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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