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अपने माता-पिता तथा परिवार जनों के प्रेम में पली बड़ी लड़की, अपने पूरे परिवार को छोड़कर पराये घर आती है। माता-पिता के घर को छोड़कर अनजाने घर में रहना कितना कठिन है। फिर भी लड़की इतना बड़ा त्याग कर अपने ससुराल आती है। तब तो उसे संतान से भी अधिक प्रेम देना चाहिए। क्योंकि ससुराल में जाना तो उसके लिए नया जन्म लेने जैसा है। शुरुआत में तो वात्सल्य निधि बनकर वात्सल्य से पुत्रवधू का निर्माण करना चाहिए। बहू के पियर में रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन सब कुछ अलग होता है और अब नए परिवार में रहने में नए रीति-रिवाजों को समझने में, उसके अनुसार चलने में समय तो लगता ही है और उसके साथ जरुरत होती है सासु के प्रेम की। सुषमा तुमने उसे तो उसके कर्तव्यों से अवगत कराया पर क्या कभी अपने कर्तव्यों की ओर ध्यान दिया ? सुषमा : जयणा, मेरे क्या कर्तव्य है? बहू के आने पर तो सास कर्तव्यों से मुक्त हो जाती है। तुम अपने आपको ही देख लो, तुम कितनी फ्री हो क्योंकि तुम्हारी बहू भली-भाँति अपने कर्तव्यों का पालन करती है। उसके लिए तुमने कौन से कर्तव्य निभाये? जयणा : मैं तुम्हें मेरे उदाहरण से ही समझाती हूँ कि -आज बहू को इतना योग्य बनाने में मैंने अपने कर्तव्यों का किस तरह पालन किया? इससे तुम्हें तुम्हारे सारे प्रश्नों का समाधान मिल जाएँगा। दिव्या नयी-नयी थी तब उसके अनुकूल वातावरण बनाने के लिए मैं अधिक से अधिक समय उसके साथ रहती। उसे काम-काज सिखाती। घर के रीति-रिवाजों से परिचित करवाती। शुरुआत में तो जो उसकी प्रिय वस्तु थी वही घर में बनती, पर साथ ही घर के लोगों की प्रिय वस्तुओं की जानकारी भी उसे देती। कपड़ों में उसके चोईस को हमेशा बढ़ावा दिया और घर के लोगों की पसंद से भी उसे अवगत करवाया। अड़ोस-पड़ोस के लोगों से उसका परिचय करवाया। उनके स्वभाव की जानकारी तथा उनसे काम कैसे लेना, इस विषय में उसे समझाया। उसकी सहेलियाँ या पियर से कोई भी आता तो उनके साथ बैठने के लिए उसे पूरा समय देती। जिससे सभी खुश होकर जाते। इतना ही नहीं शादी के बाद कुछ महिनों तक तो मैं समय-समय पर उसे पियर भेजती। ताकि पियर से जब वह ससुराल आए तो खुश ही रहे। उसकी पसंद के अनुकूल माहौल खड़ा किया। मेरा इतना प्रेम मिलने पर बहू ने भी अब अपने कर्तव्यों को, अपनी जवाबदारियों को अपना समझा। अपनी कार्य कुशलता से घर के सभी लोगों का दिल जीत लिया। अब अपने आपको वह इस परिवार का महत्त्वपूर्ण अंग समझती है। मैंने छः महिनें अपने अरमानों को छोड़कर उसके अरमानों को मुख्यता दी, परिणाम स्वरुप आज मैं आराम से जहाँ चाहुँ जा सकती हूँ जो चाहुँ वह कर सकती हूँ।