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THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
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- The TFIC Team.
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SRI JAIN SIDHANT BHAWAN GRANTHAWALI
VOL.--/ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
भाग-१
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जैन-सिद्धान्त-भवन-ग्रंथावली (देव कुमार जैन प्राच्य ग्रन्थागार, जैन सिद्धान्त भवन, आरा की सस्कृत, प्राकृत,
अपभ्र श एव हिन्दी की हस्तलिखित पाण्डुलिपियो की विस्तृत सूची)
भाग-१
प्रस्तवन
डा० गोकुलचन्द्र जैन अध्यक्ष, प्राकृत एव जैनागम विभाग, सपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय,
वागणमी
मपादन . ऋषभचन्द्र जैन फौजदार, दर्शनाचार्य शोधाधिकारी, देवकुमार जैन प्राच्य शोध मस्थान, आरा
(बिहार)
मकलन
विनय कुमार सिन्हा, M A (प्राकृत) शत्रुधन प्रसाद, B A गुप्तेश्वर तिवारी, आचार्य
भारती
- दर्शन केन्द्र
जयपुर
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
( भाग - १ )
प्रथम संस्करण १६८७
मूल्य-१३५)
प्रकाशक
श्री देवकुमार जैन प्राच्य ग्रन्थागार
श्री जैन सिद्धान्त भवन
आरा ( बिहार ) - ८०२३०१
मुद्रक
शाहाबाद प्रेस
महादेवा रोड, आरा
आवरण शिल्ल
क्रिएटिव आर्ट ग्रुप दिल्ली
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SRI JAINA SIDHANTA BHAWAN GRANTHAWALI (Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa, Hindi mss Published by Sri DK Jain Oriental Library, Sri Jain Sidhanta Bhawan, Arrah (Bihar) India • First Edition - 1987 Price Rs 135/
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Jaina Siddhant Bhawana Granthavali
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts
Of
Sri Devakumar Jain Oriental Library, Arrah
Vol-1
Introduction
Dr Gokulchandra Jain Head of the department of Prakrit & Jainagama. Sampurnananda Sanskrit Vishvavidyalaya, Varanasi
Editor; Rishabhachandra Jain Fouzdar,
Research Officer Devakumar Jain Oriental Research Institute, Arrah (Bihar)
Compilation Vinay Kumar Sinha, M.A. Strughan Prasad, B. A. Gupteshwar Tiwari
Arala si-azia do
Gaga
Sri Jaina Siddhant Bhawan
PUBLICATION Bhagwan Mahavir Marg, Arrah-802301
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Foreword
Bihar has played a great role in the history of Jainism. Last Tirthankar, Mahavira, who gave a great fillip to the Jain religion, was born here and spread his massage of peace and ahımsa. It is from the land oi Bihar that the fountain of Jainism spread its influence to the different parts of India 10 ancient period. And in the modern age the Jain Siddhanta Bhavan at Arrah in Bhojpur district has kept the torch of of Jainism burning. It occupies a unique place among the modern Jain institutions of culture. This institution was established to promote historical research and advancement of knowledge particulaily Jain learning
There is a collection of thousands of manuscripts, rare books, pictures and palm-leaf manuscripts, in Shri Devakumar Jain Oriental Library Arrah attached to the said institution Some or the manuscripts contain are Jain paintings These manuscripts are very valuable for the study of the ciecd as well as the socio-economic life of ancient India
The present work "Sri Jain Siddhanta Bhavan Granthavalı" being the Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apibhramsa and Hindi Manuscripts is being prepared in six volumes Each volume contains two parts First paits consists of the list of manuscr ipts preserved in the institution with some basic informations such as accession number, title of the work, name of the author, scripts, language, size, date etc Part second which is named as Parisista (Appendix) contains more details about the manuscripts recorded in the first part.
The author has taken great pains in preparing the present Catologue and deserves congratulitions for the commendable job, This work will no doubt remain for long time a ready book of reference to scholars of ancient Indian Culture particularly Jainism
February 29, 1988 Vikas Bhavan, Patna
(Naseem Akhtar) Director, Museums
Bihar Paina.
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प्रकाशकीय नम निवेदन
'जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली' या प्रथम नाग प्रमागिन होते देग मुसी अपार हर्ष हो रहा है। लगभग पान वर्ष पहने मे -म गाने को गाकार करने का प्रयत्न चल रहा था। अब यह महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ हो गया है। पचवर्षीय योजना के स्प मे इसके छ भाग प्रकागित करने में सफलता मिलेगी मी पूरी आशा है।
'जैन सिद्धात भवन ग्रन्थावली' का यह पहला भाग जैन मिदान भवन, आरा के ग्रन्थागार मे संग्रहीत मस्कृत, प्राकृत, अपभ्रम, कन्ना व हिन्दी मे हस्तलिखित ग्रन्थो की विस्तृत सूची है। इसमे लगभग एक हजार ग्रन्यो का वि. रण है। हर भाग मे इसका विभाजन दो राण्डो मे किया गया है। पहले गुण्ट में अग्रेजी (रोमन) मे ग्यारह शीर्षको द्वारा पाडुलिपियो के आकार, पृष्ठ राम्या आदि की जानकारी दी गई है। "भवन' के ग्रथागार में लगभग छह हजार हस्तलिग्नित कागज एव ताडपत्र के ग्रयो वा गग्रह है। इनमे अनेक ऐसे भी ग्रन्थ है जो दुर्लभ तथा अद्याववि अप्रकाशित है। अप्रााशित ग्रन्थो को सम्पादित कराकर प्रकाशित करने की भी योजना आरम्भ हो गई है। वर्तमान मे जैन सिद्वात भवन, आरा में उपलब्ध 'राम यशोग्सायन राम (सचित्र जन रामायण) का प्रकाशन हो रहा है जो शीघ्र ही पाठो के हाथ मे होगा। इममे २१३ दुर्लभ चिन हैं ।
'जैन सिद्धात भवन ग्रन्यावली' के कार्य को प्राग्भ कराने में काफी कठिनाइयो का सामना करना पड़ा लेकिन श्रीजी और मां सरस्वती की असीम कृपा से सभी रायोग जडते गए जिससे मै यह ऐतिहासिक एव महत्व पूर्ण कार्य आरम्भ कराने मे सफल हुआ हूँ। भविष्य मे भी अपने सभी महयोगियो से यही अपेक्षा रखता है कि हमे उनका सहयोग हमेशा प्राप्त होता रहेगा।
ग्रन्थावली एव रामयशोरसायन रास के प्रकाशन के सबसे बड़े प्रेरणाश्रोत आदरणीय पिता जी श्री सुबोध कुमार जैन के सहयोग एव मार्गदर्शन को कभी विस्मृत नही किया जा सकता। अपने कार्यकर्ताओ की टीम के साथ उनसे विचार विमर्श करना तथा सबकी राय से निर्णय लेना उनका ऐसा देरीका रहा है जिसके कारण सभी एकजुट होकर कार्य में लगे है।
__ बिहार सरकार एव भारत सरकार के शिक्षा विभाग एवं संस्कृति विभाग ने इस प्रकागन को अपनी स्वीकृति एव आथिक महयोग प्रदान कर एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम उठाया है जिसके लिये हम निदेशक राष्ट्रीय अभिलेखागार, दिल्ली, निदेशक पुरातत्व एव निदेशक सग्रहालय विहार सरकार तथा भारत सरकार के सभी सबधित
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अधिकारियो के कृतज्ञ है और उनसे अपेक्षा रखेगे कि भवन के अन्य अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रथो के प्रकाशन मे उनका सहयोग देश की सास्कृतिक धरोहर की सुरक्षा हेतु भविष्य मे भी हमे प्राप्त होगा।
__डा० गोकुलचन्द जैन, अध्यक्ष, प्राकृत एव जैनागम विभाग, सपूर्णानन्द सस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने ग्रन्थावली की विद्वतापूर्ण प्रस्तावना आगल भाषा मे लिखी है। बिहार म्यूजियम के विद्वान एव कर्मठ निर्देशक श्री नसीम अख्तर साहब ने समय निकालकर इस पुस्तक की भूमिका लिखी है। डा. राजाराम जैन, अध्यक्ष, सस्कृत-प्राकृत विभाग, जैन कालेज, आरा तथा मानद निदेशक श्री देवकुमार जैन प्राच्य शोधसस्थान, आरा ने आवश्यकता पड़ने पर हमे इस प्रकाशन के सम्बन्ध मे बरावर महत्वपूर्ण मार्ग दर्शन दिया है। हम तीनोही जाने माने विद्वानो का आमार मानते है।
श्री ऋषभ चन्द्र जैन 'फौजदार' जैनदर्शनाचार्य परिश्रम और लगन से ग्रन्थावली का सपादन कर रहे हैं। श्री ऋषभ जी हमारे संस्थान में मानद शोधाकारी के रूप में भी कार्यरत है। ग्रन्थावली के दोनो खण्डो के सकलन के सपूर्ण कार्य यानी अंग्रेजी भाषा मे एक हजार ग्रथो की ग्यारह कालमो मे विस्तृत सूची तथा प्राकृत एव सस्कृत आदि भाषाओ मे परिपिप्ट के रूप मे सभी ग्रथो के आरम्भ की तथा अत के पदो का और उनके कोलाफोन के भी विस्तृत विवरण देने जैसा कठिन कार्य श्री विनय कुमार सिन्हा, एम० ए० और श्री शत्रुघ्न प्रसाद सिन्हा, बी० ए० ने बहुत परिश्रम करके योग्यता पूर्वक किया है। डा० दिवाकर ठाकुर और श्री मदनमोहन प्रसाद वर्मा ने पुस्तक के अत मे 'वर्ण-क्रम के आधार पर ग्रन्थकारो एव टीकाकारो की नामावली और उनके ग्रन्थो की क्रम संख्या का सकलन तैयार किया है।
__ श्री जिनेश कुमार जैन, पुस्तकालय-अधिक्षक, श्री जैन सिद्धान्त भवन, आरा का सहयोग भी सराहनीय है जिनके अथक परिश्रम से ग्रन्थो का रखरखाव होता है। प्रेस मैनेजर श्री मुकेश कुमार वर्मा भी अपना भार उत्साह पूर्वक सभाल रहे हैं । इनके अतिरिक्त जिन अन्य लोगो से भी मुझे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग मिला है उन सभी का हृदय से अभारी
अजय कुमार जैन देवाश्रम,
मत्री आरा
श्री देवकुमार जैन ओरिएन्टल लाईब्ररी
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ABBREVIATION
v
s.
Vikiama Samvata Devanagari
Stk
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Pkt Apb,
Sanskrit Prakrit Apabhramsa Complete Incomplete
C
Catg of Skt Ms - Catalogue of Sanskrit manuscripts in Mysore
and cooig by Lewis Rice M. R A. S,,
Mysore Government Press, Bangalore, 1884. Catg of Skt & Pht Ms - Catalogue of Sankrit & Prakrit manuscripts
in thc Central Provinces & Berar by Rai Bahadur Hiralal B A Nagpur, 1926.
(१) आ० सू० (२) जि० र० को०
आमेर सूची-डा० कस्तूरचन्द, कासलीवाल । जिनरत्नकोप -डा. वेलणकर, भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पूना।
(३) जै० ग्र० प्र० स०
जैन ग्रन्थ प्रशस्ति मग्रह-५० जुगलकिशोर मुख्तार ।
दि० जि) ग्र० र० दिल्ली जिन अन्य रत्नावली--श्री कुन्दनलाल जैन
भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली।
जै० सा.
प्रकाशित जैन माहित्य-बा० पन्नालाल अग्रवाल ।
() प्र० स०
प्रशस्ति सगह -डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ।
भट्टारक सम्प्रदाय - विद्याधर जोहरापुरकर ।
(७) भ• स० (८) रा० सू०
राजस्थान के शास्त्र भडारो की सूची-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल, दि० जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, जयपुर ( राजस्थान )।
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समर्पण देवाश्रम परिवार में
पंडित प्रवर बाबू प्रभुदास जी, राजर्षि बाबू देवकुमार जी, व्र० पं० चन्दा माँश्री, और
बाबू निर्मलकुमार चक्रेश्वरकुमार जी यशस्वी तथा गुणीजन हुए है । उन सभी को पावन
स्मृति को यह
श्री जैन सिद्धात भवन ग्रन्थावली
समर्पित है ।
- सुवोधकुमार जैन
सादर
देवाथम यारा
88-3-50
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INTRODUCTION
I have grcat pleasure in introducing Srl Jaina Siddhan'a Bhavan Granthayali-a descriptive Cataloguco 997 Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa and Hindi Manuscrip's preserved in Shri Deya Kumar Jain Oriental Library, popularly known as Jaina Sidhanta Bhavan, Arrah. The actual number of MSS cxcccds even one thousand as some of ihcm are numbered as a and b Being the first volume, it marks the beginning of a series of the Catalogues to be picpared and published by the Library.
The Catalogue, devided into two parts, covers about 500 pages and each part numbered separately in the first part, descriptions of the MSS have been given while the sccond part contains the Teu of the opening and closing portions of MSS along with the Colophon The catalogue has been prepared strictly according to the scientific methodology developed during recent years and approved by the scholars as well as Government of India The description of the MSS has been recorded into cleven columns viz 1 Serial number, 2 Library accession or collection number, 3 Titleof the work, 4 Name of the author, 5 Name of the commcntator 6 Material, 7 Script and language, 8 Size and number of folio, lines per page and letters per line. 9. Extent, 10 Condition and age, 11. Additional particulars These details provide adequate informations about the MSS For instance thirteen MSS of Druvasam traha have been recorded (S Nos 213 to 224) It is a well known tiny treatise in Prakrit verses by Nemicanda Siddhanti and has had attracted attention of Sanskrit ond other con nentators Each Ms preserved in the Bhavana's Library has been given an independent accession number Its justification could be observed in the details provided
From the details one finds that first four MSS ( 213 to 215/2 ) contain bare Prakrit text All are paper, wricten in Devanāgari Script, their language being natured in poetry Each Ms has different size and number of folios Lines per page and letters per line are also different All are complete and in good condition Only one Ms (216) is a Hindı verson in poetry by some unknown
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writer and is incomplete Two MSS (218, 222 ) are with exposition in Bhâså ( Hindi ) piose and poe ry by Dyanataráya and three are in Bhāsä poetry by Bhagavatidas. Ms No 223 dated 1721 VS, is with Sanskrit commentary in Prose Ms No. 229 is a Bhäså vacanka by Jayacanda These details could be seen at a glance as they are presented scientifically.
The Manuscripts recorded in the present volume have been broadly classified into following cleven heads : -
1 Purāna, Carita, Katha 2 Dharma, Darsana, Ācāra 3 Nyâyaśâstra 4 Vyakarana 5 Koša 6 Rasa. chanda, Alankāra & Kävya 7 Jyotışa 8 Mantra. Karmakända 9 Ayurveda 10 Stotra 11 Pūjā, Pātha-vidhana
1 to 155 156 to 453 454 to 480 481 to 492 493 to 501 502 to 531 532 to 550 551 to 588 589 to 600 601 to 800 801 to 997
The details have been presented in Roman scripts in Hindi Alphabetic order The classification is of general nature and help a common reader for consultation of the Catalogue. However, critical observations may deduct some MSS which do not fall under any of these eleven categories ( see MSS 295, 511, 512 ).
The Second part of the volume is entitled as Parśışta or Appendıx This part furnishes more details regarding the MSS recorded in the first part Along with the text of the opening and closing poitions of each Ms, colophons have been presen:ed in Devanagari script The text is presented as it is found in the MSS and the readers should not be confused or disheartened even if the text is currupt. The cross references of more than ten other works deserve special mention Only a well read and informed scholar could make such a difficult task possible with his high industry and love of labour
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From the details presented in the Second part we get some very interesting as well as importnt informations. A few of them are noted below:
(1) Some Mss belong to quite a different category and do not come under the heads, they have been enumerated, such as Navaralnapariksa (295) which deals with Gemeology. The opening & closing text as well as the colophon clearly mention that it is a Ratna sästra by Buddhabhatt. Similarly, Nilipäkyämrlam (51. 512) is the famous work on Polity by Somadeva Suri ( 10th cent. ). Trepanakriyakośaf( 498, 499 ) Is not a work on Lexicon. It deals with rituals and hence (alls under Acargsästra These observations are intended to impress upon the consultant of the catalogue that he should not by pass merely by looking over the caption alone but should see thoroughly the details given in the Second part of the catalogue which may reveal valuable informations for him
(2) Some of the MSS of Aplamimatisã contain Aplamimarisâlnakrit of Vidyananda ( 455 ) Aptamimam sāyrlli of Vasunandi ( 456 ) and Āplamimām sābhäşya of Akalanka (457). These three famous commentaries are popularly known as Astasohasri Astasali and Devagamavri's Though these works have once been published, yet these can be utilised for critical cditions
(3) In the colopbon of some of the MSS the parential MSS have been mentioned and the name of the copyist, its date and place where they have been copred, have been given These informations are of manifold importance. For instance the information regarding parential Ms is very important If the editor feels necessary to consult the original Ms for his satisfaction of the readings of the text, he can get an opportunity for the same It is of particular importance of the Ms has been witten into different scripts then that of the original one Many Sanskrit, Prakrit and Apabhramsa works are preserved on palm leaves in Kannada scripts. When these are rendered into Depanāgari scripts theie are every possibili.y of slips, difference in readings and soon It is not essential that the copyist should be well acquainted with all its languages and subject matter of cach Ms The difference of alphabets in different languages is obvious - Thus the reference of parential Ms is of great importance (373)
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(4) The references of places and the copyists further authenticate the MSS Some of the MSS have been copied in Karnataka at Moodbidri and other places from the palm leaf MSS written in Kannada scripts ( 7, 318, 373 ) whereas some in Northen India, in Rajasthan, Uttar Pradesh, Bihar, Madhya Pradesh and Delhi
5) It is also noteworthy that copying work was done at Jaina Siddhanta Bhavana Airah itself MSS were borrowed from different collections & copying work was conducted in the supervision of learned Scholars.
(6) The study of colophon reveals many more inportant references of Satilgh s Ganas, Gacchas, Bhattarahas and presentation of Såstras by pious men and women to ascetics copying the Ms for personal study-spā hijāyn, and getting the work prepared for his son or relative etc Such references denote the continuity of religious practice of sastraclāna which occupy a very high position in the code of conduct of a Jaina household,
(7) The copying work of MSS was done not only by paid professionals but also by devout Śrāvakas and desciples of Bhattārakas or other ascetics
(8) In most of the MSS counting of alphabets, words, ślokas, or gälhas have been given as granthaparirnāna at the end of the MSS This neference is very important from the point of tbe extent of the Text Many times the author himselt indica'es the granthaparımāna Even the prosc works are counted in the form of slokas (32 alphabets cach) The Aplamimämsä Bhāşya ot Akalanka is more popularly known as Aştašati and Afioninamiālnkrl of Vidyananda is famous as Astasahasri Both works are the commentaries on the Aplamımānşă (in verse ) of Samanta Bhadra in Sanskrit prose, Vidyananda himself says about his work :
"Srotavy - aştasahasri śrutaih, kimanyaih sahasrasamkhyānaih" Counting in the form of slokas seems a later development When the teachings of Vardhamana Mahavira were reduced to writing counting was done in the form of Padas For instance the Ayaramga is said to contain eighteen thousand Padas
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" ayāramgamatthāraha-pada-sahasseh."
(Dhavalá p 100) Such references are more useful for critical study of the text. (9) Some references given in the colophons shed light on some
points of socio-cultural importance as well The copying work was done by Brahmins, Vaisyas, Agarawa las, Khandeläwals, Kāyasthas and others There had been some professionally trained persons with very good hand writing who were entrusted with the work of copying the MSS The remuneration of writing was decided per hundred words for the purpose of the counting generally the copyist used to put a particular mark (I) invariably without punctuation in the end of some of the MSS even the sum paid, is mentioned Though it has neither been recorded in the present catalogue nor was required, but for those who want to study the MSS these informations may be important
The study of Colophons alone can be an independent and important subject of research
From the above details it is clear that both the parts of the present volume supplement each other. Thus, the Jalna Siddhanta Bhavana Granthāyall is a highly useful reference work which undoubtedly contributes to the advancement of oriental learning With the publication of this volume the Bhavana has revived one of its important activities which had been started in the first decade of the present Centuty
Shri Jaina Siddhant Bhavan, Arrah, established in the beginning of the present century had soon become famous for its threefold activities viz 1) procuring and preserving rare and more ancient MSS, 2) publication of important texts with its english translation in the series of Sacred Books of the Jaina's and 3) bringing out a bilingual research journal Jaina Siddhanta Bhaskara and Jaina Antiquary, Under the first scheme, many palm leaf MSS have been procured from South India, particularly from Karnataka, and paper MSS from Northern India However the copying work was done on the spot if the Ms was not lent by the owner or otherwise was not transferable The earliest Sauraseni Prakrit Siddhanta Šāstra Satkhandagama
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with its famous commentaries Davala, Jayadavalā, and Mahadavia was copied from the only surviving palm leaf Ms in old Kannada scripts, preserved in the Siddhanta Basadı of Moodbidri.
Bhavan's Collection became known all over the world within ten years of establishment. In the year 1913, an exhibition of Bhavan's collection was organised at Varanası by its sister institution on the occasion of Three Day Ninth Annual Function of Sri Syādpada Mahāyıdvalava A galaxy of persons from India and abroad who participated in the function greatly appreciated the collection. Mention may specially be made of Pt. Gopal Das Baraiya, Lala Bhagavan Din, Pt. Arjunlal Sethi, Suraj Bhan Vakıl, Dr. Satish Chandra Vidyabhusan, Prof Heraman Jacobi of Germany, Prof Jems from United States of America, Ajit Prasad Jain, and Brabmachari Shital Prasad A similar exhibition was organised in Calcutta in 1915 Among the visitors mention may be made of Sir Asutosh Mukherjee, Shri Aurvind Nath Tegore, Sir John woodruf and Sarat Chandra Ghosal
The other activity of the publication of Biblothica JainıcaThe Sacred Books of the Jainas began with the publication of Dravya Samgiaha as Volume I ( 1917 ) with Introduction, English translation and Notes etc In this series important ancient Prakrit texts like Samayasära, Gommalasära, Almānusasana and Purusartha Siddhyupāya were published Alongwith the Sacred Book Series books in English on Jaina tenets by eminent scholars were also published Jaina Siddhanta Bhaskara and Jatna Antiquary, a bilingual Research Journal was published wnh the objectiveto bring into light recent researches and findings in the field of Jainalogical learning
Thanks to the foresight of the founders that they could conceive of an Institution which became a prestigious heritage of the country in general and of the Jainas in particular. The palm leaf MSS in Kannada scripts or rendered into Devanagari on paper are valuable assets of the collection It is undoubtedly accepted that a manuscipt is more valuable than an icon or Architectural set-up An icon may be restalled and similarly an Architectural set-up can be re-built, but if even a piece of any Ms is lost, it is lost for ever It is how plenty of ancient works have been lost It is why the followers of Jainism paid a thoughtful consideration to preserye
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thc MSS which is included in their religious practice A Jaina Shrine, particularly the temple was essentially attached with a Såtlra-Bhandara, bccausc thc Jina. Jinavāni and Jinaguru were considered the objects of worship. Almost all the Jaisha temples are invariably accompanied with the Säsira-Bhandaras During the time of some of the Mughal cmpcrors likc Mahmud Gaznai? 1025 A D ) and Aurangzeb ( 1661-1669 A.D ) when the temples a new awakening for prcscrvation of thc temples and Sastra started and much interior places wirc chooson for the purpose A new sect of the Bhallarahas and Caityavasis emerged among the Jaina ascetics who undertook with cnthusiasm thc activity of building up the Sastra Bhandaras As a result, many MSS collcctions came up all over India The collcctions of Sravan abclagola, Moodbidri and Humach in Karnataka, Patan in Gujrat, Nagaur, Ajmer, Jaipur in Raj asthan, Kolhapur in Maharastra, Agra in Uttar Pradesh and Delhiare well known. A good number of copies of important MSS were prepared and sent to different Sastra Bhandaras One can imagine how the copies of a works composed in South India could travel to North and West. And likewise works composed in North-West reached the Southern coast of India. A great number of Sanskrit, Prakrit and Apabbiamsa works were rendered into Kannadas Tamil and Malayalee Scripts and were transcribed on the Palm Leaf It is a historical fact that the religious enthusiasm was so high that Shāntammá, a pious Jaina lady, got prepared one thousand copies of Santipurāna, and distributed them among religious people. At a time when there were no printing facilities such efforts deserved to be considered of great s'gnificance.
The above efforts saved hundreds thousands MSS But along with the development of these new sects these social institutions became almost private properties This resulted into two unwanted developments viz 1) lack of preservation in many cases and 2) hardship in accessiblity Due to these two reasons the MSS remained locked for a long period for safety, and consequently the valuable treasure remained unknown to scholars. The story of the Si ldhanta Sastra Satkhan lāgama is now well known. It is only one example
With the new awakening in the middle or last quarter of the Nineteenth Century some enlightened Jaina householdeis came out
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with a strong desire to accept the challenge of the age and started establishing independent MSS libraries. This continued during the first quarter of 20th century. In such Institution, Eclak Pannalal Sarasvati Bhavan at Vyar, Jhalara Patan and Ujjain, and Shri Jaina Siddhanta Bhawan at Arrah stand at the top. More significant part of these collections had been their availability to the scholars all over the world. Almost all the cmincnt Joinologist of the present century studing the MSS, have utilized the collection of Sri Jaina Siddhanta Bhawan. It had been my proud privilege and plcasure that I too have used Bhavan's MSS for almost all my Critical cditions of the works I edited
During last few decades catalogues of somc of the MSS collections, in Government as well as in private institutions, have been published Through these catalogues thc MSS have becomc known to the world of Scholars who may utilise them for thcir study.
In the series of the publications of catalogucs relating to Jainalogy, Jinaralnakośa by Velankar descrves special mention It is quite a different type of reference work relating to MSS Bharatiya Janapitha, Kashi published in Hindi in Devanagari script the Kannclaprantiya Tädapatriya Grantha Süchi in 1948 recording descriptions of 3538 Palm leaf MSS. The catalogues of the MSS of Rajasthan prepared by Dr. Kastoor Chand Kaslıwal and published in five volumes by Shri Digambar Jaina Atisaya Ksctra Shri Mahavirajı, Jaipnr also deserve mention. L. D Institute of Indology, Ahmedabad have published catalogue in several volumes. Among the publication of new catalogues mention may be made of Dilli Jina-Grantha-Ralnāvāli published hy Bharatiya Jaanpith, New Delhi and the catalogue of Nagaura Jaina Sastra-Bhandara published by Rajasthan University,
In the above range of catalogues, the present volume of Sri Jaina Siddhanta Bhavana Granthāpali is a valuable addition As ali eady started this is the beginning of the publication of catalogues of the MSS preserved in Sri Jain Siddhant Bhavan now Shri Deva Kumar Jain Oriental Library, Arrah It is likely to cover eight volumes each covering about 1000 MSS I am well aware that preparation and publication of such works require high industrious zeal, great
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passions and continued endeavour of a team of scholars with keen insight besides the large sum required for such publications
It is not the place to go into many more details regarding the importance of the MSS and contribution of Bhavan's collection, but I will be failing in my duty if I do not record the contribution of the founder Sriman Devakumarji and his worthy successors I sincerely thank Shriman Babu Subodh Kumar Jain, Honorary Secretary of Shri Jain Siddhant Bhavan, who is carrying forward the activities of the Institute with great enthusiasm. Shri Risabh Chandra Jain deserves my whole hearted appreciation tor prepa ring, editing and seeing through the press the Catalogue with fullest sincerity, ability and insight His associates also deserve applausē for their due assistance I also thank my ezleem friend Dr Rajaram Jain, who is a guiding force as the Honorary Director of the Institute.
In the end I sincerely wish to see other volumes published as early as possible
Dr. Gokul Chandra Jain Head of Department of Prakrit and Jaināgam, Sampurnanand Sanskrit Vishva vidyalay,
VARANASI
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Page #25
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सम्पादकीय
श्री देवकुमार जैन ओरिएण्टल लायब्ररी तथा श्री जैन सिद्धान्त भवन, आरा 'सेन्ट्रल जैन ओरिएन्टल लायब्ररी' के नाम से देश-विदेश मे विख्यात है। यह ग्रन्थागार आरा नगर के प्रमुख भगवान महावीर मार्ग ( जेल रोड ) पर स्थित है। वर्तमान मे इसके मुख्य द्वार के ऊपर सरस्वती जी की भव्य एव विशाल प्रतिमा है। अन्दर बहुत वडा मगमरमर का हॉल है, जिसमे सोलह हजार छपे हुए तथा लगभग छह हजार हस्तलिखित कागज एव ताडपत्र के ग्रन्थो का सग्रह है। जैन सिद्धान्त भवन के ही तत्वावधान मे श्री शान्तिनाथ जैन मन्दिर पर 'श्री निर्मलकुमार चक्रेश्वरकुमार जैन कला दीर्घाय है। इस कला दीर्घा मे शताधिक दुर्लभ हस्तनिर्मित चित्र, ऐतिहासिक सिक्के एव अन्य पुरातत्त्व सामग्री प्रदर्शित है। यही ८४ वर्ष पूर्व एक महत्वपूर्ण सभा मे श्री जैन सिद्धान्त भवन, आरा का उद्घाटन (जन्म ) हुआ था।
सन् १९०३ मे भट्टारक हर्षकीति जी महाराज सम्मेद शिखर की यात्रा से लौटते समय आरा पधारे। आते ही उन्होने स्थानीय जैन पचायत को एक सभा मे बाबू देवकुमार जी द्वारा सगृहीत उनके पितामह प० प्रभुदास जी के ग्रन्थ सग्रह के दर्शन किये तथा उन्हे स्वतन्त्र ग्रन्थागार स्थापित करने की प्रेरणा दी। बाबू देवकुमार जी धर्म एव सस्कृति के प्रेमी थे, उन्होने तत्काल श्री जैन सिद्धान्त भवन की स्थापना वही कर दी। भट्टारक जी ने अपना ग्रन्थमग्रह भी जैन सिद्धान्त भवन को भेट कर दिया।
जैन सिद्धान्त भवन के सवर्द्धन के निमित्त बाबू देवकुमार जी ने श्रवणबेलगोला के यशस्वी भट्टारक नेमिसागर जी के साथ सन् १९०६ मे दक्षिण भारत की यात्रा प्रारम्भ की, जिसमे विभिन्न नगरो एव गावो मे सभाओ का आयोजन करके जैन सस्कृति की सुरक्षा एव समृद्धि का महत्व बताया। उसी समय अनेक गावो और नगरो से हस्तलिखित कागज एव ताडपत्र के ग्रन्थ सिद्धान्त भवन के लिए प्राप्त हुए तथा स्थानो पर शास्त्रभडारो को व्यवस्थित भी किया गया। इस प्रकार कठिन परिश्रम एव निरन्तर प्रयत्न करके बा० देवकुमार जी ने अपने ग्रन्थकोश को समुन्नत किया। उस समय यात्राएं पैदल या बैलगाडियो पर हुआ करती थी। किन्तु काल की गति को कौन जानता है ? १९०८ ई० मे ३१ वर्ष की अल्पायु मे ही बाबू देवकुमार जी स्वर्गीय हो गये, जिसमे जैन समाज के साथ-साथ सिद्धात भन के कार्य-कलाप भी प्रभावित हुए। तत्पश्चात् उनके साले बाबू 'करोडीचन्द्र ने भवन का कार्य सभाला और उन्होने भी दक्षिण भारत तथा अन्य प्रान्तो की यात्रा करके हस्तलिखित ग्रन्थो का संग्रह कर सेवा कार्य किया। उनके उपरान्त आरा के एक और यशस्वी धर्मप्रेमी कुमार देवेन्द्र
Page #26
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________________
}
ने भवन की उन्नति हेतु कलकत्ता और वनारस मे वडो पैमाने पर जैन प्रदर्शिनियों और सभाओ का आयोजन किया। भवन के वैभव सम्पन्न सग्रह को देखकर डा० हर्मन जैकोबी, श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि जगत् प्रसिद्ध विद्वान प्रभावित हुए तथा उन्होने बाबू देवकुमार की स्मृति में प्रशस्तियां लिखी एव भवन की सुरक्षा एवं समृद्धि की प्रेरणाएं दी ।
सन् १९१९ मे स्व० बाबू देवकुमार जी के पुत्र बाबू निर्मलकुमार जी भवन के मंत्री निर्वाचित हुए । मत्री पद का भार ग्रहण करते ही निर्मलकुमार जी ने भवन के कार्यकलापो मे गति भर दी । १९२४ मई मे जैन सिद्धात भवन के लिए स्वतन्त्र भवन का निर्माण कार्य आरम्भ करके एक वर्ष मे भव्य एव विशाल भवन तैयार करा दिया | तत्पश्चात् धार्मिक अनुष्ठान के साथ सन् १९२६ मे श्रुतपञ्चमी पर्व के दिन श्री जैन सिद्धात भवन ग्रन्थागार को नये भवन मे प्रतिष्ठापित कर दिया । उन्होने अपने कार्यकाल मे ग्रन्थागार मे प्रचुर मात्रा मे हस्तलिखित तथा मुद्रित गथो का सग्रह किया । जैन सिद्धात भवन आरा में प्राचीन गथो की प्रतिलिपि करने के लिए लेखक
( प्रतिलिपिकार ) रहते थे, जो अनुपलब्ध ग्रन्थों को बाहर के ग्रन्थागारो से मगाकर प्रतिलिपि करते थे तथा अपने सग्रह मे रखते थे । यहाँ नये ग्रन्थो की प्रतिलिपि के अतिरिक्त अपने सग्रह के जीर्ण-शीर्ण ग्रन्थो की प्रतिलिपि का भी कार्य होता था । इसका पुष्ट प्रमाण ग्रन्थो मे प्राप्त प्रशस्तियाँ हैं । जैन सिद्धान्त भवन, आरा से अनेक ग्रन्थ प्रतिलिपि कराकर सरस्वती भवन बम्बई एव इन्दौर भेजे गये हैं ।
सन् १९४६ मे बाबू निर्मलकुमार जैन के लघुभ्राता चक्रेश्वरकुमार जैन भवन के मंत्री चुने गये । ग्यारह वर्षों तक उन्होने पूरे मनोयोग से भवन की सेवा की । पश्चात् सन् १९५७ से बावु सुबोधकुमार जैन को मंत्री पद का भार दिया गया, जिसे वे अभी तक पूरी लगन एव जिम्मेदारी के साथ निर्वाह रहे हैं। बाबू सुवोधकुमार जैन भवन के चतुर्मुखी विकास के लिए दृढप्रतिज्ञ है । इनके कार्यकाल मे भवन के क्रिया-कलापो मे कई नये अध्ाय जुड गये हैं, जिनसे बावू सुबोधकुमार जैन का व्यक्तित्व एव कृतित्व दोनो उभर कर सामने आये है ।
3
"
ऐतिहासिक एव पुरातात्विक
जैन सिद्धात भवन, आरा के अन्तर्गत जैन सिद्धात भास्कर एव जैना एण्टीक्वायरी शोध पत्रिका का प्रकाशन सन १९१३ से हो रहा है। पत्रिका द्वं भाषयिक, हिन्दीअग्रेजी तथा षाण्मासिक है। पत्रिका में जैनविद्या सम्बन्धी सामग्री के अतिरिक्त अन्य अनेक विधाओ के लेख प्रकाशित होते है । शोध-पत्रिका अपनी उच्चकोटि की सामग्री के लिए देश-देशान्तर में सुविख्यात है । इसके अक जून अर दिसम्बर मे प्रकट होते हैं ।
Page #27
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________________
जैन सिद्धात भवन, आरा का एक विभाग श्री देवकुमार जैन प्राच्य शोध संस्थान है। इसमे प्राकृत एव जैनविद्या की विभिन्न विधाओ पर शोधार्थी शोधकार्य करते हैं । संस्थान में शोध सामग्री प्रचुर मात्रा मे भरी पड़ी है। सस्थान सन १९७२ से मगध विश्व विद्यालय, बोधगया द्वारा मान्यता प्राप्त है। वर्तमान मे इसके मानद् निदेशक, डा० राजाराम जैन, अध्यक्ष, प्राकृत-सस्कृत विभाग, हरप्रसाद दास जैन कालेज, । मगध विश्व विधालय ) आरा है। इस समय सस्थान के सहयोग से १५ शोधार्थी शोधकार्य कर रहे हैं तथा अनेक पी० एच० डी० की उपाधियां प्राप्त कर चुके है।
इस सस्था द्वारा अब तक अनेक महत्वपूर्ण पुस्तके प्रकाशित हो चुकी है। इस समय छह भागो मे भवन के हस्तलिखित ग्रन्थो की विस्तृत सूची श्री जैन सिद्धात भवन ग्रन्थावली तथा सचित्र जैन रामायण रामयशोरसायनरास-मुनि केशराजकृत ) का प्रकाशन कार्य चल रहा है ।
'जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली' का पहला भाग पाठको के हाथ में है। इसमे जैन सिद्धात भवन, आरा मे सरक्षित ६६७ सस्कृत, प्राकृत, अपभ्र श एव हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थो की विस्तृत सूची है। वास्तव में यह सख्या एक हजार से अधिक है। यह सूची दो खण्डो में विभक्त है तथा दोनो खण्डो की पृष्ठ सख्या भी पृथक्-पृथक् है। प्रथम खण्ड मे पाण्डुलिपियो का विवरण तथा दूसरे खण्ड में प्रत्येक ग्रन्थ का प्रारभिक अश, अन्तिम अश एव प्रशस्तियाँ दी गई है। सूची मे ग्रन्थो का वैज्ञानिक ढग से विवरण प्रस्तुत किया गया है। यह विवरण निम्न ग्यारह शीर्षको मे है --(१) क्रमसख्या (२) ग्रन्थ मख्या (३) ग्रन्थ का नाम (४) लेखक का नाम (५) टीकाकार का नाम (६) कागज या ताडपत्र (७) लिपि और भाषा (८) आकार सेमी० मे, पत्रमख्या. प्रत्येक पत्र की पक्ति मख्या एवं प्रत्येक पक्ति की अक्षर सख्या (९) पूर्ण-अपूर्ण (१०) स्थिति तथा समय (११) विशेष जानकारी यदि कोई है। यह सभी विवरण रोमन लिपि में दिया गया है। १ पुराण, चरित, कथा
१ से १५५ २ धर्म दर्शन, आचार १५६ से ४५३ न्यायशास्त्र
४५४ से ४५० व्याकरण
४८१ से ४६२ ५ कोष
४६३ से ५०१ ६. रस, छन्द, अलकार और काव्य ५०२ मे ५३१ ७ ज्योतिष
५३२ से ५४१
Page #28
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________________
८ गन्त्र, कर्मकाण्ड
५५० स ५८८ & आयुर्वेद
५८६ रो ६००. १० स्तोत्र
६०१गे ८०० ११ पूजा-पाठ-विधान
८१ मे १६७. अन्तिम शीर्पक के अन्त मे आठ ग्रन्य ऐसे हैं, जिन्हे विविध-विषय के त्य में रखा गया है। यह विषय विभाजन मामान्य कोटि का है, क्योकि सभी ग्रन्थो का विषय निर्धारित करने हेतु उसका आद्योपान्त सूक्ष्म परीक्षण आवश्यक है।
___ ग्रन्थावली का दूसरा खण्ड 'परिशिष्ट ' नाम से अभिहित है। इसका यह खण्ड वहुत ही महत्वपूर्ण है। प्रशस्तियो मे अनेक महत्वपूर्ण तथ्य लिपिवद्द हैं। अनेक काफी प्राचीन पाण्डुलिपिलां भी हैं,जिनका समय प्रथम खण्ड मे दिया गया है । प्रमस्तियो के अध्ययन से विभिन्न सवो, गावो, गच्छो तथा भट्टारको के सन्दर्भ मामने आये है। यह ग्रन्थ कुछ लोग अपने स्वाध्याय के लिए लिखवाते ये तथा कुछ लोग शास्त्रदान के लिए। ग्रन्थ श्रावको, साधुओ तथा भट्टारको द्वारा लिखवाये गये है। पाण्डुलिलियो का लेगन भारत के विभिन्न देशो ( वर्तमान राज्यो मे । हुआ है। जैन मिहान्त भवन, आरा न भी पर्याप्त लेखन कार्य हुआ है। जो पाण्डुलिपियाँ जन्य मग्रहो से स्थानान्तरित नहीं की जा सकती थी, उनकी प्रतिलिपियां वही से कराकर मगाई गई ह । अविकाश पाण्डुलिपियो मे पूरे ग्रन्थ को श्लोक मख्या या गाथा सख्या भी दी हुई है, जिसमे पूरे अन्य का परिमाण भी निश्चित हो जाता है। इस ग्रन्थावली का यह खण्ड एक ऐमा दस्तावेज है, जिससे अनेक नवीन सूचनाएँ दृष्टिगोचर हुई है।
ऋ० १०३/१ में उल्लिखित 'राम-यशोरमायनरास' मचित्र ग्रन्य है। इसके कर्ता श्वेताम्वर स्थानकवासी सम्प्रदाय के केशराज मुनि है। कर्ता ने रचना मे स्वय के लिए ऋषि, ऋषिराज, ऋषिराय, मुनि, मुनीन्द्र, पडितराज आदि विशेषण प्रयुक्त किये हैं। ग्रन्थकी कुल पत्रसख्या २२४ है, जिसमे से वर्तमान मे १३१ पत्र उपलब्ध है। इन पत्रो मे २१३ रगीन चित्र है। चित्र राजपूत शैली के है। यह रचना राजस्थानी हिन्दी मे है तथा आचार्य हेमचन्द्र रचित 'त्रिषष्ठिगलाकापुरुषचरित' की रामकथा पर आधारित है। इसका प्रकाशन देवकुमार जैन प्राच्य शोध संस्थान से किया जा रहा है। क्र. २२३ द्रव्यसगह टीका ( अवचूरि ) है, जो अद्यावधि अप्रकाशित हे। टीका मक्षिप्त एव सरल संस्कृत भाषा मे है। किन्तु पाण्डुलिपि मे टीकाकार के नाम, समयादि का उल्लेख नहीं है।
परिशिष्ट तैयार करने मे 'यादृण पुस्तक दृष्ट्वा तादृश लिखित मया' का अक्षरश. पालन किया गया है। अनुसन्धित्सुओ की सुविधा के लिए विभिन्न हस्तलिखित ग्रन्थो की सूचियो के कास मन्दर्भ दिये गये है, जिनमे राजस्थान के शास्त्र भडारो की सूची भाग-१ से ५, जिनरत्नकोप, आमेर सूची, दिल्ली जिन ग्रन्थ रत्नावली, कैटलॉग आफ सस्कृत मैन्युस्क्रिप्टस्, कैटलॉग आफ सस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्टम् प्रमुख है ।
Page #29
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________________
XV
'इन्ट्रोडक्शन' मे डॉ. गोकुलचन्द्र जी जैन, अध्यक्ष प्राकृत एव जैनागम विभाग, सम्पूर्णानन्द सस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने ग्रन्थावली के पूरे परिचय के साथ उसका महत्व भी स्पष्ट किया है। तथा अनेक मौको पर उनका मार्गदर्शन भी मिलता रहा है, जिमके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। सस्थान के निदेशक के रूप मे डॉ० राजाराम जैन के मार्गदर्शन के लिए उनका भी आभारी हूँ। श्री बाबू सुवोधकुमार जी जैन तथा श्री अजयकुमार जी जैन का तो निरन्तर ही मार्गदर्शन तथा निर्देशन रहा है। यही दोनो व्यक्ति प्रेरणा स्रोत भी रहे, अत उनके प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ। अपने ग्रन्यागार सहयोगी श्री जिनेशकुमार जैन तथा प्रेस सहयोगी श्री मुकेशकुमार वर्मा का भी आभारी हूँ, जिन्होने समय-असमय कार्य पूरा करने मे निरन्तर मदद की। इनके अतिरिक्त जिन अन्य व्यक्तियो मे परोक्ष-अपरोक्ष रूप में सहयोग मिला है, उन सवका हृदय से आभार मानते हुए आशा करता हूँ कि भविष्य में भी हमे उनका सहयोग मिलता रहेगा।
-ऋपभचन्द्र जैन फोजदार
शोधाधिकारी, देवकुमार जेन प्राच्य शोध मरान
आरा ( विहार)
Page #30
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Page #31
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________________
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली SHRI DEVAKUMAR JAIN ORIENTAL LIBRARY.
JAIN SIDDHANT BHAVAN, ARRAH ( BIHAR)
Page #32
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________________
2
]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Ehri Devakumar Join Oriental Library, Jain Srddhant Bhavan, Arrah
Library accession S. No.
Collection No.
if any
or
Title of work
Name of Author
Name of Commentator
2
3
1
Kha/38/1
Adipurāna
Jinasenācārya
2
1
Jha/4
Adipurāņa
Jinasenācārya
1
Kha/14
! Adipurāņa
Jina senācārya
1
Kha/5
Adipurāna
Jinasenācārya
1
Ga/105
Adipuiāna
Jha/138/1
1
Adipurāņa Tippana
Jha/138/2
Adinātha purāņa
Hastımalla ?
1
Ga/44
1
Adipurāna Vacanikā
9
Kha/69
1
Ādinātha Purāna
Sakalakríti
Kha/282
Ārādhnā-Kathā Kosa
Brahma-Nemidattal
1
11
Kha/155
Ārädhana-Katha Kosa
Brahmanemıdatta
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
Mat. or
subt.
6
P
P
P
P
P.
P
P
P.
P
P
P
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsa & Hindi Manuscripts [ 3
(Purana Carita, Kathā)
Script
7
D,Skt Poetry
D,Skt Poetry
D,Skt Poetry
D,Skt. Poetry
D,H Poetry
D,Skt, Prose
D,Skt Poetry
D, H.
Prose
D,Skt Poetry
Size in cms. No, of follos
or leaves lines Extent per Page & No. af letters Per line
1
8
31 4x16 2 258 15 52
D,Skt. Poetry
30 7 x 15 6 367 10 52
35 5x15 4 305 15 53
37 x16 305 13 56
43 8×16 9 688 11 52
34 4x21 3 123 15 45
22 1x 17 5 95 10 18
35 8x17 9 544 14 48
29 8x19 2 177 12 53
D;Skt 32 5x16 5
Poetry
196.14.48
28 8x11.6 244.10.47
9|
с
C
C
C
C
с
с
с
с
C
Ο
с
Condition and age
10
Old 1904 V S
Old
1851 V S
Good 1773 V. S
Old 1735 V S
Good 1889 V S
Good
Good 1943 A. D.
Good 1961 V. S
Old
1848 V. S.
Good 1807 V. S.
Additional Particulars
i
Published
Copied Uderäma. Published
Published,
12000 Slokas. Published.
Good
Published 5500 Slokas. 1797 V. S. Copied by Gulajārilāla.
11
Copied by Jugarāja.
Copied by Lokanatha Sastri, Unpublished.
Published.
Published.
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन मिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devahumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2
5
1
Ga/21/2
TiadhanaSäia
Kha/147/2
Bhadrabāhu-Caritra
Ācārya
Ratnanandi
Kha/115
Bhadrabahu-Caritra
Ācārya
Ratnanandi
Jha/98
Bhagavatpurāna
Kesavasena
Ga/68
Bhaktamara Kathā
Vinodilala
G.
7
Bhak mara Katha
Vinodilala
G7/132
Bhaktamara Katha
Vinodílala
Khu1195
Candraprabha Caritra
Viranandin
Gi'170
Candra Prabha Purana
Pt Th thíráma'
N249
Catursinsati | Bhujsali
Jind
U. 129
Corude111-Caritra
Bhiramala
!
# 3
r lit 3.Caritet
Bhagutati Disk
Page #35
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________________
[
5
Catalogue of Sanskrit. Prkrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Purāna. Carta, Katha )
6
7
/
8
/
9
/
10
11
P.
D,H. Poetry
37 1 x231
46 18 66
cGood
Published by Manilachandra Series
Old
Published
D, Skt Poetry
29 2 x12 5
28 9 50
1 Good
D,Skt. Poetry
222 x 14 4
57 8 24
Published copied by Nílakantha Dāsa.
D,Skt poetry
35 3x16 5
98 11 54
Good 1698 V S
Coped by Uddhava Josí, Unpublished
D,H Poctry
33 4x21 2 138 17.37
Good 1939 V S
D,H. Poetry
30 6x192 | 214 12 35
Good 1954 V S
Baladevadatta Pandita seems to be copiei
D.H 33 4x15 4 Poctry | 183 12 40
Good Slokas No 5400, Coy.cd 1954 VS by Cunimāli
D,Sht Poetry
34 1 x21 5 306 20 26
Good 1761 Written on register size Saka Sama- paper Copied by vata
Pand ta cărukirti. Published
D.H Poetry
i 324 x 17 4
180 13 38
Good 1978 YS
D,Ski 19,4 x15 5 Poctry!
3 13.14
Good
Unpublished
DH. Poetry
35 2 x16 1
69 10.37
Good 1960 V. S.
Copied by Guljärí Lila,
D;H. Poetry
25.8 X 179
13.15 35 1
C
Good | 1958 V. S
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
6
]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Ga/167
Cetana-Caritra Nātaka
Ga/33
Darsana-Katha
Bhārāmalla
Ga/85/1
Dasrana-Katha
Bhårāmalla
Kha/176/4
Dasalāks aní-Kathā
Śrutasāgara
Nga/6/11
Daśa-lākşaní Katha
Bhairondása
Ga/41/2
Dâna-Katha
Bhärämalla
30i Kha/12
Dhrma-Sarmabhyubaya
Mahakavi
Haricandra
Jha/103
Dharma-Sarmábhyvdaval Mahakavı Satika
Haricandra
YasaKirti
Kha/188/5
Dhanya-Kumâra Caritra Brahamanemidatta
33
Ga/9
Dhanyakumara-Caitra
Brahmanemidatta
Ga/38
Dhanya-Kumāra-Caritra
Nga/2/6
Dudhārasa Dvadasi
Katha
Prabhūdasā.
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
7
Catalogue of Sanskrit. Prakrit, Apabhramasha & Hindi Manuscripts
( Purāna, Carta, Katha )
ol 7
8
9
10
i
u
D, H Poetry
18 9 x15 9 13 11 20
C
Good
D, H 26 9 x 17 5 Poetry134 13 30
Good 1961 V
S
C
D, H 26 3x179 Poetry | 40 12 29
Good 1940 V
S
D, Skt Poety
24 4x11 3
3 11 44
C
Good
D, H 22 8 X18 1 Poetry | 6 17 18
Good 1751 V s,
D, H. Poetry
27 8 x 18 5 23 14 35
C
Good 1962 V
S
copied by
Pandit Rama Nath
D,Ski Poetry
29 4x13 7 158 9 45
Good 1889 VS. Published Good hand
D,Skt
35 5 x 16 1 Poetry170 12 54 Prose
Good 1990 V S
Copied by Rośanalála.
Diskt Poetry 1
23 1x9 8 27 8 36
Inc
Old
Published Last pages are missing
D, H Poetry
1 36.6 x 214
19.17 65
old 1932 v s
D, H. Poet ry
26 6x17 3 44.13 35
Good
P.
D; H
Poetry
1
17 8 x 13.5 12 10 21
Old 1918 V. S
Page #38
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________________
8
]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıddhant Bhavan, Arrah
1
1
2
1
3
1
4
36
Ga!158
Khemacandra
Gajasingh Gunamäla Caritra
Ga/176
Gajasingh Caritia
Gupamālā
Khemacandra
38
Kha/160/1
Hanumāna-Caritra
Brah majita
Kha/11
Hanumāna Caritra
Brahmajita
Kha/198
Hanumāna Caritra
Brahmajita
41
Jha/64
Hanumāna Caritra
Brahmajita
Ga/83
Hanumāna Casitra
Anantz-Kinti
Ga/102
Hanumāna Caritra
Ananta-Kirti
44
Jha/83
Harivamsa Purapa
Raidhū
45
Jha/63
Hariyamsa Purāpa
Jasakirti
46
Jha/87
Harivamsa Purāņa
Brahma Jinadasa
Kha/2
Harivam a Purāna
Jinasenācārya
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 13
Catalogue of Sanskrit. Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Parana, Carita, Katha ) ol7 8 9 10 1
11
D; H, Prose
21.3 x 15 6 Ic Good
36 11 26
Durgāprasada seems to b copier.
D,Skt Prose
35 3 x16 3
35 10 52
Dood
1987 V. S
D,Skt | 35 5x16 6 Poetry | 24.13 46
Good 1993 V S
Unpub Slokas No 995 copieda by Rośanalāla Jan
D, H Prose
| 26 7 X168
56 15 30
Good 1918 Vs
P.
Published.
D.Skt Prose Poētry
28 3 x 177
46 27 26
Good 1972 V
S.
D,Abb Poetry
35 5 x 17 4
93 12 52
Cood 1976 VS
It is also called - Adipura ja 4000 Gathas Copied by Rajadhara Lal Jain.
D, Skt Prose
29 8 x 14 6
6 10 47
Inc
Old
1
It is also called Nandissvaris tähnikā katha or Siddhaca' rakathā Unpublished 0 page No -14 to 19th availa.is
D, H Poetry
26 5x17 6
10 13 38
Good 1962 V. S
D, H Poctry
15.5x16 1
39 12.20
Old 1895 V
s.
Old
D,Skt/H 27 6x18 2 Poctry37.13.33 Prose
D,Skt. Poctry
35.1 x 16 1
104.13,50
Good 1990 V. S.
Copied by Rosanalala in Arrah
P.
Old
D,Ski. Poetry
22 8 x 1.38 133.15.33
First page is msnr. LS Page is Damaged.
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
141
. श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Srddhunt Bhavan, Arrah 2
3
4
Kha/ 111
Nemi-Purāna
Brahma Nemidatta
72
Gal 4
l
Nemi-Purana
73
Nga/ 1/7/1
Neminátha Ristâ
Hemaiāja
74
Kha/ 146/2
Neminirvana-Kavya
Vagbhatta
75
Jha/ 130
Neminni vána Kvāya Panjikā
Bhattaraka Jnanabhūşana
76
Gal 41/1
Nışı Bhojana Katha
Bhārāmalla
77 | Ga; 79/3 | Nışı Bhojana Katha
| Bhârāmalla
Kha/ 179/3
Nirdoşa Saptamí Katha
79
Kha, 266
Padma Caita tippana
Candramuni
Padma-Puia a
Ravis nācārya
81
Khel 107
Padma-Purân?
Ravisenāc y3
$2
Gap 1471
Padma-Purana
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Purana Carila, Kathā)
6
P
P.
P
P,
P.
P
P.
P
P
P
P
P
7
· D,Skt. Poetry
D, H. Piose
Poetry
D, H Poetry
D, Skt Poetry
D, Skt Prose
D, H
Poetry
D, H Poetry
D,Skt Prose
D,Skt Poetry
D,Skt Poetry
8
D, H Prose
22 6×14 8 Inc 84.13.37
35 5x18 1
145 14 46
20 4 x 13 8
11 12 11
31 3 x15 4 45 11 38
D,Hindi 25 5x11 7 Poetiy
6 6 33
35 5x17 3 48 15 45
27 6x17 4 20 13 44
32 6x16 9 13 11 37
35 4x17 5 34 12.55
40×19 - 487 13 46
25x11 65 9 44
9
32 2x15 8 311 12 47
C
C
C
C
C
C
C
C
C
Inc
Inc
10
Old
1665 V. S.
Good 1962 V. S
Good
Old 1727 V S
Good
Good 1962 V. S
Good 1955 V S
Good
Gocd
1894 V. S.
Good 1885 V. S
Old
Published. From page No 2 to 43 are missing in begining and last pages are also missing.
First page is missing.
Published.
11
Published.
Published. Copied by DurgaLala.
Published.
[ 15
Published Copied by Brahanana Gour Tiwary
Published First 17 pages and last pages are missing
Good
Fist 301 Pages are m ss no 1890 V. S. Raghunath Sharma ՏՐ to be copier.
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
16 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
i
2
3
1
4
Ga/69
Padma Purana Vacanikā
Ga/8
Padma-Purana Vacaniha | Daulata-āna
Ga/116
Padma-Purana Bhāsā
Dulat-Rāma
Kha/3
Pandava-Du â 11
Subhacandra Bhattā ald
Ga/40
Pândava-Purāna
Bula' í dāsa
Jha/129
Pārsva Pu ana
Raidhū
Jha/79
Pārsva Purana
Sa kalakirti
Kha,108
Pārsva-Purána
Sakalakirti
Ga/30/2
Pārsva-Purâna
Bhūdharadāsa
Ga/131
Pārsva-Purana
Bhüdhara 'āsa
Kha/8
Pradyumna-Carita
Somakir 11-Sūri
Kha/9
Pradyumna-Car
Somakieti Sûri
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Purana Carita, Katha )
[ 9
6
7
8
9
10
D, H. 25 3 11 2 Poetry | 108 13 44
Old 1788 V
S
DH Poetry
33 4 x 20 8 87 13.43
Good 1984 V
S
Old
ID Sk
Poetry
27 8 x 12 4 85 14 86
Published
Inc
Old
D, Skt Poetry
31 2x15 4 81 11 45
Published 9th 10th & 11th Sargas are missing
D,Skt Poetry
i 29 2 x 17 9
67 13 48
recent 1978 VS1
It is also called Añjani Caritra
D,Sit Poetio
33 5 x 20 7 67.12 40
C
Good
Copied by Bhujawala Prasada Jaini.
DH, Poetry
28 9 X 15 4' 54 11 35
C
Good 1901 V. S
DH. Poetry
32.2 x 20 1 43 13.35
Good 1955 V
s.
D, Apb Poetry
34 3 x 21 1 10 213.50
Inc
Copied by Pt, Sivadayāla Caubay.
1987 V. S
D, Apb 33 9 x 21 5 Poetry 121 12 45
C
Good
Unpublished,
D,Skt, Poetry
33 4 x 20 7 201.14 42
Good 1988
Unpublished Copied by Pt, Sivadayāla Caubay,
Good
Pub ished,
D,Skt Poetry
35 5x16 435 10 32
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
•
10 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
48
49
50
51
52
53
55
56
57
58
2
59
Ga/2
Ga/117
54 Kha/27
Kha/126
Jha/94
Jha/114
Ga/62
Ga/60
Jha/121
Kha/166/2
Ga/39,
Kha/116/1
Harivamsa Purana Vacanikä
3
Harivamsa-Purana
Jambuswâmí-Caritra
Jambuswami Caritra
Jambuswämí Caritra
Jambuswämí-Kathå
Jayakumara Caritra
Jinadatta-Car.ta Vacanika
Jinendra Mahatmya Purana
Jinamukhavalokana
Katha
Jivandhara Caritra
Kathavali
Daulata Rama
f
Brahma Jinadása
Sakala-Kirti
Râjamalla
Jinadasa
4
Brahma Kamaraja
PannaLala
Bhattarak Bhûşana
Sakalchi ti
ndra
Nathamal, Vla
1
I
5
! ! ! !
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 11
Catalogue of Sanskrit. Plakut,'Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Purāna Carita, Kathā ) ..
6
7
8
9
10
11
D, H, Prose Poetry
33 2x17 3 512 12 54
Good 1884 V. S.
21,000 Anustup Chhandas are in the ms.
Inc | Old
D, H Poetry
26 2x11 5 128 12 44
P1
Diskt, Poetry
29 2x18 7
83 12.42
Good 1608 V. S.
published, Copied by
Gulajari Lala Sarma
D, Skt, 27 8 x 12 5 Poetry117 10 32
Good 1664 V S
Capied by saħa Rāmãnkena, It is same to Last one,
D,Skt, Potiy
35 1 x 16,4
69 12 51
Good 1992 V
Copied by Rašana Lāla.
S
D, H, 131 5 x14 3 Poetiy 28 9.37
Good 1883 A
Copied by Duragãprasāda Jajni.
D.
D, Skt Poetry
26 9 x11 5
86 11 40
Old 1842 V. S.
It is also called Jayapurāna.
32 1 x 121
113 7 38
Cld 1931 V
S
D,Skt, | 45.8 x 22 1 Poetry 776 16 60
Good 1992 V S
Copied by Rašanalala Jain Unpub. Slockas No, 76000 Vesten two and one book
D,Skt, Poetry
25 2x117
14 12 52
C
old 1932 V. S
Copied by Bt Paramananda.
D; H, Poeti y
27 9x18 2 106,14,45
Good 1961
D,Skt, Poetry
1 Old
1679 V. S
Copied by Brahmbeni Dása.
103.10 421
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhivan, Arrah 1 3
4
21
Ga/110/4
Kudeva Caritra
61/1
Jha/85
Madanaparājaya
Jinadeva
61/2
Jha/132
Mahipala Caritra
Cáritra-Bhūşana Muni
Ga/171
Mahipala Caritra
Nathamala
63
Kha/183
Maithali Kalyana Nataka
Hastimalla Kavi
64
Kha, 264
Megheśvara Caritra
Maha Kavi Raidhū
||
*65
Kha/62/3
Nandisvara VrataKathy
Subhacandrâcârya
Ga/85/2 (Kha)
Nemi Cañdrika
Ga/85/2 (Ka)
Nemiântha Candiikā
Munnalala
Ga/165
Neminatha Caritra
Vikrama Kavi
Jha,'111
Nemipurāna
|
Brahma Nemilatta
.
70
Jha/C6
Nemi-Purāna
Brahma Nemidattal
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 17
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Purāņa Carta, Kathā ) oi 7 8 | 9 | 10 1 11
D, H Prose
34 8 x15 8 | 749 11 43
Good 1953 V S
Colour panting by commentator on the wooden cover.
P
D
, H Poetry
32 8 x17 2 327 17 51
Good 1845 V. S
| D H
Poetry
34 3x19 6 1246 12 45
Old
D,Skt Poetry
32 5x17 6 143 14 58
Good 1820 V S
Publisheed copied by Pandit Māyā Rāma
D, H Poetry
Inc
26 7 x 17 7 195 13 37
Cood
Last pages are missing
D, Apb Poetry
35 5 x 16 7
38 13 52
Good 1993 Vs
D, Skt Poetry
32 8 x 17 8
96 11,83
Good
1
D, Skt 24 3x15 2 poetry179 10 32
Old 1891 VS
Published
D, H Poe.ry
33 5x16 1' 55 14 53
Crood 1856 VS
Copied by Rāmasukhadisa
1
D, H Poetry
33 1 x 20 3
80 12 45
Good 1953 V
Copied by cunnimätí
S
D,Skt Poetry
28 5x13 6 |
C
241 9 45
Good 1943 V S
Published Natwarlala Sharma copied it
D,Skt Poetry
27 7x144 271 10 39
Old
Published. Capied by 1777 VS1
Sri Rai Singh
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
18 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıddant Bhavan, Arrah 11 2 1
4
5
95
Kha/167
Pradyumncaaritra
Somakirtı Sürı
.96
Kha/147/1
Pradyumncaaritra
Somakirti Sūri
97
Ga/133
Punyaśrava Katha
Dai latarama
98
Jha/11
Punysärava Katha
99
Jha/82
Panjaśrava kathā Koşa
Bhavasingh
100
Ga/90
Panyáśrava kathā Kosa
Bhāvasinha
101
Jha/107
Purâņasāra Samgraha
Dāmanandi
102
Jha/12
Pūjyapāda Caritra
Padmaraja Kavi
103/1
Ga/155
Ramayasorasayana Rasa
Keşaraja Rţi
103/2
Nga/6/10
Ratnatraya Katha
104
Nga/516
Ratnarayavrata Pūjā | Jincndrasena Katha
105
Nga/6/8
Ravivraga Katha
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hndi Manuscripts (Purana, Carsta, Kathā)
6
P
P
P
P
P
P
P
P
P
P.
P.
7
D,Skt Poetry
D;Skt Poetry
DH
Prose
Poetry
D H. Prose/ Poetry
D, H
Poetry
D, H,
Poetry
D,Skt Poetry
D; K. Poetry
D; H, Poetry
D; H. Poetry
24 7 x 11.3 151 15 40
1
8
30 2x14 1 126 13 46
32 5x19 6 178 14 34
D, H Poetry
27 2×14 6 50 13.36
31 1x12 5 347 10 43
35 6×21 3 167 16 47
34.9 x 16 3 55 13 50
33 5x17 2 105.10 44
25 5x11,00 224,15,44
22.8 x18 1 4 17.20
D,Skt H 21 2x169 Poetry 15.17.20
22 8+18.1 2.17 19
9
C
C
C
Inc
C
C
C
с
Inc
C
C
C
10
Old 1752 V S.
Old
1769 V. S
Good 1874 V. S.
Good
Good
Good 1962 V S
Good 1990 V S
Good 1932
Good
Good
Good
Good
Published
Published
11
D
Last pages are missing.
Copied by Pandita Sita Ram Sastri.
[ 19
Copied by Rosanalal. Jain It, also called caturvimatipurāna.
Ninty three pages are missing
7
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
20 1.
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
12
3
4
1.5
Nga/1/6/2
Ravıvrata Katha
Bhanukríti
Jha/109
Râjâvalı Katha
Deyacandra
108
Ga/168
Rāmapamāropama Purana
1
109
Kha/257
Rāma Purana
Somasena
1
110
Jha/35/7
Roh ni Katha
Hemarāja
1
111
Kha/185/2
Rotatijavrata Kathā
Jamnendra Kishora
1
Ga/72
Rotatijavrata Katha
Jainendra Kishora
1
Jha/104
Rşabha Purana
Sakalakirti
1
Ga/98/1
Samyaktva Kaumudi
Jodharaja Godika
1
Ga/98/2
Samyaktva Kaumudi
1
Ga/130
Samyaktva Kaumudi
1
117
Ga8/39/
Samyaktava Kaumudi
1
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 21
Catalogue of Sanskrit. Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Purấna. Carla Kathā ) . . 6 7 8 9 10
11
D, H Poetry
18 2x138
3 16 18
I c
Good
Good
| Good
DK. Piose
34 6 X 16 5 298 10 50
DH 26 2 x14 2 Poetry1 40 11 34
C
Good
D, Skt Poetry
246 11 48
Good 1986 V S
It is also called padmapurâna.
DH poetry
16 1 X16 1
4 13 19
Good
DH Poetry
23 0 x140
17 6 38
I
Good 1950 V
S
D,H Poetry
23 2x141
10 8 21
C
Gocd
Diskt. Poetry'
30 5 x 14 3 167 13 43
O.
It is also called Rşabhadeva caritra un published
DH
28 3 x 13 91 C 69 11 32
Gocd.
Poetry
D,H
28 1x16 3
93 10 33
Poetry
Good 1913 V
Slokas 1700
S
D,Ski Poetry
30 1x14.8
32 13 24
Inc
Good
P
DH
38 2 x 20 8 135 14 53
Good 1970 V. S.
Copied by Bhelírămâ.
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
22 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
118
119
120
121
122
123
124
125
126
127
128
129
2
Ga/136/1
Nga/5/3
Nga/1/2/4
Ga/161
Jha/95/1
Jha/95/2
Jha/96
Kha/66
Ga/45
Ga/43
Ga/41/3
Ga/101/2
Samyaktva-Kaumudi
3
Sankata catuthi Katha
Sañkata caturthi Katha Devendrabhüşana
Saptavyasana caritra
Saptavyasana Kathā
Saptavyasana Katha
Sayyadana Vañka Cúlí Kathä
Santināthā Purana
Santinätha Purana
Santinatha Purana
Šilakathǎ
Sílakatha
4
Jodharaja Godíkā
Devendrabhuşana
Bhärämalla
Somakirti
Somakirti
Sakalaki:ti
Sevärāma
Sevärâma
Bhärämalla
"
5
1
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Purana Carita, Kathā)
6
P.
P
P
P
P
P
P
P.
P
P
P
P
7
D; H. Poetry
D, H. Poetry
D; H Poetry
D, H Poetry
D,Skt
Poety
D, H
Poetry
D, Skt
Poetry
D,Ski Poetry
D, H Poetry
D, H.
Poetry
D, H Poetry
D; H Poetry
8
29.8 x18 8 46.16.34
20.1 x17.3 4 11 26
17 8 x 13 5 5 10.18
32 2x18 5 95 13 45
29 8 x 13 5 163.10 20
38.3 ×25 5 163 26 20
20 2 x 11 3 5 18.61
30 0x19 0 172 12.47
32 5 x 18 6 189.17 36
31 6x16 5 247.12.42
27 6×16.7 24.14.36
9
с
C
C
с
C
C
C
C
C
C
Inc
33 1x18 5 C 27.12.41
Good
10
Good
Good
Good 1977 V S
Good
1829 V S
Good
1626 V S
Good
Old 1621 V S
Old
Good. 1943 V. S.
Good
Old
11
Damaged.
[ 23
5672 Ślokas; Published Cop1ed by Guljari Lala Sharma
24, 25 and Last pages are missing.
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
24 1
Shri Dei akumar Jain Oriental Library, Jan siddhant Bhavan, Arrah
1
130
131
132
133
134
135
136
137
138
139
140
2
Ga/99/2
Ga/101/1
Ga/138/2
Ga/91
Jha/125
Jha/128
Kha/96
Ga/82
Ga/150
Kha/88
Silakatha
141 Ga/16
Sílakathä
Silaka thā
3
Śrenıkacaritra
Śrenıkacaritra
Śrenikacaritra
Śrenikacaritra
Śrenikapurāna
Srípālacaritra
111
Śrípalacăritra
Ga/16/1 Śripālacaritra
Śrípälacaritra
4
Bhārāmalla
Subhacandra
Subhacandra
Jayamitra
Jayamitra
Vijayakírti
Brahmanemıdatta D/o Bhattaraka Mallibhūşana.
5
Į
T
I
11 I
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 25
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Purâna, Carita Katha )
olilotol 10 T.
10
11
D, H Poetry
33 1 x 16 8
31 11 33
Good 1905 V
S
D, H Poetry
33 1 x 14 1
37 10 36
Good
25 2 x16 1
49 10 24
c
|D, H
Poetry
old
D, H. 1 35 3 x 20 3 Poetry 93.16 57
Good 1962 V
Copied by Pt Sitärâma
S
D, Skt Poetry
35 1 x16 3
64 13 48
Good 1993 VS
Good
D,Apb, Poe'ry
35 6 x16 5
35 13 51
This another title of Vardhamânakavya unpublished Copied by Rosadalāla Jain
D,Apb Poetry
25 8 x 11 5
75 13 37
c
old
Unpublished
C
D, H Poetry
| 28 8 x 16 7
116.11 32
Good 1929 V. S
P
D
, H. Poetry
30 5 x 14 3
175 9 28
Good 1895 V S
Hariprasad seems to be copier Author's name is not mantioned.
D,Skt Poetry
35.2 x15 3
51.11 57
Old
Unpublished.
1837 V. S.
D; H. Poetry
30 1x14 8 154.10.35
Inc.
Good
Lası pages are missing
P
D, H. 34.5 x 16 7 1 C Poetry112 12 42
old First and Third pages are 1891 V, S. L missi g.
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
26 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhuvan, Arrah
1
2
]
3
Kha,252
Siipurāna
Hastimalla
143
Kha/150/1
Padmasundara
Sruta-Pancamí-Viata Katha (Bhavisyadatta Caritra]
144/1
Kha/127/1
Sudarsana Caritia
Sakalakíti
144/2
Kha/73/2
Sudarśana Setha Katha
145
Nga/1/2/5
Sugandhadaśami Kathā
Jnānasāgara
146
Jha/87
Sukošala Caritra
Rudhu
147
Kha, 6
Uttara Purana
Gunabhadrācārya
148
Ga/11
Uttara Pujāna
149
Kha/157/1
Vardhamāna Caritra
Sakalakirti
1:0 | Gal46
Vardhamana Purana
Khuśácanda
1
Ga/57
Vişnu kumāra Katha
Vinodi Lāla
152
Kha/77
Vratakatha Kosa
Srutásāgara
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 27
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hındt Manuscripts
( Purāņa Canta, Kathā )
6;
7
8
9
10
11
D,Skt -
33 5 x 20 7 Ic 38 13 39
Good
Unpublished
Poetry
D, Skt, Poetry
Last page is damaged
Old 1800 V S
31 3 x 12 4
42 11 56
900 Slokas published,
D,Skt Poetry
27 3 x 18 1
42.12 40
Old 1737 SakaSamvita
D,Skt Poetry
22 5x16 5
4 3 26
Good
Good
D, H Poetry
1 17 8 x 13 5
6 10 18
D,Apb.
33 7 x 19 5
17 16 49
Good 1987 VS
Unpublished
PiD,Skt 32 5 x 14 6
Poetry | 309 12 46
Good Published conta ns 1300 VS | 20,000 slokas
Good
First page is missing
DH Poetry
32 6 X 16 5 262 12 46
D,Skt 26 5x12,8 Poetry1 122 10 42
Old 1886 V S
called
Published It is also varddbamānapurana
1
D H Poetry
33 3 x 17 1
92 12 45
Good 1884 V S. Saka 1749
D, H Poetry
28 3 x14 7
27 7 25
Good 1947 V. S
D.Skt. Poetry
29 5x 13 5
71.14 47
Good 1937 VS!
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
28
1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jin Siddhant Bhavan Arrah
1
2
3
4
5
Kha/92
Yasodhara caritra
Vasavas na
Jha/93
Yasodhara caritra
155
Kha/82
Yagodhara caritra
Vădirājasūu
Kha/133
Adhyātma kalpa druma | Muni Sundarsûri
Ga/86
Adhyatma Barakhari
158
Ga/163
Anyamatasara
Venicandra
1591
Jha,'6
Arthapralaśika Tika
160
Ga/49/1
Aştapahuda Vaeanika
Kuñdakanda
Jayacanda
161
Ga/49/1
162
Kha/101
Acârasara
Viranands
163
Nga/2/23
Alāpapaddhati
Devasena
164
Kha/173/4
Alāpapaddbati
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 29
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratisha & Hindi Manuscrpts
( Dharma, Darśana, Acara ) .
7
8
| 9
|
10
11
D, Skt. Poeriy
27.4 x 12 5
44 9 14
Old 1732 V. S.
D, Skt Poetry
26 6 x 11.3
28 12.48
Incold
1501 V, S
Page No 4 and 5 are missing
D;Skt Poctry
29 7 x 15 4
23,10 38
Good 2440 Via S
Uppublished
D, Skt, Poetry
Published
26 3 x112
24 11.53
Old 1800 VS
D; H Poetry
First two pages are missing
24.1 x17 2
42 21 19
Old
D, H, Poetry/ Prose
28 3 x111
67.6.43
Old 1936 V S
D, H Poetiy
29 1 x 20 41
51 14 35
| Good
It is commentary on Tattiār thasūtia Las. pages are missing
D, H, Prose
34 8 x 21 3 Ic Good | 194 13 38
D, H Poetry
35 7 21 3 156 14 44
Good 1946 V S
Copied by Gangārama
D;Skt, Poetry
20 8 X 11 2
72 10 38
Oid 1932 Saka
Sm
À
p.
D,Skt Prose
19 4x15 5
18 13.15
Good
Published.
D,Skt, Prose
27 2x17 5
8 13 35
Old 1949 V. S.
It is also called Nayacakra.
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
30 ]
श्री ज; सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Juin Siddhant Bhavan, Anah
12
3
165
Nga/2/31
Ārädhanäsāra mula
Devasena
166
Ga/151/1
Aradhanasara
Pannilala
Kha/275
Ārādhanására
Ravicandra
Kha/177/12
Aşāıha Bhūtı caupãi
Āsādha Phūti Muna
Ga/86/2
Ātmabodha-Nāma mala
Jha/113
Atmitativa-Parikşana
Devarajaraja
Jha/112
Atmânusai
172
Kha/115/2
Ātmánušāsana
Gunabhadra 0/0 Jinasena
Kha/105/3
Ātmânuśāsana
Gunabhadra
G1/14572
Ātman usasan tíká
Gunabhadra
Kha/165/7
Avśyakavidhi Sutra
176
Ga/108
Banârast-Vilasa
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
6|
P
P
P.
P.
P
P.
P
P
P
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts [ 31 (Dharma, Darśana, Ācāra)
P
P
P.
7
D, Pkt
Poetry
D,Pkt/H Prose/ Poetry
D,skt Po try
D, H Poetry
D, H Poetry
D, Skt
Prose
D,Skt Poetry
D,Skt poetry
D,Skt Poetry
D,Skt/H Prose/
Poetry
D,Pkt Poetry
D, H Poetry
8
19 4x15 5
13 13.16
32 3x12 5
45 7 35
20 4 x 17 4 46 12 23
24 6x11 1
12 13 36
24 1×17 2 32 21 16
35 2 x16 5 14 8 32
35 2x16 2
2 8.34
31 8x14 1
33 9 44
29 5x15 5
20 9 52
28 5 × 14 7
156 10 36
25 8x10 8 77 59
23 9x158 109 19 20
9
C
C
C
C
C
C
C
C
Ο
C
C
C
Inc
10
Good
Good
1931 V S
Old
1767 V S
Good
Contains 247 Slokas Copied 1944 A D. by N Chandra Rajendra
Good
Good
Good
Old 1940 V S
Good
Old 1858 V S
Old
1642 V S
Old
Published
11
Published
Opeming and closing pages
are missing
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
32 J
श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रम्यावली
Shri Devakamar Jain Oriental Labrary, Jain Siddhant Bh was Arrak
?
1 |
177
178
179
180
181
182
183
184
185
186
187
188
Ga/1
Ga/111/1
Kha/215
2
Kha/216
Kha/199
Kha/124
Kha/189
Kha/136/1
Ga/6
Ga/95
Ga/110/3
C-3
3
Bhagavat Aradhana
Bisa Paraha
Bhavyakanthabharana
pañjiká
Bhavyananda Sara
Bhavasamgraha
Bhavasamgraha
Bhavanäsara Sangraha
Brahmacaryataka
Brahma-Vilasa
Bramba Brama-Nirupana
Buddhi-Prakasa
4
S.vacārya (Sivakoti) Sadāsukha
I asa
Arhaddasa
Pandeya Bhupati
Śrutamuni
Vamadeva
Camunda Raya
Padmanandı
Bhagawati-Dasa
Dipacanda
1
5
1
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrathsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darśana, Ācāra ).
[ 33
0
7
1
8
9
10
11
D,Pkt/H
Prose/ Poetry
35 5 x18 1 | 410 13 54
Good
D, H Poetry
20 7x16 6 08 11 28
old 1749 V
S
D, Skt Poetry
16 9 x 153
23 11 27
Good 2451 Vira S
Copied by Nemirāja.
D, Sk: Poetry
16 3x15 2 12 11 30
Good 2451 Vira S
Copied by Nemuāja apd Sketched of Bahubals on frist page
29 8 x 19
6 19 935
C
D.Pkt Poetry
Good
It is also calle Bhavatribhangi
P
D, Skt Poetry
28 4x11 5
48 8 40
Old
1900 Y
S
Published
D, Skt Poetry
26 3 x 10 6
69 10 57
C
Old
1598 V
s
It is also called caritrasāra.
It is also called
D,Ski 34 5 x 20 6 Prose 1111 15 52 Poetry
Good 1939 y s
Copied by Suganachanda.
D, H Poetiy
31 8 x 14 3
129 9 48
Good 1755 V S
D, H Prose
37 6 x 19 9 198 12 37
Good 1954 Vs
D, H Poetry
20 7 x 16 1
16 14 15
Good
P.ID, H
Poetry
31 8x19 1
99 14 50
Good 1978 Y. S
Copicd by Pt Dubay Rūpanấrayana
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
34')
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
11
2
3
4
|
5
189
Ga/172
Buddhi-Vilasa
Bakhatarıma
Ga/10617
Candrasataka
Kha/175/1
Carcã Nămâvali
192
Ga/135/3
Carcasataka Vacanıkā
Dyanataraya
193
Ga/48/1
194
Ga/48/2
195
Ga/146
Carca Samgraha
196
Ga/152/1
Carcă Samadhāna
Bhūdharadāsa
Ga/13
Durgalala
198
Ga/135
Carcasagara Vacanikā
Swarūpa
Ga/67
Caritrasara Vacanika
200
Ga/121
Camuñdaraya
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
35
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscrpts
( Dharma, Darsana, Ācāra. )
61
7
|
10
11
| 8 | 9 32 3 x17 5 32 3x17 5 | c
68 13 46
pl D. H
old 1089 vs
Poetry
P
D
Old
, H Poetry
23 9 x16 8
10 25 26
D, H Poetry
261x16 8 49 12 28
1 old 1942 V S
Copied by Pt Chobey Mathura Prasada.
D, H Prose
| 31 8 x16 1
83 10 40
Good 1914 V. S
Copied by Nandarâma.
Inc
Old
Last pages are missing.
D, H Prose Poetry
25 1 X 14 3
41 10 26
D, H, Piose Poetry
33 3x21 7 91 16 23
1
Good 1929 V
S
D, H Prose) Poetry
32 8 x 15 8 353 12 35
Good 1854 V. S
Fatecanda sanghai seems to be copier
Old
D, H Prosc/
27-9 x 12 9
80 13 37
Poetry
'D, H, 27 7x16 2
1133 10 32
Good 1959 Vs
Try
D, H Prose/ Poetry
29 2 x 19 2 242 19 32
Good
D, H 27 5x19 6 Poetry | 103 14 26
Inc. Good
Last pages are missing.
D, H Prose
30 3 X15-8
212 9 36
Good
Last pages are missing.
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
36 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रन्थावली Shri Devakn moi Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
2
1
3
Kha/177/1
Caubisa thână
Kha/210 (K) Caubisaganagāthå
Kha/177/9
Caudasa guna Niyam
Ga/8074
Caudaha Gunasthāna
Kha/188/1
Causarana Painda
Ga/8613
Calagana
Kha/171/3
Chahadhāla
Doulata rāma
Kha/170/4
Chiyalısa doşa rahita āhāia Suddhi
Kha/161/1
Darśanasára
Devasena
Ga/32
Darsana sāra Vacanika
Ga/164
Dasalaksana Dharma
Sumatı Bhadra
Sada sukadása
Kha/214
Danaśasana
Vasupujya
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 37
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dhaima, Darśana, Acara. )
61
7
,
8
, 9
,
10
,
11
D, Pkt | 30 4x153 Poetry 18 11 39
Old 1725 V
S
PD,Pht/
H26 8 x15 8 Pros) 24 14 30 Poctry
Good 1967 V S
Capied by Karam canda Rämaji
D, H Prose
26 6 X11 ?
1 10 35
Good 1810 VS
Only on page is available
D, H Prose
23 2x15 3
57 22 22
Old 1890 V S
D, Pkt Poetry
25 2 x 10 8
11 14 28
Old 1682 v s
24 1x17 2
13 18 19
C
D, H Poetry
Good
D, H Poetry
20 6 x 17 8
11 12 29
C
Good 1950 VSI
P
Old
D, H Pocty
27 3 x 17 6 !
2 12 27
D,Pkt Poetiy
Published,
26 6 x 13 1
4 10 44
Old 1886 V, S
D, H Prose
Good 1923 V s.
105 11 58
D, H P.ose
22 8 x15 1
42 12 30
Good 1978 V. S
| Good
D, Skt Poetry
34 8 x14 5
59 10 55
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
38 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Dev kumar Jain Oriental Library, Jain Srddhant Bhivan, Arrah
3
15
213
Nga/2/21
Dravyasamgraha
Nemicandra
214
Kha/173/1
215/1
Nga/6/19
215/2
Kha/73/1
Ga/111/5
Ga/111/3
Ga, 79/2
Dyanata Raya
Ga/13417
Bhagavati Dāsa
Jha,50
Jha/30
Bhagavati
asa
Jha/25/1
Dyánata
raya
Kha/165/2
Dravyasamgraba satika
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
39
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darśana, Ācāra.)
6
7
8
9
10
11
Good
D,Pkt Poetry
19,4 x 5 5
6 13 15
D, Pkt, | 27 2x17 6 Poetry
68 42
Old 1948 VS
Published copied by Munindra Kirti
D, Pkt Poetry
22 8 x 18 1
6 13 16
Old 1273 Sana
Good
published
D,Pkt Poetry
16 7 x 12 8
12 10 13
Old
D, H Poetry
21 2 x 15 8 1 10 15 18
Last pages are missing.
P
1 01
D , Pkt/H | Poetry
21 3 x 16 7
18 16 15
P.
D,Pkt /h
Prose/ 1 Poetry
25 3 x 16 2
30 11 27
Good 1962 VS
D, H Poetry
30 3 x16 3
10 14 40
Good 1731 V. S
P
P, Pkt /H
Poetry
21 2x16,7
15 15 20
Old
D, H 18 2 x 10 8 Poetry | 33 7 23
Good 1731 VS
C
Good
D, H Poetry
22 9 X 15 4
9 23 19
Old
D, Pkt | 24 8 x 11 3
Set 24 10 50 Piose
Unpublished.
1721 V. S
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
40
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली - Shri Devakumar Jiun Oriental Library, Juin Siddhant Bhavan, Arrah
II 2
3
I
5
224
Ga/65
Nemicandra
Dravyasamngraha Vacan'ha
Jayaranda
225
Kha/125
Dharma Pariksa
Amitagati D/O Madhavasena
226
Kha/102
Amitagati
227
Ga/24
Manoharadása
228' Ga/25
229
Ga/71
230
Jha/65
Dharma Ratnakara
Jayasena
231
Kha/157
232
Ga/113
Dharm Ratno dhyota
Jagamohandāsa
233
Ga/100
234 | Ga/159
Dharmrasāyana
Padmanandı Muni Devídása
235
Kha/45
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 41
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hındi Manuscripts
( Dharma, Darśana, Acāra )
6
7
1
8
1
9
10
11
Good
D, H Poetry Prose
28 1 x 20 5
39 14 33
First page is missing
D,Skt Poetiy
27 2x13 4
110 9 34
Published
1681 VS
P.I
D,Skt Poetry
25 8 11 4
72 11 41
Old 1776 V
Published
s
Good
PD, H
Poetry
336x146
174 8 36
Contains 3300 chandas
Old
D, H Poetry
30 5x15 1 130 12 28
Copred by Dharmadása
p
D
, H, Poetry
23 4x12 6
242 9 20
Good 1860 VS
D, Skt Poetry
Published
33 7 x 20 8
80 12 43
Good 1985 V S
D, Skt, Poetry
26 4 x 12 5
144 9 46
Old 1910 V
Published From page 69th to 84rth are missing
S
D, H Poetry
28 3 x 14 3
232 9 21
Published
Good 1945 Vs
D, H Poetry
27 5 x 16 3 164 12 21
Good 1948 V S
Published, Copied by Nilakanthadása
D,Pkt/H Poctiy
33 1 X 16 5
19 14 42
Good
Published
P
D.Pkt/H
Poetry
30 6x16 5
18 5 45
Old
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
42
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devaknmar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
1
236
237
238
239
240
241
242
243
244
245
246
247
2
Ga/153
Ga/14
Ga/112/1
Kha/188/3
Jha/40/1
Jha/35/6
Kha/19/2
Kha/274
Ga/128/1
Ga/128/2
Nga/2/22
Kha/173/2
Dharma Vilasa
Tikā
Dharmopadesa Kávya
Dhalagana
39
99
3
Gommatasära (Jivakända)
Gommatasara-Vrtti
(Jivakanda)
Gommatasära (Jivakânda)
99
Gommatasära (Karmakand)
33
4
Dyanataraya
33
Lakşmivallabha
Nemicandra D/o Abhayanandı
Nemicandra
Todaramala
99
Nemicanda
5
I I
I
I
III
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 43
Catalogue of Sanskrit, Prakrt, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara)
11
o P.
71 8 | 9 | 10 D, H 278x131 C Good Prose 249 11 36
P.
D, H Poeti y
33 1 19 3 166 14 48
Gond 1941 VS
Good
D, H Poetry
21 9 x15 51 165 18 17
D,Skt Prose
Old
24 3x10 6
28 17 71
With syopajña vrtti,
| D, H
Poetry
15 4x119
C
Good
'It is collected in a Gutakā
D, H
16 1x161
10 14 20
C
Good
Poetry
D,Pkt
34 X168 C 48 14 65
old
Published
Poetry
D,Skt
Good
34 5X129 218 12 601
Published
Pkt
Prose/ poetry D, H Prose
46 5x225 635 16 72
Good 1848 V
S
D,Pkt Poetry
32 2 x 18 9
14 7 35
Good
D,Pkt Poetry
| 19 4x15 5
22 13 16
Inc
Good
D, Pkt Poetry
272x17 5
9 11.38
Incold
Last pages are missing
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
44 )
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
2
4
5
+
Jha/3
Nemicandia
Gommata sāra (Kaimakanda )
Hemarāja
Kha/134/4
Kha/192
Gotrapravara nitnaya
Ga/106/5
Gunasthāna carca
Ga/174
Guropadeśa śrávakācāra Dalūrāma
Ga/34
Guru Sışya Bodha
Kha/227,1
Hitopadcsa
255
Jha/90
Indianandisañhità
Indranandi
256
Ga/93/4
Iş. opadcśa
Pūjyapāda
Dharmadása
Ga/151/3
Jala Galanı
Megha kirti
Tha/97
Jambūdvipa-piajnapti Vyakhyána
Padmanandi
Kha/259
Jajnácara
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
6
P
P
P
P
P
P
P
P,
P
P
P
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts (Dharma, Darśana, Acara)
P.
7
D,Pkt/H Prose/
Poetry
D, H Prose
D,Skt Prose
D, H Piose
D, H Poetry
D, H Prose
D, skt Poetry
D,Pki Poetry
D, H Prose/ Poetry
D, H Poetry
D,Skt Prose
1
D, H Poetry
8
31.2x15 7 41 15 48
31 9 x16 6
60 12 40
34 1x21 5
4 21 29
23 9 × 16 8 36 25 26
32 4 x 17 5 183 12 40
27 1 x16 6 130 8 23
35 2 x 16 3 4 11 56
35 2 x21 6 23 11 52
27 7 x 17 1 4 11 32
26 2x12 2
3 13 29
35 3 x16 4
21 11 52
21 2×16 8 109 12 32
| و
Inc
C
с
C
C
Inc
C
C
Inc
C
C
C
Good 1888 V S
10
Cood
1845 V S
Good
Old 1736 V S
Good 1982 V S
Old
Good 1987 V S
Good 1987
Good
Old
Good 1979 V S.
Good
11
Written on register size paper
Copied by
Pt Bacculal Coubay.
129 Page is missing.
[ 45
Copied by Batuka Piasāda
Meghakirti seems to be Auther and copier
Copied by Batuka Prasad
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
46 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jun Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
4
Kha/225
Jinasamhita
Eakasandhi Bhattaraka
Kha/127/2
Jivasamāsa
Ga/127
Jnanasūtyodaya Nataka
Vadicandra Sūri
Bhàgacanda
263
Ga/52
Jñānasūryodaya Nataka Vacaniha
Ga/78
Jñāna Süryodaya Nataka Vacanika
Ga/87
Kha/164
Jñânârnava
Subhacand a
Kha/71
Ga/58/2
Ga/58/1
Vimalagani
Kha/163/3-4 | Jñānārna va Tıka
(Tatvatraya Prakaśini)
271
Kha/276
Karma Prakrtı
Abhayacandra Siddhanta Cakravartí
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 47
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darśana, Ācāra)
ol
7
8
| 9 |
10
| 11
P
D, Skt Piose
35 8 21 3
44 13 54
Inc
Old
In
D, Skt Poetry
24 4x15 2
2 10 32.
Only last two pages are available
P
D,Sk! /H' 27 4x128C Prose) 62 10 38 Poetry
Good 1961 V
Copied by Sitarama Śastri
S
D, Skt H Prose] Poetry
32 7x21 8
49 15 38
| Good
1945 V
S
P, H 21 2x11 3 Poetry i 109 8 29
Good 1869 VS
D, H,
Poetry
43 5 x26 8
56 24 34 1
Good 1946 V
S
Published
D, Skt Poetry
27 1 x 11 4
105 11 38
Old 1521 V
S
D, Skt 30 0 x16 5 Poetry
185 14 43
Old 1780 VS
Published
D, Skt Poetry
32 2 x16 3 245 14 42
Old 1870 V
Published
S
D, H Poetry
29 5 x 13 4 111 10 40
Copied by Shivalala
Good 1869 V S Sakes 1734
D, Skt | 25 4x11 6 Prose 1 0 10 36
Old
D, Skt Prose
20 4x17 4
42 12 29
Good 1944 A
Copied by N Rajendra.
Chandra
D
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
48 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devikumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhrvan, Arrah
5
Kha/109
Karmprakrti grañtha
| Nemicandrācārya
273 | Jha/43
Karmavipaka
274
Jha/58
Kaşayajaya Bhāvana
Kanakakirti
Kha/139
Kärtikeyânuprekşă Satika
Swami Kartikeya Subhacan
dra
Kha/142
276
Kha/85
277
Ga/17
Kārtikeyânupreksa Vatanıkā
Jayacandra
Kha/163/1
Kriyâkalāpa-tika
Prabhācandra
279
Ga/56
Kriyakalāpa Bhāşa
Jha/7 Kha
Laghu Tattvārtha
Nga/7 Ga/ii
Ga/157/9
Loka-Varnana
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts (Dharma, Darśana, Acara)
6
P
P
P
P
P
P
P
P
P
P
P
P
7
D, Pkt
octiy
D, Pkt
Poctry
D, Skt Poetry
D, Pkt
Skt
Poetry
D, Skt
Poetry
D, Pkt
Skt
Poetry
D. H Poetry
D, Skt
Prose
D, H Poetry
D, Skt Prose
D, Skt Prose
8
27 7x15 2 10 12 34
26 2×13 1 50 6 27
21 1 x17 3 97 21
D Pkt /H
Prose/ Poetry
31 8 x15 0 200 13 46
32 7x16 2 228 13 43
25 5X16 4 56 12 42
35 1 x 17 8 189 10 33
26 9 × 11 8 102 13 52
29 6 × 13 8 109 12 34
28 3 x 14 2 29 27
13 3 2 18 12
21 1
16 6 11 1 22 7 13
9
C
C
C
C
C
C
C
C
C
C
C
Inc
10
Old
1669 V S
Good 1966 V S
Good, 1926 A D
Old
Good 1858 V S
Good 1890 V S
Cood 1914 V S
Old
1570 V S
Good
1940 V S
Good
Good
Good
Published
11
Published in Jaina Siddhanta Bhaskara, Anah
Published Copied by Khemchandra
Published
[ 49
It is also named Arhatprava
cana
It is also named Arhatprava
cana
Last pages are missing
1
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratasha & Hindi Manuscripts [ 51
( Dharma, Darśana, Ācāra. )
6
7
8
9
10
10
11
P.
Good
Copied by Muni Sarvanandı.
D, Pkt /
Skt Poetry
32.2 x 20 6
70 13 43
P
DPkt,/H. 23 8 x16 3 Poetry 26.16 17
Old 1887 VS
D, H. Poetry
33 4x13 8
88.8 39
Good 1935 Vs
It is writen on thin paper
D; H Poetry
22 3x13 8 260 20.24
Old 1871 Vs
Old
D, H 25 5x16 4 Poetry335.14 14
Totel No of chhanda's 1353.
D; H Prose
Good
35 2 x 206 172 15 48
D; H Prose
34 5x 17 8 239 12 36
Good
D, H. Prose
30 9 x16 8
9 13 43
Good 1944 V. S
Sıyārām seems to be copier.
D,Skt /H. 19 9 x15,4 Poetry/ 27 12 16 Prose
Old 1918 V
First two pages are missing.
S
Good
D, Pkt. 20 7 x 16 7 Poetry | 108 11 30
1 Old
D; Skt. 35 7x21 2 Poetry 61 19 66
published
с
|
D; Skt Poetry
31 6 x 14 3 156 12 39
Old
Published copied by 1874 VSI Dayachandra
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
52]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devalcumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
2
į
3
4
· 295
Kha/211
Navaiatna Pariksā
Buddha-Bhauta
296
Ga/119
Nayacakra Satika
Hemarāja
297
Kha/201
Nitisára (Samaya Bhūşana)
Indianandi
298
Kha/105/
14 Nitisara
279
Kha/34
Nyáya kumuda candrodaya
Prabhācandra
300
Kha/21
Padmanandi
Padmanandı Pancavimśatika
301
Kha/30
302
Kha/160/3
Pañcamithyātva Varnana
Ga/70
Pancasitakäya Bhasa
304
Jha/18
Kundakunda
Hemar
305
Kha/265
Panca Samgraha
306
Jha/119
Paramärthopadesa
Jñanabhūşana
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 53
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darśana, Ācāra )
7
/
8
|
9
10
D, skt Poetry Prose
21 1x11 5
25 8 31
Recent 1925 V
S
D, H Prose
25 6 X 13 4
18 9 43
Good 1956 V
S
D,Skt
Good
29 8 x 19 4
9 7 36
Poetry
Published Samaya Bhūsana 18 written as litle of this work in last line
D, Skt Poetiy
Published
29 5x15 5
6 9 40
Good
Good
D, Skt Prose
32 2 x 20 1 333 16 54
Old
D, Skt, 32 x16 5 Poetry 59 10 60
Old
D, Skt Poetry
24 x 12 5
198 5 30
First page rottan.
1839 Vs
P
D
,Skt, Poetry
28 0x11 9
14 11 40
Good 1803 V
Unpublished
s.
D, H Prose
27 1x11 8
225 9 36
Inc
Old
First two and closing pages missing
P.
Inc
Old
D, Pkt/H Poctry/ Prose
| 24 1 x 15 1
88 18 17
Total pages are damaged
D, Pkt Poet, y
35 5 x 17 4
73 12 47
Good 1527 VS
P.
D, Sit Poet ry
35 3 x 164
8 13 53
Good 1992 V
Unpublished
S
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
54 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakr.mar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
5
Kha/170/3
Paramātma Prakása
Yogindradeva
Doulata Rama
Paramātma Prakāśa Vacanikā
Ga/81
310
Jha 57
Parasamaya-grantha
Ga/175
Praśnamälā bhāşa
Kha/227/2
Prabodhasara
Yasah kirti
Brahmadeva
Kha/67
Praśnottaropāsakācāra
Bhattāraka Sakalakirti
314
Kha/158
Praśnottara Srāvakācāra Bulakidāsa
Kha/165/6
Pratikramana Sūtra
317
Kha/246
Pravacana Pariksa
Nemicandra
Kha/279
Pravacana-Pravesa
Bhattákalanka
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 55
Cataluşuc of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Ācāia)
el 10
i
11
D, Apb! 29 4x16 5 Poetry 30 14 49
C
Published
Old 1829 V
s.
D, H Prose
31 5 x16 3 224 11 37
Good 1861 V S
D, H Prose
27 9 x16 3
47 9 25
C
Good
D,Skt 21 1 x16 9 Po try 20 12 17
C
Good
D, H Piose
32 5 x17 6
34 12 38
C
Cood
D, Skt Poetry
Good
35 2 x 16 3
2 11 60
Published
D, Skt Poetry
30,2 x 19 5 108 12 47
Good 1875 VS
Published 3300 Slokas, copied by Guljárılāla
D, Skt poetry
28 3 11 8 155 10 38
Published Last pages are missing
D, H Poetry
32 1 x16 3
77 13 56
Good 1821 VS
D, Pkt Prose/ Poctry
26 7 x 11 4
411 43
Old
D,Skt Prose/ Postry
D, Skt Poltry
20 9 x11 4
8 8 27
Good 1925 A
Copied by Nemi Raja
D
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
56 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Join Siddhant Bhavan, Arrah
1
319
320
321
322
323
324
326
327
328
2
329
Kha/152
Ga/35
Kha/285
325 Kha/141/3
Ga/134 Ka/7
Ga/73
Ga/54
Ga/89
Ga/50
Kha/59
Nga/2/36
330 Kha/200/1
Pravacanasara Vrtti
Pravacana-Sâra
Prāyaşcıtta
3
Punya Paccisi
Puruşartha-Siddhupaya
Ratnakaranda-Śrävakacara Müla
99
Ratna-karañda Śrávakācāra Vcanikā
Ratnamālā
Ratnakaranda Vışamapada
""
33
99
Kundakunda
Akalanka
4
Bhagavatidasa
Amrtacandra
Samañtabhadra
Samantabhadracarya
Śivakoti
"9
5
Amrtacandra Sūri
Vrndāvana
1
I
Todaramala
Camparama Sahaya
}
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 57
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darśana, Ācāra ),
olil & 1o | 10 Ti 11
P.
D, Skt Prose
28 2 x 14 1 116 11 45
Old 1705 V
Published,
S
D, H Poetry
28 8 x 18 3 171 12 29
Pu hed
Good 1 1966 VS
D, Skt Poetry
22 2x17 1
19.7 25
Good 1976 V
S
Copied by Pt Mūlacandra It is also called Sravakācāia, published,
D; H Poetry
30 3 x16 3!
4 14 45
Good 1733 V
S
D, H Prose
1 23 6 x 12 9
181 9 24
Good 1927 V s
D, H, Poetry
28 1 x16 2 2 00 9'26
Copied by Haracanda Raya
Good 1947 V
S
D, Skt. 33 4x 15 6 Poetry 8 10 46
C
Old
Publish
D, H Prose/ Poetry
34 5 x 25 3 325 17.42
Old 1929 V. S
D, H 33 1 X 20 2 Piosel 1128 16 45 Poetry
Good 1951 y
s
D, Skt Prose
35 5 x15 1
15 11 41
Good
D, Skt. 19 4x15 5 Poetry 713 16
Good
Published by MD. G Series, Bombay
Poetry
D, Skt. 29 8 x 19 4
6.8 37
Good
Published by MDG Series No 21. Bombay
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
58 J
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Biddhant Bhavan, Arrah
1
1
331
332
333
334
336
338
2
339
Kha/43
335 Nga/2/38
Ga/106/6
341
Nga/2/37
Jha/59
337 Nga/2/33
Jha/17
Jha/120
Kha/151
340 Kha/130
Kha/28
342 Ga/106/2
3
Rajavartíka
Rūpacandra-Sataka
Sadbodha-Cand. odaya
""
Sajjanacıtta-Vallabha
33
Sambodha-Pañcâstikā
Sambodha pañcâsıkâ
Satika
Samayasara (Atmakhyâtı Tıka)
Samayasara Satika
Samayasara Nataka
4
Akalanka
Rūpacandra
Padmanandı
Mallişena
23
Gautamaswami
Kundakunda
1
5
I
I
1
Haragulala
I
1
Amrtacandra Sūri
Amrtacandracarya
Amrtacandra Suri
Banarası
däsa
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
[59
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acāra )
6
7
8
9
10
D, Skt Prose
29 3 x 19 8 576 13 45
Good
Published by B J Delhi
alo o
Old
D, H Poctry
23 9 x16 8
3 25 30
o
Good
Unpublished,
D, Skt | 19 4 x15 5 Poetry
7 13 14
Good
D, Skt Poetry
21 2x17 1
10 7 20
o
Unpublished
P
o
Good
Published
D, Skt | 17 4x15 5
Poetry 6 13 15
P
o
D, Skt /
H 24 5x17 4 Poetry/l 25.14 30 Prose
Good 1953 VS
o
Good
D, Pkt | 19 4 x 15 5 Poetry 6 13 15
o
o
D, Pkt 35 4 x 16 3! Good C opied by Rosanalāla Skt 7 13 52
1992 V S. Poetry/ Prose D.Pkt / 29 4 x 13 5 1c Old Published by Digambar Jain Skt 165 10 52
Grantha Bhandar Series, Kasi Poetry/ Prose D, Pkt 27 8 x11 8
Old
Published Skt 124 11 56
1900 V. S Poetry
o
Inc
Old
Published last pages are missing
D.Pkt 1 | 25 9 x11 5 Skt
194 9 46 Poetry/ Prose D, H. 23 9 x 16 8 Poetry 45 26 29
o
Old 1735 V
S
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
60]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
4
1 5
343
Ga/107
Samayasära Nataka
Banarasidasa
344
a /80/1
345
Ga/115
Ga/126
,, Sārtha
347
Ga/152/5
348
Ga/111/4
349
Ga/30/1
350
Ga/149
351
Ga/152/4
352
Kha/35
Samyakatva Kaumudi
353
Ga/59/1
Samadh-Marana
Bakasa Rama
354
Jha/2
Samadhi-Tantra
Kundakundācārya
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 61
Catalogue of Sanskrit,, Prakrit,, apavhramsha & Hindi Manuscripts
. ( Dhai ma, Darsana, Acāra ), 61 7 / 8 | 9 10 1 11
D, H. Poetry
23,6 x15 8 c
87 23 24
old.
I
D. H Poetry
23 2 x 15 31 C
75 21 22
Oid 1890 V
S
C
D. H Poetry
22 8 x 13
5 122 14 20
Old 1745 V. s.
D
27 9 x 13 6 200 14 36
Good
Poetry
D, H
Old
Last pages are missing
Poetry
88 10 35
D, H
20.4x16 5 110 11 27
Good 1886 AD
Copied by Durga Prasad.
Poetry
D, H Poetry
32 5 x 16 2
54 12 48
Old 1862 V
S
DH Poetry
29 1 x 13 8
75 11 38
Old 1725 V
S
D, H 22 5 x 12 3 Poetry | 108 10 31
| Old
Copied by Nityanand Brah1876 VS man. 1st page is missing
D, Skt Poetry
29 4 x 20 2 105 12 33
Good
D, H Prose
28 5x12 81 C 15 10 48
Good 1862 V
S.
P. D,Sht/H. 31 3x15 7
Prose107 13 51 | Poetry
Good Copied by 1874 VS Raghunatha Sharma
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
62 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
I
| I
355
57
356 Kha/26
358
359
360
361
362
363
2
365
Ga/53
366
Ga/64/1
Kha/46/1
Ga/134/2
Kha/194
Kha/106
Jha/135
364 Kha/161/3
Kha/57
Nga/2/3
Nga/7/11 Kha/
3
Samadhi-tantra Satika
Samadhi-tantra
Samadhi-tantra Vacanika Manıkacañd
Samadhi-Sataka
Sammeda-Sikhara Mahatmya
Saptapancasadastravikā
Satvatribhangi
Satyasasana Pariksh
Sägäradharmamrita (Svopajna tika)
Samayika
4
Pujyapada
Lalacanda
Vidyanandi
Asadhara
1
-
and
5
T
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratisha & Hindi Manuscripts [ 63
(Dharma, Darsana, Acấra. )
of illel 10 I
11
11
P
Deskt H Poetry
32 1x14 4
152 133
013 1788 V
s
P
D, Skt Poetry
26 3x12 7
26 8 27
C
Old 1848 V
S
D, H Poetry Prose
32 2 x 12 3
31 7 40
Good 1938 V
S
D, Skt Poetry
25 4x108
14 4 42
Old 1814 VS
Published. It is also called samadhi tantra
D, H. Poetry
32 2x17 5
34 13 43
Good 1933 y
Copied by Gulalcand Slokas No 1260
S
Good
D, Skt, 34 1 X21 5 Prose/ 65.21.30 Poetry
Written on register size paper
P
D
,Pkt Poetry
34 X14 4
11.12.48
Good
Copied by Rangnātha Bhattāraka.
D, Skt, Prose
Published
20 8 x 16 8
78.20 25
Good
D, Skt | 34 6 X14 2 Prose 29 12.53
Good
Published
by M
Old
Published 1900 Y SI Bombay.
D
D, Skt Poetry
G.
25 6 x 12 7
154 12 40
D, Pkt Prosel Poetry
19 4X15 5
22 13 14
Good
P.
D, Skt Poetry
21 1x13 3
1.18.14
Good
1
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
64 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली' Shri Devaknmar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
361
Nga/7/9
Sāmāyika
368
Nga/2/17
369 | Ga/22
»
Vacanıkā
Jayacanda
370
Ga/76
371 1
Kha/150/3
Sāsna Prabhāvanā
Vasunandi
372
Kha/53
Sastrasāra Samuccaya
373
Kha/110
Sidhāntāgama Prasasti
374
Kha/81
Siddhấntasāra
Jinendra ?
375
Kha/46/3
Sakalakirti Bhattarka
3761
Kha/40/3
Siddhāntasära Dipaka
3771
Kha/280
Siddhivin işcaya Tika
Anañta-Virya
378
Kha/170/1
Slokavarttiba
Vidyanandi
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
( 65
Catalogue of Sanskrit, Praknt, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Ācāra)
6
7
8
9
10
11
21 1x102
c
Old
5 16 13
D, Skt|
н Poetry Prose D, H Piose
19 4x15 5:
3 12 15
C
Good
D, H Po try
27 4x14 6
38 12 35
Good 1870 V
S
D,
H Poetry
21 4x11 3
94 6 23
C
Good
D,Skt Prose
Old
30 8 x122
31 11 79
Unpublished
! D, Skt
Poetry
38 2 x 20 6 144 14 36
Old 1968 V
Last pages are missing.
S
D, Pkt Poetry
23,2 x 17 5
11 12 27
Good 1912 A
Copied by Tätya Nomināth Pāngal.
D
D, Pkt poetsy
29 6x153
6 10 35
C
Good
D, skt Poetry
| 32 8 x17 il
148 13 44
Old 1830 V
Unpublished
S
D,Skt Poetry
31 x 20 21 Inc 103 13 48
Old
Opening and closing are missing
D,Skt. Prose/ Poetry
34 6 X21 7
76 14 46
Good
It is first prastawa (chap ter) only
D, Skt Prose/ Poetry
28 3x1g 7! Inc 62 14 70
Good
Published, Last pages are missing
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
66 )
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली 8hı. Devakumar Jain Oriental Library, Joon Siddhant Bhavan, Arrah
2
4
|
5
379
Nga/2/2
Srấvaka Pratikiamana
3801
Jha/118
Srāvakâcāra
Guna-Bhūşana
381
Kha/203
Pūjyapada
382
Ga/28
383
Ga/63
384
Kha/160/5
Śrutaskandha
Brahma Hemacandra
385
Kha, 41
Śrutasagari Tika
Srutasāgara Sūri
386
Ga/922
Sudrıştı Tarangini
387
Ga 92/1
388
Jha/115
Sukhbodha-Tikā
Yogadeva
389
Ga/47
Dharmadása
Svaswarüpa Swānubh- ava Sūčaka (Satitra)
390
Ga/93/1
Svarūpa-Swānubhava Samyaka Jhāna (Sacitra)
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrt, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darśana, Ācāra )
6
7
1
8
9
10
11
PI
C
Good
D, Skt | 19 4x15 5
Pkt 1713 14 Prose
Poetry
0
D, Skt | 33 8 x16 4 Poetry 8 13 55
Good 1992 V. S.
Unpublished.
0
| D, Skt
Poetry
22 7x173
18 8 35
Good 1976 VS
D, H Prose
0
| 29 8 138 ! 219 10 37
Good 1888 V
Copied by Pt Shivalál
S
0
D, H Prose Poetry
28 6x117 136 11 60
Old 1 1858 V
S
0
D; Pkt, 27 8 x123'
8 12 44
Good
Published, by MDG Bombay
Poetry
D, Skt Prose
0
1 old
P.
35 2 x 20 173 15 58
Tatvärtha Sūtra's commentary
D, H Prose
0
34 2 x 17 8 1522 13 41
Good 1961 V
S
First page is missing Page No 301 to 329 are extra
| 35 6 x 21 2
94 13 36
| Inc
D, H Prose/ Poetry
Old
0
Prose
35 2 x 16 3
69 12 44
Good 1992 V. S
It is commentary of the Tatvärtha sutra, ( oUmāswāmi) First two pages are missing Unpublished
PD, H
Prose
0
| 34 3 x21 4
16 13 47
Old 1946 V
S
D, H.
Inc
Prose
33 1 x 18 5
14 12 39
Old
| Last pages are missing 1946 V. S.
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
,68 )
। श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Orı ntol Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
11 2
3
391
Jha/60
Svarūpa Sambodhana
Akalanka
392
Kha/52
Tatvaratna Pradipa
Dharmakirti
393
Nga/2/32
Tattvasāra
Devasena
394
Ga/111/2
,,
Bhâşa
395
Ga/61
,
Vacanikā
Panna Lala
Kha/181
Tattvānusâsana
3971 Jha/7
(Ka)
Tatvārthasara
Amritacandra Sūri
398
Jha/29
399
Kha/141/1
400
Kha/149
Śrutaság
Tatvärtha Sutra ( with Srutasāgarı Tika)
Umāsvāmi
ara Suri
401
Kha/186/2
1 Tatvartha Sūtra Mula
402
Kha/112/2
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 69
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Acabhramsha & Hindi Manuscrip:S
(Dharma, Darsana, Acara )
11
61 7 8
D, Skt 21 2x17 1
9 c
10 Good
Poetry
5 6 20
D,Skt Prose
38 1 X 20 3 272 13 41
Old 1970 V
S
ood
D, Pkt Poetry
19 4 x15 5
8 13 14
Published
D, H Poetry
20 2 x16 3
9923
C
Good
D, H Prose
32 3 x 12 3
35 7 38
Good 1938 V
S
D, Skt Poetry
29 7x153C
13 10 38
Good
Copied by Kesava Sharma
D, Skt Poetry
28 3 x 14 2
47 10 33
Good
Published by Sanatana Jaina Granthamala, Bombay
D, Skt Poetry
20 1 x 13 9
72 8 20
Good
Published copied by Balāmokundalála
D, Skt Poetry
33 6x15,3
31 10 43
| Old
1553 V
Published 724 Slokas.
S
kt 1 28 3x13 6 Prose 205 16 60
Old 1770 V
S
D, Skt. 23 1 x 13 9 Poetry 19 8 28
Old 1946 V
published First page is missing
S
D, Skt Prose
19 8 x 15'5 1 7 12 23
Published copied by Pandit Kisancanda Savāl
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
70 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
1
2
403
Nga, 7/2
Tatvārtha Süt a
Umäsvämi
404
Nga/7/3
405 Nga/7/6
» Vacanika
406
Nga/7/4
Umāsvāmi
407
Nga/6/3
408
Nga/1/2
» (Müla)
409
Jha/31/6
410
Ga/138/1
411
Ga/120
», Toppana
412
Jha/62
Vrtti
Bhāskara Nandi
413
Ga/173
Bodha
Budhajana
414
Ga/10
Sūtra Tikā
Umâswami
Pande Jaiyanta
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 71
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acāra. ) 61 7 8 9 10
11
P.
D, Skt Piose
20 4x16 5
15 14 18
Inc
Old
Page No 1 and 2 are missing
D, Skt Piose
21 1x16 9
14 15 15
Good 1955 VS
P
D
23 1 x 18 5 1 40 17 15
Inc
Skt / Prose/ Poetry
Good
P
D
, Skt
21 1x16 7
14 14 15
Old 1955 V
Prose
s
P
C
D, Skt. Prose
22 8 x 18 1
11 17 19
Good
D, Skt | 17 8 x 13 5 Prose
17 10 21
Good 1908 V
S
P
D, Skt Prose
18 2x11 8
18 9 24
Good
D, H Prose
26 7 x 15 9
92 14 38
Good
Last page is missing
D, H Prose
28 8 x 13 4
122 8 30
Good 1910 VS
P
D, Skt Prose
33 8X21 8 154 19 30
Good
D, H Poetry
324 x 17 4
93 12 45
Good 1982 V S
Copied by Pt Coubey Laxmi Narayana
P.D,Ski/
H Prose
27 1 x 141
154 13 37
Good 1904 V
s.
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
72]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devalnmar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
il 21
4
Ga/27
Daulat Rāma
| Tatvärthasūtra
Vacanika
416
Ga/139
Tatyarthsütra Tıkā
Cetana
417
Kha/135/1
Tatvarthâdhigama-Sutra | Umāswami
Kha/51
Tatvärtharājayārtika
Akalankadeva
Ga/157/10
Traikälika dravya
Kha/260
Trailokya Prajnapti
Pt Medhavi D/o Jinacandra
421
Kha/261
Kha/84
Tribhangi
Kanakanandi
Jha/126
Tribhangisára Tika
Nemicandra
Somadeva
Kha/19/3
Trilokasåra
Nemicandrācārya D/o Abhayanandı
425
Kh/39
Sacitra
426
Jha/22
Bhaşa
Todaramala
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
73
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramoha & Hindi Manurer pts
( Dharma, Darśana, Ācāra )
7
|
8
|
9
|
10
l
D, H Prose
31 5x13 2
136.7.32
с
Old 1925 V. S
D, H Prose/ Poetry
32 6x17.5 953 15 58
Good 1970 V, S.
Copied by Sita Rām Sastri Commentry on Tatvärth Sūtra of Uma-Suami.
D, Skt Prose
35 7x21 2
60 15 45
Good 1919 V
S
Published, Copied by Pandit Sivacandra.
D, Skt Prose
38 5 x 20 4 290 14 57
Old
Published Copied by 1968 Saka Ranganath Bhatt First 67
Samvata Pages are missing
Good
PD,Skt H 21 1x16 5 i Inc
Poetry/ 1 20.18 Prose
Copied by Sri Batuka Prasad
D, Pkt Poetry
35 4 x16 4 248 11 58
Recent 1988 V
s.
D; Pkt 29.6 x 15 6 Poetry 33 8 24
Inc
Good
Name of Auther not mentioned in ms
D, Pkt Poetry
29 6x15 2!
73 9 44
C
Good
It is also called Vista rasatva tribhangi
35 1 x 16 3
66 13 50
Good 1994 V
S
D, Pkt
Skt Poetry Prose D, Pkt Poetry
old
35 5x17 2
57 ? 41
Published
1010 Gathas
D, Pkt | 33 6x21 Poetry 63 23 44
Good
D; H Prose
| 23.41x12 6
126 12 41
Inc | Good
First 300 Pages are missing
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
74
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Nevakumar Jurn Oriental Library, Jarn Erdil hant Bhavan, Arruh
Ga/148/2
Tulokasåra
Malla Ji
Ga/79/1
Ga/99/1
»
Bhasa
Kha/235
Trivarnacara
Brahma-Sūri
Kha/83
Kha/24
Somaşcna Bhattaraka D/o Gunbhadra
Kha/'122
Jinasenacārya
Kha/144
Kha/25
G125
Vacrnila
Somasena
Tsvaina-Sucicára
Padmaraja
Up
Nat79-mala
Saha Thakura Singh
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalog
| 75
of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darśana, Ācāra ) ,
7
,
8
9
10
11
Good
Prose
26 2x 138
67 9 32
D, H P. ose
Inc
Good
Last pages aic missing
41 11 29
D, H
Good
32 4x15 2
34 11 47
Copied by Bhūpatıram Tiwari
Piose
1866 VS
| D, Skt
Pruse
30 5x17 4
56 12 51
Good 2451 Vir S
Copied by Vemaja
P
D, Shi Poetry
29 x 15 4
84 10 37
Good 2440 Vir S
D, Skt. 28 4 x 13 7 Pustry 175 9 38
Old 1759 V
S
| D, Skt
Poetry
38 1 <20.4 159 13 58
013
Published Copied by 1970 V S | Gulazarılala Sharma
P.
D, Skt | 35 4x138 Poeti y. ,442 743
Published
| Good 1919 VS
P1
D, Ski | 28 2 x 13 2 Poet ry 145 16 54
Good 1959 VS
DH Skt 38 3 x 20 6 Prose/ 160 16 51 Poetry
Good 1959 Vs
Total No. of Slokas 3100
D, Skt
34.3 x 1414
Old
Poetry
55 11 48
D, Pkt. 31 117.2 Prose
210 14 42
J. Good 's
1990 V S
It is also called Mahapuiana Kalıkā Unpublished.
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
76 )
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakrmar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
2 13
Kha/129
Upadeśaratnamāla
Sakalabhūşana D/o Subhacandra
440
Kha/200/2
441
Jha/100
Vairāgyasara Satika
Suprabhācârya
442
Ga/26
Vasunandi
Vasunandısravakācāra
Vacanika
443
Ga/118
Ga/141
4451
Kha/141/2
Vidagdhamukhamandana' Dharmadása
446
Jha/88
Visvatattva-Prakasa
Bhāvasena Traividyadeva
447
Kha/18711
Vivada Matakhandana
418
kh 11872
4 39
Khr/125
Viveka Bilasa
Jinadatta
Kha/68/2
Vrhada diksa Vidhi
Fafclal Pandita
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit; -Apabhramsha & Hindi Manuscripts [ 77
(Dharma, Darsana, Ācāra)
6
7
8
9
10
11
Old
Unpublished
Skt/ Poetiy
29 8 x 12 7 119 12 46
D, Skt octry
29 6 19 1 121 12 48
Good 1970 V
S
Copied by Gulajārılāla 3600 Slokas
D,Apb Po try
24 1 x 19 5
11 15 33
Good 1989 V
S
D, H Poetry
30 3 x 13 5 400 11 48
Good
'
D, H Poetry
30 8 X 20 2 470 13 37
Old 1907 V S1
D, H Poetry
37 1 x18 5 192 13 40
Inc | Old
Last fourteen pages are damaged
D, Skt Poetry
Old
31 6 x 15 6
12 15 50
Contains 480 Slokas Published , A work on Buddism
D, Skt Prose
35 3x16 4
90 11 54
Inc
Good 1988 V
S
D, skt Poetry
20 6x10 9 c
12 8 24
old
D,Skt Poetry
20 6 x.10 8
11 8 37
C
D,Skt Poetry
26 7 x 128
49 11 50
Old 1900 V S
Published by Saraswati Granthamäla Agia.
D, Skt Prose
33,2 x 191
60 12 60
Good
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devokumar Jain Oriental Librury, Juin Siddhant Bhavan, Arnah
415
Jha/99
Yogasāra
Gurudása
Kha 49
Jha/123
Satika
Yogindradeva
(Nyâyaśāstra )
Kha)112/
31 Aplamimamasa
Samantabhadra
Kha/94
Kha/137
|
Vrtti
Kha/15014
Bhāşya
Akalanka deva
458
Kha/36
Aptapaiiksä
Vidyānandi
Kha/93
Jha/34/6
Devagama Stotra
Samanta Bhadra
Nga/7/5
462
Ga/64/2
Vacanika
Jayacanda
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
[79
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Nyāyasāstra )
|
7
8
9
10
11
; Skt. 23 8 x 19 4 Poetry 6 15 31
Good 1989 V
S.
C
D, Skt 22 5 x11 5 Poctry, 20 9 28
old 1950 V
S
Good 1992 V
S.
D,Apb 35 1 X21 6
10 20 45 Prosc Poetry D, Sht. ! 19 4x15 5 Poctry 10 13.18
Good
Published Written on copy size paper
D, Skt Prose
29 4 x 1281 Inc ! 93 10 57
Old
Capied by Mahātmā Sitarama 1842 V. S. First 200 pages are missing.
published.
Old
D, Shi, '38 6x19 2' Inc Prosel 149 10 48 Poctry
Published, Last pages are missing.
D, Skt Poetry
30 2 x 118
34 12 52
Old 1605 V. S
Published.
D, SLt 32 4 x18 5 Prose
167 14 48
Good
Published.
D, Skt Prose
26 2 x 14.2
136 9 41
Old 1962 V S
Published,
D, Skt Poetry
25 1x16 1
11 11 32
Old
D, Skt Poetry
22 1x16 9
9 15 16
lold
P. 1
D, H Prose/ Poetry
33 1 X133
68 9 56
Good 1878 V
s.
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
80 ]
। श्री जैन सिद्धान्त भवन' ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhuvan, Arrah
1
2
1
Ga/114
Deväga mastotra Vacanika
Kha/86
Nyayadipiha
Abhinava Dharmabhūşana
Kha/1563
466 l, Kha/196
Nyāyamani Dipika
Battāraka Ajitasena
Kha/48
Nyāyavınıścaya Vivarana
Ga/134/1
Pariksämukha Vacanika
Jayacanda Chavara
Ga/'12
470
Kha/193
Pramana Laksana
Kha/262
»
Mimāmsä
Srutamuní?
Kha/55
Prameya
Jha/116
,
Kalika Narendrasena
Kha/7
, Kamalamartanda Prabhācandra
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
6/ 7
P
P
P
P
P
P
P.
P
P
P.
P.
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts [ 81
(Nyāyasāstra)
P.
D, H
Poetry
D,Skt Prose
D, Skt Prose
D, Skt Prose
D, Skt
Poetry
D, H Piose
D, H
Poetry/ Prose
D, Skt Prose
D, Skt Prosc
D, Shi Prose
D, Shi Prose
D, Skt. Prose
8
30 1x14 8 111 9 30
31 4x13 3
50 8 45
29 4×13 6 28 11 60
32 0 x16 0 196 13.38
33 5×20 7 450 16 60
32 5 × 17 6 119 12 44
321 x 18 5 99 14 40
34 1 x215 34 21 27
35 4x16,3 35 12 72
29 8 x 15 6 20 10 41
35.1 x19 3 10.12 49
27 8 x 15 6 440 11 53
9
C
C
с
C
C
C
с
C
C
C
C
с
Old
10
Old 1910 V S
Old
Good 1980 V S
Old 1832 Saka
Samvata
Good
1927 V S
Good
1962 V S
Good
Good
1987 V. S
Good
Good 1991 V S
Old
1896 V S.
Published.
Published.
Copied by Rajakumar Jain
11
Copied by Ranganatha Sastri.
Written of register size paper.
Published.
Published
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
82]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Orientil Library, Jurn orddhant Bhavan, Arrah
1 1
2
3
4
/ 5
Kha/33
Prameyakamalamāitanda Prabhācandia
476
Kha/230
Prameyakanthikā
Santivaini
477
Kha/63
Prameyaratnamala
Anantavirya
Kha/60
Kha/221
PrameyaratnamalaArthaprakāśika
Pañditācārya Cårūkirti
Kha/208
şadda sana-PramânaPrameyanupraveśa
śubhacandra
Kha/90
Cintamani Vrtti
Sakatayana
| Yakşayarmācārya
Kha/58
Dhātupātha
Kha/104
Hemacandıa Kosa
Hemacandra
Kha/121
Jainendra Vyakara na Mahavrtti
Devanandi
Abhayanandi
485
Kha/18
Abhayanandi
486/1
Jha/22
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit; Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts | 83
(Vyakarana)
7
8
1
9
10
11
D; Skt) 370 x 20 5 P, ose 249 15 51
C
Good 1896 V'S
Published
D, Skt | 20 8x171 Prose
38 11 27
Good
Published
D, Skt Prose
20 25 2x 161 68 11 38
Published
Old 1963 V
S
30 4x17 2
330 9 40
C
D, Skt Prose
Good
Published Copied by Laksamana Bhatta
Good
D, Skt | 21 4 x 171 Poetry/ 249 11 22 Prose
It is commentry on Piameyaratnamālā of Laghu Anantavirya
C
Good
D, Skt 21 1x11 5 Prose
24 8 33
Page No 17 & 18 arc loft blank
D, Skt Prose
29 8 x 13
5 339 11 49
c
Good 1832 Saka
Samavata
D, Skt | 34 5X142 Prose
19 8 49
Old
| D, Skt
Prose
26 5 x 10 8
53 17 67
old. 1910 V
First thi ce pages are missing
S
D, Skt Prose
35.4 x 18 3 380 13 58
Old 1907 VS
Published
D, Skt 31 2x134 Prose 43 8 30
C
Good
Published
D, Skt Prose
Inc
29 2 x 15 4
94 12 48
Old
Published. First 383 pages 1879 V. S'ai missing
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devaknmar Jain Oriental Labrary, Jain Siddhant Bhavan Arrah
15
486/2 Jha, 78
Kätañtra Vistara
Vardhamana
487
Jha/19
pancasandhi Vyakarana
488
Jha/61
Prākrita Vyakarana
Śrutasagara
Kha/228
Rūpasiddhi ,
Dayāpala
Jha/8
Saraswati Prakriya
491 | Jha/20/2
Siddhanta Candrikā
Ramacandräsrama
Jha/20/1
Taddhita Prakriya
Jha/24
Dhananjaya Koşa
Dhananjaya
Ga/106/1
Namamala
Devidása
Kha/132
Saradiyakhya Namamāla Harsakirti
496
Kha/185/1
Jha/67
Jha67
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
[85,
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ''
(Koşa ) 7 8 9 10
11
D, Skt. 31 1x17 4 Prose 250 12 46
Good 1928 A
D
D, Skt
24 1x15 2
21 17 37
C
Old
Prose
D, Skt 21 1x114 Prose 152 6 20
Inc | Good
It has only two Chapaters
D, Skt Prose
34 1 X21 1 143 21 30
Good
Written on Register size paper
D, Skt Poetry
27.5,x12 4 1
83 9.38
C
Old
Copied by Hemarāja First 3 1809 V SL pages are missing
D, Pkt Prose
24 1 x10 6
69 13 48
c
Old
Dhanaji seems to be copier
D, Skt Prose
24 1 x 10-6
60 9 31
First Two pages are missing
D, Skt Poetry
23 4x 15 3 !
14 20 18
C
Good,
It is also called Námanllà of Dhananjaya
D, H Poetry
24,7 x 16 3
16 11 29
Good 1873 VS
D, Skt Poetry
30 2 x 13 8
25 12 37
Old 1828 V
S
P
D, Skt Poetry
24 3 x14 2
26 12 40
Good 1918 V
S
P.
D, Skt Poetry
32 8 x17 6
23 11 37
Good 1985 V
S
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
861
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jun Siddhant Bhavan, Arrah
498 | Ga/15
Trepanakriyākosa
Kısana Singh
Ga/160
5001 Ga/86/4
Urvasi Namamala
Siromani
501
Kha/31
Viswalocanakosa
Pandit Sridharsena
502
|
Kha/20
Alankāra Samgraha
Amrtânanda Yogi
503
Kha/212
I II I I II i
504
Nga/1/3/1
Bärahamâså
Budhaságara
505
Kha/209
Candron milana
506
Jha/108/1
I
„
Satika
5071
Jha/108/2
508
Jha/25/6
Dohavali
509
Ga/10618
Futakara Kami
Futakara Kavitta
Trilokacanda
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
| 87
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratisha & Hindi Manuscripts
(Rasa, Chanda Alankāra & Kävya )
71 8
9
10
11
Poetry
32 8 x 17 3
77 13 40
Old 1960 Vs
D; H Poetry
23 9 x17 31 C 122 18 22
Good
Good
D, H Poetry
24 5x13.3
27 16 13
D; Skt. 28 5x130 Poetry | 103 11 40
Good 1961 V
S
Told
Poetry
D, Skt | 34.0 x14.4
32 15.48
D, Skt Poetry
21 1x11 6
104 8 21
Good 1925 V. S.
D; HJ16 9 x127 Poetry 4 11 10
Good
D, Skt, 20 9x11.4 Poetry 32 8 26
Good
Total No. of Slockas 337.
D, Skt/H Prose) Poetry
32 5 x 17.5
73 20 21
Good 1990 V.S
D;H. Skt Prose)
31 1 x 20 2
56 31.16
Good
Poetry
D; H Poetry
22 9 x15 4
4 17.15
Good
D, N Poetry
1 239X100
1 23.27
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
* 1 ' ' est etiam pertrag start a diariament."
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain "Srdàhant 'Bhavan, Arrah 1 2
3
4
510
Ga/8017
Futakara Kavitta
Trilokacand
Kha/162
Nitivakyâmrta
Somadavā sūrii
-
Kha/56
Kha/200
Ratnamañjūşā
Kha/22
Rāghava Pāndaviyam Satika
Dhäñjaya Kavi
Nemican
drá
515
Jha/101
Srñgara Mañjari
Ajitasenadevă
Kha/231
Srngārârnavacandrika
vavarni
va
Kha/219
Srutabotha
'
Ayitáseňa
/
518 1 Júa/12
Kalidasa
:
1
Nga/1/2/1
Srutapañcamírāsā
!!
-
Jha/92/1
Subhadrâ Nátıkā
Hastımálla
Kha/171/5
Subhaşıta Muktavali
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
6
P.
P
P
P
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Rasa. Chanda. Alankāra, Kâvya )
P.
P.
P
P.
P.
P
P.
7
D, H Poetry
D, Skt Prose/ Poctry
D, Skt Poctry/
Prose
D, Skt Poetry
D, Skt Poetry
D, Skt Poetry
D, Skt Poetry
D, skt Poetry
D, H Poetry
1
1
D, Sht 35 0 x16 6 Poetry 253 12 63
P. D, Skt Poetry
D, Skt/ Pkt
Prose
8
23 2x15 3
2 22 22
28 6x13 6 75 8 35
34 5×14 5 137 8 42
21 1x16 8 95 15 26
23 6×19,3 6 15 34
21 2x169 109 11 24
21 1 x16 8 6 13 21
27 1x10 1 4 8 42
17 8 x 13 5 6 10 25
32 7 x 17 7 38 12 36
20 5x16 5 25 12 24
9
C
Inc
Ω
с
C
C
C
с
C
C
C
C
Old
1890 V S
10
Old
1910 V. S
Good
Good
Old
Good 1989 V .S
Good
Good
Good
Old
Good 2458 VIR S
Good
11
Published 66 to 74 pages are
missing
Copied by Vijayacandra Jaina
[ 89
Copied by Sası
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
90 J
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devaknmar Jain Oriental Library; Jain Siddhant Bhavan Arrah
1
522
523
524
525
526
528
2
Kha/29
530
Kha/99
Kha/160/2
Kha/187/3
Kha/156/1
Kha/176/7
529 Kha/19/1
527 Kha/176/6 Süktı Muktavali
Kha/163/6
531 Kha/136/2
532 Ga/157/7
533 Jha/136
Subhäşıta Ratnasamdoha Amitagati
Subhāṣitāvali
3
Subhäşıtaratnavali
""
33
""
99
23
Sindura Prakarna (Mula)
Akşarakevali Sakuna
Praśnaśästra
4
Sakalakirti
Somaprabha.
99
1
5
│[ 1 1 1
I
11 I
I
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 91
Catnlogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Rasa, Chanda, Alankära, Kavya})
6
7
8
9
10
11
D; Skt. 29.4 x128 Poctry 76 9 47
C
Good
D; SLT Poctry
26 4x118
83.9 46
Inc 'Old
! 1784 V S
First eleven pages are badly rotten published.
D, Skt. Poctry
27 6 11 7
34 8 41
P
D
; Sht. Poctiy
21.3 x 13 2' Inc
30 19 19
Old
Last pages are missing Written on coloured paper
D, St 28.8 x 13 2 Poetry 22 11 47
Old
Unpublished.
1836 V S
Incold
P
D; Shi, 26 2x13 Poctry 27 11 44,
First & last pages are missing
D, SLt PI Poetry
25 4x10 5, Inc
20 10.40
Old
Last pages are missing.
D, Skt 1 33.5 x 14 8 Poetry
25 5.35
Good
Published.
D, SLt 24 6x12 11 C Poetry
10 9 55
Old 1813 Vs
D, Skt Poetry
| 34 2 x 20 5
26 6 30
Old
Copied by Paramananda. 1947 VS. Published.
D; skt Poetry
17 6x101
4 8 22
| old
Page No 2 si missing
ID, Skt. 20 5x17 4 Poetry
7 10 17
Good 1943 A
D
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
92] . , 7 fa-f7617 at Fiat
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
2
1
:
"3
534
Kha 188/4
Arıştādhyāya
535
Jha/16/5
Dwadasa-Bhävafala
536
Jha/137/2
Ganịtaprakarana
Sridharâcārya'?
Jha/105
Jnānatilaka Satika
Bhatta vosari
538
Jha/137/1
Jyotirjana Vidhi
Sridharācārya
539
Kha/239
Jānapradipikā
540
Kha/272
Samantabhadrā
Kewala Jnâna Prašna Cūdamani
541
Kha/213
Kevalajnänahorā
Candrasena Sürı
542
Kha/174/3
Nimittasāstra tikā
Bhadrabāhu
543
Kha/174/2
Mahānımıttaśāstra
544
Kha/179
545
Kha/174/4
Nimittasastra tika
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 93
Catalogue of Sanskrit, Prakrt, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Jyotışa )
61
7
8
9
10
11
D; Skt | 23 8 x10 6 Poetry 27 6 28
c
) Good
Copied by Pt Rāmacanda
D, Skt Prose
24 3 x16 1
5 15 15
Good
Inc
D, Skt | 20 3x 17 5
1 13 10 18 Poetry
Good 1944 V S
It seems to be part of Jyotirjnânavidhi
Prose/
Good 1990 V. S.
Commentry with test
D, Skt / 21 6x17 2 Pkt
74 18 21 Prose/ Poet y D, Skt 20 4x 17 5 Prose
18 10 20
Good 1944 AD
D, Skt | 17 3x15.5 Poetry
19 15 38
Good
Copied by Nemaja
D, Skt Prose
21 8 x 17 6
23 11 33
Good
Ccpied by Devakumára Jain.
D, Skt Poetry
34 2x21 4-
C
Good
Written on register size paper
D, Skt Poetry
28 4x13 2
17 12 36
C
Good
Author's namenot mentioned in the Ms
C
Good
Unpublished
D, Skt / 26 8 x15 7 Pkt
76 11 40 Poetry D, Skt.
t. 21 5 x144 Poetry
79 19 22
Old 1877 V, S.
D; Pkt 25 2x139 Poetry 18 14 36
Inc
Good
Author's name 'not mentioned in the Ms
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
94') .
..st a falra 97 AFATEST Shri Duvakum 1 Jun Orientul Library, Jiun Siddhant Bhavan, Arruh
1
2
546
Kha/165/4
Satpañcāśika Sutra
547
Kha/218
Samudrika Sastra
548' | Jha/110
Vratatithinirnaya
Simhanandı
549
Jha/16/4
Yātrå Muhurta
550/1 | Jha/34/20
Akasagåmini Vidya Vidhi
550/2
Jha/131
Ambikā Kalpa
Subhacandra
551
Jha, 71
Bålagraha Cikitsa
Mallisena
5521 Jha/72
Ravana
5531 Jha/70
Sänti
Pūjyapáda
554
Ga/157/1
Bälaka Mundana Vidhi
555
Nga/7/18
Bhaktámarastotra Rddhi Mantra
Gautamasvami ?
556
Nga/7/17
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
[95
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Mantra, Karmakända )
7
|
8
|
9
|
10
1
11
D, Skt Poetry
24 8 x11 3
3 13 52
D;Skt Poetry
16 8 x15 3
10 11 27
| Good
D, Skt Poetry
Contains slokas 401.
35 1 x16 3
11 12 52
Good 1991 V
S
D, Skt Prose
24 3 x16 1
3 15 14
Old
It has eleven carts.
D, H Prose
25 1 x161
2 11 36
C
Good
D; Skt 35 6x17 2 Poetry1 18 15 50
Good 1994 Vs
D, Skt Prose
34 8 x 19 5
6 19 53
Good
D; Skt Prose
34 8 x 19 5
2 19 51
C
Good
D, Skt Poetry
34 8 x 19,5
8 18 46
Good
Good
C
D, Skt 20.1 x 15 5
H 131 13 Prose/ Poetry D, Skt 21 1 x16 4
4 H. 22 14 16 Prose Poetry D,Skt./
H 21 1 169 Prose/ 21 15 16 Poetry
Good
Good 1950 V. S.
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
96 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Biddhant Bhavan, Arrah
1
557
559
558 Jha/34/3-4
560
561
562
564
565
2
566
Jha/26/1
567
Kha/217
563 Jha/34/18
Jha/79
Jha/34/12
Jha/34/27
Kha/245
Jha/36/6
Jha/74
Ga/144
568 Kha/177/11
Bhumi Suddıkarana Mantra
Bija Mantra
Bijakoşa
3
Brahmavidya vidhi
Candraprabhamantra
Caubisa Tirthankara Mantra
Caubisa Sasanadavi Mantra
Ganadharavalayakalpa
Ghantākarna
39
D
""
Kalpa
Jvrddhi kalpa
39
1
1
I
4
5
T
[ I
!! I
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
97
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Mantra Sastra )
61
7
/
8
|
9
10
11
D, Skt Poetry
22 4x168
4 23 18
| Good
D, Skt
25 1x16 1
2 11 32
C
Good
Η
Poetry
D, Skt Poetry
16 9x15 2
21 11 29
Good
20 8 x16 7
34 11 20
C
D, Skt Prose) poetry
Good
D; Skt Prose
Good
25 1 X16 1
1 11 32
D, Skt Prose
25 1 X16 1
1 11 33
Good
D, Skt 2) 1 x 161 Prose 2 11 30
C
Good
D, Skt Poetry
17 1x151
10 14 42
C
Good
D, Skt | 19 7x14 9 Poetry 2 11 20
C
Good
P
DH /Skt. 32 8 x176
Prose 6 11 38
Good 1985 V
S
P
D, Skt H Poetry) Prose
33 3 x16 3
5 13 40
Old
Rughan Piasád Agrawala seems to be copier
P. D, Skt /H- 27 2 x 12 3
Prose) 512 55 | Poetry
Old
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
98
]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jarn Oriental Library, Join Siddhant Bhavan, Arrah 2 1 3
1 5
569
Kha/177/8
Háthājori Kalpa
Jha/34/17
Iaştadevatārādhana Mantra
571
Nga/2/4
Jainasandhya
572
Ga/166
Jainavivāha vidhi
573 | Jha/133
Jinasamhita
Maghanandi
Nga/7/7
Karmadabana Mantra
Jha/34/15
Kalıkunda Mantra
Kha/177/6
Mantra Yantra
Kha/177/4
Namokaragana Vidhi
Kha/118
Mantra
Jha/46
Padmavati Kavaca
Jha/16/1
Pañcaparameşthi Mantral
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
6
P.
P
P
P
P
P
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts [ 99
(Mantra Sastra )
P
P
P.
P
P
7
P.
D, Skt Prose
D, Skt Prose
D, Skt. Prose
D,Skt /H Poetry
D, Skt Prose
D, Skt Prose
D, Skt Prose
D, H. Prose
D; Skt Poetry
Skt / Poetry
D; skt Poetry
8
D, Skt, Poetry
26 8 x 11.7 1 15 48
25 1 x16 1 2 11 32
19 4x15 5
2 13 15
22 2×19 6 13 17 25
32 3 x 17 7
75 10 31
20 9 × 16 9
6 16 19
25 1 × 16 1 1 11 30
D, Pkt 16 6 × 10 8
56 8 22
25 5x10 8 4 10 38
25 6x11 8
1 10 46
17 4x11 5 35 7 18
24 3x16 1 4 21 20
9
C
C
с
с
C
C
C
с
C
с
с
Old
10
Good
Good
Good
1978 V S
Good 1995 V. S
Good 1965 V S
Good
Good
Old
Good
Good
Inc Old
11
It is also called Maghanandı Samhita.
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
1001
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devaknmar Jain Oriental Library, Jain siddhant Bhavan Arrah
2 1 3
i
5
Kha/223
Pañcanamaskara Cakra
Jha)13/4
Pithika Mantra
'
583
Kha/237
Sarasvatikalpa
Malayakirti
'
584 | Jha/34/19
Sāntinātha Mantra
'
585
'
Jha/16/3
Siddhabhagavāna ke guna
586
Kha/177/5
'
Solahacāli
Kha/177/7
'
Vivāha Vidhi
588
Kha/258
'
Yantra Mantia Samgraha
Kha/255
'
Vijayanapadhyâya
Akalankasa mhita (Sara Samgraha)
590
Kha/54
Ārogya Cintamani
Pandıta Damodara
'
Kha/224
Kalyānakâraka
Ugradityācārya
I
Kha/206
Madanakamaratna
Pujyapada ?
I
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
( 101
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Mantra Sastra and Ayuraeda )
7
8
9
10
11
i
D; Skt Prose
35 7 x202 c
old
56 14 56
Good
Prose
24 5x16 5
4 21 16
D, SLt Poctry
171x15 3
7 14 37
Good
D, Skt Prose
25 1x16 1
1 11 30
C
Good
Inc
old
D, Skt Prose
| 24 3x16 1
2 18 18
D, H Poetry
27 9 x108
1 13 48
Only one page available
Inc
old
D, Skt Prose
25.6 x 10 9
5 8 50
Last pages are missing
D, Skt Prosc
1 21 1 x16 9
145 10 31
Good
D, skt Prose
Good
30 3x16 6! 238 12 51 1
D, Skt Prose
38 5 x 20 5
40 13 54
C
Good
D, Skt
34 1 X21 2 155 23 27
C
Good
Poetry
Copied by Sankaranarayana Sarma written on register Size paper.
D, Skt Poetry
34 1 21 1
32 23 14
Good
It is written on register size paper
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
102
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain, Orientuli Library, Jain add hunt Bhavan, Arrah
11 2
3
1 1
$93
Kha/205
Nidānamuktavali
Pūjyapâda ?
1
594
Jha/77
Rasa sāra Samgraha
1
595
Kha/226
Vaidyakasára. Samgrahal Harsakirti
596
Kha/103
1
597
Kha/236
Vaidya Vidhana,
Pūjyapäda
598
Kha/114
Vidyā Vinodanam
Akalanka
599
Kha/134
Yoga Cintāmán
Harşakırtı
1
600
Jha/69
1
Nga/2/9
Ācārya Bhakti
602
1
Nga/2/28
Añkagarbhaşađāracakra
Devanandı
6031 Kha/113
1
Aşta Gayatri Tikā
604
Kha/227/5
1.
Atmatattvāştaka
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrasha & Hindi Manuscripts ( 103
(Stotra)
6
7
8
9
10
11
P.
0
D, Skt. 34.1 x21 1 Poetry 3 22 22
Good
It is wrijten on regester size paper.
P.
D, Skt Poetry
33 8 x 20.5
40 16 40
Inc Good
0
D, Skt Poetry
33 8 21 2
84 23 24
Good
0
D; Skt 27 5x127 Prose 128' 14 48
Old 1840 V
S.
0
D, Skt Prose/ Poetry
171x15 3
54 12 31
Good 1926 V
Copied by Nemirāja
S
0
D; Skt, 22 8 x16 8 Poetry), 34 9 11 ! Prose
Old
Copied by T. N. Pangal.
D, Skt Poctry
25 6x10 2
0
Old 1896 V
s.
0
D,Skt Prose
32 8 x 171 115 11 46
Good 1985 V
S
0
Good
D; Pkt 19 4 x 15 5
Skt. 14 13 16 Poetry
D, Skt. 19 4x15 5 Poetry |
4 13 14
0
Good
Unpublished.
0
D, Skt Poetry
21 2x16 6
19 11.27
Good 1962 VS
0
D, Skt35 2 x16 3 Poetry
1 9 62
Good
Copied by Batuha Prasada.
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
104 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 1 2
3
605
Kha/227/4
Atmatattvāştaka
I
606
Nga/13
Padmasuri
l
Atmajnāna Prakarana Stotra
607
I
Kha/123
Bhaktàmara Stotra
Mānatungācārya
608
'
Kha/170/5
I
609
Kha/178(K)
610
Kha/165/13
Í
611
Jha/31/1
I
612
i
Jha/28/1
613
Jha/34/24
I
Hemaraja
Jha/40/2
615
Jha/35/1
616
Nga/6/1
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
1'.
P
Cantogue al nekrit. Prakut. Apabhrafials & Hindi Manuscripte
( Stotra )
P.
י
P
}
1'. 11, SI: | Poetry
1
3
7
44
D. SH., Jocly
b Sit Lortry
D, SLI
Poetry
D. ST Peetri
1
1
3
2. 14.3 1 11 47.
194.1
7 12 14
3: 5.21 3 24 4 18
275-120 1144.
20
1
= 163
1 17
D) S11 242 104 Loctri
AS $7
9
C
C
C
C
C
C
1
10
Good
F
Good
+Ola
OlJ
2440 Vir,S
#2 V. S
Good | 1947 V S
0.d
1*4* 1 S
11
Coped 1 Bajula Pratadi
Publ. hed
Published written in teld letters
1 203
Published.
Putli hed
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
106 )
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली hri Devakumar Jain Orientul Library, Jain Erddhant Bhavan, Arrah
1
1
2
3
Jha/52
Bhaktāmarastotra Satika Mānatunga
Ga/157/1 (K)
Nga/7/8
Ga/110/1
Tika
Hemaraja
Kha/117/1
Mantra Mānatunga
Kha/117/2
Rddhi Mantra
Kha/119/1
Kha/283
625
Jha/34/16
» Mantra
626
Kha/284
„ Rddhimañtra
627
Kha/170/2
Kha/177/14
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Stotra )
[107
61
7
8
9
10
11
0
D,Sht/H Prose! Poetry
17 5x10 9
40 8 24
Good 1971 V
S
D, Skt Poetry
10 572 25 6 10
0
old
0
D, Skt Poetry
23 9 x 10 9
9 7 23
Old
0
D, H Poeti y
21 1 x 15 8
29 16 19
Good 1919 V
1
s.
P
D, Skt | 15 8 x 11 2 Poetiy1 49 10 27
Old
Published, copied by Pandit 1967 VS Sitārāma Sastri
D, Skt | 17 4x13 5 Poetry/ 48 10 24 Prose
Old 1930 V S
Copied by Nilakantha Dâsa.
D, Skt | 16 8 x 14 5 Poetry
47 9 20
Old 1930 V S
Published, copied by Nilakantha Dāsa
0
D, Sht Poetry
20 5x16 3
48 13 17
Good
Published
D, SIT Pross
25 1x161) C
2 11 30
Good
D, Skt / 24 1 X 15 5 Poetry 49 10 44
C
Good
D, Skt | 29 7X18.4 Poetry 7 11 42
Good Published, copied by 1966 V S. Munindrakirti
P
D, SL
Prose
| 22 6x10 4
10 10 30
Inc
Old
First twenty pages & last pages are missing.
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
108 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devaknmar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
2
4
/
5
Ga/106/3
Bhaktamara tika
Hemaiāja
Kha/87/1
Manatunga
BrahmaRayamalla
Kha/170/6
Bhaktâmarastotra tika
Hemaraja
Ga/134/5
,, Vacanika
Jayacanda
633
Ga/80/2
... Sartha
Mānatunga
M
Hemarāja
634
Jha/33
» Manatra
Jha,36/3
Bhairavaştaka
Nga/7/14
Stotra
Kha/119/2
Bhairava Padmavati Kalpa
Mallışenacárya D/o Jinasena
sena
Jha/127
Candra
śckhara Sastri
Nga/3/2
Bhajana Sangraha
640
Kha/1722
Bhakti Sangrahu tika
Siyacant dra
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
[109
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra )
8
1 9
10
11
P
Old
DH Skt 23 9 x 16 8
Poetry 14 25 26 Prose
D, Sht Poetry
29 6x134
26 14 53
Good
Published
D, Sht26 8 x 13 8 Poetry 17 14 44
Good 1908 V S
P1
D, Skt Piose
31 2 x 17 !
24 14 36
Good 1944 V
S
P
DH /Skł 23 2 x 15 3
Prose/ 22 22 21 Poetry
Old 1890 V
S
P
Good
D,Skt /1 16 5x11 8
Poetry 17 12 14
Oponing & Closing are missing
D, Sk Poetry
19 7 x 14 9
2 11 25
Gooi
D, Skt Poetry
20 8 x16
3 c 39 161
Good
D, Skt Poetry/ Prose
17 3 14 6
52 13 33
Inc | Old
1956 V
S
Published Fırt nine pagest aremissing Copied by Nilakantha Dāsa
D,Skt/H Prose, Poetry
351 x 16 3
73 13 47
Good 1993 V. S
D, H Poetry
20 6 x 16 5
5 12 14
Good
D, Skt, Prose Poetry
28 1 x 18 2 7 2 13 29
Good 1948 V. S
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
110 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shiz Devakumar Jain Oriental 'Librury, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
2
3
4
| 5
641 | Ga/152/2
| Bhâşâ pada Samgraha
Kuñdana
642
Kha/171/2(K) Bhūpāla Caturvimšatika
Müla
Bhūpāla Kavi
Kha/178/5
Bhūpäla Stotra
Kha/138/3
1
.
~
tiká
Kha/227/3
| Bhavanastaka
Jha/31/2
Candraprabha S otra
Kha/190/2
Candraprabha Sasana Devi Stotra
Nga/2/48
Caturviśmati Jina Stotra
Nga/2/40
Kha/131
»
Stuti Maghanandi
Nga/2/8
Caritra Bhakti
Jha/3419
Caubisa Tirthankara Stotra
Devanandi
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 111
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Storia )
61
7
1
8
1
9
1
10
11
uc 'Old
D, 11 Poetry
! 27 4 x121
1 1 16 50
D, Skt 25 4x169 Poetry 4 12 24
C
Good
D, Skt. 20 8 x16 61 C Poetry 9 16 20
Good 1947 VS
Published
D, Skt 31 7x168 Poetry 1 13 11 36
Old
D, Skt '35 2x16 3 Poetry 1964
Good
Copied by Baţuka Prasada.
D, Skt, 18 2x11 8 Prose
3 10 22
Old 1852 V. S
Old
D, H Poetry
17 2 x 10 2
67 26
P
D
, Skt Poetry
19 4x15 5
1 13 14
Good
D, Skt 19 4x15 5 Poetry 2 13 15
Good
D; Skt 29 5x133 / C Poetry 5 14 54
old
Good
D, Pkt | 19 4x15 5
Skt 4 12 15 Poetry
D, Skt Poe ry
25 1x16 1
3 11 30
Good
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
112
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jan Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Nga/8/5
Cintämanı Aştaka
Bhattāraka Mahicandra
6541 Kha/173/3(G)
„Stotra
6551 Jha/31/7
» Parsvanātha Stotra
656
Kha/253
Dasabhktyādı Mahasástra' Vardhamana Muni
657
Kha/150/2
Devi Stavana
658
Jha/35/4
Ekibhāva Stotra
Vádırāja Sūri
6591 Kha/171/2
(Kh)
» Müla
660
Kha/178 (Gha)
66!
Kha/172/2(K)
,
662
Nga/6/7
663
Kha/138/2
»
Satika
Vadiraja Sūri
664
Nga/2/41
Gautamasvæmi Stotra
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
[113
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra )
8
9
10
11
P. D, Skt.) 22 1x181
c
Good
Poetry
1
1 13.27
D, H Poetry
27 2x176
I 14 34
C
Old
D, Skt Poctry
18 2x11 8
36 10 23
Good 1853 V. s.
D, Skt Poetry
20 8x167 132 10 28
C
Good
38 9 x122
4 9 39
G
old
Poetry
D, Skt Poetry
161 2161
5 13 20
Good
1
D, Skt Poetry
25 4 x16 91
4 12 25
Good
Published
D,Skt (H Poetry
20 8 x 16 6
8 13 20
Good 1947 V. S.
Published.
Good
D, Skt Poetry
28 1 x18 21
10 12 39
Published.
Old
D, Skt Poetry
22 8 x 18 1
3 17 22
Old
D; Skt. Poetry
31 5 x16 5
14 10.32
Published.
D, Skt. 119 4x15 5
2.13 15
Good
Poetry
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devokumar Jain Oriental Library, Jarn Siddhant Bhavan, Arrah
il 21
3
4
5
665
Kha/227/10
Gitavitaräga
Cárūkirti
666
Kha/227/6
Gommatāştaka
Ga/1523
Gurudeva Ki Vinti
668
Ga/77/1
Jinacaityastava
Campārāma
669
Nga/7/12(Kha) Jinadarśanastaka
Jha/39
Jinendra Darsana Patha
Nga/2/52
Jinendrastotra
Nga/5/4
Jinavāni Studi
Haridāsa Pyārā
Nga/2/34
Jinaguna Stavana
Kha/227/7
Jina gunasampatti
Jha/34/21
'Jina Stotra
Ravışanâcârya
Kha/190/1
Jinapañara Stotra
Dcvapravácărya
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
T
I
6
P.
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
Stotra )
P.
P
P
P
P.
P.
P
P
P.
7
P.
D, Skt Poetry
D, Skt Poetry
D, H Poetry
D, H. Poetry
D; Skt Poetry
D, Skt Poetry
D, Skt Poetry
D, Skt Poetry
P. D, Skt
D, Skt Poetry
Poetry
D, Skt Poetry
D, Skt Poetry
8
35 2x16.3 17 11 56
35 2x16 3 19 58
26 1 x 12 4 77 26
22 6x9 6 11 7 20
21 1x13 3
1 18 13
16 3 x12 4 5 10 13
19 4 × 15 5 2 13 13
20 7 x 17 1 3 11 20
19 4 x 15 5 3 13 14
35 2 x16 3 2 11 60
25 1 x16 1 3 11 33
17 8x10 4 7.7 24
9
с
с
C
C
с
с
C
Ο
с
с
C
C
C
Good 1930 A. D
Good
Old
10
Old
1883 V. S
Good
Good
Good
Good 1963 V S
Gocd
Good
Good
Old
11
[ 115
Copied by Batuka Prasada.
Copied by Batuka Prasada
Copied by Batuka Prasada
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
116 )
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
2
3
4
677
Jinapañjara Stotra
Ga/157/12 (Kha)
678
Jha/31/4
679
Kha/175/10
Jvälâmālıni Stotra
680
Jha/34/13
»
Devi Stuti
681
Jha/81
Jvâlini Kalpa
Iñdranandi
682 | Kba/161/5
Kalyānamandıra Stotra Kumudacandrâcārya
683
Nga/6/2
Kha/161/8
685
Kha/165/12
686
Kha/17017
Kha/165/8
688
Kha/172/2
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 117
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Stotra )
17 I
8
9
10
1
11
D, Skt Poetry
10 5x7 2
8 6 10
Last pages are missing
D,Skt Poetry
18 2x11.8
2 10 20
| Good
D, Skt
23 7x109
38 35
C
Good
Prose
D, Skt.25 1x16 1 | Prose 311 32
C
Good
20 6 x 16 6
39 11 20
C
D, Skt Poetry/ Prose
Good
D, Skt Poetry
24 1 x 127
4 14 40
1 Old
Published
D, Skt Peotry
Old
22 8 x 18 3
4 17 19
D, Skt, 256x11 2 Poetry 410 35
Old 1931 V
Copied by Keshava Sāgara. S Published
D, Skt Poctry
26 2 x 10,8
2 13 45
Old
Published pages are sotten.
D, Skt Poetry
25 8 x 12 8
5 20 57
1 old
1887 V
Published.
S
D, Skt. 24 6x112 | C Poetry2 16 50
old
Published
P.
D, Skt Poetry/ Prose
28 1 x 18 2
14 12 36
Good
Published
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
118 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shi Devokumar Jain Oriental Librury, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
4
1
2
1
3
15
Kha/17
Kalyanamandıra Stotra Kumudacandra
Jha/35/2
Kumudacandra
691
Jha/40/3
Banarasidasa
692
Jha/282
693
Jha/31/3
694
Jha/28/3
Bhāşa
Kha/106/4
Vacanika
Ga/80/3
Sārtha
Kumudacandra
Nga/2/2/3
Kşamāvāni Āiati
Jha/34/2
Kşetrapāla Stuti
Kha/161/7
Káştha Sangha Gurvavali
Jha/404
Laghu Sahasranama
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 119
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra )
olololol 10
11
P.
D, Skt Poetry
20 8 x16 3
11 13 2
C
Good
Published,
Good
D; Skt | 16 1 x16 1 Poetry
6 13 20
C
Good
P. D, Skt H
Poetry
15 4x11 9
21 9 20
| D, Skt
Poet y
20 5x15 8
6 17 15
Good
D, Skt Poetry
18 2x11 8
6 10 23
Good
D. H Poetry
20 5x15 8
1 17 15
Inc | Good
Last pages are missing.
23 9 x 16 8
12 25 25
c
D, H Poetry/ Prose
Old
D,Skt /H Poetry/
23 2 x15 3
19 22 22
Old 1890 V
S
Prose
D, H
17 8 x 13 S
4 10 22
Good
Poetry
D, H Poetry
1 Old
25 2x161
1 14 28
C
P.
D, Skt Poetry
26 4 x 12 8
3 14 39
c
old
Published
P. D, Skt /H
Poctry
15 4x11 9
5 9 18
C
Good
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
1201
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Nga/7/10
i
Laghusahasranama Stotra
I
Jha/34/26
Lakshmi Ārādhana Vidhi
i
Nga/2/15
Mahālakṣmi Stotra
I
704
Nga/7/16
i
705
Jha/36/1
Mangalāştaka
I
Nga/4/2
Mañgala Ārati
Dyana taraya
Ga/15776
Manibhadrāştaka
i
I
Nga/2/12
Nandiśvara Bhaktı
i
Kha/173/3(K)
Namokara Stotra
I
Nga/2/53
Navakāra-Bhāvanā Stotra
I
Nga/2/14
Nemijina Stotra
Raghunatha
i
712
Kha/202
Nijätmâştaka
Yogindradeva
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 121
Catalogue of Sanskrat, Prakrt, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra )
7 18 19 20
D, Skt
Good
Poetry
22 1 x 14 7
2 12 26
P
Good
D,H /Skt. 25 1 X16 1
Prose 111 33
D, Skt Poetry
19 4x15 5 Ic Good
2 12 15
D, Skt
20 3 x 14 7
c
Good
Poetry
2 14 11
D, Skt Poetry
19 7x14 9
2 11 24
C
Good
1
| D, Skt | 21 5x17 9
Poetry 1 10 28
Good 1951 V. S
D, Skt Poctty
15 6 x 13 3
3 10 16
Old
D, Skt /
Pkt
19 4 x 15 5
10 13 14
Good
Poetry
Old
D, Ski | 27 2 x17 5 Poetry 1 13 35
D, Skt | 19 4 x 15 5 Poetry 3 13 16
Good 1954 V. S
D, Skt Poetry
19 4x15 5
1 12 14
Good
D, Pkt, 29 7x19 3 Poetry
38 39
C
Good
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
122]
श्री जैन सिद्वान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sridhant Bh zvan Arrah
.
5
13
Nga/2/29
Nirvanakānda
714
Nga/6/5
Nga/6/6
7161 Kha/177/10
(K)
Bhaiya Bhagavati Dāsa
717
Nga/2/10
Niravāna Bhakti
718
Kha/112/6
Padmavati Kavaca
71?
Kha, 40/2
Kalpa
Mallisena Sūci
720
Kha/153/2
Vrhat Kalpa
7211 Jha/34/1
Padmāmatā Stuti
722
Kha/75/1
Padmavati Stotra
723
Kha/267
Nga/7/13 (K)
,
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
6
P
P
P
P
P
P.
P
P
P
P
P
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts [ 123
(Stotia)
P.
7
D, Skt. Poetry
D, Pkt Poetry
D, H Poctry
D, H Poetry
D, Skt /
Pkt
Poetry
D, Skt
Poetry
D, Skt
Poetry
D,Skt Poetry
D, H Poetry
D, Skt
Poetry
D, Skt
Poetry
1
D, Skt Poetry
8
19 4x15 5
4 13 14
22 8 x 18 1
2 17 20
22 8 x18 1 2 17 22
24 1×12 8 1 14 30
19 9x15 5
8 13 16
19 4x15 5 11 14 12
32 5×19 7 24 13 35
27 4×12 6
2 16 55
25 2x16 1 3 11 25
29 6 x 13 5 3 14 61
21 6x17 5 10 13 30
20 9 x16 5
5 17 17
9
C
Ο
C
Ο
C
C
G
C
C
C
с
C
Ο
C
C
Ο
Good
Old
Old
1943 V S
Good 1871 V S
10
Good
Old
Old 1884 V. S.
Old
Old
Old
Good
Good
}
11
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
124 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
2
3
725 | Jha/36/5
Padmāvati Stotra
Jha/34/11
Jha/34/10
Sahasranama
Jha/40/6
Paramånanda Stotra
729
Nga/7/11(K)
730
Kha/227/9
.
Caturvimsatika
Nga/2/47
Pärsvajina Stavana
Nga/2/50
Parsvanatha
»
Nga/2/39
Parsvanatha Stotra
Kha/105/2
Vidyananda Swami
735
Kha/62/1
„
, Satika
„Satika
Padmaprabhadeva
735
Jha/34/7
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 125
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra )
61
7
8
9
10
11
D; Skt. 19 7x14 9 Poetry 6 11 21
C
Good
D,Skt
Good
Poetry
25 1 X16 1
8 11 30
D, Skt Poetry
25 1x161
9 11 30
C
Good
D, Skt 14 5x117 Poetry
3 9 20
Inc
Good
Last pages are missing
D, Skt
21.1 x 13 3
2 18 14
Good
Poetry
D; Skt Poetry
35 2 x 16 3
2 11 58
Good
Copied by Batuka Prasada
D, Skt | 19 4x 15 5 Peotry 3 13 15
Good
D, Pkt Poetry
19 4 X 15 5
3 13 16
Good
D, Skt Poctry
19 4x15,5
4 13 16
Good
D, Skt
29 5x15 5
Good
Poetry
4 9 49
30 7 x 16 0
3 14 52
Good
D, Skt Poetry/ Prose
Published.
D, Sht Poetry
25 1 X 16 1
4 11 30
Good
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
126 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
737
738
739
740
741
742
743
744
746
2
747
Nga/6/16
Kha/119/3
Ga/143
Kha/171/6
Kha/165/14
Nga/2/35
Kha/165/1
745 Kha/112/5
Nga/2/20
Nga/7/1
Jha/34/19
748 Nga/2/26
3
Parsvanatha Stotra
Pañcastotra Satika
Pañcāsikā Siksā
Pañcapadamnaya
Prabhavati Kalpa
Prarthana Stotra
Rakta Padmavati Kalpa
Rşabha Stavana
Rşımandala Stotra
99
Trikala Jaina Sandhyā Vandana
4
Padmaprabhadeva
Dyanataraya
1
1
I
5
I I
1 [!
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
| 127
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscript8
(Stotra )
7
8
1 9
1
11
10 Good
P
D; Skt 22 8 x181
c
Poetry
1 17.21
D; Skt.
19.2 x 12 2 184.11.45
Old 1967 V, S.
Copied by Pandit Sitarama Sastrı.
Poetry/ Prose
D,
H
34 4 x 16.1
57 10 45
Good 1947 V
It is a calection of Bhajan,
Poetry
s.
Old
D, Skt
18 3 x 16 2
8 11 22
Poet, y
D, Skt Prose
2+ 5x10 4
117 70
D, Skt Poetry
19 4x155
1 13 15
C
Good
24 9 x 10 8
D, Skt. 24 9 x 10 8
10 11 38
Inc
Prose
Old First page missing. Copied by 1738 V S. Soubhagya Samudra. D/o Jina
Samudra Sūri.
19 4x15
5 2 12 14
C
D, Skt Poetry
Good
Old
Written on copy size paper.
D, Skt | 19 4x 15 5 Poetry/ 19 14 14 Prose
D, Skt
Old
20 4x16 5
13 21 14
Poetry
D, Skt
| 25 1 x16 1
911 33
Good
Poetry
D, Skt
19 4x15 5
4 13 14
Good
Prose
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैन सिद्धान्त भवनः ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrih
4
I's
749
Kha/243
Sahasranamārādhana
Devendrakirti
750
Kha/153/1
Stotra Tika
Jinasenācārya
Śrutasagara
751Jhạ/3575
752
Jha/75
Tika
Śrutasagara
Kha/161/2
Pt. Āsādhara
Amarakirti
754
Ga/134/7(Kh) Sata Astotail Stotra
Bhagavati Jasa
755
Kha/188/2
šakra
Stavana
Siddhasenācārya
756
Nga/2/27
Sattarisaya »
Nga/2/51,
Sammedāştaka
Jagadbhūşana
758
Kha/97
Samayasarana Stotra
Samantabhadra
Ga/148/3
Sankataharana Vinati
760) Kha/177/13
Santinātha Arati
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
( 129
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Mall Scripts
(Stotra )
61 71 8
9
10
11
17 2 x 154
60 14 37
Good 1926 V
Copied by Nemirājā.
Poetry
S
D, Skt Poetry
29 5 x 12 5 114 12 54
Old
Copied by Gangālāma 1775 Vs Published.
D, Sht Poetry
16 1x161
9 13 19
Inc
Good
D, Skt | 32 8 x 175 Prose 127 11 38
C
| Good Page No 68 to 78 are missing 1985 Y SI
D, Skt. 25 8 x 13 2 Prose/ 161 14 52 Poetry
Old 1897 VS
D, H Poetry
30 3 x 16 3
10 14 43
Good
D, Skt Prose
25 3 x 110
3 9 41
Inc Old
1774 VS
D, Skt Poetry
19 4 x 15 51 C
2 13 15
Good
P
D
, Skt Poetry
19 4 x 15 5
3 13 14
Good
P|D, Skt
Poetry
16 5x10 5
56 8 29
old
D, H Poetry
24 4x129 1
2 15 40
Good
D, H Poetry
22 3x11 4
1 12 29
Old
Only one page is available.
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
130 )
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah i 2
4
661 | Jha/36/2
Sântinātha Stora
Gunabhadrācārya
Nga/2/44
Stavana
Nga/2/19
Jha/34/23
Jha/80
Sarasvati Kalpa
Mallişena Sūri
Jha/34/8
Stotra
Kha/176/2
Kha/173/3
(Kha)
Kha/161/6
770
Nga/26
Siddhbhakti
Nga/7/15
Siddhipriya Stotra Tika Bhavyananda
772 | Jha/34/22
Siddhaparamcsthi Stavana
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hind, Manuscripts
(Stotra )
| 131
61
7
8
9
10
11
19 7x14 9
1 11 20
Good
Poetry
D, Skt | 19 4x15 5 Poetry I 13 14
Good
D, Skt | 19 4x15 5 Poetry 2 12 14
Good
D, Skt. | 25 1x161 Poetry
2 11 32
Good
(D, Skt i 20 6x1ó 7
Poetry 911.22
C
Good
D, Ski, 25 1x16 I Poetry 1 2 11.32
Good
PD , Skt
Poetry
23 9 x 135, C
29 28
old
D, Skt Poetry
27 2x17 5
1 14 36
Old
D, Skt Poetry
25 1 x 12 1
1 11 32
Only first page available.
Good
D, Skt / 19 4x15 5
Pkt 5 13 15 Poetry
20 9 x16 3
17 16 12
Old
D, Skt Prose/ Poetry
The Ms is demaged.
1
JD, Skt. 25 l x16 1
Poetry | 2 11.33
Good
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
132 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Srddhant Bhivan, Arrah 11 2 1
Nga/2/7
Śrutabhakti
Kha/50
Stotra Samgraha
Kha/165/11
Stofraval
Kha/165/5
77
Kha/120
Stotra Samgraba Gitakā
Kha/286
Jha/73
Nga/2/46
Bhattāraka Jinacandradeva
Kha/227/8
Suprabhâta Stotra
Jha/34/5
Svayambhū Stotra
Samantabhadra
Jha/40/5
Kha/16
» Satika
Prabhâca ndräcárya
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
P.
P
P.
P
P
P
P
P.
P
P
P
Catalogue of Sanskrit,,Prakrit, "Apabhramsha & Hindi Manuscripts [ 133
( Stotra )
P
7
D, Skt./ Pkt
Poetry
D, Skt. Poetry
D, Skt Poetry
D; Skt Poetry
D, Skt Poetry
D, Skt Poetry
D, Ski
Prose/ Poetry
D,,Skt Poetry
D, Skt Poetry
D, Skt Poetry
D; Skt. Poetry
D, Pkt, Poetry/ Prose
8
19 4x 15.5 7.13 15
19 4x10 2 49 7 36
24 5x11 1 6 20 45
26 3 × 10 8 11 13 52
13 5x7 3 272 5 16
19.6 ×12 3 535 16 19
32 8 x 17 5 72 11 39
19 4×15 5
2 13 15
35 2x16 3 2 11 55
25 1 × 16 1 14 11 32
15 4x11 9 59 16
29 7 x13 5 79 9 38
9
с
C
Inc
Inc
с
C
C
с
U
с
C
C
Good
Old
1950 V. S.
Old
Old
Old
10
Old
Good
COld
Good
Good
Good
Good 1919 V. S
11 2
First page is missing.
Copied by Batuka Prasada.
Published.
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
1341
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली. Shri Devakumar Jain Orientul Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2
3
Kha/161/4
Vışāpahara Stotra
Dhanañajaya
Jha/35/3
Nga/7/19
Nga/7/12 (K)
Nga/674
Kha/185/3
»
»
tika
Nāgacandra
Kha/178/51
Ga/59/2
Akhairaja
Kha/165/9
Kha/171/2(6)
» Mula
Ga/157/8
Vipati Samgraha
Jha/31/9
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
(135
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Stotra )
6
7
8
9
10
11
0
D, Skt. Poetry
24.1.x12,7 c
old
Published.
3 13 40
0
Good
D, Skt Poetry
16.1X16 1
5 13 18
P
D , Skt.
Poctry
26 8 x112
4 9 34
C
Good
D, Skt Poetry
21 1x13 3
4 18 12
0
C
Good
22 8 x18 1
3 17 18
0
G
D, Skt Poetry
Good
D, Skt.
21 6x12 2
10 16 39
0
1 Old
Poetry/ Prose
0
DH Skt Poetry
20 8 x 16 6
8 18 20
Good 1947 V. S.
Published
D,Skt/H Prose)
29 5x13 5
12 14 48
0
Good
Published
Poetry
D, Skt Poetry
26 1 x10 5'
5 7 32)
0
Old 1672 V. S
Published
0
D, Skt Poetry
25 4 x 16 9
5 12 24
C
Good
Published.
LD, H
15 4x14 6
23 12 18
0
Good
1st page is missing.
Poetry
-D, H
Poetry
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Good 1852 VS
Page #166
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________________
136
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan,
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Nga/2/16
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Jha/28/6
1
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1 1
799
Nga/2/45
Yamakaştaka Stotra
Bhattaraka Amarakirti
800
1
Nga/2/11
| Yogabhak.
801
Nga/5/5
1
Abhişekapātha
802
Nga/6/17
» Samaya Ka Pada
1
803
Jha/15
Akrtrima Caityalaya Püjā
1
804
Jha/34/25
Anantayrata Vidhi
1
Kha/76
Anantavratodyāpana Pujal Gunacandra
1
806
Kha/191/7 (Kha)
Ankuraropana Vidhi
1
807
Jha/49/3
1
Arhaddeva Vrhad śāntı Vidbāna
808 | Kha 143/2
Arhaddeva Santikäbhi şeka Vidhi
Jinasenacārya
1
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
ruri sanaltit. Pra, 11. Apabhrams
ilind: Manuscript
137
1.
D.'ll., 194:19
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Poetry 50 14.16
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D, SL Poctry
31.4 x 14.2
90.10.39
Old 1800 V. S.
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
138 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Dev ikumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
809
810
811
812
813
815
816
817
818
819
2
814 Kha/250
820
Kha/177/10 (Kha)
Kha/171/4
Nga/8/9
Nga/2/30
Nga/6/15
Kha/75/2
Kha/176/5
Ga/80/6
Jha/13/7
Nga/5/8
Kha/78/2
Aşṭaprakāri Pūjā Vidhāna
3
Atíta Caturviṁśati Pūjā
Barası Caubisi Pūjā Vâ Uáddyapana
Bhavana Battisi
Bisa Bhagavana Pūjā
Vrhatsiddhacakra Patha
""
Candraśataka
99
Vrhatsanti Patha
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Vidhāna
Caityalaya Pratistha Vidhi
Caturvimsati Pūjā
Tirthankara Pūjā
4.
Bhattaraka Subhacandra
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5
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Page #169
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________________
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1 130
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D, 121.
213 Poetry
Copied by NandalAla Påndıy.
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24 5712.
5 7.21.16
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D; H Poetry
19.9 18.6 1 4.13.21
Good
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32 12.46
Good 1892 V. S.
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
140 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
2 1 3
Ilal
Nga/6/1
umšati Jinapūja
Dyānataraya
822
Ga/55/1
Caubisi Pūja
Manaranga
I
823
Ga/145/1
Vrñdāvana
Ga/93/2
Caubisa Tirthankara Pūjā
Ga/94/1
Caubisi Pūjā
826
Jha/26/2
Cintamani Parsvanatha Pūja
827
Jha/16/6
i
Jha/16/8
Nga/8/4
830
Ga/103/1
Dašalákşanika Udyāpana
I
831/1
Nga/8/7
831/2
Kha/73/3
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Vratodyāpana
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
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D, Ski 22 1181! Pociry 17.13 25
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Good
D; Skt Poctry
26,5 x 16.5 2 2.11.28
Good 1955 V. S.
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
1 42 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah 3
1
4
5
832
Ga/10377
Dašalaksana Pūja
Dyanataraya
833
Ga/103/5
834
Nga/4/5
835
Nga/6/12
Dyānataraya
836
Kha/72,3
Darsana Sāmāyika Patha Samgraha
837
Jha/25/2
Devapuja
Dyanataraya
838
Jha/37
1
839
Jha/28/4
1
840
Nga/9/1
,
Pūjana
1
841
Nga/6/13
,
Sastra-Gurupāja
1
Kha/175/2
Devapūja (Abhişeka Vidhi )
Nga/9/2
Dharmacakra Patha
Yasonandi Sūri'
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
! 143
Carulorue o! Samolil, Perkut. Apabhenmasha Hindi Manuscripte
( ' 103;17. hány )
Published.
Portes
13:0
+ ALTO
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Old
D; SL. Prose
27.2 y 14.1
13.16.38
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D, SHT Poetry
25.5 x 203
48.14 16
Good 1962 Y. S.
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
144 ]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Suddhant Bhavan, Arrah
1
844
845
846
847
848
849
850
851
852
853
854
2
Jha/16/2
Jha/131/8
Nga/8/1
Ga/110/2
Jha/13/1 Ganadharavalaya Puja
Jha/26/5
Kha/145/1
Kha/44
Jha/27
Ga/157/2 Homa Vidhāna
Nga/6/18
Dharmacakra Patha
39
855 Jha/36/4
3
Grahaśānti
Pūjā
Indradhvaja Pūjā
Japa-Vidhi
Janmakalyanaka Abhişeka Jayamālā
99
い
Daulatarâma
Asadhara
4
Bhattaraka Viśvabhūşana
I
5
I
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
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-
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P.
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P.
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2 2 X 18.1
2.17.22
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D; Sh1, Poetry
19 7 14.9
1.11.21
Good
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
'1461
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah il 2
Nga/2/42
Jinapancakalyanaka Jayamala
Kha/204
Jinendrakalyânābhyudaya ( Vidyānuvādānga )
Kha/207
Jinayajna Fhalodaya
Kalyanakirtimuni
Nga 44
Jinapratima Sthāpana | Srıbrahma Prabandha
Kha/163/5
Jinapurandara Vraiodyāpana
Jha/16/7
Kalıkunda Pārsvanatha Pūjā
Jha, 26/3
Kalıkundala Pūja
Kha/244
Kalıkundārādhanā Vidhana
Kha/278
Karmadabana Patha Bhāşā
Ga/37
Karmadahana Pūjā
Kha/74/1
Bhattāraka Subhacandra
Kha/7212
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
(147
Catalogue of Sanskrit, Frakat, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Pūjā-Pātha-Vidhāna )
8
| 9 |
10
|
11
P.
Good
D, Skt Poetry
19 4 x15 5
2 13 14
Good
D, Skt i 34 8 x 14 4 Poetry
131 9 53
P
D, Skt Po try
31 5x18 7
86 15 47
Good 2451 Virs
31 8 x14 2
48 12 37
C
D, Skt Prose/ Poetry
Good
D, Skt Poetry
| 25 9x12 1
9 10 55
Old 1932 V S
Unpublished. Copied by Ramagopāla.
D, Skt Poetry
24 3 x16 1
5 20 16
Old
D, Skt Postry
22 4 x 16 8
3 20 24
Good
T), Skt Poetry
17 1 X15 4
13 12 33
Good
Inc
D, Skt Poetry
21 9 x17 9
7 19 261
Good
D, H Poetry
27 1 x 17 51
22 24 16
Good 1951 V. S
D, Skt Poetry
29 6x15 2
34 11 45
Old
D, skt Poetry
26 5x17 4
10 12 33
Good
Published,
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
148 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
868
869
870
871
,872
873
874
875
876
877
878
879
2
Kha, 37/1
Kha/168
Jha/48
Nga/8/2
Kha/186/1 Kṣetrapala
Kha/232
Nga/2/43
Kha/140/3
Kha/185/4 Laghusamayika Patha
Kha/242
Ga/148/1
3
Karmadahana Pūjā
Ga/18/2
""
33
Mahâbhiseka Vidhana
Mahavira Jayamālā
Mandıra Pratisthā Vidhāna
Mülasamgha Kathasamghi
Mrtyunjayaradhana Vidhana
Nandiswara Vidhana
4
Bhattaraka Subhacandra
Vädicandra Sūri
Śruta sagara Sûri
1
1
1
5
1
1
I
I
I
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
(149
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Pūjā-Patha-Vidhana ) 6 7 8 9 10
11
.
Old
D, Skt Poetry
35 0 x18 3
11 13 53
Published.
D, Skt Poetry
24 8 x10 6
16 11.46
Inc
Old
Pages disarranged & missing.
D, Skt Poetry
19 3x181
19 15 22
C
Good
D, Skt 22 1x181 Poetry 15 13 26
C
Good
D, Skt Poetry
23 2x13 6
9 11 34
Old 1836 VS
Copied by Cainsukhaajı
1 Old
D, Pkt /| 16 4x11 2
Skt 8 12 24 Prose) Poetry D, Skt 30 5x17 4 Poetry 40 12 50
Good
D, Skt | 17 4x15 5 Poetry
2 13.16
Good
D, Skt Poetry
30 4x16,6
38 13 52
Inc
Old
D, Skt Poetry
17.1x15 4
7 12 37
Good 1926 V
Copied by Nemirajā
S
D,Skt./H Poetry
30 3 x16 5
16 11 33
Inc Old
Last pages are missing.
DH 33 3x21 11 C Poetry 16 12 41
Good
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
150 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shi Devakumar Jain Oriental Library Jon Siddhant Bhuvan, Arrah
1
880
881
882
883
884
885
886
887
888
889
890
891
2
Ga/18/1
Nga/2/54
Nga/1/4/1
Kha/234
Jha/32
Kha/70/2
Kha/191/1(K) Nandimangala Vidhana
Nga/4/4
Ga/94/2
Nga/4/3
Kha/87/2
3
Nga/5/1
Nandiswara Vidhana
Navagraha Arışta Nivaraka Pūjā
Navakäia Paccısı
Nityaniyama Pūjā
Nityanıyama Pūja Samgraha
Nirvana Pūjā
39
Pañcamangala
Pañcami Vratodyâpana
Pañcamerů Pūjā
I
4
Takacanja
Vinodilala
Rūpacanda
Dyanataraya
5
1
1
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
151
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Pūja-Pătha-Vidhāna )
.
8
| 9
10
|
11
D, H Poetry
31 6x173 | 15 13 48
Good 1951 V. S
P. ; D, Skt /
H Poetry
19 2 x15 1
6 13 14
Good
D, H Poetry
175 x 13 5
12 13 9
Good 1913 V
First page is missing
S
Old
D, Skt Prose
27 5x19 7
20 16 30
Good
D, Sht Piesel
30 5x 17 4
55 11 50
D Skt H Poetry
17 8 x 14 3
24 14 18
Good
D, Skt Poetiy
1
25 4x 19 2
920 19
First page damaged & Jast pages are missing.
Good
D, Skt / 21 5x17 9 H
32 10 24 Poetry
D, H Poetiy
36 3 x 13 3
59 35
Good 1965 V s.
D; H Poetry
21 5 x 17 9
8 10 28
Good 1951 V. S.
P
D, Skt Poetry
29 6x13 4
4 14 56
C
old
1
D Skt H Poeti y
Good
18 3 x 14 5
14 15 17
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
i.
152 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
892
893
894
895
896
897
898
899
900
901
902
903
2
Kha/95
Kha/74/2
Ga/103/2
Ga/66
Kha/112/4
Jha/23/3
Kha/62/2
Ga/103/1
Nga/1/1
Kha/112/1
Kha/112/7
Pañcaparamesthi Pūjā
39
Kha/40/1 Pañcakalyanaka Pūjā
"
3
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39
Vidhana
Patha
"
""
39
19
23
39
Patha
4
Yasonandi
Yasonandi
Bakhtavara
5
I
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 153
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Püja-Patha-Vidhāna )
11
oli lolo 10 I
| c old
P
D, Skt
Poetry
27 5x13 5
43 9.38
Inc
Old
D, Skt Poetry
29 8 x15 1
67 13 44
First 33 pages are missing.
D, H Poetry
34 7 x 20 4
18 15 51
Good 1937 V
Copied by Jamunadas
S.
|
Old
D, H 24 5 22 3 Poetry | 129 15 24
Copied by Pandit Hirā Lāla.
D; Skt Poetry
19 4x15 5 134 10 31
Old 1800 Sakasamvat
Published Written on copy Size paper with black & red ink pages are bordered with fine printing Unpublished
Old
D, Skt | 33 0 X 15 5 Poetry 21 9 45
D, Skt | 23 2 x 19 6 Poetry 21 17 23
Good 1953
old
D, Skt Postry Prose
29 6 x 148 Inc
9 11 37
First 19 pages & last pages are missing
C
Good
D, H 34 7 x 20 4 Poetry1 13 15 50
D, Skt Poetry
15 5x11 8
23 12 25
Good 1879 Vs
P
D, Skt | 19 8 X 15 5! Prose/ 1 75 12 28 Poetry
Old 1936
V
S
Written with red& black ink Pages are boardered with fine printiag Last three pages are const of fine manadls skeiche, First two pages and last pages are missing.
D; Skt Poetry
19 4x15 5
47 17 20
Inc
Old
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
154 ]
श्री जैन सिद्वान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Labrary, Jain Siddhant Bhavan Arrah
il 213
4
904 | Nga/5/2
Pancakalyanaka Patha
9051 Kha/184
Pancakalyānakadi Mandala
906
Nga/3/1
Padmavati Pūjá
Haridasa
907
Nga/7/13 (Kha)
Padmavatidevi ,,
908
Jha/26/4
Pūjana
909
Nga/8/3
Palyavıdhān Pūjā
910
Jha/55
Pratışthakalpa
Akalañkadeva
911
Kha/222
(Jina'Samhuta tippana
Kumudacandra
912
Jha/86
Pratıştha Patha
Jayasenacärya
913
Jha/42
914
Jha/54
Pratıştha Sāroddhāra
Bramhasürı
915
ha 140/2
Pratışthäsära Samgraha | Vasunandi
Saiddhantika
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
155
Catalogue of Sanskrt, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Pūja-Patha-Vidhāna)
6 |
7
|
8
|
9
|
10
11
Good
D, Skt Poetry
21 1 x16 4
37 11 24
22 3 x 18 3
30 0 0
It is skeches of thirty mandalas
C
D, Skt 20 6 X 16 5 Poetry1 162 11 18
Good 1955 V. S.
Good
D, Skt Poetry
20 9 x16 5
2 17 18
P
D, H
Poetry
22 4 x 16 8
3 14 16
C. Good
D, H, Poetry
22 1x181
8 13 30
Good
C
21 2 x 16 8 80 14 36
Good 1926 V
Copied by Nemirāja,
Poci.
y
S
D, Skt | 34 8 x 14 5 prose 39 10 69
Good 2451 Saka S
D, Skt
31 7 x 19 8
80 13 30
Good
Poetry
D, Skt Prose
24 8 x128
34 11 32
C
Good
D, Skt | 21 1x16 8 Poetry
112 14 00
Good 2452 Vir S
Copied by Nemuâja,
P.
D, Skt Poetry
27 4x16 3
33 14 51
old 1949 V
i S
Pt Paramanand.
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
156 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
il 2
4
ls à
916
Kha/247
Pratışthā Vidhana
Hastimalla
Kha/176/1
Vidhi
918
Gaa/157/3
Prākrtanhavana
919
Kha/156/
21 Punyähavācana
920
Kha/98,1
921
Jha/9/1
Puşpānjali Puja
9221
Kha/169
Pūjā Samgraha
923
Ga/103/6
Ratnatraya Pūja
Narendrasena
924
Jha/23/1
Jinendrasena
925
Jha/51
9261
Nga/6/9
Dyana taraya
927
Ga/103/8
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
| 157
Catalogue of Sansknt, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
i. ( Pūja-Pātha-Vidhāna )
7
Š 191 101
11
Good
D, Skt Poc.ry
19 11 34
D, Skt | 27 1x15 4 Prose 34 11 32
Old 1909 V. S
Written on co ou red thin paper.
D, Pkt | 17 5x15 5 Poetry 3 13 27
Good
Old
D, Skt. 27 4x13 ó Poetry 6 11 43
D, Stk Poet ry
21 5x12 2
11 9 29
Old 1866 V. S
D, Skt. 1 27 2 x 12 4 Poetry 6 13 50
Good
D, Skt / 24 9x21 4 Pkt./H 88 26 48 Poetry
Good 1947 y. s
D, Skt Poetry
34 7 x 20 4
7 15 46
Good
D, Skt Poetry
23 2x19 5
12 18 23
Good
D, Skt Poetry
21 2x16 2
16 17 21
Good
D, H Poetry
22 8 x 18 1
5 17 23
Good
D, H, Poetry
34 7x20 4
3 15 46
Good
Published,
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
158
]
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1
1
2
1
3
I
5
928
Kha,263
Ratnatraya Pujā Udyapana Visvabhuşana
S/o Viśālakirti
929
Ga/10344
930
Kha/91
931
Kha/98/2
Jayamala
932
Kha/165/3
933
Ga/93/3
Rşımandala Pūja
Jawahara Lala
934
Jha/49/2
935
Jha/31/5
936
Ga/80/5
Rūpacandra Sataka
Rūpacandra
937
Jha/13/3
Sakalikarana Vidhāna
938 | Kha/143/3
939
Jha 45
Samayasarana Pūjā
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
| 159
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhran zha & Hindi Manuscripts
( Pūjā-Pātha-Vidhāna )
61 71 8
9
10 11
D, Skt Poctiy
24 6x198
33 15 40
C
Good
1
This work is presented to Jain Sidhant Bhavan by Buchchulala Jain in 1987 V S
Good
D, SK t/: 34 7 x 20 4
Pkt 19 15 52 Poctry
D, Skt Poctry
30 4 x 14 2
8 14 57
C
Old
D, Pkti Poetry
29 1x134
47 43
C
Good
D, Skt. 25 6 11 8 Poetry
3 6 35
C
old
D, H Poetry
32 3 x 16 8
12 13 51
Good 1901 V
S
D, H Poetry
20 8 x16 2
33 14 16
Good Durgalal seems to ba copier. 1960 V S. Du
1), Skt Poetry
18 2 x-11 8
19 10 22
Good
D, H Poetry
23 2x153
4 22 22
Old 1890 V
S
It is written only Doha Chhanda
D, Skt Poetry
24 5 x 16 5
2 23 17
Good
Old
D, Skt Poetry
31 5x144
9 11 47
D, Skt Poetry
32 6 x 18 1
25 14 52
Good
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
+ 160
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2 1
3
940
Kha/79
Samayasarana Patha (Samavaşruti-Puja )
Bhattarala Kamalakirti
941 1
Ga/36
Sammedasikhara Mahātmya
Lalacandra
942
Ga/151/2
Sammedasıkhara Pūja
Jawahara
Jha/18/2
9441
Nga/1/5/1
Sa.asvati Pūjā
Sadásukha
945
Ga/77/2
Sadāsukha Dasa
946
1
Jha,'13/2
Saptarsi
Visvabhūşana
947
Nga/4/1
Bhattāraka Visvabhūşana
948
Jha/23/2
Visva Bhūşana
949
Kha/148
Satcaturtha Jenārccapa
950
Kha/70/3
Şannavatı Kşetrapala Puja
Sri Visvasena
951 1
Kha/3712
Sardhadvayadvipā Pūja
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
(161
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Pūjā-Patha-Vidhana )
|
7
8
9
10
1
1
11
D, Skt Poetry
27.5x13 6
38 11 49
р
!
D, H. Poetry
29 8 x18 3
45 12 40
Good 1937 V. S
Old
D, H Poetry
28 8 x 12 4
15 9 39
D, Skt 14 3x13 2 Poetry 12 10 15
old
P, H 17 5X14 4 Poetry | 27 11 20
Good 1921 V
s.
D, H Poetry
24 5 x 10 6
25 8 33
Good 1962 Vs
oooooooooooo
D, Skt Poetry
24 5 x 16 5
8 21 18
Good
Unpublished.
D, Skt Poetry
21 2x15 1
12 7 25
Good 1951 V.S
D, Skt 23 3 x 19,4 Poctry 18 18 21
Good 1956 y
s
D, Skt Poetry
28 1 x 15 2
95 12 33
Good 1935 V.S
Unpublished
D, Skt Poetry
29 5x19
17 22 21
Good 1955 V. S.
D, Skt Poetry
35 5x19 1
93 14 54
C
Old
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
. 162 ]
श्री जन, सिद्धान्त भवनाग्रस्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah 1 2
3
Jha/1
Sārdhadvaya dwipasth Jinapūja
Kha/32
Sāmāyıka Patha
Bahumuni
954 | Kha/80/1
Sántyāştaka Tika
Jha/13/6
Sāntimanträbhiseka
Kha/210/Kha Sånti Patha
Ga/55/2
1 -
Vìdhān
Swarūpacand
958
Kha/233
Kha/72/1
Sāntıqhậrā Patha
9 60
Nga/6/14
Siddhapūjā
961
Jha/38/1
962
Kha/160/4
Sidhacaksa
Deyendrakirti
Ga/51
Sikharamāhātmya
Lalacanda
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 163
Catalogue of Sanskrit,''Plakrit. Apabhrabsha & Hindi Manuscripts
(Pūja-Pātha-Vidhāna ) 0 7 1 18 19 | 10 | 11
la seems to be copier.
Skt Poetry
31 3-X15 6 106 12 40
Good 1868 y
s
D, Skt | 31 0 x12 6 Poetry
16 9 38
Old 1836 V
'Unpublished
S
Inc
D. Skt Poetry
26 8 x 14 3
34 10 43
o ld 2440 Bir S
Old
Last' pages are missing.
Inc | Good
P-D, Skt H
Prose
24 5 12 5
17 21 14
Inc
D; Skt Poetiy
26 8 x 15 8
78 30
Good 2438 Vir S.
Cop.ed by 'Dharamcand.
28 5x12 9
43 9 36
C
| D, H
Poetry
Good
D, Skt. Prose
30 5 x 17 4
17 12 48
Good
D, Skt Prose
28 0x170
69 31
Good 1947 Vs
D; Skt Poetry
22 8 x-18 1
3 17 25
Good
Old
D, H Poctry
14 3 X-13 2
7 10 13
D, Skt. 28 4 x10 8 Poctry 16 9 41
Inc | Good
Last pages are missing.
D, H 30 1 x 19 1 Poetry 1 49 12 34
Good 1955 V. S.
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
164 1
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
1 1
2
3
15 )
964 | Kha/140/1
| Simhāsana Pratıştha
965 | Kha/172/3
| Solahakārana Jayamålā
966
Nga/8/6
Udyåpana
67 1
Nga/5/7
Sudarsana Pūja
Sikharacandra
968
Jha/28,5
969
Kha/98/3
Srutaskandha Vidhana
970
Jha/9/2
„
Pūjā
971
Jha/13/5
Swasti Vidhana
972
Nga/2/1
Svādhyâya Patha
973
Ga/20
Terahadwipa Vidhana
974
Jha/14
Tisacaubisi Patha
975
Nga/8/8
Tisacaturvinsati Puja
Subhacandra
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
| 165
Catalogue of Sanskrat, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Pūjā-Patha-Vidbāna )
0
7
1
8
| 9 |
10
11
D; Skt. Poetry
30 4x17 1 | c | Old 11 13 36
Copied by Pt Paramananda
D, Pkt Poetry
27.2x18 2
17 6 29
Old
Copied by Gobinda Singh 1952 V S. Varma
D, Skt Poetry
22 1 x18.1
28 13.30
Good
D, H Poetry
21.2 X16 6
4 14 18
Good 1950 V. S
1
D; H Poetry
20.2 x 15 8
5.10.24
Good 1950 V
S.
Good
D; Skt. Poetry
29.5 x 13 4
7 14 51
D, Skt Poetry
27 2x 12 4
17 8 28
C
Good
Good
D; Skt. Poetry
24 5 X 16 5 !
9 22 15
Good
D, Skt /
Pkt. Poetry
19 4 x 15 5
4 13 14
ac
Good
D, H. Poetry
37 5x19 8 1 183 12.41
First page & last pages are I missing
C
Good
D, Skt. 24 4x15 2! Poetry 73 18 15
D, Sht 22 1 X18 19 Poetry 49 13.26
Good 1774 V
S.
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
164
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Jevakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
976
Ga/137
| Tisa Caubisi Pūjă
9771 Kha/78,1
Trikala-Caturvimšati Pūjā
9781 Ga/19
Trilokasara
.
Pandit Mahātandra
979
Ga/3
Vidhāna
Jawahara Lāla
980
Kha/241
Vajrapanjarädhanā Vidhana
981
Ga/112/2
Vasupujya Pūjā
Kha/240
Vastupūja Vidhana
983
Ga/157/11
Vidyamâna Caturvimsatı Jinapujá
984
Ga/157/5
Viñsati Vidyamana Jinapūjā
985
Kha/171/1
Sukharacandra
986
Kha/238
Vimānasudhi Vidhana
987
Jha/84
Vratodyotana
Abbradeva
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
[
167
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Pūja-Patha-Vidhana )
6
7
1
8
| 9 |
10
|
11
P
D, H 28 3 x 17 9 Poetry136 13 35
C
Good 1913 V. S
P.
Good
D. Pkt 29 6x15 2 Poetry13 11 37
D; H Poetry
42 8 X21.3 148 13 33
Good 1954 V. S
C
D; H Poetry
36.1 x 20.5 227 15 44
Good 1964 VS
Good
D; Skt Poetry
17 3x15 5
6.12.37
Copied by N. N. Rāya.
C
old
D, H, 1 20 9 x16 5 Poetry 5 13 15
:
Good
Copied by Nemirāja.
D, Skt Poetry
17.1 x 15 2
9 12 32
D, Skt poetry
12 7 x000
29 9 18
1 to 5 Pages are missing
C
D, Skt / 18 2x119
Pkt 6 12 19 Poetry
1014
D, H. Poetry
27 9 x17 5
60 15 13
Old 1941 VS
D, Skt Poetry
171x15 3
9 12.30
Good
D; Skt Poetry
35 3X16.2
22 9 54
Good 1987 V
S.
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
168]
श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रन्थावली Shri Devakumar Join Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
II 2
4
| 5
-
Jha, 49/9
Vrihadnhavana
Kha/154
Vrhacchanti Pāgha
Dharmadeva
990
Jha/122
Bimbanirmāna Vidhi
991
Jha/25/4
Caubisa Dandaka
Jha/56
Dvijayadana Capeta
993
Jha/92/2
Lokānuyoga
Jinasenācārya
994
Kha/177/2
Mandala Cintamani
995
Jha/117
Munivansabhyudaya
Cidānanda Kavi
| Jha/102
Trailokya Pradipa
Indravamadeva
Yantra dwarā vividha carca
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
(169
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratisha & Hindi Manuscripts
( Vividha )
7
8
9
10
D, Skt. Poetry
20 8 x16 2
14 14 16
C
Good
D, Skt. Poetry
29 6x13 3
27 14.49
Good 1937 Vs
Η.
Good 1992 V, s.
D; Skt./ 21.6 x17.5
20 13.30 1 Prose/ Poetry D; H. 22 9x154 Prose
7 18 15
C
Good
D, Skt | 20 9x18 9] Inc | Good Prosel
1 28 16 22 Poetry
Last pages are missing.
D, Skt. Poetry
35.2 x 16.3
81 11 49
Good 1989 V, S
P.
D, H.
00.0 x000C
1 00.00
old
It is a sketch of cintimani prepared by Munilala.
D; K Poetry
33 8 x16 3
40 10 45
Good
D, Skt. Poetry
35.4 x16 3
82 11 55
Good 1990 V. S.
D, H, Prose
36.4 x 28.8
68.25.40
Good
Unpublished,
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली ( संस्कृत, प्राकृत, अपभ्र श एव हिन्दी ग्रन्थ-सूची)
परिशिष्ट (पुराण, चरित, कथा)
Opening :
Closing :
Colophon
१. आदिपुराण श्रीमते सकलज्ञानसाम्राज्यपदमीयुपे । धर्मचक्रभृते भत्रे नम 'ससारमीयुषे । यो नाभेस्तनयोऽपि विश्वविदुषा पूज्य स्वयम्भूरिति त्यक्त्वाशेषपरिग्रहोऽपि सुधीया स्वामीति य शब्द्यते । मध्यस्थोऽपि विनेयसत्वसमितेरेकोपकारीमतो निनोऽपि वुधरुपास्यचरणो य सोऽस्तुव शातये ।।
इत्यारे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसग्रहे प्रथमतीर्थकर चक्रधरपूराण परिसमाप्तम् । सप्तचत्वारिंशतितम पर्व ।
पुस्तक आदिपुराणजी कर भट्रारक राजेन्द्रकीति जी को दिया लखनऊ में ठाकुरदाम की पत्नी ललितपरसाद की बेटी ने मिति माघ वदी स० १९०५ के साल मे।
द्रष्टव्य-प्र. ज. सा०, पृ० १०२।
जि० र० को०, पृ० २६ । आमेर भडार के ग्रथ, पृ० ११॥ रा० सू०, पृ. २६ ।
दि. जि.ग्र. र०, पृ० १। Catg. of k.&ukt Me., prge-624
Opening Closing Colophon . .
२. आदिपुराण देखें, ऋ० १। देखे, क्र. १।
इत्याचे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिपप्टिलक्षणमहापुराणे
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Juin Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Opening
Closing: Colophon
Opening
Closing
Colophon
Opening
प्रथमतीर्थंकरप्रथमचक्रधरकेवलज्ञाने निर्वाणादिवर्णन नाम महापुराण समाप्तम ||४७ ॥ समाप्तोऽय श्री आदित्यपुराणग्रथ । अथ श्रीसंवत्सरे नृपति श्रीविक्रमादित्य राज्ञ सम्वत् १८५१ चैत्रमासे शुक्लपक्षे सप्तम्या तिथौ रविवासरे पट्टनपुरनगरे लिखितमिद महापुराण उदेरामब्राह्मणेन । || नम् ॥
३. आदिपुराण
देखें, क्र० १ ।
देखे, क्र० १ ।
इत्यार्षे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणे प्रथमतीर्थकर प्रथमचक्रधर केवलज्ञान निर्वाणादिवर्णनोनाम महापुराण समाप्तम् । समाप्तोऽय श्री आदिपुराणग्रथ । अथश्रीसवत्सरे नृपतिश्री विक्रमादित्यराज्ञ संवत् १७७३ आषाढ मासे शुक्लपक्षे चतुर्थी तिथोभौमवासरे पाटलिपुरेनगरे लिख्यतमात्मने ब्रह्मचारिणा सानदेन ॥
४. आदिपुराण
देखे, ऋ० १ ।
देखे, क्र० १।
इत्या भगवद्गुणभद्राचार्य प्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसग्रहे प्रथमतीर्थकरचक्रधरनिर्वाणगर्मणपुराण परिसमाप्ति सप्तचत्वारिंशतम पर्व ॥४७॥
रुद्रेदुनाभिता सख्याप्रवाच्यासुमनीषिभि । यमादिपुराणाद्धिगणित सुसमीहितम् ॥
श्री हरिकृष्णसरोज राजराजितपद्मकज । सेवतमकरसुभटवचनमत्रिततनुअकज । यह पुरण लिख्यौ पुराणातिन शुभ शुभ कीरति के पगनको । जगमग जगमनिजसुअटल शिष्यसुगिरधर परसरामकै कथनको । शुभ भव सुमगलम् श्रीरस्तु कल्याणमस्तु ॥
५. आदिपुराण
प्रणमि सकल सिद्धनिकू, प्रणमि सकल जिनराय । प्रणमि सकल सिद्धान्तकू, नमि गणधर के पाय ॥
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit. Prakrit. Apabhrainha & Hindi Manuscripta
( Purána, Canla, Kolha)
Clasing : श्रीमत आदि पुगणी, नोक भाषा अनुमान ।
तेईस च गहन है, बुधगन मारह बखान ।। Colophon : मामे कातिकमाने गुगलपक्षे द्वितीया पृहस्पति गवत् १८६
पुस्तक नियतं पेमकणंतम्यात्मपुरा कातालान तस्य पुष जुगराज अपने पठनापं हेतु निगी ।
६. भादिपुराण टिप्पण Opening • नमो यमग्रीपापार्याय श्रीगुन्दगुन्दम्यामि । अपागण्ययरेण्य
मनपुग्पनमात्तिनौपंगरपुष्पमहिमायाटम्गम्भूतपञ्चारयाणाञ्जित' " । Closing: . म्पपरागिदि म्पपरागंभानं मम्पशानमित्यर्थ । वृषभ श्रोठ । Colophon : ति प्रथमचक्रधरपुराण मनचन्याग्नित्तम पर्वपरिममाप्तम् । विशेष : अनिम एप में अंक गदृष्टि दी गई।
देखें-जि. २० मो०, पृ. २७ ।
७. आदिनाप पुराण Opening - दे, T० १ । Closing : श्रीपुराणममाम्नायमाम्नात इम्तिमल्सिना ।
तरण्य मयंगास्वाधेरखण्टं धाग्यस्यमुम् ।। Colophon . इति शमं पर्य।
श्रीमदगिलप्राणिगणपाल्याणकारकमिद वृपभनाथपुराण श्रीयीरवाणीविलास--जनसिद्धान्तभवनग्य फर्णाटयलिपियिमूपित-जीर्णप्राचीन ताडपत्रप्रथाद्यथामति वेपुरनिवासिना लोकनाथशास्त्रिणा उत्तमिति भद्र भूयात् । महावीर शफा २४६६ भाद्रपदकृष्णपक्षाष्टमी
ता. २१-६-४३। विशेष इसमे केवल दस ही पर्व हैं। जवकि प्रारभ और अन्तिम जिनसेन
फे आदिपुराण की भांति ही है। इसमें कर्ता का नाम हस्तिमल्ल लिखा है ?
Opening Closing
८ आदिपुराण वचनिका देखें, क. ५ ।
. विश्वभर विश्वनाथ चक्रनाथ का पिता सो तुम भव्यजीवनिफू मातके अयिहोहु ।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जैनसिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Colophon • इत्या भगवद्गुणभद्राचार्य लक्षणमहापुराणे प्रथमतीर्थ
कर प्रथमचक्रधरपुराणसप्तचत्वारिसतम पर्व पूर्ण भया । .., इति श्री ' आदिनाथ पुराण भाषा सपूर्ण । शुभ भवतु। मिती चत्रवदी ११ सवत् १९६१ मु० चन्द्रापुरी मध्ये।
६. आदिनाथ पुराण Opening : श्रीमत त्रिगन्नाथमादितीर्थकर परम् ॥
फणीद्रेद्रनरेद्राच्यं वदेनतगुणार्णवम् ॥१॥ Closing :
अष्टाविंशाधिका भोपट चत्वारिंशछनप्रमा ॥
अस्याद्यर्हच्चरित्रस्य स्यु. श्लोका पडिता बुधै ॥ Colophon . ___ इति श्री वृषभनाथचरित्रे भट्टारक श्री सकलकीर्तिविरचिते
वृषभनाथनिर्वाणगमनवर्णनो नाम विंश सर्ग ॥२०॥ मिति पौष शुद्ध १५ चद्रवासरे सवत् १९७०॥ लिखितमिद पुस्तक मिश्रोपनामक गुलजारीलाल शर्मणा। शुभ भवतु । भिण्डाग्रनगरवासोस्ति ।
श्लोक मख्या ५५०० प्रमाण, सवत् १७९७ की लिखी हुई प्रति से यह नकल की गई है।
देखे--जि. र० को०, पृ. २८ । ____Catg. of skt & pkt. Ms , Page 624.
१०. आराधनाकथा कोश Opening
श्रीमद्भगव्या जसद्भानून् लोकालोकप्रकाशकान् ।
आराधना कथाकोश वक्ष्ये नत्वा जिनेश्वरान् ।। Closing . भव्याना वरशातिकान्तिविलसद्कीर्तिप्रमोद श्रिय ।
कुर्यात्सरचिता विशुद्धशुभदा श्रीनेमिदत्तेन वै ॥ Colophon
इति श्री कथाकोशे भट्टारक श्रीमत्लिभूषणशिप्य ब्रह्मनेमिदत्तविरचिते श्रीजिनपूजादृप्टातकथा वर्णनाया चतुर्थपरिच्छेद समाप्त । १११/सवन् १८४८/शाके १७१३/समयनाम आश्विनमासे कृ (ष्ण) पक्षषष्ठी रविवार लिखित प प्राकृह्मनाथ पटणामध्ये स्वस्थान काशी मध्ये ।
देखे-दि० जि. . र०, पृ० ३-४ ।
प्र. जै० सा०, पृ० १०४-१०५'। रा. ज. भ. सू० 11, पृ० २२५ ।
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrami, & Hindi Manuscripts
( Purina, Conta, Kalu)
जि. र० को०, पृ. ३२। Cate. of skt & pkt. Ms., page, 626.
११. आराधनाकथा कोग Opening : Closing
तेपा पादपयोजगुग्मापया श्री जैनमूगेचिता',
सम्यग्दागंनयोधवृत्ततपमामागधनानारया ॥ Colorlu. ति श्री कपालो श्री मल्लिभूपण शिप्यग्रहानेमि
वन निरो श्री स्निपादजान, तारा वर्णनाया चतुयं परिन्द भमान । गन् १८०७ वर्षे पारगुन गुदी ६ बुधे लिगितम् श्री श्री सात्मिहनाबाद मरे। शुभ पयतु । श्रीरस्तु । लेराफपाठगायो ।
Opening .
१२. आराधनासार श्री अरिहत जिनेनुरजी इस प्रथ की आदि मुमगलदाई। गोफ अनोक ज्यापदेय ममोप्टन आदिक रुद्रलहाई ॥ चना किन हो, जैनमन मुबाद । ना नाद - प्रजा, पाचो बहुआनन्द ।। 77 आनधनागार का नगा नम् । शुभम् ।
Cloring
Cokplan.
१३. भद्रबाहुचरित्र Opening मद्वोधभानुनानित्या जनाना मातरं तमः।
य सन्मतित्वमापन सन्मति सन्मति क्रियात् ॥ Closing ·
श्वेतांशुकमनोद्भ ति मूढान् ज्ञापयितु जनान् ।
व्यरीरचमिम ग्रथ, न रव पाडित्यगर्वत ॥ Colophon . इनिश्री भदवाहुचरिये आचार्य श्री रत्ननदिविरचिते श्वेता
वरमतोत्पत्ति आपलिमतोत्पत्ति वर्णनो नाम चतुर्थोऽधिकार । इति भद्रवग्हुचरित्र समाप्तम् । पडितदयारामेन लिखापितम् ।
देखे-दि० जि० प्र० २०, पृ. ४ ।
प्र. जै० सा०, पृ० १६३ । गि र० को०, पृ० २६१ ।
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श्री जैनसिद्धान्त भवन ग्रन्थावली ĮShri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
१४. भद्रबाहुचरित्र Opening ! देखें-ऋ० १३।
Closing ! देखे-क्र. १३ । Colophon: इति श्री भद्रवाहुचरित्रे आचार्य श्री रत्ननंदिविरचित
श्वेतांवरमतोत्पत्ति आपलिमतोत्पत्तिवर्णनो नाम चतुर्थोऽधिकारः ।। इति श्री भद्रबाहुचरित्र समाप्तम् ।। लीलकण्ठदासेन लिखितम् ।।
१५. भगवत् पुराण Opening : श्रीमत परमेश्वर शिवकर लीलानिवास शिवम्,
नोम्यानन्तशिव महोदयमह लोकत्रयाच्चस्पिदम् । त योगीन्द्रनृपेन्द्रदेवनिकर, सस्तूयमान सदा,
यदृष्टया भुवनत्रयेपि नितरा पूज्यो भवेन्मानुष । Closing: खखवह्निशिखिश्लोकसख्या प्रोक्ता कवी शिना ।
श्रीमतोऽस्य पुराणस्य लेखयतु सुखाथिना ॥ Colophon ! इति श्री भगवत्पुराणे महाप्रासादोद्धारसदर्भे भ० श्री रत्न
भूषण भ. श्री जयकीाम्नायप्रवेकनरपत्याचार्य शिष्यब्रह्ममगलाग्रज मंडलाचार्य श्री केशवसेनविरचिते श्रीऋषभनिर्वाणानदनाटक वर्णननामा द्वाविंशतितम. स्कन्धः ।।२२।। सवत् १६९८ वर्षे ज्येष्ठमासे शुक्लपक्षे पूर्णमाश्या तिथौ भृगुवासरे श्री अवतिकापुर्या श्री महावीरचैत्यालये श्रीमत् काष्ठासधे नदीतटगच्छे विद्यागणे भ० श्रीरामसेनान्वये तदनुक्रमेण भ. श्रीरत्नभूषणतत्पट्टे भ० श्रीजयकीति तद्गुरूभ्रातामडलाचार्य श्री केशवसेन तच्छिण्याचार्य श्री विश्वकीति अवल ब्र० कनकसागर ब्र० दीपजी सिद्वान्ती ब्र.राजसागर ब्र० इन्द्रसागर ब्र० मनोहर बा० दाना बा० लक्ष्मी बा. कमलावती पं० चपायण ५० योगराज पं० मायाराम प० बलभद्र इति मघाट के चिरं जीयात । आचार्य श्री विश्व कीर्तिपठनार्थ जोसी उद्धवेन लिखित मिद पुर क चिरतेतु। सवत् १९८९ व आश्विनगो कृष्णपक्षे अप्टम्या तिथी श्री आरनिगश्री स्व. देवकुमारेण स्थापित श्री जैन सिद्धान्तभवने तत्पुत्रबाबू निर्मलकुमारस्य मत्रित्वे श्री प० के० भुजवलीशास्त्रिण अध्यक्षत्वे च सग्रहार्यमिद पुस्तक लिखितम् । शुभमस्तु ।
१६. भक्तामर कथा Opening , प्रथम पीठि कर जोरि करि शुद्ध भावते शिर नाइये ।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manusculpte
(Purāna, Carta, Katha )
वसुसिद्धि अरु नव निधि वृद्धि सु रिद्धि जात पाइये ॥ Closing
कही विनोदीलाल शारदगुरु परतापते ।
पूरन भई रसाल अद्भुत कथा सुहावनी ।। Colophon
इति श्री प्रथम जिनेन्द्रस्तवने श्री भक्तामर महाचरित्रे भापा लालविनोदीकृत . कथा सम्पूर्णम् । सब मिलके चौपही दोहा ॥ ३७५६ ।। सवत् ॥ १९३८ मिती सावनशुक्लपक्षे अष्टम्या मगलवासरे आरा नगरे सम्पूर्णम् ।
१७. भक्तामर कथा Opening - देखे, ऋ० १६ । Closing : सख्या परम रसाल देखहु याही ग्रन्थ की।
कही विनोदीलाल पट् सहस्त्र हूँ सतक पुनि ॥ Colophon
श्री इति प्रथम जिनेन्द्र स्तवन श्री भक्तामर महाचरित्रे भाषा लाल विनोदीकृत चौपाई वध अडतालीसमी कथा सम्पूर्ण। सर्वकथा चौपाई छद श्लोक दोहा अरिल्ल (अडिल्ल) कु डलिया सोरठा काव्य ॥ ३७६० ॥ सपूर्ण शुभमस्तु । पौषमासे कृष्णपक्षे तिथौ ११ चद्रवासरे सवत् १९५४ । दस्तखत बलदेवदत्त पडित के ।
१८. भक्तामर चरित्र Opening : देखे, ऋ० १६ । Closing : देखे, ऋ० १७। Colophon इति श्री प्रथम जिनेन्द्रस्तवने श्री भक्तामरचरित्रे भापा
लाल विनोदि कृत चौपाई बध अडतालीसमी कथा समाप्तम् । सर्वकथा चौपाई छद श्लोक दोहा अरिल्ल कु डलिया सोरठा काव्य । ३७६०। मिति श्रावणकृष्ण दशम्या रोज मगर (ल) वार सवत् १९५५ । श्लोक ५४००।
यह अथ लिखावित वावू श्रीयाशदास वास्ते लोचना बीवी के दान देने श्री मुनीद्रकीर्ति जी भट्टारक जी को देने को लिखा चुनीमाली ने।
१९. चन्द्रप्रभचरित्र Opening : वन्देऽह सहजानन्दकन्दलीकन्दवन्धुरम् ।
चन्द्राङ्क चन्द्रसकाश चन्द्रनाथ स्मराम्यहम् ॥ १॥
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श्री जैनसिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Juin siddhant Bhavan, Arrah
चन्द्रप्रभारीधीरस्य काव्य व्याख्यायते मया ।
विश्वमन्वयरूपेण स्पष्टसस्कृतभाषया ॥२॥ Closing ! इति वीरनन्दिकृतावुदयाङ्क चन्द्रप्रभचरिते महाकाव्ये तद्वया
ख्याने च विद्वन्मनोवल्लभाख्ये अष्टादश सर्ग समाप्तः । Colophon ! शक वर्ष १७६१ नेत्रविकारि सवत्सरद पाघ शुद्ध १
. . श्रीमच्चाएकीति पडिताचार्यवर्य स्वामियवर पदिकगल भृगोपमानियाद वेलगुलदीय वर्गदवसिष्टगोत्रद विजय णैयन यी चन्द्रप्रभा काव्यदव्याख्यानद पुस्तक वरदु सपूर्णवायितु भाचद्रार्कपर्यत भद्र शुभ मगलम् ।
द्रप्टव्य-जि० २० को०, पृ० ११९ ।
Cat. of Skt & Pkt Ms., Page-640,
Cat. of Skt. Ms., P 302.
२०. चन्द्रप्रभ पुराण Opening : श्री चन्द्रप्रभु पदकमल, हाय' जोड सिर नाय ।
प्रणम शारदा मातफुन, गुरु के लागू पाय ॥ Closing : यही उत्तम जगत माही चार सब अघहार ।
सरन इनही की सुहीरा, लाल भवदध तार ।।
हमरै यही मगलचार।। Colophon: इति श्री चद्रप्रभुपुगणे कडकला/मगाम वर्णनो न.म' सत्तरमो
अधिकार पूर्णभया । इति श्री चद्रप्रभु पुराण भापा सम्पूर्णम् ।
मिति जेठवदी १ मवत् १९७८ | शुभ * वत् ।
२१ चतुविशति जिन भवालि Opening : जयादिब्रह्मा च महावलोभवत्,
लालिन्यदेहत्ववज्जघक । आर्यस्तत श्रीधरको विधिस्ततो,
च्युतेन्द्र नाभित्वहमिद्र कर्षभे॥ Closing ! देवो विश्वकनदिदेवहरपयो भूनारक केशरी,
धर्मातारकमिहदेवकनको द्योन पुगे लातवे । गजाभरिपेणकरइतञ्चत्रीसुगेनदक ,
म्बर्गे पोषणमेनिजिनवनवीगवनागम्मता ॥ Colophon: निचर वि..िजिन बालि नपूर्णमा
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Catalogue of Sanshrit, Prakrit, Apabhreinsha & Hindi Manuscripts
( Purana Canta, Katha )
२२, चारुदत्तचरित्र Opening ' चरण नमो महावीके, हरन सर्व दुखदद ।
तरन जु तारण जगत को, करन महासुख कद ।। Closing : चारदत्त सपति विभो अहिमिदर पद कहि वरन ।
इस भाति चरित वाची सुनौ सक्ल सग मगलकरण । Colcphon: इति श्री चारदत्त चरित्र गण भारामल्ल विरचित सम्पू
र्णम् । लिखित गुलजारीलाल निवासी स्तमगढ के जैनी पद्मावती पुरवार रोज वृहस्पतिवार सवत् १९६० मिती चैत्र शुक्ल ५ पचमी शुभम् ।
२३ चेतन चरित्र Oper ing .
श्रीजिनचरण प्रणामकरि, भविक भगति उरआनि ।
चेतन अरु का करमको, कही चरित्र वखानि ।। Closing
मवत सत्रहमैवनीम मे, जेष्ठ सप्तमी आदि ।
श्री गुरुवार सुहावनौ, रचना कही अनादि । Colophon ' इति श्री चेतनकर्मचरित्र मपूर्णम् । मिति श्रावण सुदी १३
सवत् १९५८ ।
Opening:
Closing :
२४, चेतनत्तरित्र नाटक पारस चरन सरोज रज, सरस सुधामसार । जेहि सेवत जडता नस, सज सुबुद्धि सुखकार ॥१॥ पच परमपद को नमो, सर्वसिद्वि दातार । चेतन कर्मचत्रि को कह कह निनार ॥२॥ आप विराजो महल आपने समर भूमि जाता है, जितने भाये सवी को बटी करके लाता हूँ। खुशी मनावे जिनवर ध्यावो समर जीति में आता हूँ, मै भी आपका राजवीर गस वीर कहलाता हूँ। अपने मालिक के दुश्मन को सूरवीर यदि पाता है, नो मारे दिन निरस्य गज के गम खाता है ।। इति चेतनकरित्र नाटक 7 पू।।
Colophon:
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श्री जैनसिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan Arrah
२५ दर्शनकथा Opening! श्री रिषभनाय जिन प्रणमौ तोहि ।
अजर अमर पद दीजे मोहि ॥ अजित जिनेश्वर वदन करी।
कर्मकलक छिनक मे हरौं । Closing ! दर्शन कथा पूरणभई, पढे सुनै सब कोय । दुख दलिद्र (दरिद्र) नाश सबै, तुरत महासुख होय ।।
॥१॥ Colophon: इति श्रीदर्शनकथा सम्पूर्ण । मिती अगहन वदी ३० सवत् १९६१ मुकाम चन्द्रापुरी ।
२६. दर्शनकथा Opening | देखे ऋ० २५ । Closing .
दुख दरिद्र सब जाय नशाय । जो यह कथा सुनो मनलाय ॥ पुत्रकलित्र बढे परिवार ।
जो यह कया सुनै नरनार ।। Colopnon: इति दर्शन कथा सम्पूर्णम् ।
यह ग्रन्थ सवत् १९४० मे मनोहरदास आरा के मंदिर में चढाया गया था।
Opening!
२७. दशलाक्षगी कथा अहं त भारती विद्यानदिसद्गुरु-पंकजम् । प्रणम्य विनयात् वक्ष्ये दशलाक्षणिक व्रतम् ॥ १॥ राजगेहात्समागत्य वैभारवरभूधरम् ।
श्रेणिको नमतिस्मोच्च. वीर गभीरधीधरम् ।। २ ।। जातः श्रीमतिमूल सघतिलके श्री कुदकु दान्वये, विद्यानदि गुगरिप्ठमहिमा भव्यात्मसवुद्धये । तच्छिष्य श्रुतसागरेण रचित कल्याणकीांग्रहे, शदेयाइशलाक्षणव्रतमिद भूयाच्चसत्सपदे । इति श्री दशलाक्षणिक कथा समाप्ता.।
Closing !
Colophon:
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११ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratisha & Hindi Manuscripta
( Puriga, Carito, Kathn)
२८. दशलाक्षणीकथा Opening . रिषभनाय प्रनमू सदा, गुरुगनघर के पाय ।
तीन भवन विख्यात है, सब प्राणी सुपदाय ।। Closing : भूला चूका होय जो, लीजो सुकवि सुधार ।
मोह दोम दोर्ज नहीं, करी भव हितकार ।। Colophon: पति दणलाक्षणी कथा समाप्तम् ।
२६. दान कथा Opening . देय नमो अग्ति सदा और निज समूहन को चितलाई ।
मूरज आचार को भजी और नमो उपध्याय के नित पाई॥ Closing दानकाथा पूरन भी, पर्ने सुनै नित सोई ।
पुग्न दालिद्र (दारिद्र) नाग सर्व, तुरत महामुख होई ॥ Colophon इति श्री दानकथा सपूर्ण। लिखित पडित रामनाथ
पुगेहित मुकाम चन्द्रापुरी ।
३०. धर्मगर्माभ्युदय Opening: श्री नाभिमूनोशिचरम दि गुग्म नखेदव. कौमुदमेधयतु
यवानमन्नागिनरेद्रचण्टाम्मगभंप्रतिविमेण ॥१॥ Closing ·
अमजदयविचिक प्रमूनोपचार प्राह चद्राराधितोमोक्षलक्षीम् । तदनुतदनुयायी प्रापपर्यतपूजीपचित
मुकतराणि स्व पद नापिलोक ॥ १२५ ॥ Colophon ' इति श्री महाकवि हरिचन्द्रविरचिते धर्मशर्माभ्युदये महाकाव्ये श्री
धर्मनाथ निर्वाणगमनो नाम एकविंशतितम सर्ग ॥२१ ॥ श्री मवत १८८९ कार्तिक धवल पचम्याम् । अग्रवाल आरानगरे वामलगोने वाव जीवनलाल जी तथा गृपाल चद जी तेन इद शास्त्र लिखापिन तथा उत्तमचदजी वा जो धनलाल जी अछेलाल तथा प्यारेलालजी इद शास्त्र लिखापितम । द्रष्टव्य--(१) दि० जि०म० २०, पृ०६।
(२) प्र० जै० सा०, पृ० १६२ ।
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.१२
श्री जैनसिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Davek imar Join Oriental Library Jain Siddhant Bhavun, Arrah
(३) रा० सू०, पृ० २१० । (४) जि० र० को०, पृ०१६३ । (5) Catg. of Skt. & Pkt Ms. Page 656 (6) Cat. of Skt. Ms. P.302
३१. धर्मशर्माभ्युदय सटीक Opening
जयति जगति मोहध्वातविध्वसदीप', स्फुरित कनकमूत्तिर्ध्यान लीनो जिनेन्द्र. । यदुपरि परिकीर्णस्कधदेशाजटाली,
विगलितसरलात कज्जलामाविति ॥ Closing 1 "... "तदनुयायी तत्वातत्सर सन् कृतनिर्वाणक-याणम
होत्सवोपाजितपुण्यराशिनिज निज स्थान चनुणिकायामरसधातो जगाम ।
Colophon .
इति श्री मन्म इलाचार्य श्री ललितकीर्तिशिप्य पडित श्री यश. कीतिविरचिताया नदेहध्वातदीपिकाया 'धर्मशर्माभ्युदयटीकाया एकविंशतिम सर्ग। स्वरितश्री सवत् १६५२ वर्षे भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे चतुर्थ्यातिथौ गुरुवासरे अबावती वास्तव्ये राजाधिराज श्रीमानसिंह जी राज्ये श्री नेमिनापचैत्यालये श्री मूलमधे नद्याम्नाये वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुदकुदान्वये भट्टारकश्रीचन्द्रकीति तदाम्नाये खडेलवालान्वये गोधागोत्रे सा पपारण भार्या पु हसिरि तत् पुत्री द्वौ प्रथम सा नूना द्वितीय सा, पूना नूना पु सा. वीरदास भार्या ल्होकन चादणदे सिगारदे एताभिमिलित्वा धर्मणर्माभ्युदयकाव्यश्च टीका लिखाय्य आचार्य लक्ष्मी चन्द्रायप्रदत्ता।
शुभमिति ज्येप्ठशुक्ला द्वितीया शुक्रवार विक्रम सम्वत १९९० को यह पुस्तक लिखकर पूर्ण हुई, जिसे आरा निवासी स्वर्गीय बाबू देवकुमार द्वारा स्थापित श्री जैनसिद्धान्त भवन में सग्रह करने के लिए प० के० भुजवली जी शास्त्री अध्यक्ष के द्वारा वाव निर्मल कुमार जी मत्री जैन सिद्धान्त भवन ने लिखवाया । 'रोशनलाल ने लिखा।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhraigha & Hindi Manuscripts
( Purina, Carila, Kalhi)
३२. धन्यकुमार चरित्र Opening . श्रीमन गिन नता गवलज्ञानलोचनम् ।
वरे धन्यामारभ्य न गच्यानुरजनम् ॥ . Closing : ना मि. पगैत्य ममपन्या त दृष्ट्वा केवले क्षणम् ।
फनन्यापनगम गितामनमधिस्थितम् ॥ । Colophon . उपलब्ध नही।
द्रप्टच्य-जि० २० को०, पृ० १८७ ।
३३. धन्यकुमार चरित्र Opening . देखें, पा० ३२ । Closing इह निचोर (2) इन अन्य को यही धर्म को मूर (मूल) ।
मुद्धातम ल्यो नापे मिट कर्म अकूर ॥ ६ ॥ Colophon - इति धनकुमार चरित्र नम्पूर्णम् । मवत् १९३२ चैत्र वदि
७ शुक्रवार शुभम् । एलोफ मच्या १२२४ ।
३४. धन्यकुमार चरित्र Opening: देखें, ३० ३२। Closing . धन्यवूमार चरित्र यह पूरन भयो विशाल ।
(प) ढत सुनत सुख उपजे आनद मगलकार ।। Colophon: उति धन्यकुमार चरित्र सम्पूर्णम् ।
३५ दुधारस द्वादसी कथा Opening . वीनवे उग्रसेन की लाडली कर जोरिके नेमि के आगे खडी।
तुम काहे पिया गिरनार वैठो हमसेती कहो कहा चूक परी ॥ Closing : कथाकोप मे जो कहा, ताको देखि विचार।
सेवक भापा मनधरी, पढो भव्य चितधार ।। Colophon • इति दुधारस द्वादशी कथा समाप्ता।
लिख्यता प्रभूदास अग्रवाला । मिति वैशाख सुदी ६ शुक्रवार सवत् १९१८ ।
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श्री जैनसिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain didhant Bhavan, Arrah
३६. गजसिह गुणमाला चरित्र Opening : श्री ऋषमादिक जिनवर नमू, चौवीसी सुखकद ।
दरसण दुखदूर हरै, तामै नित आनद । Closing : जो नरहनारी सीलधारी तासमनि अतिमडणी ।
शिवसुखकरणी दुखहरणी क्रमयसयलविह्मणी ।। Colophon : इति श्री गजसिंह गुणमाल चरित्र गुणमाल तपकरण .
उपधानचहन राजा-धर्मशास्त्रबारन्ना रचना श्रवण हुकमकुमर पदरथापन राजागुणमाल दीक्षाग्रहणदेवलोक गमनाधिकार पप्ट खड सपूर्ण । इति श्री तपगच्छमध्ये चद्रशाखाया पडित श्री मुक्तिचद्र तत् शिष्य पडित श्री खेमचन्द्रविरचिताया गुणमाल चौपई सम्पूर्ग। सवत् १७८८ वर्षे मिति चैत्र सुदि पचमी दिने जतिकुसला लिपिवृन्तं श्री मालपुरामध्ये। श्रीरस्तु।
३७. गजसिंह गुणमाला चरित्र Opening : देखे-ऋ० ३६ ।
Closing : देखे-क्र० ३६ । Colophon इति श्री गजसिंह गुणमाला चरित्र गुणमाला तपकरण ,
तपउपधान वहण राजाधर्मशास्त्रचारभारचना श्रवण हुकम कुमार पट्टस्थापन राजा गुणमाला दीक्षाग्रहणदेवलोक गमनाधिकार पष्ट खड समाप्त। मिति फागुन वदी १५ सवत् १९८४ श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा लिखित भुजवल प्रसाद जैन मालयौन जिलासागर।
३८. हनुमान चरित्र Opening .
सद्वोंधसिंधु चन्द्राय, सुव्रताय जिनेशिने ।
सुव्रताय नमोनित्य, धर्मशार्थ, सिद्धये ।। Closing .
पठक पाठकस्त्वेन, वक्ता, श्रोता च भावक, चिर नद्यादय अथ तेन सार्द्ध" युगावधि । प्रमाणमस्य ग्रथस्य द्विसहस्त्रमित वुधैः
श्लोकानामिहमंतव्य हनूमचरित्रे शुभे ॥ Colophon
इति श्री हनुमच्चरित्रे ब्रह्मजितविरचिते एकादशः सर्ग:
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१५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripta
(Purana, Canta, Katha)
पर्याप्त. (समाप्त)। शुभ भवतु । द्रष्टव्य-(१) दि० जि० न० र०, पृ० १२ ।
(२) जि० २० को०, पृ० ४५६ । (३) मा० सू०, पृ० १६० । (४) रा० सू०, पृ० २२१ । (५) रा० सू० ॥, पृ. २० एव ५३४ । (6) Catg. or skt & Pkt Ma Page-714.
३६ हनुमान चरित्र Opening : देखें, क्र० ३८ । Cloring देखे, ऋ० ३८ । Colophon . इति श्री हनूमच्चरित्रे ग्रहमाजितविरचिते द्वादशसर्ग
समाप्त.॥
४०. हनुमान चरित्र Opening : देखे, क्र० ३८ ।
Cloeing . देखे, ऋ० ३८ । Colophon. इति श्री हनुमच्चरित्रे ब्रह्माजितविरचिते एकादश सर्ग
सम्पप्त ॥ १२ ॥ हस्ताक्षर वटुक प्रसाद ॥ मुकाम जैन सिद्धान्त भवन-आरा ॥ सवत् १९७८ ।।
४१. हनुमान चरित्र Opening देखे, ऋ० ३८ ।
Closing : देखे, क. ३८ । Colophon: इति श्री हनुमानचरित्रे ब्रह्माजितविरचिते द्वादसे सर्ग
समाप्त । मिती फागुनवदी ३ सवत् १९८४ लिख्यत भुजवलप्रसाद जैनी मुकाम मालथौन जिला सागर निवासी ने ।
४२. हनुमान चरित्र Opening : देखे, क्र० ३८ । Closing : जिनवर एक वचन मो देहु । कुगुरु कुशास्त्र निवारहु ऐहु ॥
होहि सदा सन्यासह मरन । भव भव धर्म जिनेश्वर सरन ।
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श्री जैनसिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
१६
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Colophon⚫
Opening
Clos rg :
Colophon⚫
Opening :
Closing!
Colophon⚫
f
Opening:
इति श्री हनुमतचरित्रे आचार्य श्री अनतकीर्तिविरचिते हनुमन्निर्वाणगमनो नाम पचमो परिच्छेद । इति श्री हनुमच्चरित्रसम्पूर्णम् । संवत् १९०१ का शाके १७६६ वा जेठ मासे कृष्णपक्षे तिथौ १३ बुधवासरे सवाई राजा रामसिंह जी को राज । लिखत महात्मा जोशी चाल लिखी सवाई जयपुर म ( मे ) । श्रीरस्तु ।
४३ हनुमान चग्नि
देखे, क्र० ३८ ॥
देखे, क्र० ४२ ।
इति श्री हनुमानचरित्र आचार्य श्री अनर्तकीर्तिविरचिते हनुमन्निर्वाणगमनोनाम पचमी परिच्छेद । इति हनुमानचरित्र सम्पूर्णम् । श्रावणमासे शुक्लपक्षे तिथौ ६ रविवासरे सन्
१६५५ ।
४४. हरिवंश पुराण
सुरवइसय वदहु तिजणदहु, मिरि अरिटुणेमिहु चरण । पणविवित वसहु कहजयससह भणमि सवणमणसुदरयण ॥ चिरुणदउ सच्छो जामणहच्छो रविस सिगणहणरकत्त गणु । कइयणणिरुसोहहु दोसु णिरोहहु सुणउपय- भव्वयणु ॥
इय हरिवसपुराणे मणवछियफलेण सुपहाणे सिरिपडिय धूवणिए सिरिमहाभव्वसाधु लाहासुय संघाहिलोणाणुमणिए सिरि अरिट्टणेमि णिव्वाणगमण तहेव दार्यारव सुद्द राण णाम चउदहमो सी परिछेऊ सभ्मतो सधि ॥ १४ ॥
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अथसवत्सरेऽस्मिन् श्री नृपविक्रमादित्यगतान्द संवत् १६५८ वर्षे वैशाखशुद्धि पचमी आदित्यवासरे भगउतीदासते मेद, हखिम ) शास्त्र लिखापितम् ; ज्ञानावरणीकर्मक्षयतिमित्त लिखापितम् । इति हरिपुराणरयधूकृत समाप्तम् । मिति, वैशाखशुक्ल १२ सवत् १९८७ ह० प० शिवदयाल चौबे चन्देरी वालो के ।
·
४५ हरिवंश पुराण
विहसहो ।
पयडिय जय हंसहो कुणय भविय कमल सरहसहो पणविव जिहसहो ||
2
1
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. १७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhransha & Hindi Manuscripts
(Purina Carita, Kathā)
Cioring: जामहि गद मायर चडु दिवायरु, ता णदउ ठिवढाहु कुलु ।
पेचि राहुहि परियउ कुरुवस महियउ, काराविउ हय पावमालु ॥ Colophon : हरिवनगुराणे कुरुवसाहिट्ठए विवहु चिंताणुरजणे सिरि
गुगतिमि नोन मुणि जमकिति विरल्ये नाहु ठिवढा णाम किरा मणा३ घिरटर भीमन्जुण णिव्वाणगमण णिकुल सहदेव मव्वट्टसिद्वि गमण वगणो णाम तेरहमी सग्गो ममत्तो। सधि १३। :ति ग्वन पुगण नमान। चैत्र सुदी १४ सवत् ८५ ? ।
४६. हरिवंश पुराण Opening :
निद्ध मापूर्ण · · प्रतिपादनम् ॥ . Closing:
रक्षा फुर्वन्तु मघम्य जिनशामनदेवता ।
पानयनोमिनं लाकर भव्यमज्ज्ञानवत्सला ।। Colophon :
इति श्री हरिवगगुरनणे ब्रह्म श्री जिनदास विरचिते नेमिनिर्वाण गमन वर्णनो नाम चत्वारिंगतम सर्ग । इति हरिवग गण समाप्तम।
यह पुरतक प. पन्नालाल जी (उदामीन आश्रम तुकोगज दौर) के मार्फत लिगाई गई। मिति माघकृष्ण २ स० १९८८ १० प. शिवदयाल चौवे चन्देगे वालो के । द्रष्टव्य-(१) दि० जि० ग्र० र०, पृ० ४६० ।
(0) आ० सू०, पृ० १६१। (2) जैन ग्रन्थ प्र० म, I, पृ. १००। (४) प्रश० स० 11, पृ० ७० । (५) रा. सू० 11, पृ० २१८ 1 : (६) रा० सू० III, पृ० २२४ । "(7) Catg. of Skt. & Pkt Mer, P 715
४७. हरिवश पुराण । Opening सिद्ध ध्रौव्यव्ययोत्पादलक्षण द्रव्यसाधनम् ।
. जैन द्रव्याद्यपेक्षात . साधनाधयशासनम् ॥ १ ॥ Closing: आशीर्वाद ॥ मागन्यम् .. ॥ Colophon: अगसवत्सरेऽस्मिन् श्रीविक्रमादित्यमहीभृतोगुरुद्वा ।
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श्री जैनसिद्धान्त भवन ग्रन्थावली १८ shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Airch
सवत् १८६४ । तत्र शाके १७२६ । वैसाखमाने कृष्णपक्षे द्वितीया भृगुवासरे। लिखित भोपतिराम तिवारी। पोथीलिखी मैनपुरी मौहोकमगजमध्य.॥
यावज्जिनस्य धर्मोऽय लोकोस्थितिदयापर । यावत्सुरनदीवाहस्तावन्न दतु पुस्तकम् ॥ यादृश पुस्तक ___ .. दीयते ।। द्रष्टव्य-(१) जि० र० को०, पृ० ४६० ।
(२) दि० जि० ग० र०, पृ० १३ ।
४८. हरिवंश पुराण pening : देखे, क्र. ४७ । Llosing
मेवक नरपति को सही, नाम सुदौलतराम । तान इह भाषा करी, जपकरि जिनवर नाम ।। श्रीहरिवंश पुराण की, भाषा सुनऊ सुजान ।
सकलनथ सख्या भई, सहस एकीस प्रमाण ॥ Colophon : इति श्रीहरिवंश पुराण भाषा वनिका सपूर्णम् । श्लोक
अनुष्टुप सख्या एकस हजार । २१,००० । सवत् १८८४ मासात्तमे मासे चैत्रमासे शुरुले पक्ष सप्तम्या भौमवासरे। पुस्तकमिद रघुनाथ शर्मा लेखि । पट्टनपुरमध्ये गायघाट क्षत्री महलमध्ये निवास शुभमस्तु कल्याणकमस्तु । सिद्धिरस्तु मगलमस्तु पुस्तक लिखायित बाबू जिनवरदास जी ने।
Opening 1 Closing
४६. हरिवंश पुराण देखे, क्र. ४७।
तवहिदेव तासौ फिरि जोई।
तो सौ मूरि। अनुपलब्ध। ५०. जम्बूस्वामी चरित्र ( ११ सर्ग)
श्रीवर्धमानतीर्थेश वदे मुक्तिवधूवर । कारुण्यजलधिं देवं देवाधिपनमस्कृतम् ।।
Colophon -
Cpening :
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• Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Maiuscripts
. (Purāga, Carita, Katha ) Closing : द्वाविंशतिप्रमाणानि शतान्यत्रचरित्रके ।
त्रिंशा तानिश्लोकाना शुभानां संति निश्चितम् ।। Colophon. इति श्री जम्बूस्वामीचरित्रे । ब्रह्मश्रीजिनदास विरचिते विहा चरमहामुनि सर्वार्थसिद्धिगमन नामैकादशा सर्ग ।
यावल्लवण समुद्रो यावन्नक्षत्रमडितो मेरु ।
यावद्भास्करचन्द्रो यनान्दय पुस्तको जयतु ।।
सवत् १६०८ की प्रति से यह नकल की गई है। मिति ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्या १४ शनिवासरे सवत् १९७१ लिखितमिद पुस्तक मिश्रोनामक गुलजारीलालशर्मणा भिडाननगरवासोऽरिन रि० ग्वालियर।
यादृश पुस्तक दृष्ट्वा तादृश लिख्यते मया । यदि शुद्धमशुद्ध वा ममदोपो न दीयते ।। द्रष्टव्य--(१) दि० जि० प्र०र०, पृ० १३ ।
(२) प्र. जै० सा०, पृ० १२७ । (३) आ० सू०, पृ० ५६ । (४) रा० सू०, पृ० ६८, ६६, १३१, २१० । (५) जि० र० को०, पृ० १३२ ।
५१. जम्बूस्वामी चरित्र Opening • देखे, ऋ० ५० । Closing : देखे, ऋ० ५० । Colopbon: इत्याचे श्री जवूस्वामीचरित्रे भट्टारक श्रीसकलकीतिरिचिते
विद्य च्चरमहामुनि सर्वार्थ सिद्धिगमनो नामेकादरा सर्ग ॥ ११ ॥
श्री संवत् १६६४ वर्षे आमोज सुदि १५ शुक्र थीमूलमधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुदकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्री गादिभूपणगुरुपदेशात भोलोडो वास्तच्यकु वडज्ञातीय सा, की का कार्यविनकादेताया सुत सो, लाडका भार्या ललतादेताया सुतगरज भार्यांदाडमाद भ्रातृमहीना भ्र तृगणे शयति, स्वज्ञानावर्णीव मक्ष्याय बागीयवनाय इद लिखाप्य दत्तम् । लेखकपाठकयो शुभ वित। साहरामाकेन लिखितमिदं वद्धताजिनशासन श्री। श्री जंबूस्वामिति भट्टारक श्री सकलकत्तिकृत। भ. श्री विनचन्द्रस्य पुस्तकमिद ।
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२०.
श्री जैनसिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jarn Siddhant Bhavan, Airah
५.२. जम्बूस्वामी चरित्र Opening : - उद्दीपीकृतपरमानदाद्यात्मचतुष्टय च वृद्धया।
निगदति यस्य गर्भाधु त्सवमिहत स्तुवे वीरम् ॥ Closing : . . जवूस्वामीजिनाधीशो भूयान्मगलसिद्धये ।
भवता भुवि भो भव्या श्री वीरातिमकेवली ॥
Colcphon : ' इति श्री जबूस्वामिचरित्र भगवन्छीपश्चिमतीर्यकरोपदेशा
नुसरित स्याद्वादानवद्यगद्यपद्य विद्याविशारद पडित , राजमल्लविरचिते
साधुपासात्मजसाधुटोडरसमभ्यत्थिते मुनि श्री विद्यु च्चर सर्वार्य सिद्धि___गमनवर्णनो नाम त्रयोदशम पर्व। . . शब्दापूरर्थवच्छास्त्र यथेद याति पूर्णताम् ।
तथा कल्याणमालाभि' वद्धता साधु टोडर ॥
अथ सवतसरेऽमिन् श्री नृपविक्रमादित्यगताब्द सवत् १६३२ ' वर्षे चैत्रसुदी ८ वासरे । 'परम श्रावकसाधु श्री टोडर जबूस्वा। “मिचरित्र कारापित लिखापित च कर्मक्षयनिमित्तम् । लिखित गगा
दासेन।। - ।। . . . . . यह प्रतिलिपि स्व०, बा० देवकुमार जी द्वारा स्थापित श्री - जैनसिद्धान्त भवन आरा, मे सग्रहार्थ श्री वाबू निर्मलकुमार जी के मत्रित्व काल मे श्रीप० के भुजवली शास्त्री की अन्यक्षता में बा० पन्नालाल जी के द्वारा देहली से- उपरोक्त प्रति मगाकर तैयार की गई। शुभ मिति अषाढ कृष्णा १२ वीर स० २४६१ वि० स० १९६२ । हस्ताक्षर रोशनलाल लेखक'।
द्रष्टव्य-जि० २० को०, पृ० १३२ ॥
५३ जम्बूस्वामो कथा - Opening :
प्रथम पच परमेष्ठी नाऊँ। दूज्यौ सरस्वती नमू पाऊ॥ तीजै गुरु चरने अनुशरो।
होय सिद्धि कवि तु विस्तरो ।। Closing i
तिन यह कथा करी मनलाई । वाच्य हर्ष उपज सुखदाई ।। पढे सुनै जो , मनुवै कोई । मनवाक्षित फल पावे सोई ।।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Purana, Carta, Katha )
Colophon: इति श्री जवूस्वामी की कथा सपूर्ण । मिति श्रावणवदी
३ वार, रविवार सन् १८८३ साल। दस्तखत दुरगाप्रसाद जैनी आरे ।
५४. जयकुमारचरित्र ( १३ सर्ग )
Closing : श्रीमत त्रिजगन्नाथ वृषभ नृसुराच्चितम् ।
भवभीतिनि हतार क्दे नित्य शिवाप्तये ॥१॥ Opening सकलकीर्तिकृत पुरदेवज समवलोक्य पुराणमिय कृतिः।
जयमुनेगुणपालसुतस्य च बृहदल जिनसेनकृत कृता ॥ १०१॥ Colophon: इति श्री जयाके जयनाम्निपुराणे भट्टारक श्री पद्मनदि गुरु
पदे ब्रह्म कामराजविरचिते पडित जीवराजसहाय्या त्रयोदशमः सर्ग । इति श्री जयकुमार चरित्र समाप्त । गुरुप्रसादात सपूर्ण जातम् । सवत् १२४२ मासोत्तममासे आसोजमासे। कृष्णपक्षे १५ सोमवासरे नगरवियानामध्ये पाडे हेमराजेन- लिखितमस्ति । स्वपठनार्थ श्रीरस्तु- कल्याणमस्तु। वाचे पढ़ जे पडितजी ने श्री जिनाय नम म्हाकी जीन बै । आयुर्भवतु श्री। मूलमधे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे कुदकु दाचार्यान्वये नद्याम्नाये श्री भट्टारक विश्वभूषणदेवा तत्पट्ट श्रीभट्टारकेदुश्रीभट्टारक जिनेन्द्रभूषणदेवा तत्पट्ट भट्टारकमहेन्द्रभूषणदेवास्तैरिह स्वस्थाध्यायनार्थ शुभ भूयात् गोपा ? नगरे जयकुमारचरितस्येद पुस्तकम् । __- देखे-जि०र० को०, पृ. १३२ ।
Catg. of Skt & Pkt. Ma., P 643
Opening |
५५. जिनदत्तचरित्र वचनि का
पचपरम गुरुकू प्रणमि पूजो शारदमाय । भाषा जिनदत्त चरित की करू स्वपर हितदाय ।। पन्नालाल सु चौधरी रची वचनिका सार । जिनदत्त के जु चरित्र की निजमति के अनुसार ॥ सम्पूर्णम्'
Closing :
Colophon:
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jarn Oriental Library, Jarn 8 ddhant Bhavan, Arrah
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५६. जिनेन्द्रमाहात्म्य पुराण Opening :
श्री मत्सिद्धपदावुजद्वयरजः शुद्धाजनोन्मीलित-, प्रोद्यल्लोचनतो विलोक्य निखिल जैनस्मृतेनिश्चयम् । विद्वत्केसवनदिनाममुनिना प्रोक्ता यथा वै तथा,
निर्मास्यामि समस्तकल्मषहरी पौण्याश्रवी सत्कथाम् ।। Closing : वाछा श्री मज्जिनेन्द्रादिभूषणस्य च या हृदि ।
सा जिनेन्द्रप्रसादेन . सफली भवताध्रुवम् ।। Colophon : - इति मुमुक्षुसिद्धान्तचक्रवत्ति श्री कुन्दकुन्दाचार्यानुक्रमेण श्री
भट्टारकविश्वभूषण पट्टा भरण श्री ब्रह्माहर्षसागरात्मज श्री भट्टारकजिनेन्द्रभूपणविरचितम् श्री जिनेन्द्रपुराण समाप्तमिद शुभ भूयात् । सवत् १८५२ कार्तिकशुक्लप्रतिपदाया गुरुवासरे पुराणसमाप्ति ।।
श्री मूलसघे बलात्कारगणे भट्टारकमहेन्द्रभूषणेन इय पुस्तिका लिखापिता दत्ता स्टज्ञानावर्णी कर्मक्षयार्थम् ।।
यह पुस्तक जैन सिद्धान्त भवन में लिखी गई। शुभमिति पंष कृष्ण सप्तमी ७ मगलवार श्री वीर निर्वाण स० २४६२ विक्रम संवत् १९६२। ह. रोशनलाल जैन नेखक । विशेष--५५ कथाएं (चरित्र) है।
देखे-जि. र० को०, पृ० १३६ । ५७. जिनमुखावलोकन कथा Opening : चतुर्विंशतितीर्थेशान् धर्मसाम्राज्यवर्तकान् ।
नत्वा वक्ष्ये व्रत श्री जिनेद्रमुखावलोकनम ॥ Closing : - 'मौनव्रतसत्फनार्थकथकान दत्वय भूतले ॥ Colophon : इति मौनव्रत कथा समाप्तम्। लिखित पडित परमानदेन
रात्रौ गुरौ एकादश्या १९३२ सवत्सरे दिल्ली नगरे आयामल मदिरे शुभ भूयात् ।
द्रष्टव्य :-जि. र. को०, पृ० १३६ ।
५८. जीवन्धर चरित्र Opening : जयवती वरती सदा प्रथम रिपम अवतार ।
धर्मप्रवर्तन तिन कियो जुग की आदि मझार ॥
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, ^pabhramsha & Hindi Manuscripts
(Purana, Carta, Katha ) ..
Closing : सवत् अष्टादश शत जान। अधिक और पैतीस प्रमान ।
कातिक सुदि नौमी गुरुवार । ग्रन्थ समापित की नौ सार॥ Colophon • इति श्री जीवधर चरित्र आचार्य श्री शुभचन्द्रप्रणीतानु
सारेण नथमल विलालाकृत भाषाया जीवधरमुनिमोक्षगमन वर्णनो नाम त्रयोदशसर्ग. सम्पूर्णम् । इति जीवन्धर चरित्र सम्पूर्णम् । मिती फूस (पौष) सुदी ४ सवत् १९६१ मुक्काम चद्रापुरी।
५६. कथावली Opening :
श्री शारदास्पदीभूत-पादद्वितयपकजम् ।
नत्वाहत प्रवक्ष्यामि व्रत मुकुटसप्तमी ।। Closing... :
मुनिराहे निभोष्ठि
___ द्रष्टव्य -जि. र० को०, पृ० ६६ ।
६०. कुदेव चरित्र Opening : सो हे भव्य तू सुणि। सो देखी जगत विष
भी यह न्याय है। Closing • तो एक सर्वज्ञ वीतराग जो जिनेश्वर देवता का वचन
अगीकारकरि अर ताका वचनाकअनुसारि देवगुरु धर्म का श्रद्धानकरि । Colopnon · इति कुदेव चारित्र' वर्णन सम्पूर्णम् । मिति कार्तिक सुदी
२ सन् १२७६ साल दस बत दुरगाप्रसाद जंनी आरा मध्ये लिखा, जो देखा सो लिखा।
भूलचूक देखके, बुधजन लियो ‘सुधार । हमे दोष मत दीजियो, क्षमा करो जर ज्ञान ।।
Cicninzi
६१/१ मदनपराजय
यदमलपदपद्म श्री जिनेशस्य नित्यम्, शतमखशतमेव्य पद्मग दिवद्यम् । दुरितवनकुठार ध्वस्तमोहाधकार, सदखिलसुखहेतु त्रि. प्रकारैर्नमामि ॥१॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली, Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing |
अज्ञानेन धिया बिना किल जिनस्तोत्रं मयायत्कृतम्, किं वा शुद्धमशुद्धमस्ति सकल नैव हि जानाम्यहम् । तत्सनमुनिपुङ्गवा सुकवय. कुर्वन्तु सर्वे क्षमा,
ससोध्या' ..." कथामिमा स्वसमये विस्तारयन्तु ध्र वम् ॥ Colophon: इति मदनपराजय समाप्तम,।
६१/२. महिपाल चरित्र Opening : यस्याशदेशे शत् कुतलाली, दूर्वा कुरालीव विभाति नीला ।
कल्याणलक्ष्मी वसति सदिस्यादादीश्वरो मगलमालिका व ॥ Closing : श्रीरत्ननदिगुरुपादसरोरुहालिश्चारित्र भूपणकविर्यदिदं ततान । तस्मिन् महीपचरिते भववर्णनाख्य सर्ग समाप्तिमगतमत्किल
पचमोऽयम् ।। Colophon: इति श्री भट्टारक रत्ननदिसूरि शिष्यमहाकविवर श्री चारित्र
भूषणमुनि विरचिते श्री महीपालचरित्रे पचमो सर्ग । इति श्री महीपालचरित्र काव्य सम्पूर्णम् । अथ अथ श्लोक संख्या ६६५ सवत्सरे १८७० का ज्येष्ठमासे 'कृष्ण पक्षे तिथौ ४ बुधवासरे लिप्यकृत महात्मा शमुराम । -
उक्त लिपि देहली से- मगवाकर श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा मे सग्रह के लिए श्री प० के० भुजवली जी शास्त्री की अध्यक्षता मे लिखी शुभमिति चैत्रकृष्णा ११ बुधवार विक्रम स० १९६३ वीर स० २४६३ । हस्ताक्षर रोशनलाल जैन ।
द्रष्टव्य-जि० र० को०, पृ० ३०८ । Catg. of Skt. & pkt Ms., P. 680.
६२. महिपाल चरित्र Opening . श्रीमत वीर जिनेशर, युग नमकर धरि भाल ।'
महीपाल नृप चरित्र की भाषा करो रसाल ॥ Closing | जिनप्रतिमा जिनभवन जिन पचकल्याणक थान ।
आदि मध्य अवसान मै मगलकरौ महान ॥ Colophon: इति श्री महीपाल चरित्र सम्पूर्णम् ।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts (Purāpa, Carita, Kathā )
Opening :
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Colophon⚫
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६३. मैथिलीकल्याण नाटक
'य' प्रस्तोता त्रिलोक्या प्रतिहतविपदां समताना कृतीना, यच स्तोता स्वय च स्तुतिशतपदवी वाग्वधूवल्लभानाम् । कल्याणभागिश्रियमतुपरमामाप्तवानाप्तरूप
कल्प
सोय भद्र
विधेयाद्दशरथतनय साधुवो रामभद्र ॥ एतन्नाटक रत्नमुत्तमगुण विभ्राजते मैथिली, कल्याण भृशमद्वितीयमपि सत्तेषु द्वितीय मतम् । सर्वत्रप्रथिता प्रबधमणय श्री सूक्तिरत्नाकर, प्रख्यातापरनामधेय महत श्री हस्तिमल्लस्य ये ॥ समाप्तोऽय मैथिली कल्याणनाटकम् इति शुभम् । सवत् १९७२ विक्रमे आषाढ शुक्ला १४ रखो श्री ऋषभादितीर्थकरा श्रेयस्करा सन्तु ।
आषाढ शुक्लपक्षे हि चतुर्दश्या रवौ लिखे - । नत्रर्पान्दु वर्षे च सीतारामकरेण सत् ॥ द्रष्टव्य- जि० र० को०, पृ० ३१५ ।
_६४६ मेघेश्वर चरित्र
सिरिरिसह जिणेन्दहु युवसयइन्दहु भवतम चदहु गणहरहु | पयजुयलुण वेपिणु चित्तिणि हेपिणु चरिउ भणमि मेहेसरहु || पुणु उहु तीयउ अइवरिणीयउ जिणसासन रहघूर धरणु । इति रयणोवमु पालियकुलकमु दुत्थििहजणदुह भरहरणु ||१३|| इय मेहेसर चरिए | आइपुणस्स सुत्त अणुसरिए सिरिपडिय विय ॥ सिरिमहाभवखेमसीह साहुणामणाम किए ॥
अथ सवत्सरेऽस्मिन् श्री नृप विक्रमादित्य गताब्द १६०६ वर्षे मार्गसिर शुदि दुतिया श्री कुरूजागलदेशे श्री महितगढ़ साहिराज्य प्रवर्त्तमाने श्री काष्ठासचे माथुरगच्छे पुष्करगणं भट्टारक श्री कुमारसेनदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री प्रतापसेनदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री महासेनदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री विजयसेनदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री नयसेनदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री आससेनदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री अनन्तकीर्तिदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री कुमारकी तिदेवा तत्पट्टे
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२६
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shre Devakumar Jarn Ortentul L brary, Jain oeddhant Bhuvan, Arrak
अनेक विद्यानिधान भट्टारक श्री हेमचददेवा तत्प? अनेकविद्या हरीतरगु भट्टारक श्री पद्मनदिदेवा ।।।
शुक्रवार वदी ८ स. १९६६ वीर स० २४६५ ॥ ई० १९३६ को समाप्त हुआ। लेखक राजधरलाल जैन ॥
द्रष्टव्य-जि० २० को०, पृ० ३१५.
६५. नन्दीश्वर व्रत कथा Opening :
प्रणम्य परमानद जगदानददायकम् ।।
सिद्धचक कथा वक्ष्ये भव्याना शुभहेतवे ।। १ ।। Closing : श्रीपद्मनदीमुनिराजपट्टे शुभोपदेशीशुभचन्द्रदेव ।
श्री सिद्धचत्रस्य कथावतारं चकार भव्यावुजभानुमाली । सम्यग्दृष्टिविशुद्धात्मा जिनधर्मे च वत्सल ॥
जालात कारयामास कथा कल्याणकारिणी ॥ Colophon : इति नदीवर अष्टान्हिका कथा समाप्ताः ।।
द्रष्टव्य-जि० र० को०, पृ. २००, ४३६
६६. नेमिचन्द्रिका Opening
आदि चरन हिरदै धरौ, अजित चरन चितलाय । सभवसुरत लगायक, अभिनदन मनलाय ॥ मारग जाने मोक्ष को, जिनवर भक्त सुवास ।
कहू अधिक कहू हीन है, सो सब लीजे सोर ॥ Colophon: इति श्री नेमिवन्द्रिका सपूर्णम् । मिती जेष्ठंवदी ७ सवत्
१९६२। लिखित प. चौवे छुटीलालकी।
६७. नेमिनाथचन्द्रिका Opening. प्रयम नमो जिनचद्रपद नमत होत आनद ।
.शिवसुखदायक सकल हित, करत जगत जगफद ।। Closing: • एक सहस अरु अठशतक, वरष असिति और ।
याही सवत मो करी, पूरन इह गुणगौर ।। Colophon इति श्री नेमनाथ जीकी चन्द्रिका मुन्नालालकृत सम्पूर्णम् ।
सवत् १८९५ मासोत्तमे मासे माघेमासे कृष्णपक्षे त्रयोदण्या द्रवासरे
Closing :
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Catalog se of Sanskrit Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Purana Carita, Katha )
पुस्तकमिदं रघुनाथ द्विजलेखित पट्टनपुरे आलमगज निवसति जिनप्रसादात् मगलमस्तु ।
। ६८. नेमिनाथचरित्र Opening : प्राणित्राणप्रवर्णहृदयौ वधुवर्ग समग्रम्,
हित्वा भोगान्सहपरिजनरूग्रसेनात्मजा च। श्रीमान्न मिविपयविमुखो मोक्षकामश्चकार,
स्निग्धच्छायातरुपु वसति रामगिर्याश्रमेषु ॥ Closing • श्री नेमिनाथ का निर्मल चरित्र रचा जो कि राजीमती के
दुख से आर्द्र है। . Colophon इति श्री विक्रमकवि विरचित नेमिचरित हिन्दी भाषानुवा सम्पूर्णम् ।
६६. ने मनायपुराण Opening
"श्री मन्नमि जिन नत्वा लोकालोकप्रकाशकम् ।
तत्पुराणमह वक्षे भव्याना सौख्यदायकम् ॥ Closing.
शाति कान्ति सुति सकलसुखयुता सपदामायुरुच्च, सौभाग्य सावुमग सुरपति महित मारजैनेन्द्रधर्मम् । विद्या गोत्र पवित्र सुजन जन त्रादिताति,
"श्री नेमे सुत्पुराण दिशतु शिवपद वोत्र ॥ Colophon. इति श्री त्रिभुवनैक चूडामणि श्री नेमिजिनपुराणे भट्टारक
श्री मल्लिभूषण शिष्याचार्य श्री सिंहनदी नामाकिते ब्रह्मनेमिदत विरचिते श्री नेमितीर्थकरपरमदेव पचम कल्याणक व्यावर्णनो नाम पद्मनाम नवम बलदेव कृष्णनाम नवमनारायण जरासघ नामप्रतिनारायण चरित्र व्यावर्णनो नाम पोडशोऽधिकार समाप्त ।
श्री शुभमिति आश्विनकृष्ण पचमी गुरुवार वीर स० २४६० विक्रम स० १९९० को यह पुस्तक लिखकर पूर्ण भई। हस्ताक्षर रोशनलाल लेखक । आरा जैनसिद्धान्त भवन में प्रतिलिपि की गई।
द्रष्टव्य-(१) दि० जि० न० र०, पृ० १८ । • । (२) जि. र० को०, पृ० २१८ ।
(३) प्र. जै० सा०, पृ० १६६ । (४) आ० सू०, पृ० ८४ ।
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२८
श्री गंन विकास भवन कन्यागती
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bharan, Arrah
Opening:
Closing : Colophon :
Opening:
Closing :
विशेष
Opening :
Closing :
Colophon⚫
(५) नं० प्र० प्र० म० ५० १५७
(6) Cntg of Skt. & pkt. Ms. P. 661. ७०. नेमिपुराण
नमामि विराधीन केषनागरे । यदेवाजिन
१० ६६॥
देखें- १० ६६ ।
·
तनो ग्रीन गी परद्रव्यापहारेण गमारे मगरतम् । तस्मात् ततो नित्यम्योग स्वयत्यागो दुई भव्यं पाननीय सुप्रद ॥ हस्तलिपि मे विभिनता है।
७२. नेमिपुराण
नेमिचद जिनगज के चरण कमल युगध्याय ।
भापू नेमपुराण की भाषा सुगम चनाय ॥ मगन श्री अरहत मिद्ध माधु जिनधर्म पुन । ये ही लोक मद्दत परम सरण जगजीव रो ॥
Opening:
भानामुदकम् ॥ १२ ॥
श्री मिजिन भट्टारक श्री विभूषण farयाचार्य श्री मिन नामानि वचनेनियन विरचिते श्री नेनितीमा व्यापी नाम पद्मनाम नयमवनदेव कृष्णनाम नवम-नागया जगमध प्रतिनारायणनावनो नाम पोटशोधिकार गमारा. ।
७१. नेमिपुराण
अ भट्टारक श्री मल्लिभूषण के शिष्य आचार्य श्री सिंहनन्दि के नामकरि चिन्हित ब्रह्मनेमिदत्त करि विरचित जो तीनभुवन का चूडामणि समान नेमिजिन ताके पुराण की भाषा वचनिका सपूर्ण । मिती वैशाख वदी १२ सवत् १९६२ मु० चदैरी मध्ये शुभ भवत् । नेमिनाथरिस्ता
७३.
छोडे
छोडे
छोडे ससार नेहे तपको जोडे । सब तात मात वात वीचारी ।
परिवार सर्व राजूल नारी ॥
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२६
Catalogue of Sanokrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Purãpa, Carita, Kalhă)
Closing - अब साई मेरा नेम है। Colophcn . इति रेषता सम्पूर्ण ।
७४. नेमिनिर्वाण काव्य ( १५ सर्ग ) Opening : श्री नाभिसूनो पदपद्मयुग्मनखा सुखानिप्रथयन्तु तेव।
समुन्नमन्नाकिशिर. किरीटसघद्दविश्रस्तमणीयित यै.॥ Closing : अहिच्छत्रपुरोत्पन्नप्राग्वाटकुलशालिन. ।
छाहस्य सुतश्चक्रे प्रवधवाग्भट कविः ।। Colophon: इति श्री नेमिनिर्वाणाभिधानो नाम पचदश सर्ग समाप्त ।
सवत् १७२७ वर्षे पौषमासे कृष्णपक्ष अष्टमी शुक्रवासरे। द्रष्टव्य-(१) दि० जि० ग्र० २०, पृ० १६ ।
(२) जि० र० को०, पृ० २१८ । (३) जैन ग्रन्थ प्र० स, I, पृ०८। (४) रा. सू० II, पृ० २४८ । (५) प्र. जै० सा०, पृ० १६६ । (6) Catg. of Skt & Pkt. Ma , Page-661.
(7) Catg. of Skt. Ms., P 302.
७५. नेमिनिर्वाणकाव्य पंजिका Opening : धृत्वा नेमीश्वर चित्ते लब्धानतचतुष्टयम् ।
कुर्वेह नेमिणिर्वाणमहाकाव्यस्य पजिका ॥ Closing : . चेरु' चरति स्म । पुरस्सर अग्रेशर । विरच्य रचयित्वा
अवसादितमोहशत्रु निरस्त मोहरिपुम् ॥१२॥ Colophon ..... इति श्री भट्टारकज्ञानभूषणविरचिताया श्री नेमिनिर्वाण
महाकाव्यप जिकाया पचदशम सर्ग. समाप्तोऽय ग्रन्थ । श्रीरस्तु ।
देहली से प्रति मगवाकर जैन सिद्धान्त भवन, आरा मे प्रतिलिपि कराकर रखी गई।
७६. निशि भोजन कथा Opening .
प्रथम प्रणमि जिनदेव, दूजे गुरु निरनथ कू। करहुँ सरस्वती सेव दरशा शिव पथ कू ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shii Devakumnt Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing : निश पु कथा पूरन भई, पढे सुनित सोय ।
सुख पावे जे नर त्रिया, पाप नाश तिन होय ॥ Colophon : इति निश भोजनत्याग कथा समाप्ता । शुभ भवतु ।
मिति अगहण वदी ७ सम्वत् १९६१ ।
७७. निशि भोजन कथा Opening • देखे, क्र० ७६ । Closing : देखे, क्र० ७६ । Colophon : इति श्री निशिभोजन कथा समाप्तम् ।
महावीर वदी -सदा, रत्नतीन दातार । निजगुण हमे सु दो अवे, अपनो जानि हितकार ।। श्री शुभ सवत् १९५५ मिति कुमार कृष्ण ८ वार वृहस्पति ।
७८. निर्दोष सप्तमी कथा Opening : श्री जिन चरणकमल अनुसरू, सदगुरु की मैं सेवा करूं।
निरदोष सातमनी कथा, बोलू जिन आगम छै यथा ।। •Closing . ये व्रत जे नरनारि कर, ते जन भवसागर उतरी।
अजर अमर पद अविचल लहैं, ब्रह्म ज्ञान सागर इम कहैं । Colophon . इति श्री निर्दोष सप्तमी व्रत कथा समाप्तम् ।
७६. पद्मनन्दिचरित टिप्पण Opening : शकर वरदातार जिणं नत्वा स्तुत सुर।
कुर्वे पचरित्रस्य टिप्पण गुरुदेशनात् ।। Closing : . लाढ वागडि श्रीप्रवचन सेन पडिता पद्मचरितस्य कर्णोवला
.त्कारगण श्री श्रीनंद्याचार्य सत् शिष्येण श्री चन्द्रमुनिना श्रीमद्विक्रमादित्यमवत्सरे सप्तासीत्यधिकवर्ष सहस्त्र श्रीमद्धराया श्रीमतो
राजे भीजदेवस्य पद्मचरिते। Colophon: इति पद्मचरित्रे पर्व टिप्पण सम्पूर्णम् । एवमिद पद्मचरित
टिप्पण श्री चन्द्रमुनिकृत समाप्तम् । शुभ भवतु सवत् १८८४ वर्षे पौषमासे - कृष्णपक्षे , पचम रविवासरे श्रीमूलसघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कु दकु दाचार्यान्वये आम्नाये ।
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१. Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts -
(Purana, Carla, Katha )
८०. पद्मपुराण Opening
सिद्ध' सपूर्णभव्यार्थ सिद्ध. कारणमुत्तमम् ।।
प्रशस्तदर्शनज्ञानचारित्रप्रतिपादनम् ॥१॥ Clusing : इदमष्टादशप्रोक्त सहस्राणि प्रमाणत ।
शास्त्रभानुपटुपश्लोक त्रयोविंशतिसगतम् ॥ Colophon - इति श्री पद्मचरिते रविषणाचार्य प्रोक्त बलदेवनिर्वाणाग
मनाभिधान नाम पर्व. । १२३ ॥ इति श्री रामायण सम्पूर्णम् । ग्रथानथ सख्या-१८०२३ शुभमस्तु । संवत् १९८५ प्रथम आषाढशुक्लपक्षे पचमि भौमवासरे लिखित ब्राह्मण गौड तिवाडिभातराजननमध्ये (१) ।।
यादृशं . .. ... न दीयते ।। द्रष्टव्य-(१) दि० जि० अ० र०, पृ० २० ।
(२) जि० र० को०, पृ. २३३ । (३) प्र० जै० सा०, पृ० १७१। (४) आ० सू०, पृ० ८७ । (5) Cat of Skt. & Pkt. MB., Page-664. (6) Catg. of skt. Ms., page, 314.
Opening .
८१. पद्मपुराण (पृष्ट १८) देववर्णनो नाम प्रथमोध्याय ।
अथ वसाश्चचत्वारि तेषा नामानि वक्षने । इक्षाकुसोमवसौश्च हरिविद्याधरौ तथा ॥१॥ भरतस्यादित्ययसो पुत्रतस्माछुत यशाः ।
ततोवलाकः सुवलो महबलादतीबल ॥२॥ (पृष्ट ५२) - कुवेरेण ततो मार्गे मायाशालस्तु निर्मित । शतयोजनमुत्सेध क्रूरजीवर्भयकर ॥ ५२ ॥ दशास्येन ततो ज्ञात्वा समीय वैरिणपुर ग्रहीतुति सैन्य, प्रहस्तोककनीयती ॥ ५३ ।।
Closing :
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श्री जैन सिद्धान्त भवन अन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah
८२. पद्मपुराण Opening · अथानतर श्री रामलछमन सभा विर्ष विराजे अर राजा
पृथ्वीधर. " । Closing : जे पाले जे सरदहै, जिनवचधर्म सुजान ।
जे भाषे नर सुधता निश्चै लेहि निरवान ।। Colophon : इति श्री पद्मपुराण जी की भाषा ग्रन्थ सपूर्णम् । श्लोक
सख्या २३०००। सवत् १८६०। चैत्रकृष्णद्वितीयाया गुरुवासरे पुस्तकमिद रघुनाथसम्म॑णे लेखि। .
८३. पद्मपुराण वचनिका Opening : चिदानद चैतन्य के, गुण अनत उरधार ।
भाषा पद्मपुराण की भाषू' श्रुति अनुसार ।। Closing : देखे, ऋ० ८४।। Colophon: इति श्री रविषेणाचार्य विरचितमहापद्मपुराण संस्कृत ग्रथ
ताकी भापाव नका विष बालावबोध वर्णनो नाम एक सौ बाईसमा
पर्व पूर्ण भया। यह ग्रंय समाप्तभया शुभ भवतु । माघमासे .. कृष्णपक्षे तिथौ पचभ्या। श्री सवत् १९५३ । अथ श्लोक संख्या
२३२०० । सूवा औध (अवध) देशमुल्क हिन्दुस्तान में प्रसिद्धजिला सु नवानगज
बाराबकी नाम है। टिकैतनगर सुथाना डाकखाना जानौ तासु दिसपूरव सरेया
भलो ग्राम है ॥ कवि भगवानदत्त वास स्थान जानौ तहा अन्न जलकै स्ववम
आयो यही ठाम है। लिख्यौ ग्रथ पदुमपुराण धर्मवृद्धि हेत जिला शाहाबाद
आरा शहर मुकाम है ॥ विशेष - - ग्रन्थ के काष्ठावरण पर (ऊपर) लिखा है
"पुत्र पौत्र सपति बाढ वाढ अधिक सरस सुखदाई । मुसम्मात नन्ही बीवी जोजे बाबू सुखालचद पुत्र धनकुमारचद वो राजकुमारचद . पौत्र संवूकुमारचद जवूकुमारचद जैनेन्द्रकुमार चन्द मगलम् भूयात् ।
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३३
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Purana, Carita, Kathā )
Opening
'बीच मे मन्दिर का चित्र है उसके दोनो ओर इन्द्र हाथियो के साथ वर दुराते हुए ''
काष्टावरण पर (भीतर)
" चौबीस तीर्थंकरो के चिह्नों के बहुत ही सुन्दर रंगीन बने हुए हैं।
चौबीस तीर्थंकरो के चिह्नों के चित्र एव तीर्थंकरो नाम टीकाकार की हस्तलिपि में स्पष्टरूप से लिखे हुए है । लकडी पर चित्रकारी का कौशल अनुपम है. जो कि अन्यत्र बहुत कम उपलब्ध है । अग्रेजी मे इसे "लेकर वर्क" चित्रकारी कहते है, जो कि सामान्यतया पानी पडने पर भी नही घुलता । इस तरह के चित्रकारी के लिए चित्रकारिता का विशिष्ट ज्ञान आवश्यक है ।
कला पारखी दर्शको के लिए इस काष्ठपट्ट पर बनायी गई अनुपम चित्रकला को श्री जैन सिद्धान्त भवन के अन्तर्गत श्री शातिनाथ मंदिर के प्रागण मे श्री निर्मलकुमार चक्रेश्वरकुमार कला दीर्घा मे रखा जा रहा है, ताकि अधिक से अधिक दर्शक इसे देख सके ।
८४. पद्मपुराण वचनिका
महावीर वर्दी सुबुधि रतन तीन दातार । निजगुण हमे द्यौ अब, अपनो जानि हितकार ॥ तादिन सपूर्ण भयो यह ग्रथ सिव दाय ।
चहु संघ मगल करो, वढी धर्म जिनराय ||
चित्र "
Closing :
Colophon :
Opening i
इति श्री रविषेणाचार्य कृत महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषा वचनिका बालबोध का तेईसवां पर्व पूर्ण भया । इति महापद्मपुराण समाप्तम् । १२३ ।। सवत् १८४८ वर्षे भादो सुदी १२ को लिख चुके, लेखक वखतमल्ल नंद वमी वारी नगर मध्ये लिखा है ।
८५. पद्मपुराण भाषा
सिद्ध...
• प्रतिपादनम् ॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jarn Sıddhant Bhuvan, Arrah
Closing :
बहुरि जाय वन तप रि भारी। शिवपुर जानेकी मनमे विचारी ।।
अब इहा भई निरविन्न अहार ।
' राममुनि को निरविघ्न अहार ॥ Colophon : . इति श्री. रविषेणाचार्य कृत मूलसस्कृत ताकी वनिका दोल
तराम कृत ताकी चौपाई छदा वध मह श्री राम महामुनि का .. । निरतराय अहार का होना यह. एकसी वीसवी मधि पूण भयो । शुभम् ।।
८६. पाडवपुराण । Opening : सिद्धसिद्धार्थ सर्वस्वसिद्धिद सिद्धितत्पदं ।।
प्रमाणनयससिद्वि सर्वज्ञ नोमि मिद्धये ॥१॥ Closing . यावच्चद्रार्कतारा सुरपतिसदन तोयधिः शुद्वधर्म
यावद्भूगर्भदेवा, सुरनिलयगिरिदैव गगादिनद्य. । यावत्सत्कल्पवृक्षास्त्रिभुवनमाहिताभारते वैजगत्या
तावत्स्थयात्पुराण शुभशततजनक भारत पाण्डवाना ।। Colophon . श्रीमद्विक्रमभूपते द्विकहतसप्टाष्टः सख्य गते
रम्येप्टाधिकवत्सरे सुखकरे भाद्र द्वितीया तिौं । श्रीमद्वाग्वरनी मृतीदमतुले श्री शाकवातेपुरे श्रीमच्छीपुरुधाभिवं रिचित स्थयात्पुराण चिरम् ॥
इति श्री पाडवपुराणे भारतनाम्निभट्टारकश्रीशुभचणीत ब्रह्मश्रीपालसाहाय्यसापक्षे या भवोपसर्गसहन फेलोत्पत्तिमुक्तिसायसिद्धिगमनश्रीनेमिनायनिर्वाणगमनवर्णनं नाम पचविंशतितम पर्व २५। सन् १-२० वर्षे द्वितीयज्ये ठसुदि रविवारे प्रय लिखापित पडित - श्री यासमती जी तत् शिष्य पडिन मथारामजी आत्मयोग्य कर्मक्षयार्थ लिखितम् । श्री कास्मानाजार मध्य श्रीरस्त ॥ श्री ॥ द्रष्टव्य-(१) दि. जि. नर०, पृ० २० ॥
(२) जि. र० को, पृ० २४३।। (३) आ० सू०, पृ०६८ । (४) प्र. ज. सा०, पृ० १८१। (5) Catg. of Skt & Pkt Ms. P 667.
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Opening :
t
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramisha & Hindi Manuscripts (Purina, Carita, Kathā )
८७. पांडवपुराण
Closing :
Colophon :
Opening
Closing :
Colophon
सेवत सत सुरराय स्वय सिद्धारथ सरवसनय प्रमान
सिवसिद्धमय । ससिद्ध जय ॥
३५
को पुष्ट शरीर को, करके सरसाहार । को गुनता सो युद्ध में जो भाजं भयधार ॥
नही है ।
८८. पार्श्वपुराण
पर्णाविवि गिरि पामहो सिवउरि वाराहो, विहुणिय पामहो गुणभरिऊ | भविय कारण दुयेनिवारणु, पुणु आहास मिठहु चरिऊ। मच्छरमय हीणउ मत्यपवीणर, पडियमणुणदउ सुचिरू । परगुणग्रहणाय वयणिय माय जिणपेय पयम्ह णविय सिरु ||
इथ सिरि पासणाहपुराणं आयम अत्थस्स अस्थिसुणिहाणे सिरि पडिय रहधू विरइए सिरि महाभन्वसेऊ साहुणाम किए सिरि पाराजिण पचकल्लाणवण्णणो तहेव दायार वस णिद्द सो गाम सत्तमो सधी परिच्छेओ सम्मत्तो । सधि । ७ । इति श्री पार्श्वनाथपुराण' समाप्तम् ।
अथ सवत्सरेऽस्मिन् श्रीविक्रमादित्यराज्ये १५४९ वर्षे चैत्रसुदि ११ शुक्रवासरे पुनर्वसु नक्षत्रे शुभनामा योगे श्री हिसार पेरौंजा कोटे श्री महावीरचत्यालये सुलितान श्री साहसिकदरराज्यप्रवर्तमाने श्री काष्ठास माथुरान्वये पुष्करगणे त्रयोदशप्रकारचरित्रालका राल - कृत वाह्याभ्यन्तर परिग्रहस मित्रह (?) समर्था. भट्टारक श्री षेमकीतिदेवा. तत्पट्टे त्रिकालागत श्राद्धवृदविहितपदसेवा भट्टारक श्री हेमकीर्तिदेवा तत्पट्टे कुवलयविकासनैकचन्द्रो भट्टारक श्री कुमारसेन - देवा तत्पट्टे प्रतिष्ठाचार्य श्री नेमचद्रदेवा, तदाम्नाये अग्रेकान्वये गोहलगोत्रे आशीवाल सराफ - देवशास्त्रगुरु चरणारविंदचचरीकोपम पचाणुव्रत प्रतिपालका समा परमश्रावकसाघु मइणाखपः चादपाही । तृतीयपुत्र. जिनपूजापुरदरसाधु दूल्लणु भार्या जे बूहि तस्यागजा प्रथम पुत्रमयणरूप व्रत दूथितज कल्पवृक्षान् साध वणुभार्यावाही
1
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३६
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
द्वितीय पुत्र साधु सीहा, भार्या डेडीए तेषा"." कर्मक्षय साधुपिरदूतस्य पुत्र .... पार्श्वनाथ चरित्र लिखापितम ।
उपर्युक्त प्रति से यह प्रति जैन सद्धान्तभवन, आरा के सग्रहार्य लिखी गई। शुभमिती माघशुक्ला ८ गुस्वार वीरसम्वत २०६३ । विक्रम सवत् १९६३ हस्ताक्षर रोशनलाल जैन। इति ।
द्रष्टव्य-जि०२० को०, पृ०२४६ ।
८६. पावपुराण
Opening .
Closing :
नमः श्री पार्श्वनाथाय विश्वविघ्नौवनाशिने ।
त्रिजगस्वामिने मूर्दा ह्यनन्तमहिमात्मने । सर्वे श्रीजिनपुंगवाश्च विमला सिद्धा अमूर्ता विदो, विश्वाच्चर्या गुरुवोजिनेद्रमुखजा सिद्धान्तधर्मादय । कारो जिनशासनस्य सहिता स वदिता सश्रुता, येतेमेऽत्र दिशतु मुक्तिजनकै सुद्धिः च रतनत्रये ॥
पचादशाधिकानि वा विशतिः शतान्यपि । श्लोकसख्या अस्य विज्ञया सर्व ग्रन्थस्य लेखक । इति श्री पार्श्वनाथथचरित्रे भद्रारक सकलकोति. विरचिते श्री पार्श्वनाथमोक्षगमन त्रयोविंशतितम सर्ग समाप्त । इति श्री पार्श्वनाथचरित्र समाप्तम् । देखे-जि. र. को०, पृ. २४६ ।
Catg. of Skt.& pkt Ms , P.667.
Oolophon:
६०. पार्श्वपुराण Opening . देखें, ऋ० ८६ ।
Closing : देखे, ऋ० ८६ । Colophon
इति श्री पार्श्वनाथचरित्रे भट्रारक श्री सकलकीतिविरचिते श्री पार्श्वनाथमोक्षगमनवर्णनो नाम त्रयोविंशतितम सर्गा श्री पार्श्वनाथचरित्रसमाप्त ॥ देउल ग्रामे लिखित नेमसागरस्य इद पुस्तक ॥
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhratisha & Hindi Manutcripts
( Purina, Carita, Kalha )
६१. पावपुराण
Opening : गोह महातम दलन दिन, तप लक्ष्मी भरतार ।
से पाग्ग परमेश मुस, होय सुमति दातार ॥ Closing : नयत् माह में समैं, अर नवासी लीय ।
गुमि अपाउ तिपि पचमी, ग्रय समापत कोय ।। Colophon: प्रति श्री पावंपुगणभापाया भगवनिर्वाणगमनीनाम
नवमो अधिकार समाप्तम् । मयन् १८५६ कार्तिक सुदी नवमी बुधश्वेताम्मर गपि हमराज जी तत् शिष्य प्रापि रामसुखदास जी माहजहानाबाद मध्ये लिपि तम् आत्मायें । शुभ भवतु ।
६२. पाश्वंपुराण Opening : देखें, ०६१ |
Closing : देये, ऋ० ८१ । Colophon.
इति श्री पानायपुराग भापायो भगवन्निर्वाणकवर्णनो नाम नवमोधिकार ॥ ॥ इति श्री पार्श्वनाथपुराण भाषा सम्पूणम् । सवत् १९५३ सन् १३०३ अगहण शुक्ल एकादश्या तिथी मंगरवामरे दसयत चुनीमाली का।
६३. प्रद्युम्नचरित ( १४ सर्ग) Opening : धीमत सन्मति नत्वा नेमिनाथ जिनेश्वरम् ॥
विश्वजेतापि मदनो वाधितु नो शशाकय. ।। ।। Closing : चतु सहस्रसख्यात साद्धं चाष्टशतैयुतः ।
भूतले सतत जीयान्छीसर्वज्ञप्रसादत ॥१६६ ॥
इति श्री प्रद्युम्नचरिते श्री सोमकीत्याचार्यविरचिते श्री प्रद्युमन सावअनिरुद्धादिनिर्वाणगमनो नाम चतुर्दश सर्ग समाप्त ॥ मिति कार्तिक शुक्ला ५ चद्रवासरे सवत् १९५३ । लिखि नटवर लाल शर्मणा॥
Colophon
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
विशेष- इसमे मात्र १४ सर्ग है, जवकि दिल्ली जिनग्रन्थ रत्नावली मे १६
सर्ग की प्रतियो के भी उपलब्ध होने की सूचना है। ., द्रष्टव्य-(१) दि० जि० ग्र० र०, प०, पृ० २२ ।
(२) 'जि० र० को०, पृ० २६४ । ' . (३) प्र० जै० सा०, पृ. १७६ ।
(४) आ० सू०, पृ० ६४।
(५) रा. मू० II, पृ० २१३ । । (6) Catg. of Skt..& Pkt. Ms., P.670.
६४. प्रद्युम्नचरित्र Opening : ' देखें, ऋ० ६३ ।
Closing ! देखे ऋ०६३। । Colophon : इतिश्री प्रद्य म्नचरिते आचार्य श्री-सोमकीतिविरचिते श्री
प्रय़ म्न अनिरुद्धनिर्वाणगमनो नामचतुर्दश सर्ग समाप्त । समाप्तर्मिद श्री प्रधुम्नचरितम् । वाच्यमान चिर नदन्तुं पुस्तक सवत् १७१७ वर्षे माघ सुदि २ दिने लिख्या समाप्तिनीत लेखिततश्च कुशलान्वये साहश्री बगूजी तत्पुत्र परम धार्मिक साह श्री रायसिंहजी 'केन
।
स्वकीय ज्ञातवृद्धयर्थम् ।
श्लोक-यादृश · ... • न दीयते ॥
६५. प्रद्य म्नचरित्र' Opening :, . .देखे, ऋ० १३ । . .. Closing ..देखे, ऋ० ६३ ।। Colopnot | इति श्री प्रद्म म्नचरिते श्री सोमकी-चार्य विरचित ' ' ' , 'प्रझम्न शवअनिरूद्धादि निर्वाणगमनो नाम चतुर्दशः सर्गः। श्री मद्वि। क्रमभूपते-जिरसाद्री दुर्गते वत्सरे मासे फागुनि के दिने रवि सुते
- रूद्राख्यकासत्तिथि तस्मिन्नेव लिपिकृतो गुवताराज्येविनण्टे मिती
ग्रथो धनपतिसज्ञिनामतिमता कैराणकाख्ये पुरे।
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२६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramgha & Hindi Manuscripts
( Purdda, Corita, Katha )
६६. प्रद्युम्नचरित्र Opening : देबे, ऋ० ६३ ।
Cloring . देखे, ३० ६३ । Colophon: इति श्री प्रद्युम्नचरित्रे श्रीसोमकीर्ति आचार्यविरचि ते
श्री प्रद्युम्नसवअनुरुद्धादि निर्वाणगमनो नामषोडश सर्ग । इति प्रय म्नचरित्र सम्पूर्णम् । स वत्सरे श्री विक्रमार्क भूपते स वत् १७६६ व ज्येष्ठमासे शुक्लपक्षे तिथी च नौम्या सोमवासरे । लिखत मुदकसागरेण तत् शिष्यसमीप तिष्ठते धामपुर मध्ये ।
जो उपजो ससार सर्व वस्तु का नाश है। तात इही विचार धर्म विर्ष चितराखना ।।
- श्रीरस्तु मगल दद्यात् । विशेष --मवत् १७६५ वर्ष फागुणमामे शुक्लपक्षे द्वादसी दिने नादरसाहमाद
शाह ने दिल्ली मे कतलाम किया मनुष्यो का प्रहर तीन । इस प्रति मे सर्गों की संख्या १६ है, जबकि अन्त मे श्लोक संख्या वही है ।
६७. पुण्याश्रव कथा Opening : श्री वीरजिनमानस्य वस्नुतत्वप्रकाशकम् ।
वक्ष्ये कथामय अथ पुण्याश्रव विधानकम् ॥ Closing: रविसुतको पहलो दिन' जोय ।
अरु सुरगृरु को पीछे होय ॥ . बार यही गिन लीजों सही ।
तादिन अथ समापति लही ॥ Colophon: . इति श्री पुण्णाश्रव अथ भूल कर्ता रामचद्र मुनि टीका
दौलतराम कृत सपूर्ण। सवत् १८७४ मिती माहसुदि ३ रविवासरे सपूर्ण कृतम् । ।
Opening . ' Closing :
६८. पुण्याधव कथा. देखें, ऋ०१७ । '
तीस्यौ पुकार छ। तव राजाबहीनवल ला ।।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Sari Devalcumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Colophon: उपलब्ध नही।
६६. पुण्याश्रव कथाकोष Opening :
वर्द्धमान जिन वदिक, तत्वप्रकाशनसार।
पुण्याश्रव भाषा कर भव्य जीवन हितकार ।। Closing : दान तना अधिकार यह, पूरा भया सुजान ।
बहुविध की सत्रुसम, भोवहु कर कल्यान ॥५६०६।। Colophon: इति श्री पुन्याश्रवविधाने ग्रंथ के सवानददिव्य मुनि शिप्य
रामचंद्र विरचिते दान अधिकार समाप्त ।
पुन्याश्रव ये कथा रसाल । पूजादिक अधिकार विसाल । षट् अधिकार परम उतकिए। छापन कथा जासमै मिए । आदि पुरानादिक जे कहा। अभिप्राय सो यामै नहा ॥ आचारज जिय धरि अभिलाष । कीनो तास सस्कृत भाष । तास वचनकारूप सुधार। दौलतराम कथा वुधसार । तातै भावसिंध निज छद। आरभ किया चौपाई वद ।।
प्रभु को सुमिरन ध्यानकर, पूजा जाप विधान । जिन प्रणीत मारग विष, मगन होहु मतिमान ।
१००. पुण्याश्रव कथाकोष Opening : देखें, क्र. ६७ ।। Closing : प्रभु को सुमरण ध्यानकर, पूजा जाप विधान ।
जिनप्रणीत मारगविष, मगन होहु मतिमान ॥ Colophon: इति श्री पुण्याश्रव कथाकोष भाषाजी राजभावसिंह कृत
समाप्तम् । श्रीशुभ सवत् १९६२ तत्र वैशाखकृष्ण तृतीयाया लिपि कृतम् प० सीतारामशास्त्री स्वकरेण सहारनपुर नगरे । नोट :-लेखक का नाम भावसिंह होना चाहिए।
Oprning :
१०१. पुराणसार संग्रह पुरूदेव पुराणाद्य प्रणम्य वृषभ विभु। चरित तस्य वक्ष्यामि पुण्यमादशमाद्भवान् ।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts'
(Purāna Carita, Kathā)
Closing : महिम्नामाधारो भुवनविततध्वाततपन ।
स भूयान्नो वीरो जननजयसपत्तिजनन ॥ Colophon: - इति श्री वर्द्धमानचरित्रे पुराणसारसग्रहे भगवन्निवणिगमन
नाम पचम सर्ग समाप्त ।
प्रतिलिपि जैनसिद्धान्त भवन आरा मे रोशनलाल जैन ने की। शुभमिती फाल्गुन शुक्ला ६ गुरुवार विक्रम संवत्
१९६० वीर सवत् २४६० । इति शुभ भवतु । द्रष्टव्य-जि० र० को०, पृ० २५३ ।
१०२. पूज्यपाद चरित्र Opening : पादपद्मगलिगे चाचुवेनेन्नलकवनु ।
उपदेशगदु सकलतत्ववनुरे कुप ग्वेन्लव सहरिसि ।
सुपथव तोरि सुखवनु भव्यगित्तवुपदेशकरिणे रगुवेनु । Closing:
सौख्यम कनकगिरिवराधीश्वर पार्श्वनाथ । Colophon: अतु सधि १५ क्का पदनु १९३२ सखिरद वभनूर मूव
तोबत्तक्का मगल जयमगल शुभमगल नित्यमगल महा ।
हृदिनदनेय मधि मुगिदुदु । पूज्यपादचरित्रे सपूर्न मगलमहा ।
१०३/१. रामयशोरसायन रास Opening : श्री मनसोन्नत स्वाम जी त्रिभुवन त्यारण देव ।
तीरथकर प्रभु वीसमो सुरनर सारे सेव ।।१।। Closing
वरसा सोला केरी सुन्दरी सुन्दर मुयल भाष । स्प अनुपम अधिक बनायो इन्द्र करै अभिलाष ।। सी० ।।
रिमझिम रिमझिम घू घर वाजै । Colophoni
.. नहीं है। विशेष। यह पाण्डुलिपि गुजराती लिपि मे 'देवचद लालभाई पुन्त
कोद्धार फड, सूरत' से 'आनन्दकाव्य महोदधि' के दूसरे भाग मे
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श्री जैन गिलाना भवन अन्मायनी Shri Dovakumar Join Orental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrak
प्रमाणित है।
१०३/२. रत्लाय कापा
Opening :
Closing :
श्री जिनकमा निरा गमु, गाग्दा प्रगमी भर निरगम् । गोतम गेग प्रामी पाम, जनपि यहमिधि गगन पाय ।। याम्या मणि मानिा भार, प.., मगन जय जयकार । श्रीभूपण गुर आधार, ग्रहमान यो पिचार ।।
इति रनमय गशा मगपंग।
Colophon .
५०४. रत्नत्रयव्रत पूजा व कथा
Opening . श्रीमत गन्मत नला श्रीमत सुगुरमपि।
श्रीमागमत. श्रीमान् पक्ष रस्नायाननम् ।। Closing . दे, ३० १०३/२। Colophon • इनि श्री गलत्रययन कया मगाप्तम्।
विशेष--पूजा जिनेन्द्रसेन रचित है।
१०५. रविव्रत कथा
Opening :
श्री सुण्दायक पास जिनेस, प्रणमौं भव्य पयोज दिनेस । सुमरी सारद पद अरविंद, दिनकर व्रत प्रगट्यो सानद ।।
Closing :
यह व्रत जे नरनारी कर, सो कबहू नहिं दुरगति पर। भाव सहित सुर पर सुपलहैं,
बार बार जिन जी यो कहैं ।। इति श्री रविव्रत कथा जी लघु समाप्तम् ।
Colophon:
Page #243
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४३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Puāra, Carita, Kathā) १०६. रविव्रत कथा
Opening :
Closing :
देखे-ऋ० १०५।
इह प्रत जो नरनारी करे, सो कबहू नहि दुर्गति परै। भाव सहित सो सिवसुष लहै
भानुकीर्ति मुनिवर यो कहै ।। इति रविनत कथा समाप्तम् ।
Colophon
१०७. राजाबलि कथा
Opening : श्री मत्समस्तभुवनशिरोमणि सद्विनयविनमिताखिलजनचिन्ता
मणिये नित्य परमस्वामियनभिनुतिसि पडे-वे शाश्वतसुखमम् । Closing ___इति कथेय केलवर भ्रातियु नेरेकेडमु वलिकमायु श्रीयु
___ सतानवृद्धि सिद्धियनतसुख तप्पुदप्पुबुदु निहन ।
Colophon: इति सत्यप्रवचन काल प्रवर्तन कनकाचलश्रीजिनाराधक
मलेयूर देवचद्र पडित विरचित राजवली कथासारदोल जातिनिर्णयप्ररूपण त्रयोदशाधिकार। समाप्तोऽय ग्रन्थः ।
Opening
१०८. रामपमारोपम पुराण पचपरमगुरु को सुमरन करी, अरु जिन प्रतमा जिनधाम । श्री जिनवाणी जिनधरम को, करजोर करौ परनाम ।।
श्रीरामपमारौ वर्नन करो वाच सुनो नरकोय । भवदधि तारन को यह कारन मोक्षवछ वरलोय ।। २५।। अपठनीय।
Closing i
Colophon
Opening i
१०६. रामपुराण वदेह 'सुव्रत देव पचकल्याणनायकम् । देवदेवादिभि सेव्य भव्यवृंदसुखप्रदम् ।।
Page #244
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing : श्री मूलसघे वरपुष्कराख्ये गच्छेमुजातो गुण भद्रसूरिः ।
पट्ट' च तस्येव सुगीमसेनो भट्टारकोभूद्विदुषा शिरोमणि ॥ Colophon : इति श्रीरामपुराणो भट्टारक श्री सोमसेनविरचिते राम
स्वामीनो निर्याणवर्णनो नामयत्रिशत्तमोधिकार । ३३ ॥
समाप्तीय रामपुराण ग्रथामथश्लोक ७००० । सप्तसह. स्त्राणि । मिती भादी सुदी ११ रावत् १९८६ तादिन यह पुस्तक लिखकर समाप्त की। द्रष्टव्य-जि० र० को०, पृ० ३३१, २३४ ।
Catg. of Skt. & Pkt. Ms., Page-687.
११० रोहिणी कथा
Opening :
Closing .
वासुपूज्य जिनराज को, वदू मनवचकाय ।
ता प्रसाद भाषा करो, सुनो भविक चितलाय ॥ रोहनी व्रत पाल जो कोई, ता घर महामहोत्सव होई। मनवचकाय सुद्ध जो धरै, क्रमतेमुकति वधु सुख वरं ॥५॥ इति रोहणी व्रत कथा सम्पूर्णम् ।
Colophon :
१११ रोटतीज व्रत कथा
Opening :
Closing :
चौवीसो जिन को नमी, श्री गुरुचरण प्रभाव ।
रोटतीज व्रत की कथा, कहो सहितचित चाव ।। भूल चूक जो कथा मझारा, लै भविजन सब सुजन सवारा। शुभ सवत् उन्नीसपचासा, अषाढ शुक्ल तृतीया मलोमासा ॥ वार शुक्र शशि कथा प्रकाशा, वाचक हृदय हर्ष की आशा। जैन इन्द्र किशोर सुनाई, जय-जय ध्वनि चतुर्दिक छाई ॥ इति सपूर्णम् । शुभ भूयात् । ११२. रोटरीज व्रत कथा देखे, ऋ० १११। देखे, ऋ० १११॥
Colophon :
Opening : Closing :
Page #245
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Catalogue of Sanokrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Purana, Carla, Kalha )
Colophon: शुभ भूयात् । इति सम्पूर्णम् ।
यह पुस्तक सवत् १९५१ मिति वैशाख कृष्ण परिवा को शीतलप्रसाद के पुत्र विमलदास ने चढाया ।
११३ ऋषभपुराण
Opening : श्रीमत त्रिजगन्नायमादितीर्यकर परम् ।
फगीनेन्द्रनरिंद्राय॑ वदेऽनतगुणार्णवम् ।। Closing : अस्टाविंशाधिकाभि षट् चत्वारिंशत्शतप्रमा ।
अस्यादहश्चरित्रम्य स्यु श्लोका पिडितावुध ॥ Colophon : इति श्री वृषभनाथ चरित्रे भट्टारक श्री सकलकीति विरचिते
वृषभनाथ निर्वाणगमनोनाम विंशतितम सर्ग ।
द्रष्टव्य-जि० र० को०, पृ० ५७ ।
११४ सम्यक्त्वकौमुदी
Opening .
परमपुरुष आनन्दमय चेतन रूप सुजान । नमो शुद्धपरमातमा, जग परकामक भान ।।
Closing !
सम्यकदर्शन मूलहै, ग्यान पेढ द्रुम डार ।
चरण सुपरलव पहुप है, देहि मोषि फलसार ।। Colophon: इति श्री सभ्यक्त्व कौमुदी कथा भाषा जोधराज गोदीका
विरचिते उदितोदयभूप अरहदाससेठादिक स्वर्गगमन कथन सधि ग्यारमी सपूर्णम् ।
अठारास सोलहतरा, चैतमास है सार । शुक्लप्रतिपदा है सही, गुरुवार पैसार ॥१॥ लिपि कीन्ही भेलीराम जू, ग्याति सावडा जानि । वासी चपावति सही, वोरिगढ मधि आनि ॥२॥ जयचद जी सौ वीनती, करौ जुमनवचकाय । राति दिवस पढिज्यो सदा, इह कया मनलाय ॥३॥
Page #246
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab
११५. सम्यक्त्वकौमुदी
Opening
देखें, ११४ ।
Closing :
चदसूर पानी अवनि, जवलग अवर आकाश । मेरादिक जवलगि अटल, तवलगि जैन प्रकाश ।।
Colophoni इति श्री सम्यक्त्व कौमुदी कथा साह जोधराज गोदीका
विरचिते उदतोदयभूप अरहदाससेठादिक स्वर्गगमनवर्णन नाम एकादश परिच्छेद । इति श्री समकित कौमुदी कथा साह जोघराज गोदीका जातिभावसाकी करि भाषा समाप्त । सवत् १९१३ पौष मासे कृष्ण सप्तमीया गुरुवासरे। श्लोक सख्या १७०० ।
११६. सम्यक्त्वकौमुदी
Opening : Closing :
देखें, ऋ० ११४ ।
धरम जिनेश्वर कोय है, स्वर्गमुक्ति पद देय । ताकी मनवचकाय सौं, देवसु पूज करेय ॥ अनुपलब्ध।
Colophon .
११७. सम्यक्त्वकौमुदी
Opening : देखे, ऋ० ११४ ।
Closing : देखें, ऋ० ११४ । Colophon: इति श्री सम्यक्त्व कौमुदी कथा भाषा जोधराज गोदीका
विरचिते उदितोदयभूप अर्हदाससेठादिक स्वर्गगमन कथा सधी ग्यारमी सम्पूर्णम् ।
देखें, क्र. ११४ ।
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४७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhra msha & Hindi Manuscripts
(Purana, Carita, Katha)
स्त्री सवत् १९७० शाके १९३५ मगशिर सुदी ६ मबमी रविवार मध्यानमे इह ग्रथ सपूर्ण भया । विशेष-हरप्रमाद दास धर्मशालाशाला, आरा मे लिखा गया ।
११८. सम्यक्त्वकौमुदी
Opening :
Closing . Colophon:
देखे, ऋ० ११४ । देखें, ऋ० ११४ । देखे, क्र० ११७ । ___ सवत् १९४६
। श्रावण कृष्ण अष्टम्या सम्पूर्णम् ।
Opening :
११६. संकटचतुर्थी कथा वृषभनाथ वो जिनराज, पुनि सारव वदो सुषसाज । गणधर ये सुभमति हो लहो, सकटचोथि कथा तब कहो । विश्वभूषण भट्टारक भए देवेन्द्रभूषण तिहिपट्ट ठए। तिनि यह कथा करी मनुलाइ, भव्यकजन सुनियो चित ल्याइ ।।
इति सकटचौयिकथा समाप्ता ।
Closing :
Colophon:
Opening :
Closing ! Colophon:
१२०. संकटचतुर्थी कथा देखे, ऋ० ११९ । देखे, ऋ० ११६ ।
इति सकट चौथको कथा सम्पूर्णम् । १२१. सप्तव्यसन चरित्र
Opening :
Closing :
श्री अहंत प्रनाम करि, गुरुनिरन्थ मनाइ। सप्तविसन भाषा कहूँ, भव्यजीव हितदाइ ।। सकलमूल याग्रथ की जानी मनवचकाय । दयाधर्म नितकीजिये, सो भव भव सुख होय ।।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली hri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah
'ng :
lophon :
इति श्री सप्तविसन भाषाया समुच्चय कथा परस्त्री विसनवर्णनो नाम सप्तमो अधिकार । इति श्री सप्तविसन चरित्र भाषा सम्पूर्ण । मिति चैत्रसुद २ सवत् १९७७ ।
१२२. सप्तव्यसन कथा
प्रणम्य श्रीजिनान् सिद्धानाचार्यान् पाठकान् यतीन् । सर्वंद्व द्वविनिर्मुक्तान् सर्वकामार्थदायकान् ॥
यावत्सुदर्शनोमेर्यावच्च सागराद्वर 1 तावन्नदत्वय लोके ग्रथो भव्य जनाचित ॥
इत्यार्षे भट्टारक श्रीधर्मसेन भट्टारक श्री भीमसेनदेवा तेषा आचार्य श्री सोमकीर्तिविरचिते सप्तव्यसनकथा समुच्चये परस्त्रीव्यसनफलवर्णनो नाम सप्तम सर्ग ||७||
शाके १६९४ मिति आषाढ वदि त्रयोदश्या तिथौ भोमवासरे सवत् १८२६ का तहिवसे आद्रानक्षत्रे श्रीमूलसधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कु दकु दाचार्यान्वये वैराडदेशे मगलूरग्रामे भट्टारक श्री धर्मचद्रलिखितमिद शास्त्र सप्तव्यसनचरित्र अर्जिका श्री नागश्री पठनार्थ इद शास्त्र लिखित स्वज्ञानावर्णीकर्मक्षयार्थं दन्तम् ।
विशेष—-मपूर्णग्रन्थस्य श्लोकाना सख्या - १८५३ ।
द्रष्टव्य - ( १ )
(२)
(३)
दि० जि० ग्र० २०, पृ० २४ ।
प्र० जै० सा०, पृ० २३४ ॥
जि० र० को०, पृ० ४१६ ।
(4) Catg. of Skt. & Pkt. Ms., P 701.
१२३. सप्तव्यसन कथा
देखे, क्र० १२२ ।
Opening :
Closing!
देखे, क्र० १२२ ।
Colophon. सवत् "१६२६ वर्षे शके १४९१ प्रवर्तमाने शुक्ल सवत्सरे वैशाखमासे शुक्लपक्षे षष्ठी तिथौ रविवारे पुनर्वसु नक्षत्रे श्रीमूलस सरस्वतीगच्छे वलात्कारगणे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री धर्मचन्द्रोपदेशात् बघेरवाल जाति चामरागोत्रे सघवीधीना तस्य भार्या लखमाई तयो पुत्र नील्ह साह तस्य भार्या पुत्तलाई तयो' पुत्र गुणासाह
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts (Purana, Carita, Kathā )
Openin
Closing
Colophon
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Closing
Colophon.
तम्य भार्या गोजाई ज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ गोमश्री अधिकार्य पुत्तलिफा पुस्तक दत्तन् । कल्याण भवनु । भट्टारक माहेन्द्रसेण
१२४. शय्यादान वंक चूली कथा
वयादानगुणगयात्री सवेगरनविका । गाव्यमननदित्री चकचूल काधान्यात् ॥
इत्येव नृपनन्दन प्रतिदिन नि शेषपापोद्यतः, यादानमनुत्तर गुणयता दत्वा मुनीना मुदा । प्रति मन्यादाने यकनूनी कथा |
५२५ शांतिनाथ पुराण ( १६ मर्ग
)
४६
नम श्रीणातिनायाय जगच्छाति वि धायिने ॥ कृन्न कम्मघाताय पानये नवकम्मणाम् ॥ १ ॥
अन्य शातिर्वारस्य शया एलोका. सुलेखर्क ॥ पचमप्नत्यधिकास्त्रिचरितप्रमा ।। ४१७ ॥
1
ति श्रीणातिनायचरित्रे भट्टारक श्रीमकल कीतिविरचिते श्री णातिनाश्रममवसरण वग्मोपदश मोक्षगमनवर्णनो नाम पोडशोऽधिकार || १६ | इति श्री शातिनाथचरित्र समाप्तम् । शुम भवतु || मानोत्तमे माने वैशासेमामे शुक्लतियों पपट्ट्या भृगुवामरे अय ग्रथा नमान । निखितमिद पुस्तक मिश्रो नामक गुलजारीलाल शर्मणा ॥ मवत् १६७१ ।। आर्य्या बनाई ।
श्लोक -- मिटे निवामनशाली गुलजारीलाल नामको हि मिश्रश्च ॥ विललेख पुस्तक यत् पातु सदा तच्छिवश्रमान् लोके ॥ १ ॥ रि० ग्वालियर जि० मिड । एलोक संख्या ५६७२ सवत् १९२१ की
लिखी हुई प्रति से यह नकल की गई है ।
द्रष्टव्य- (१) जि० र० को०, पृ० ३८० ॥
(२) दि० जि० म० २०, पृ० २४ ।
(३) Catg. of Skt. & Pkt. Ms., P. 694
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५०
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavun, Arrah
१२६. शान्तिनाथ पुराण
Opening :
प्रणम्य परमानन्दान् देवसिद्धान्तसगुरुन् । शातिनाथपुराणस्य भाषा सहित नौम्यहम् ।।
'
Closing I
. जिनवर धर्मप्रभाव सो, परम विस्तरयौ प्रय ।
ता सेवत पाइये सदा, नाक मोष (मोक्ष) को पथ ।।
Colophon : इति श्री तिनाश पुराण आचार्य श्री सकलकीति विर--
चिताद्भाषा विरचितात् लघुकवि सेवारामेन तस्य जिनज्ञानोत्पत्ति धर्मोपदेश विहार समय निर्वाणगमन निरूपणो नाम पचदसमोधिकार' । इति शातिनाथ पुराण भाषा सम्पूर्णम् । लिखि आरा नगर मे श्री जिनमदिर विष मिती चैत्रशुक्ल चौथ वार बुध को लिख समाप्त भया ।
शुभ भवतु।
१२७. शान्तिनाथ पुराण
Opening: देखे, ऋ० १२६ । Closing'
देखे, क्र. १२६ । Colopnon !
देखे, क्र० १२६ ।
इति श्री शान्तिनाथ पुराण भाषा सपूर्णम् । लेखक दुर्गाप्रसाद ब्राह्मण लिखि गोरखपुरमध्ये अलीनगर में श्री जिनमंदिर वि मिति कार्तिक सुदी चौथ (४) वार बुध को लिखि समाप्त भया ।
धर्मेन हन्यते शत्रु धर्मेन हन्यते ग्रहः । धर्मेन हन्यते व्याधि यथा धर्म तथा जय० ॥
१२८. शीलकथा
Opening • •
प्रथमहि प्रणमू श्री जिनदेव, इन्द्र नरिन्द्र करे तिन सैवं । तीनलोक मे मगलरूप, ते वद जिनराज अनूष ।
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५१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Purana, Carta, Katha)
Closing :
जा घर शीन धुरधर नारि । मो घर सदा पवित्र निहार ।।
जाघर त्रिया वि ... • • । अनुपलब्ध।
Colophon.
१२६. शीलकथा
Opening • देखें, ऋ० १२८ ।
Closrig : देखें क० १३० । Colophon .
___ इति शील माहात्म्य कथा सम्पूर्णम् । दस्तखत दुरगाप्रसाद मिति कुवार ( आश्विन ) सुदी १४ सोमवार को वावू केशो (केशव) दास की कवीला सुमतदास की महतारी ने चढाया पचायती मदिर मे गया जी के।
१३०. शीलकथा
Opening • देखें, ऋ० १२८ । Closing :
शीलकथा पूरनभई पढे सुने जो कोय ।
सुख पावें वे नर त्रिया, पाप नाश तिन होय ।। Colophon:
इति श्री शीलकथा सम्पूर्णम् । तारीख २ अप्रैल सन् १९०५ । वैशाख कृष्ण ३ मनिवार ।
१३१. शोलकथा Opening : देखें, क. १२८॥
Closing : देखें, ऋ० १३० । Colophon - इति श्री शील माहात्म्य की कथा सम्पूर्णम् । मिती पोप
कृष्ण ११ दिन शनिवार को पूरण भई। इदं पुस्तक नीलकंठदामेन लिखितम् ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
१३२. शीलकथा Opening : देखे, ऋ० १२८ ।
Cloeing : देखे, क्र १३० । Colophon: __इति श्री शीलकथा सम्पूर्ण । मिति वैशाख वदी १ सन्
१२७६ साल दसखत दुरगा प्रसाद जैनी जिला आरा ।
१३३. श्रेणिकचरित्र Opening . तीनलोक तिहुकालमे पूजनीक जिनचद ।
श्री अरहत महतके, वर्दी पद अरविंद । Closing .
मनवचतन यह शास्त्र को, सुनें सरदहै सार ।
नामशर्मा भोगिक, होत भवोदधिपार ॥ Colophon ___ इति श्री श्रेणिक महाचरित्रे ग्रथ फलितवर्णनो नामएकविश
तिमो प्रभाव । इति श्रेणिकचारित्र सम्पूर्णम् ।
उगणीस सौ वासठ यही, कृष्ण पाच वैसाख । सोम सहारनपुर विषे, सीताराम जुराख ।।१॥ मूलऋक्ष शिवयोग मे लिखकरि पूर्ण विचार । पडित जन पढ़ लीजियो, लिखी बुद्धि अनुसार ।।२।। जैसी प्रति देखी लिखी, तैसी नही महान । निजकर शोधि सभारिक, पडि लीजै बुधवान ।।३।।
शुभम् सवत्सर. १९६२ शक. १८२७ वैशाखकृष्ण पचम्या सोमदिने मूलः शिवयोगे सहारनपुरनगरे लिपिकृत प० सीतारामशास्त्री निजकरण ।
भव्या पठतु शृण्वन्तु, क्षेममार्गानुगामिन । कराग्रेण विदोतूर्ण श्रीमद्गुरुप्रसादत ॥ १३४. श्रेणिकचरित्र
Opening .
श्री वर्द्ध मानमानद नौमिनानागृणाकरम् । विशुद्धध्यानदीप्ताचिर्तुतकर्मसमुन्चयम् ॥
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५३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramzha & Hindi Manuscripts
( Purida, Carta, Katha ) Closing चद्रार्क हेमगिरिसागरभूमिवान गगानदी नभसि सिद्धशिलाश्च लोके ।
तिष्ठतु यावदभितो वरमर्त्य सेवा तिष्ठतु कोविदमनोबुजमध्यभूता ॥ Colophon . इति श्री श्रेणिकचरित्रभवानुबद्ध भविष्यत् पद्मनाभपुराणे
आचार्यशुभचन्द्रविरचिने पचकल्याणवर्णनो नाम पञ्चदशपर्व समाप्त । सवत् १८०७ ज्येष्ठसुदी ५ मगलदिने लिखित मुनिविमल सुश्रीवकपुण्यप्रभावक जनीलाला प्रतापसिंह जी आत्मार्थे परममनोग्यम् ।
सवत् १९६३ विक्रमीये आषाढ सुदि १० मगलदिने रोशनलाल लेखक ने लिखा। द्रप्टव्य-(१) दि० जि०म० र०, पृ० २५ ।
(२) जि० र० को०, पृ० ३६६ । (३) प्र. जै० सा०, पृ० २२४ । (४) आ० सू० पृ०, १५७ । (५) रा० सू० II, पृ० १६, २३१ । (८) रा. सू. III, पृ० २१६ । (7) Calg. of skt & Pkr. Mc., page, 698
१३५. श्रेणिकचरित्र Opening . पणवेवि अणिंद हो चरमजिणिंद हो, वीर हो दसणणाणवहा ।
सेणिय हो णरिंदहु कुवलयचद हो णिसुणहो भविय हो पवरकहा ।। Closing . दयधम्मपवत्तणु विमलसुकत्तणु णिसुणतहो जिणइदहु ।
ज होइ सधण्णऊ हउ मणिमप्णउ त सुह जगिहरि इदहु ।। Colophon ___ इयसिरि वड्ढमाणकव्वे पयडियचउवग्गमग्गरसभव्वे मेगिग
अभयचरित्ते विरइय जयमित्तहल्लुसुकइत्तो भवियणजणमणहरण संघाहिवहोलिवम्मकण्ण सेणियधम्मलाहो वडढमाणणि वाणगमणवण्णणो णाम एयारहमो सधी परिच्छेऊ मम्मत्तो सधी ॥११ ।।
इति श्री श्रेणिकचरित्र सम्पूर्णम् । सवत् १७६६ वर्षे श्रावणवदि ५ भृगु अपरान्हिसमए श्रीपालमनगरि स्थाने लिखित ब्रह्म कृपासागर तच्छिष्य लिखित पडित सु दरद स।।
शुभमिती माघशुक्ला ८ बृहस्तपरिवार वीर सम्वत् २४६३ विक्रम सवत् १९६३ । हस्ताक्षर रोशनलालजन ।
___ द्रष्टव्य-जि० र० को०, पृ. ३६६ ।
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५४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Opening:
Closing : Clophon :
Opening :
Closing :
१३६. श्रेणिकचरित्र ( ११ सधि )
परमयमात्र सुगुणनाव निहणिय जम्मजरामरणु । सासयसिरिसु दरु पणयपुरंदरु रिसद्गुण ववितिसणसर ॥
देखे, ऋ०, १३५
इति श्री वर्द्धमानकाव्य ॥ श्रोगकचरिएकादशमो मधि समाप्ता ॥ अथ मत्सरेऽस्मिन्नी नृपविक्रमादित्य राज्ये सवत् १६०० तत्रवर्षे फालगुणमासे कृष्ण श्लोद्वितीया २ तियों शुक्रवामरे श्री तिजारा स्थान वास्तव्यो साहिल मुराजप्रर्तमाने श्री काष्टास घे मान्वये | करगे भट्टारक श्री गुणकीर्तिदेवा तत्पट्ट मट्टारक श्री गुणभद्रदेवा ताम्नाये अग्रोतकान्वये गर्ग गोत्रे साहुतोल्दा ( 2 ) भार्य राणीतस्य पुत्र जिणदामु । तम्य याय सोभा तत्पुत्रा पच । प्रथम पुत्र साधु महात्रासु । द्वितीय पुत्र सावुगेल्हा । तृतीय पुत्र साधु नगराजु । चनुर्यपुत्र माधु जगराजु । पचमपुत्र साधु मीहू । जिदास प्रथमपुत्र महादासु तस्य भार्या दोदासही । तस्य पुत्रुते जनुतस्य भार्या लाडो । जिनदास दुतीयपुत्र गेल्हा तस्य भार्या पीमाही तस्य पुत्र मानूभस्य भार्या भागो तस्यसुत्रकीतनु । दुनीय सुत्र सोनू तस्य भार्या पोभी दुतीय भार्या सवीरी । जिणदास तृतीयपुत्र नगर राजुतस्य भार्या धनपाल ही पुत्र चत्वार प्रथमपुत्र जीवाहुतस्य भार्या भीपयो दुतीयपुत्र अमियपालु तृतीय पुत्र ग ? चतुर्थ दरगहमलु । जिणदास पुत्र चतुर्थ जगराजु तस्य भार्या धीमाही तस्य नृतीय वृद्धा । तस्य तस्य भार्या चादिणी दूतीय पुत्र तृतीयतो तु
तम्य
जिणदास पचमपुत्र सीहु तस्य भार्या लक्ष्मणही तस्य भार्या कपूरी । एतेषा मध्ये साबु सागूनि इद श्री सेनिक्सारा ज्ञानावरणी कर्म्मक्षयनिमित्तेन आत्मपठनार्थ कर्मक्षय निमित्तम् लिष्यापित ॥
...
१३७. श्रेणिकचरित्र
श्री जिनवदौ भावयुत, मनवचतन सुद्ध रीति । ऐसी है परताप प्रभु, कही उपजे भीत ॥ धर्मचंद्र भट्टारक नाम, ठो या गोत बड्यो अभिराम । मलयमेण सिंहासन सही, कारजय पट सोभा लही ||
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apa bhramsha & Hindi Manuscripts
( Purāna Carta, Kathā ) Colophon: इति श्री होनहार तीर्थङ्कर पुराणे भट्टारक श्री विजयकीति
विरचिते जबूस्वामी अरहदास श्रेष्ठि अजिका मुनिदीक्षाविधानवर्णन नाम द्वात्रिसोऽधिकार । मवत् १९२६ शाके १७६४ समय भाद्रपदे मासे कृष्णपक्षे एकादश्या गुरुवासरे इद पुस्तक लिखित रामसहाय शर्मण सा वावपाली प्र० आरे।
१३८. श्रेणिकचरित्र
Closing
Opening :
श्री सिद्धचक्र विधि केवल रिद्धि । गुण अनत फल जाको सिद्ध । प्रणमौ परम सिद्ध गुरु सोइ ।
भव्य सग ज्यो मगल होइ॥ जीवदया पाले दुखहर, अशुचि वोल कबहु न उच्चरै। आप आपने चित सब सुखी, कम जोग शक्ति नर दुखा ।।
तहा कया यह पूरण करै ॥ Colophon: इति श्रीपालचरित्रे महापुराणे भव्यसगमगलकरण वुधजनम
नरजन पातिगगजन सिद्धिचत्रविधि दुखहरण त्रिभुवनसुखकारण भव्यजलतारण सम्पूर्णम् । श्री निखित ब्राह्मण प० चन्द्रावड महागष्ट ज्ञानी ब्रह्मा हरिप्रसाद । सवत् १८६५ मिति चैत्र सुदी ७ रविवार । शुभ भूयात् ।
१३६. श्रेणिक चरित्र ( ६ अधिकार )
Opening :
Closing :
नत्वा श्रीमज्जिनाधीश सुराधीशाचिनत्रामम् । श्रीपालचरित वक्ष्ये मिद्धचत्राचंनोत्तमम् ।। जीयादा महेन्द्रदत्त सुयती मजानवन्निर्मल । सूरि श्रीयुतनागरादियतिना सेवापर मन्मति ॥ ख्याते मालवदेशस्ये पूर्णानगरे करें। श्रीमदादीजिनागारे सिद्ध शास्त्रमिद शुभम् ।। नवत् सादनम्न च पाति समुन। भासाटेप पचम्या उपूर्ण रविगन ॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Artah Colophon : इति श्रीसिद्धचक्रपूजातिशय प्राप्ते श्रीपालमहाराज चरिते
भट्टारक श्री मल्लिभूषण शिष्याचार्य श्री सिंहनदि ब्रह्म श्री शातिदासानुमोदिते ब्रह्मनेमिदत्त विरचिते श्रीपालमहामुनीन्द्रनिर्वाण गमनवर्णनो नाम नवमोधिकार सम्पूर्णम् । सवत् १८३७ श्री मूलसघे वलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे । कु दकुद आचायाम्नाये हारक श्री गुलालकीर्तजी तत् शिष्य हरिसागरजी तत् पुन लालजु पडित इद पुस्तक लिखित्वा परोपकाराय इद हिरदै नग्रमध्ये श्रावण शुक्ल पचम्या सपूर्णी जात । शुभ भूयात् । मोसमात गोवीदा कुवर जौजे बाबू महावीर सहायजी कीने दललाक्षणी के उद्यापन मे चढाया मीति भादो शुक्ल १५ सवत् १९४५ ।
द्रष्टव्य-जि र० को०, पृ० ३६७ ।
Catg. of Skt. & pkt. Ms. P 696.
१४०. श्रीपाल चरित्र Opening प्रथमहि लीज ऊँकार । जो भवदु ख विनाशन हार ॥
सिद्धि चक्रविध केवल रिद्ध । गुण अनत जाको फल सिद्ध ।। Closing
ता सुत कुल मडन परमध्य । वर्म आगरे मे अरि सघ ।।
ता सुत बुद्धि हीन नहि आन । तिन कियौ चौपई बध वखान।। Colophon नहीं है।
१४१. श्रीपाल चरित्र Opening . जय श्री धर्मनाथ सुखगेह, कंचन वरनविराजति देह ।
जय श्री सति पयासहु साति, दुखहरन मूरति सोभति ।। Closing
अरू जो नरनारी व्रतकरे, चहुँ गति को भ्रम सब हरे । भव्यनि को उपहास वताइ, निहिच सोउ मुकति हि जाद।।
॥२४००॥ इति श्रीपालचरित्रे महापुराण भव्यसगमगलकरने बुधजन मनरजने पातिगजने सिद्धचक्रविधिदुखहरने त्रिभुवनसुखकरने भवजलतरने चौपही वध परिमल्ल कृत श्री जिनवर वद्यौ महि आनदी मिद्धचक्र वसुसारलीय जुवती नवरग पुरजनमगम गहेसुर निजगेह
गय । एक दगमो सधि ॥११॥ Colophon लिखत जवाहरब्राह्मणगढ गोपात्र (ल) मध्ये मिति आपाढ
कृष्ण ११ दैत्यवारे शुम सवत् १८६१ ।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts (Pu, ana, Carita, Kathā )
१४२. श्री पुराण
Opening :
Closing
Colophon
Opening
Closing Colophon.
Opening
Cloning
Colophon
*
ग्रन्थ ।
देखे, क्र० १ ।
देखे, क्र० १ ।
इति श्री पुराणसमाम्नाये दशम पर्व ।
अपठनीय |
अपठनीय
द्रष्टव्य - जि० २० को ०, पृ० ३६८ ।
१४३. श्रुतपंचमी व्रत (भविष्यदत्त चरित्र )
विशुद्धसिद्धान्तमनतदर्शन, स्फुरच्चिदान दमहोदयोदितम् । विनिद्रचद्रोज्ज्वलकेवलप्रभ प्रणोमि चद्रप्रभतीर्थं नायकम् ॥
५७
इत्यय समाप्तो
१४४/१ सुदर्शनचरित्र ( ८ परिच्छेद )
नम श्रीवर्द्धमानाय धर्मतीर्थप्रवत्तिने । त्रिजगस्वामिनेनत शर्मणे विश्वबाधवे ॥
सर्वे पिंडीकृता श्लोका बुधैर्नवशतप्रमा । चरित्रस्यास्य विज्ञेया श्री सुदर्शनयोगिन ||
1
इति श्री भट्टारक सकलकीर्तिविरचिते श्री सुदर्शनचरित्रे सुदर्शनमहामुनिमुक्तिगमन वर्णनोनामाष्टम परिच्छेद समाप्तमिति । शुभ भवतु । देउलग्रामे नेमिसागरेण अय ग्रन्थ लिखित स्व पठनार्थम् । शके १७३७ तिथि फाल्गुन सुदी ३ ।
द्रष्टव्य - - ( १ ) दि० जि० प्र०र०, पृ० ३० ।
- (२) प्र० जै० सा०, पृ० २४६ ॥
(३) आ० सू०, पृ० १४६ |
(४) जि० २० को०, पृ० ४४४ ॥
(5) Catg. of Skt. & Pkt. M90, P. 711.
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-
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah
१४४ । २. सुदर्शन सेठ कथा
Opening :
Closing :
Colophon :
Opening:
Closing
Colophon :
Opening
Closing :
Colophon⚫
r
तदा सुदर्शन. स्वामी तस्मिन्धोरोपमर्ग के । ध्यानावासे स्थित तत्र मेरुवन्निश्चला सय ॥ किचिदून: परित्यक्त कायाकारोप्यकायक 1 त्रैलोक्य शिखरारूढः तनुवाते स्थिर स्थित ॥
नही है ।
१४५. सुगंधदशमी कथा
श्री जिनसारद मनमे धरू । सुहगुरु नै नित वदन करु ॥ साधत पद वदो सदा । कथा कहु दशमीनी मुदा ॥ ए व्रत जे नर नारी करें, ते भौसागर ते ओतरै । छदै पाप सकल सुख भरें, ब्रह्मज्ञानसार उच्चरे ॥
इति सुगधदशमी कथा सम्पूर्णम् ।
{
१४६. सुकोशल चरित्र
जिवरमुणिविंद हो थुवसयइदहु चरणजुवलु पणवेवित हो || कलिमलदुहनासण सुहणयसासणु चरिउ भसामि पुक्कोशल हो || यद्दिवरा ।
एहुधरा ॥
जा महिरयणायरु हिससिभायरू कुलगिरिवरकण तावाइ जत वुहहि णिन्तउ चरिउ पवट्ठउ
इय सुकौसल चरिए छउमधी सम्मत्तो ॥ ६ ॥
यह प्रति सु० देहली खजूर की मसजिद वाले नये पचायती मंदिर मे से सवत् १६३३ विक्रम की लिखी हुई प्रति से लिखी जो कि बाबू देवकुमार जी द्वारा स्थापित श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा के लिए सग्रहार्थं विक्रम् सवत् १६८७ के मार्गशीर्ष कृष्ण १४ को लिखकर तैयार हुई । इति शुभम् ।
द्रष्टव्य- जि० २० को ०, पृ ४४४ ।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Purana, Canta, Katha )
१४७ उत्तर पुराण
Opening .
Closing
Colophon.
श्रीमाजितोजितो जीयाद् यद्वचास्यमलानलम् । क्षालयति जलानीव विनेयाना मनोमलम् । अनुष्टुप छन्दसा ज्ञया ग्रथसख्यात्रविशति । सहस्राणा पुराणस्य व्याख्यातृश्रोतृलेखकः ॥ इत्याचे त्रिपष्टिलक्षणमहापुराणसग्रहे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते श्रीवर्द्ध मानपुराण परिसमाप्तम् . ? समाप्त च महापुराण प्रथाग्रथसहस्त्र २००००। श्रेय' श्रेणय. • ... . । सवत् अष्टादशशत १८०० पचदशसवत्सरे मार्गशीर्षमासे दशम्या तिथी
कृष्णाया शनिवासरे। द्रष्टव्य-(१) दि. जि. न० २०, पृ० ३२ ।
(२) प्र० जै० सा०, पृ० १०७ । (३) रा० सू० ॥, पृ० २१२। (४) आ० सू०, पृ० १५। (५) जि० र० को०, पृ० ४२ । (६) Catg. of Skt. & pkt. Ms., P. 627 (७) Catg of Skt Ms., P 314।
१४८ उत्तर पुराण
r
Opening
जिनि भूपति मे षट गुन होय ।
ते निह कटक राजकरेय, आगे और सुनो चितदेय ।। Closing i
इह पुराण जिन पास को सपूरण सुखदाय ।
पढे सुने जे भव्य जन ते खुस्याल सुखाय ।। Colophon • इत्यार्षे त्रिषष्ठि लक्षण महापुराणसग्रहे भगवद्गुणभद्राचार्य
प्रणीतानुसारेण श्री उत्तरपुराणस्य भाषाया श्री पार्वतीर्थङ्करपुराण परिसमाप्तम् । ।
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६०
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Lrbrary, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
१४६. वर्धमानचरित्र (१९ अधिकार)
Opening :
जिनेशे विश्वनाथाय घनतगुगसिंधवे ।
धर्मचक्रभृतेमूद्ध र्ना श्री वीरस्वामिने नम ॥ Closing : त्रिसहस्त्राधिका पच विशदश्लोका भवति ।
यत्नेन गुणिता सर्वे चरित्रस्यास्य सन्मते ।। Colophon : इति भट्टारक श्रीसकलकीतिविरचिते श्री वीरवद्ध मान
चरित्रे श्रेणिकाभयकुमारो भवावली भगवनिर्वाणगमनवर्णनो नामकोनविंशोधिकार । ग्रथ सख्या ३०३५ । सवत् १८८६ का मिति माघकृष्णत्रयोदश्या गुरुवासरे श्री काष्ठासघे माथुरान्वये पुष्करगणेलोहाचार्याम्नाये भट्टारकश्री सहस्त्रकीति देवा तत्पट्ट भट्टारक श्री महीचददेवा. तत्पट्ट भट्टारक श्रीदेवेन्द्रकीतिदेवा तत्पट्ट भट्टारक श्री जगत्कीर्तिदेवा तल्प? भट्टारक श्रीललितकीर्ति वर्तमाने तेनेद पुस्तक लिखापित विराटनगर मध्ये कु थुनायचैत्यालयमध्ये इद पुस्तक लिपिकृतम् ।
तैलाद्रक्षेजलाद्रक्षेद्रक्षेसिथलबधनात् । मूर्खहस्ते न दात्तव्य एव वदति पुस्तकम् ॥ जवलगमेरु अमिग्ग है तवलग ससिअरु सूर । तब लग यह पुस्तक रहो दुर्नय हस्तकर दूर ।। द्रष्टव्य-जि० र० को०, पृ० ३४३ ।
Catg. of Skt & Fkt. Me., P 689
१५०. वर्तमान पुराण
Opening ! श्री जिनवर्द्धमान इह नाम, साथ विराजतु है गुणधाम ।
घातिकर्म क्षय ते वृद्धि जोय, ज्ञानी तणी मम दीजै सोय । Closing:
महावीर पुराण के, श्लोक अनुष्टुप् जान ।
दोय सहस्त्र नवशतक है सख्या लयो शुभ जान ।। Colophon: इत्या त्रिपण्ठि लक्षणमहापुराणेमग्रहे भगवद्गुणभद्राचार्य
प्रणीतानुसारेण श्री उत्तरपुराणस्य भाषाया श्री वर्तमानपुराण परिस
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६१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Purāna Carita, Katha )
माप्तम् । सवत् १८८४ शाके १७४६ ज्येष्ठ शुक्ल पचम्या गुरुवासरे पुस्तकमिद रघुनाथ शर्मा ने लिखि। शुभ भूयात् ।
१५१. विष्णुकुमार कथा
Opening .
प्रथमहिं प्रथम जिनेन्द्र चरण चित ल्याईयै । प्रथम महाव्रतधरन सु ताहि मनाईयै ॥ प्रयम महामुनि भेष सुधरण धुरधरौ ।
प्रथम धरम परकाशन प्रथम तीर्थंकरौ । Closing :
मुनि उपसर्ग निवारणी, कथा सुने जो कोइ ।
करुणा उपजे चित्तमे, दिन दिन मगल होय ॥ Colophon
इति श्री विष्णकुमार का वात्सल्यमुनि उपसर्ग निवारणी कथा लाल विनोदी कृत स्वय पठनार्थ सूकरे लिखितम् सम्पूर्णम् । शुभ भवतु । सवत् १९४६ चैतशुक्ल पक्ष चौथ शनिवासरे। लिखत वुणू बाबू की मांजी कलकत्ता मध्ये ।
इतनी मेरी अरज है, सुनो त्रिभुवन के ईश । तुम विन काऊ और कू , नये न मेरो शीश ।।
१५२. व्रतकथाकोश
Opening .
ज्येषट जिन प्रणम्यादावकलक कलध्वनि ।
श्री विद्यानदिन ज्येष्टजिनव्रतमयोच्यते ।। Coleing : स्त्री चैषागवशेन मात्रसदृडा नियंढचास्वता ॥
दीर्यायुर्वलभद्रदेवहृदया भूयात्पद सपद ॥२४६।। Colophon . ___ इति भट्टारक श्री मल्लिभूषण भट्टारक गुरुपदेशात्शूरो श्री
श्रुतिसागर विरचितापल्लविधानव्रतोपाख्यान कथा समाप्ता । फागुण कृष्णपक्ष समत् १९३७ ॥ ब्राह्मण गगा बकस पुष्करण्य पाराशूर ॥ बनेडामध्ये ॥
सवत् १७१९ का भादवमासे कृष्णपक्षे प्रतिपत्तिथी वुधवासरे अस्य व्रतकथा कोशशास्त्रस्य टीका लिखिता ॥
द्रष्टव्य-जि० र० को०, पृ० ३६८ ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
१५३. यशोधरचरित्र Opening. जितारातीन्जिनान्नत्वा सिद्धान्सिद्धार्यसपद ।
सूरीनाचारसपन्नानुपाध्यायान् तथा यतीन् ॥१॥ Closing : सम्यक् सिद्धगिरौ । सच्छिया ॥ Colophon. इति यशोधरचरिते मुनिवासवसेनकृतेकाद्य अभयरूचि भट्टारक
अभयमत्यो सूर्यनगमनो चद्रमारी धर्मलाभो यशोमत्यादयोन्ये यथायथ नाक निवासिनोम् अष्तम सर्ग समाप्त । इति वासवसेन विरचिते यशोधरचरित्र समाप्तम् । सवत् १७३२ वर्ष सोमे काष्ठासाँघे भट्टारक श्री प० विश्वसेन ब्रह्मजयसागर । आत्मपठनार्थम् । द्रष्टव्य-(१) , दि० जि० अ० २०, पृ० ३६ । ।
(२) रा० सू० III, पृ०७५, २१७ । (३) जै० म०प्र० स०१, पृ०७'।
(४) जि० र० को० पृ. ३२० ।
१५४. यशोधरचरित्र Opening : देखे, क्र. १५३ । Closing :
कृति सवसेनस्य वागडाच्क्षयजन्मन ।
इमा यशोधराभिख्या ससोध्य धीयता बुधाः ।। Colophon: इति यशोधरचरिते अभयरुचि भट्टारकस्य स्वर्गगमनो
वर्णनो नामाष्टम. सर्ग।
सवत् १५०१ वर्षे माघसुदि ३ गुरो अद्य इहर्यपुरे श्री आदिनाथ चैत्यालये श्रीमत्काष्ठासधे नदितटगच्छे विद्याधरगणे भट्टारक श्री रामसेनान्वये' " सुप्राविकाहरपू पुत्र जाईआ सारगधर्मप्रभावना निमित्त श्री यशोधरचरित्रस्य पुस्तक लिखाय्य श्री जिनशासनम् ।
१५५. यशोधरचरित्र (४ सर्ग) Opening : श्रीमदारब्धदेवेन्द्रमयू गनदवर्तनम् ।
सुव्रतामोधर वन्दे ग नीरनयगजितम् ।। - Closing :
मुनिभद्रयश कात मुनिवृदै सुशविता ।
भद्र करोतु मे नित्य भयदोषाधिवजिता ॥७६॥ यह प्रथ वीर स०२४४० मे लिखा गया है।
देखे,जि० २० को०, पृ. ३३९ ।
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६३
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acāra)
धर्म, दर्शन, आचार
१५६. अध्यात्मकल्पद्रुम
Opening
नम प्रवचनाय । अथाय श्रीमान् शातनामरसाधिराज सकलागमादिसुशास्त्रास्मरिवायनिषद्भूतसुधारसाधमाऐहिकामुप्मिकामनतानदोहसाधनतया पारमार्थिकोपादश्यतयमवरससारभूत ज्ञाताशातरसभावनात्माऽध्यात्मकल्पद्रुमाभिधान ग्रथातरग्रथननिपुणेन पद्य सदर्षेण
भाव्यते । Closing : इममितिमानधीत्यवित्तेरम यतियो विरमत्यय भवादाग ।
सच नियत मनोरमेतवास्मिन् सह नव वैरिजयश्रियाशिव श्री। Colophone इति नवमश्रीशातरसभावनास्वयो अध्यात्मकल्पद्रुमग्रथोऽय
जयअके। श्री मुनिसु दरभूरिभि कृतम् । विशेष-यह अथ करीब वि० म० १८०० से भी कम का ज्ञात होता है।
__ देखे, जि. र० को०, पृ० ५।
१५७. अध्यात्म बारखडी
Opening :
खोर तिलक विदी, अग बाप उरमाल । यामै तो प्रभु ना मिले, पेट भराई चाल ।।
Closing :
ग्यान हीन जानो नही, मनमे उठी नरग । धरम ध्यान के कारन, चेतन रचे सुचग ॥
Colophon :
इति अध्यात्म बारखडी समाप्त ।
१५८. अन्यमतसार
Opening :
आदिनाथ भगवान की वदना करि ससारके हितके निमित्त जैनमतधर्मकी प्रसशाकरि मुख्यदया धर्म की धारना करना श्रेष्ठ है
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श्री जन निद्वान्न भवन सन्यावली $1,- D-11.mar Jan, Oriental Library, Jen Sedelhant Bharth, Arrial
Closing
Colophon .
पास्त्र यह अब पूरन भयो। भव्यन के मन मानय व्यो। धावक पहें मनलाय । छहमत भेद तुरत सोपार । इति श्री अन्यमतमार सग्रह ग्रश भापा गपूर्ण ।
एक महम्य मम छ सो जान । ग्रय सो मल्या मरी बगान ।। पडित वैनीचद सुजान ।
जनधर्म में किपर जान ।। मपूर्ण । मिनि माप यदी १८ सवत् १९३६ ।
१५.९. अर्थप्रकाशिका टीका
Opening :
यो श्रीपमादि लिन धगंतीयं ग्नार ।।
नम नागपद र मग मियभाग्ग गरिधार ।। Closing : गर्न मागम्य भाव में, तजि परभाग विमान ।
नमो जान के परमपर . .. "" Colophon : अपन ।
for TET पाय पोटी है। मंग अनुपराध।
१६०. आटपावनिका
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६५
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara) Closing : देखें, क्र० १६० । Colophont देखे, ऋ० १६० ।
लिखत वैश्य गगाराम साकिन मुरादाबाद मुहल्ला किसरौल सवत् १९४६ चैतवदी अमावस दिन इतवार ( रविवार )।
१६२. आचारसार
Opening :
लक्ष्मीवीर जिनेश्वर पदनतानतामराधीश्वर ।
पद्मासमपदावुज परमविल्लीलाप्ततत्ववज ॥ Closing : विमेघचद्रोज्वलकीतिमूर्तिस्समस्तसैद्धातिकचक्रवति ।
श्रीवीरनदीकृतवानुदारमाचारसार यतिवृत्तसार ॥ ग्रथ प्रमाणमाचारसारस्य श्लोकसमित
भवेत्सहस्वद्विशत पचाशच्छांकतस्तथा ॥३५॥ Colophon. इतिश्रीमन्मेषचन्द्रत्रविद्यदेव श्रीपादप्रसादऽसाधितात्मप्रभाव
समस्त विद्याप्रभाव सकलदिग्वति कीर्ति श्री मद्वीरनदी सैद्धातिक चक्रवर्ति कृताचारसारे शीलगुणवर्णन नाम द्वादशाधिकार समाप्त ॥१२॥ श्री पचगुरुभ्योनम ॥
शके १८३२ साधारण नाम स वत्सरस्य फाल्गुन मासे कृष्णपक्षे ११ रविवासरे समाप्तोय ग्रथ । रामकृष्ण शास्त्रिणा पुत्र रगनाथ शास्त्रिणा लिखितोय ग्रन्थ शुभ भवतु ।
देखें, जि० र० को०, पृ० २२ ।
१६३. आलापपद्धति
Opening: गुणानां विस्तर वक्ष्ये स्वभाना तथैव च ।
पर्यायाणा विशेषेण नत्वा वीर जिनेश्वरम् ॥ Closing i
• " सश्लेषसहितवस्तुसवन्धविषयोनुपचारिता सद्भ
सव्यवहार. यथाजीवस्य शरीरमिति । Colophon: इति श्री सुखबोधार्थमालापपद्धतिश्रीदेवसेन पडित विरचितर
समाप्तम् ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Devi'cunar Jan, Oriental L brary. Jain Siddhin' Bhavin, Arrah
Sh
(१) जि० र० को०, पृ० ३४ । . (३) प्र. जै० सा०, पृ० १०६ । (४) आ० सू० पृ०, १३ । (५) रा० सू० II, पृ० ८०, १९४ । (६) रा० सू० JII, पृ० १६६ । (६) दि० जि० र०, पृ० ३८ । (7) Catg. of skt. & Pkt Ms., page, 626
१६४. आ नापपद्धति
Opening :
देखे, क्र० १६३ । Closing :
देखे, ऋ० १६३ । Colophon : इति सुखबोधार्यमालापपद्धति श्रीदेवसेनपडित विरचिता
समाप्ता। लिखत पूर्वदेश आरा नगर श्री पार्श्वनाथजिनमदिर मध्ये काष्ठासघे मायुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्याग्नाये श्री १०८ भट्टारकोत्तमे भट्टारकजी श्री ललितकीर्ति तत्पट्ट मार्दवापरनामी श्री १०८ राजेन्द्रकीर्ति तत्शिष्य भट्टारक मुनीद्रकीति दिल्ली सिंहासनाधीश्वर ने लिखी सवत् १९४६ का मिती भादव वदी ६ वार रवि कू पूरा किया।
१६५. आराधनासार
Opening :
Closing :
Colophon :
विमलवरगुणसमिद्ध सुरसेण वंदिय सिरसा। णमिऊण महावीर वोच्छ आराहणासार ॥१॥ अमुणियतच्चेण इम भणिय ज किंपि देवसेणेण । सोहतु त मुणिदा अथि हूजइ पवयणविरुद्ध ।।११।। एव आराधनासार समाप्तम् । द्रष्टव्य-जि र को, पृ ३३ ।
___Catg. of Skt. & pkt. M. P.626 १६६. आराधनासार
Opening |
प्रथम नमू महन्त कू, नमू मिद्ध शिरनाय । आचारज उवझाय नमि, नमू साधु के पाय ॥
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૬૭ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsna, Ācārt )
Closing !
केई अन्धनिकी वणी वनिका भापामई देश की।
पनालाल जु चौधरी विरचिजो कारक दुलीचदजी ॥ इति व नका वनने का सम्बन्ध सपूर्ण ।
Colophon:
१६७. आराधनासार
Opening:
सम्यग्दर्शनबोधन चरिनस्पान् प्रणम्य पचगुरून् ।
आराधनासमुच्चयमागमतार प्रवक्ष्याम ॥ Closing :
रामस्थतया यस्मिन्नतिबद्ध किंचिदागमविरुद्धम् । गोध्य तद्रीमद्धीमद्धिविशुद्धनुध्या विचार्यपदम् ॥ श्री रविचन्द्रमुनी. पनसोगे ग्रामवामिभि अन्य ।
रचितोऽयमखिलशास्त्रप्रवीणविद्वन्मनोहारी ॥ Colophon:
इत्याराधनामार । यह ग्रन्य जैन ज्ञानपीठ मूडविद्री के वर्तमान एव जैनसिद्वान्त भवन आग के भूतपूर्व अध्यक्ष विद्याभूषण प के भुजवली शास्त्री के तत्वावधान में उक्त भवन के लिए जंन मठ मूडयित्री के ग्रन्थागार से एन चन्द्रराजेन्द्र विशारद-द्वारा लिखवाया गया । नवयर १९४४ ई ।
द्रप्टव्य-जि र को, ३३ ।
१६८. आपाढभूति चौपाई
Opening , सकल ऋद्धि ममृद्धि करि, त्रिभुवन तिलक समान ।
प्रणमु पासजिणेसरू, निरूपम ज्ञान निधान ।। Closing .
निस होज्यो प म कल्याण रे । Colophon इति श्री पिंड विशुद्धि विषये आमाढभूति चौपाई सपूर्णम् ।
सवन् १७६७ वर्षे मिती ज्येष्ठ सुदी ४ शुक्रदारे श्रावकासदा कुवर लिखायत । श्री आगस नगरे ।
१६६. आत्मबोध नाममाल Opening
सिद्धसरन चितधारके, प्रणमू शारद पाय । मुझ ऊपर कीजै कृपा, मेधा दीजे माय ।।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing !
इक अष्ट चार अरि सात धरिये, माघसुदी दशमी रखी। इह साख विक्रम राज के हैं, चित्तधार लीजे कवी । इह नाममाला अतिविशाला कठ धारे जे नरा। बहु बुद्धि उपजे हियै माही, ग्यान जगमे है खरा ॥
॥२७६॥ इति श्री आत्मबोध नाममाला भाषा सम्पूर्णम् ।
Colophon .
१७२. आत्मतत्त्वपरीक्षण
Opening
समन्तभद्रमहिमा समतव्याप्तसविदा ।
कुरुते देवराजार्य आत्मतत्त्वपरीक्षणम् ॥ Closing :
प्राणात्मवादोप्य प्रामाणिक प्राणस्यानित्यतया देहात्मवादोक्तदोषप्रसङ्गात् । Colophon! इति श्रीमदर्हत्तरमेश्वरचारूचरणारविंदद्व द्वमधुकगयमान
आत्मीयस्वातेन सद्य क्तियुयुक्ततमवचननिचयवाचस्पतिना अतिसूक्ष्मम तिना परमयोगीयोग्यसमुपेक्षितभाग्धेयेन सुकृतिकृतिविततिभागधेयेन सज्जनविधेयेन समुचितपवित्रचरित्रानुसधेयेन जैनराजस्य जननजलनिधिराजायमानसिततटाकनिलयदेवराजराजाभिधेयेन रणविवरणवितरणप्रवीणेन अगण्यपुण्यवरेण्येन प्रणि ।
Opening:
१७१. आत्मानुसार शिक्षावचस्सहस्त्रव क्षीणपुण्येन धर्मधीः । पात्रे तु स्फायते तस्मादात्मैव गुरुरात्मन ॥ तद्विचारिसहस्त्रेभ्यो वरमेकस्तत्ववित्तम ।
तत्वज्ञानसम पात्र नाभून्न च भविष्यति ।। नही है।
Closing
Colophon
१७२. आत्मानुशासन
Opening .
लक्ष्मी निवासनिलय, विलीननिलय निधाय हृदिवीर । आत्मानुशासन शास्त्र, वक्ष्ये मोक्षाय भव्यानाम् ॥
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara)
Closing : श्री नाभियोजिनोभूयाद्, भूयमे श्रेयसेषव ।
जगद्ज्ञानजलेयस्य दधाति कमलाकृतिम् ॥ Colophon इति श्री आत्मानुशासन समाप्तम् ।
जैनधर्म की पाल, तुम करयो महाराज।
दर्शन तुम्हारे करत ही, पाप जात है भाज ॥
मिति ज्येष्ठ वदी ११ शुक्रवार सवत् १९४० । लिखत ब्रह्मदत्त पडित आत्म पठनार्थम् । द्रष्टव्य-(१) दि० जि० प्र० र०, पृ० ३६ ।
(२) जि० र० को०, पृ० २७ । (३) प्र. जैन० सा०, पृ० १००-१०१। (४) आ० सू०, पृ० १०। (५) रा. सू० II, पृ० १०, १७६, ३८४ । (६) रा. सू. III, पृ० ३६, १९१ । (7) Catg. of Skt & Pkt. Ms., P 623
Opening ! Closing :
१७३. आत्मानुशासन देखे, ऋ० १७२ ।
इति कतिपयवाचांगगोचरीकृत्यकृत्य, चितमुदितमुच्चश्चेतसा चित्तरम्य । इदम् विकलमतः सतत चिन्तयन्तः, सपदि विपद पेतामाश्रयते श्रियते ॥ २६७ ॥ जिनसेनाचार्य पादस्मरणादीनचेतसा ।
गुणभद्रभदताना कृतिरात्मानुशासनम् ।। २६८ ।। इति श्रीमद्गुणभद्रस्वामी विरचितमव्मानुशासन समाप्तम् ।।
Colophon:
१७४. आत्मानुशासन
Opening :
श्रीजिनशासनगुरु नमी नानाविधि सुखकार । आतमहित उपदेशत, कर मगलाचार ॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jazz Oriental Library, Jain S.ddhant Bhavan, Arrab
Closing : 'अथवा जिनसेनाचार्य का शिष्य जो गुणभद्र ताका
भाष्या है। ए दोऊ अर्थ प्रमाण है। Colophon : इति श्री आस्मानुशासनमूलभापाग्रथ सपूर्णम् । सवत् १८५८
मिती मार्गशिर वदी १४ ।
१७५. आवश्यक विधि मूत्र Opening : नमो अरहताण, नमो सिद्धाण, नमो आयरियाण,
नमो उवज्झायाण, नमो लोए सव्वसाहूण ॥ Closing १ सवित्त, २ दव, ३. विगई, ४. वाहणह, ५.
वक्ष, ६ कुसुमेसु, ७ वाहण, ८. सयण, ९ विलेपण, १० अवत, ११ दिसि, १२. न्हाण, १३ भात्तसु, १४.
नीम। Colophon : इति आवश्यक विधिसूत्र। सवत् १६४२ वर्षे कातग
(कार्तिक) मासे शुक्लपक्षे पचमी तिथी रविवारे लिखित कूषसतगुणेन । शुभ भवतु ।
Opening Closing'
१७६. बनारसीविलास
ताल अरथविचार ।। "ध्यानधरै विनती करें। वनारससि वदाति · ॥ अनुपलब्ध।
Colopnon:
१७७. भगवती आराधना Opening : सिद्ध जयपसिद्ध चउन्विाराहणा फल पतं ।
वदित्ता अरिहते वुन्छ आराहणा कमसो ।। Closing : हरो जगत के दुख' सकल करो सदा सुखकद ।
लसो लोक, में भगवती आराधना अमद । Colophone इति श्री शिवाचार्य विरचित भगवती आराधनानाम ग्रथ
की देशभापामय वचनिका समाप्त.। मिती माघ सुदी १२ सवत् १९६१ । श्री जिनाय नमः।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramiha & Hindi Manuscripts (Dharma, Darsana, ācāra )
१७. वाईन परीपत्
Opening:
Claring.
Colophon
Opening:
Closing
Colophon.
Opening
Closing •
Colophon :
पच परमपर प्रनमिके, प्रनमो जिनवर वानि । परीवह माधु, विशति दोय वखानि ॥
हम अपने नए कवित्त ए नार । मुनि के गुन ने सन्दहे, ते पावहि भवपार ॥ इति श्री चा परीसह नम्पूर्णम् ।
१७६. भव्यकण्ठाभरण पञ्जिका
७१
श्रीमान् जिनो मे श्रियमेादिश्याद्यदीयरत्नोज्ज्वलपादपीठम् । करेन्द्ररमनिरत्न स्वपक्षरागादिव चालित स्वं ॥ १ ॥ आनादिरूपमितिरम्यतेषु रागमितरेषु च मध्यभावम् । ते तन्त्र बुधजन नियमेन ते अगत्यमेत्य मतत सुखिनो भवन्ति || इत्यर्हद्दासस्त ठागरणम्य पञ्जिका समाप्तम् ।
अय व भटविनिपातिना रानु० नेमिराजाख्येन समालिस्व आपाढ शुक्ला या नमाप्नोऽभवत् ॥ वीरशक २४५१ ॥ देखे, जि० २० को०, पृ० २६३ |
१८०. भव्यानन्दशास्त्र
श्रिन क्रियायस्य महाभिषेके निरस्तगाम्भीर्य्यगुण पयोधि । स्वीकयरत्नप्रकरं प्रदीपणोभा विधत्ते स जिनश्चिर व ॥१॥
नम श्री शांतिनाथाय कर्मारण्यदवाग्नये । धर्मारामत्रमन्ताय वोधाम्भोधिसुधाशवे ॥
1
इति श्रीमन्पाण्डेयभूतिविरचिते भव्यानन्द समाप्त | अयमपि रानू ० नेमिराजाख्येन लिखित । आषाढ शु० नवम्या समाप्तोभूत् ॥
श्री वीरनिर्वाण शक २४५१ ॥ मूडविद्री ॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Opening :
Closing :
Clophon:
Opening
१८१. भावसंग्रह खविदघणघायिकम्मे अरहन्ते सुविधिदन्थणिवहेय । सिधाण्ठ गुणेसिद्धरय शान्तय साहगेथुवे साहू ॥१॥ वरसारन्तयणीउणोसुन्दं परदो विरहिय परभावो । भवियाण पडिवोहण परोपहा चन्दणाम मुणी ॥ १२३ ।। इति श्रुतमुनिविरचितः भाव सग्रह समाप्त. ॥ देखे-Catg of skt. & pkt. Ms., P.678.
१८२. भावसंग्रह श्रीमद्वीर जिनाधीश, मुक्तीश त्रिदशाच्चिम् । नत्वा भव्य प्रवोधाय, वक्ष्येऽह भावसग्रहम् ।। यावद्वीपाद्वयो मेरु द्यविचदिवाकरौ। ताववृद्धि प्रयात्युच्चिविंशद जिनशासन ।।
अयोगगुणस्थान चतुर्दशम् । इति श्री वामदेव पडित देखे, (१) दि जि प्र. र, पृ ४२ ।
(२) जि र. को., पृ. २६६ । (३) प्र जै सा, पृ १६५ । (४) आ. सू., पृ. १०८। (५) रा सू II, पृ. १६४ । (६), रा सू I , पृ. १८३ । (7) Catg. of skt. & pkt. Ms , P. 678
Closing :
Colophon .
१८३. भावनासार संग्रह
___ॐ नमो वीतरागाय । Opening . अरिहनव रजो हतनररहस्य हर पूजनायमह · । Closing:
तत्वार्थरर्धान्त महापुराणेष्वाचारशास्त्रेषु च विस्तरोक्तम् ।
आख्यान् समासात्अनुयोगवेदी चाग्निसार रणरगसिंह ॥ Colophon · इति सकलागम सयम सपन्न श्रीमज्जिनसेन भट्टारक श्री पादपद्म प्रसादासादित • " शिष्य श्री ब्रह्मसारु तदाम्नाये।
देखें,--Catg. of Skt. & Pkt Ms. P 640.
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratisha & Hindi Manuscripts (Dharma, Darśana, ācāra )
Opening!
Closing
Colophon
Opening
Closing
Colopbon :
१८४. ब्रह्मचर्याष्टक
कायोत्सर्गायतागो जयतिजिनपतिर्नाभिसुनु महात्मा । मध्यान्तेयस्य भास्वानुपरिपरिगते राजतेस्मोग्रमूर्ति ॥ चक्र कर्मेन्धनानामतिबहुदहतो दूरमैदास्य
Opening!
•
त्यादिना ॥
मया पद्यनन्दिमुनिना मुमुक्षुजन प्रति युवती स्त्रीसगति वर्जिन अष्टक भणित कथितम्, सुरतरागसमुद्रगता प्राप्ताजना लोका अजमयि मुनी मुनीश्वरे क्रुद्ध क्रोध. माकुरुत माकुर्वंतु मयि पद्मनंदिनी |
इति श्री ब्रह्मचार्याष्टकम् समाप्तम् । शुभ सवत् १९३७ भादव सुदी ५ गुरुवार लिखितम् सुगनचंद पाल्मग्राममध्ये | शुभ भवतु | देखे - जि० र० को०, पृ० २५६ ।
१८५ ब्रह्म विलास
ओकार गुण अतिअगम, पचपरमेष्ठि निवास । प्रथम तासु वदन कियौ लहियह ब्रह्मविलास ॥
विशेष- इसके अन्तिम पद्यं ही प्रशस्ति सूचक हैं ।
७३
जामे निज आतम की कथा, ब्रह्मविलास नाम है जथा । बुद्धिवत हसियो मतकोय, अल्पमति भाषाकवि होय ॥ भूलचूक निजनेन निहारि, शुद्ध कीजियो अर्थविचारी । सवत् सत्रह से पचावन
॥
नही है ।
१८६ ब्रह्म विलास
प्रथम प्रणमि अरिहत बहुरि श्री सिद्ध नमीज्जं । आचारिज उपझाय तासु पदवदन किज्जै ॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing :
Colophon .
जह देखो तहाँ ब्रह्म है, विना ब्रह्म नही और ।
जे यह पाये विनसुख कहै, ते मूरप शिरमौर ।। इति श्री ब्रह्मविलास भैया भगवतीदास जी कृत समाप्तम् । तनुज श्री वीरनलाल के, लेखक दुर्गालाल । जैनी आरामो वसे, कासिल गोत्र अग्रवाल । श्री शुभ सम्वत् १९५४ मिती भादो शुक्ल १४ बृहस्पतिवार समाप्त भया ।
१८७ बह्याब्रह्मनिरूपण
Opening :
Closing :
___ असी माउसा पच पद, वदी शीश नवाय । कहु ब्रह्मा अरु ब्रह्म की, कहु कथा गुनगाय ।।
____सोई तो कुपथ भेद जाने नाही । __ जीवन की, विना पथ पाय मूढ कैसे मुन्दा हरसे ।। पूरनम् ।
Colophon
१८८. बुद्धिप्रकाश
Opening !
मनदुखहरकर सिद्धसुरा, नरासकल सुखदाय ।
हराकर्मभट अष्टक अरि, ते सिध सदा सहाय ।। Closing - पढो सुनो सीखो सकल, वुधप्रकाश कहत ।
ताफल सिव अधनासिक, टेक लहो सिव सत ॥ Colophon! इति श्री बुधिप्रकाशनाम ग्रथ सपूर्णम् । इसनथ का
प्रारभ तो नगर इदोर विष भया। बहुरि तापीछे स पूरण भाडलनग्न जोमलसाता विष भया। याके पढ सुनै तै ब्रहि होय तात हे भव्य हो जैसे तैसे इसका अभ्यास करने योग्य है।
मिति कार्तिक वदी एकम चद्रवार स वत् १९७८ तादिन यह शास्त्र ममाप्त भया। हस्ताक्षर प० श्री दुवै रुपनारायण के ।
Opening:
-
१८९. बुद्धि विलास समदविजय सुत जिनसु नमत अघहरत सकलजग, कुवर पदहितप षडगलियवकर हनिये करम ठग ।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhrainskın & Hind: Manuscripts
(Dharna, Darsna,Aciral
भरमतिमर गव नगतु उदय हुब तिभुवन दिनकर, गपि पि भवधि तरन लहत गति परममुक्तिवर । ततु परनकमान मविजन भ्रमर सणि अनुभवरन चगत, वहाह नजरि मुझपर मुभिम फन फलहि मकहि
यग्रत ॥१॥ Closing
नगिन नश्यनी यारगुण, सुभमहरत के मद्धि ।
प्रय अनुप रच्यो पङ, है ताको मनिद्धि ॥ Colophon : इति श्री बुद्धिपिलान नामश्च सम्पूर्णम् । मिती मादी यदी हमवत् १९८२ में प्रप पूर्णभयो।
बेनी प्रत देगी हती, तसी लई उतार। अधिर पट पर हो जो, वृधजन लीयो समार ।।
१६०. चन्द्रगतक
Opening :
अनमो अन्यान में निवाम शुद्ध चेतन को, अनुमो गा मुद्धबोध बोध को प्रकाश है। अनभी अनूप उपरहत अनत ग्यान ,
अनु । जनीन त्याग ग्यान मुखगरा है ।। मपतगंपगुनथान में छूटे एक गत देयकी। यो कयो मरय गुग्णय में, मति वचन जिनसेवकी ।। इति श्री चरगतक ममाप्तम् ।
Closing :
Colophon .
• १६१. चरचा नामावली
Opening:
प्रैलोक्य सकल त्रिकानविषय सालोकमालोकितम्, । । माक्षाधेनयथास्वय करतले रेखात्रय सागुलि ।
रागद्यप भयामयातक् जरा लोलत्वलोभादयो, नाल यत्पदलघनाय समह दिवो मया वद्यते ॥
मैसें जानि करि सदाकाल वीतराग देवको स्मरण करवी जोग्य छ।
Closing I
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Artah
Colophon:
इति चरचा नामावली सपूर्णम् । शुभ भवतु मगलम् । मिती भादौ वदी ८ सवत् १९४२ मुक्काम चन्द्रापुरीमध्ये लिख्यत प० श्री चोवे मथुरापरसाद ।
१६२. चर्चा शतक वचनिका
Opening : जै सरवज्ञ अलोकलोक इक उकवतदेखै ।
हस्तामल जोलीक हाथ जो सर्व विशेखै ॥ Closing : तात पदार्थ हम सरदहा भली प्रकार जानना। इति
कहिये इस प्रकार चरचा कहिये सिद्धान्त की रदवदल सतक कहै सोकवित्त सपूर्णम् । करता द्यानतराय टीका का करता हरजीमल
शुद्धजनी पाणीयधिया । १०४ । Colophon: इति चरचाशतक टीका सपूर्ण । शुभमिती असाढ कृष्णा
४ सवत् १९१४ गुरुवार लिख्यत नदराम अग्रवाल। श्लोक सख्या २०४० ।
१६३. चर्चा शतक वचनिका
Opening , Closing :
देखे, ऋ० १६२ ।
जगमहादेव है रूद्रपद कृष्ण नामहर जानिये। ।
द्यानतकुलकर मैनाभनृप भीम बली भुव मानिये ॥ अनुपलब्ध।
Colophoni
१९४. चर्चा शतक वनिका
Opening i Closing :
देखे-क्र० १९२।
चरचा सुख सौं भने सुनै नहि प्राणी कानन, केई सुनि घरि जाय नाहि भषि फिरि आनन । तिनको लखि उपगारसार यह, शतक वनाई, पढत सुनत ह बुद्धि शुद्ध जिनवाणी गाई । इसमे अनेक सिद्धान्त का मथन कथन द्यानत कहा,
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७७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsna, Acara)
मव माहि जीव को नाम है जीवभाव हम सरदहा ॥ Colophon •
इति श्री द्यानतराय जी कृत चर्चाशतक सम्पूर्णम् । मवत् १९२६ श्रावण शुक्ल अष्टम्या चद्रवासरे लिखि कर्मणा पूर्णीकृ. तम् । शुभमस्तु कल्याणमस्तु ।
१६५. चर्चासंग्रह
Closing
Opening : धर्मधुर घर आदि जिन, आदिधर्म करतार ।
नमू देव अघहरण ते, सब विधि मगलसार ।।
विद्यानामचतुर्दश प्रतिदिन कुरुवतनोमगलम् । Colophon: इति चतुर्दश विद्यानाम मपूर्णम् ।
मिती ज्येष्ठ सुदी ५ सवत् १८५४ शुभस्थाने श्री अटेर मे लिय्यौ ग्रथप्रति श्री लाला जैनी फनेच सघई जी की पैतैवासी सुखवाम शुभस्थाने श्री भैरोडजी मे लिखाई अथ चर्चासंग्रह जी।
१६६. चर्चा समाधान
Opening ·
Closing |
जयो वीर जिनचद्रमा उदे अपूर्व जासु । कलियुग कालेपाखमय, कीनो तिमिर विनास ॥ देवराज पूजत चरण, अशरणशरण उदार ।।
कहू सघ मगलकरण, प्रियकारिणी कुमार ।। इति श्री चरचा समाधान प्रथ सपूर्णम् ।
Colophon:
१६७. चर्चा समाधान
Opening
Closing : Colophon .
देखे-ऋ० १६६ । देखे- ऋ० १९६ । इति श्री चरचा समाधान ग्रथ सपूर्ण। पत्र १३२ । दोहा
सुत श्री विरनलाल के, लेखक दुरगा लाल ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddhint Bhavan, Arrah
जैनी मारा मो रहे, काशिल गौत्र अग्रवाल ॥
महल्ले महाजन टोली अनुअल मे। सवत् १९५६ मिति फागुन शुक्ल १ वार गुरुवार ।
१९८. चर्चा सागर वचनिका
Opening i
श्री जिन वासुपूज शिवदाय । चपा पचकल्यान लहाय ।। विघ्न विडारन मगलदाय । सो वदो शरणाइ सहाय ।।
Closing :
चउपद के धुर वर्ण चउ, क्रम करि पक्ति अनूप । चर्चा सागर ग्रथ को, कर्ता नाम स्वरूप ॥
शास्त्र
सपूर्णम् ।
Colophon: इति श्री चर्चासागर नाम
शुभ भवतु।
१९९. चरित्रसार वचनि का
Opening : परमधरमरप नेमि सम, नेमिचद जिनराय ।
मगल कर अघहर विमल, नमो सु मनवचकाय ॥ . Closing :
अन्य ग्राम विप जो भिक्षा के निमित्त गमन ता विङ्ग नाही है उद्यम जाके वहुरि पाणिपुट मात्र ही है। Colophon: अनुपलब्ध। -
२००. चरित्रसार वचनिका
Opening : मुकतमा दसायकं कर्म सयल करि चूरि ।
___ वदी विश्व विलोकि को, इच्छू त्रयगुण भूरि ॥ Closing . .. जो याके अपराध समान मेरा भी अपराध है,
- ऐसा ही । Colophon I अनुपलब्ध ।
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७६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acara)
२०१. चौबीस ठाणा
Opening i
Cloning :
सिद्ध सुद्ध पणमिय जिणिंदवर णेमिचदमकलक । गुणरयणभूसणुदय जीवस्स परूवण वोच्छ । ए इदिय बियलाण इक्काणवदी हवति कुल कोडी । तिरिय(४३)नर(१४)देव (२६)नारय(२४)सगअट्ठा
सहिय सद्धाण ॥
Colophon: इति चउवीस ठाणा समाप्ता । सवत् १७२५ वर्षे भादव
वदि ९ वृहम्पतिवारे काष्ठासघी भट्टारक श्री महीचन्द्रजी तत्शिण्य पाडे भोवाल तेन लिखत स्वात्मार्थम् । विशेष—इसमे कुछ गाथाएँ गोम्मटमार की प्रतीत होती है ।
देखे, Letg of •kt & Fkt. Ms., P. 642.
२०२. चौबीस गणगाथा Opening : गइइदियचकायेजोयेवेय कषायणाणेय ॥
सयम दसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे ॥१॥ Closing.
उरपाँच सहनन वाले न माडे । तेरमे गुणस्थान तक । वज वृषभनाराचसहनन है ।। आगै सहनन ॥ हाड नाहि ।
ऐसा जिनवानी मे कया है । तीवानि धन्य है ॥५॥ Colophon . इति श्री पस्वुरणसमजनेलायकचर्चा ॥ सपूर्ण ॥ लिपीकृत
लहिया करमचद रामजी पालीताणा नगरे ।। सवत् १९६६ भाद्रमासे कृष्ण पक्षे तिथि द्वितियाम् ॥
विशेष-कुछ गोस्मटसार की गायाएँ भी उद्धत हैं।
२०३. चौदस गुणनियम Opening :: सचित्र दव विगइ वाणहि तबोल वच्छ कुसुमे ।
वाहण सयण विलेवण दिसि वभ न्हाण भत्तेसु ॥ Closing : इति चउदस नियम प्राभात मो कला राखी जैनध्याकू फर
याद कीजे जितरामोकला राख्या था तिष मोउ वालागतो विपनाम होइ, अधिक न लगाई।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain, Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon . इति श्री चउदस गुण नियम सपूर्णम् । लिखत कूष स्यामजी
( श्यामजी ) सवत् १८१० माघशुक्ला १४ । कल्याणमस्तु ।
२०४. चौदह गुणस्थान Opening
गुन आनमीक पटिनाम गुनी जीवनाम पदार्च ते आतमी
परिनाम तीन जातके शुभ, अशुभ, शुद्ध । Closing : तिन सहित अविनाशी टकोत्कीर्ण उत्कृष्ट परमात्मा कहि । Colophon: यह चौदह गुणरथानक का स्वरूप सक्षेत्र मात्र जिनवाणी
अनुसार कथन पूर्ण भया। इति श्री चौदह गुणस्थान चर्चा सम्पूर्णम । शुभसबत् १८६० मिती माघकृष्ण चतुर्दशी गुरुवासरे लिपिकृतम् नन्दलाल पाडे छपरामध्ये ।
२०५. नउसरण पईन्न Opening : सावज्जजोगविरहरु कित्तणगुण वय पडिवत्ता।
खलियस्स निंदणावण तिगिब्ब गुणधारणा चेव ।। Colsing : इय जीव पमायमहारिवर सद्दतमेव मझयण ।
जाए सुति सजम वउ कारण निवुई सुहण ।। Colophon : इति श्री चउसरण पईन्न समाप्तम् । लिखत पूज्य ऋषि जी
तस्य शिष्येण ऋषि लाखू आत्मार्थम् । सम्वत् १६८२ वर्षे चैत्रवदि ७। कल्याणमस्तु।
Opening :
Closing :
२०६. चालगण देवधरमगुरु वदिक कह ढाल गणसार । जा अवलोके बुद्धि उर, उपज शुभकरतार ।। तहाँ काल अनता रहे सुसता अनअवहता सुखदानी । चिन्मूरति देवा ग्यान अभेवा सुरसुख सेवा अमलानी ।। अब जनमे नाही या भवमाही सबके साँई मवजानी।
तुमकी जो ध्यावं तुमपद पावै कविटक कहै क्या अधिकारी ॥ इति चालगण सम्पूर्णम् ।
Colophon:
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhram 3ha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara)
Opening
Closing
२०७. छहढाला तीनभुवन मे सार, वीतराग विज्ञानता। शिवसरूप शिवकार, नमी त्रियोग सम्हारिक ॥ लघुधी तथा प्रमादत शब्द अर्थ की भूल । सुधी सुधार पढौ सदा ज्यो पावो भवकूल ।।
इति श्री छहढाल्यो दौलतरामजी कृत सपूर्णम् । मिती मगसिर सुदी १० वार सोमवार सवत् १९५० । शुभ भूयात् ।
Colophon
Opening .
Closing
२०८. छियालीस दोषरहित आहारशुद्धि
अरिहत सिद्ध चितारिचित, आचारज उवझाय। । साधु सहित वदन करो, मन वच शीश नवाय ।। केवल ज्ञान दोङ उपजाय, पचम गतिमे पहुँच जाय । सुख अनत विलसहि तिहि ठौर, तातै कहै जगत शिरमौर ।। सवत सत्रस पचास ज्येष्ठ सुटी पचमी परकाश । भैया वदत मन हुल्लास जै जै मुक्ति पथ सुखवास ॥ इति छियालीस दोष रहित आहारशुद्धि सम्पूर्णम् ।
२०६. दर्शनसार
Colophon
Opening : पमिय वीरजिणिंद सुरसेणि'णमेसिये विमलणाणे ।
वोच्छ दसणसार जह कहिय पुव्वसूरीहिं ।। Closing : रूसतूरू सउलोउच्च अरकतयस्य जीवस्स। ''
किं जुअभण्णसा जीवज्जियव्वाणरिदेण ॥ Colophon: इति दर्शनसार समाप्तम् विराटनगरमध्ये मल्लिनाथ चैत्यालये
इद पुस्तक लिखापित श्रावणवदी चतुर्दश्या बुधवासरे सवत् १८८६ का । देखे-जि० र० को०, पृ० १६७ ।
Catg. of Skt & Pkt Ms., P. 652.
२१०. दर्शनसारंवचनिका Opening : देवेन्द्रादिक पूज्य जिन ताके क्रम शिरनाय ।
भूतभावि जिनवर्तते भावभक्ति उरल्याय ।।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain 8-ddhant Bhavan, Arrab
Closing : विशेष विद्वान होय सो अथ के अभिप्राय स लिषी बातो
नौसै नवति की जाण और शास्त्रनत लिखी बात यह अवार की
___ स वत् १९२३ की माघ सुदि १० की जान, ऐस जानना । Colophon : इति श्री दर्शनमार समाप्तः ।
षट्दर्शन अरू पच मिथ्यात जैनाभास पच अधबात ।
अरू कलि आचार शास्त्र निरूपण सार ।।
२११. दसलक्षणधर्म
Opening :
ॐकार कू नमनकरि, नमूसारदा माय ।
तिनि काराग्रहमे टिक, श्रीजिन सीस नवाय ।। Closing . . सम्यक् दृष्टि के तो असी वांछा है। Colophon : इति दसलक्षणधर्म कथन भाषा वचनिका सम्पूर्णम् ।
मिति भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी गुरुवार सवत् विक्रम १९७८ ।
२१२. दानशासन Opening : . यस्य पादाब्जसद्गन्धाघ्राणनिमुक्तकल्मषा ।
ये भव्या. सन्ति त देवं जिनेन्द्र प्रणमाम्यहम् ।।१।। दान वक्ष्येऽथ वारीव शस्यसम्पत्ति कारणम् ।
क्षेत्रोप्त फलतीव स्यात् सर्वस्त्रीषु सम सुखम् ।। २॥ Closing : मत समस्तैऋषिभिर्यदाहृत प्रभासुरात्मावनदानशासनम् ।
मुदे सतां पुण्यधन समजित दानानि दद्यान्मुनये विचार्य तत् ।। Colophon : शाकाब्दे त्रियुगाग्निशीतगुणितेऽतीते वृषे वत्सरे
माघे मासि च शुक्लपक्षदशमे श्री वासुपूज्यर्षिणा। प्रोक्त पावनदानशासनमिद ज्ञात्वाहित कुर्वताम् दान स्वर्णपरीक्षका इव सदा पात्रत्रये धार्मिकाः ।। समाप्तमिदं, दानशासनम्
देखे-जि० २० को, पृ० १७३ । २१३. द्रव्यसंग्रह
जीवमजीव दव जिणवरवसहेण जेण एिछिटुं। देविंदविंदवद वदेत सव्वदा सिरसा ।।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsna, Acāra) । दन्नसगहमिण मुणिणाहा दोससचयचुदासुदपुण्णा । सोधयतु तणुसुत्तधरेण मिचदमुणिणा भणिय ज ।। इति मोक्षमार्गप्रतिपादक तृतीयोऽध्याय । द्रव्यसग्रहसपूर्णम् ।
देखें, -जि० र० को, पृष्ठ १८१।
Catg of skt & pkt. Ms., P. 654. २१४. द्रव्यसंग्रह
Opening ! देखे०-०, २१३ ।
Closing : देखे०-० २१३ । Colophon : इति द्रव्यसग्रह समाप्तम् । लिखित भट्टारक मुनीन्द्रकीर्ति
छपरानगरमधे पार्श्वनाथ जिनदीर्घ मदिरे सवत् १९४८ मि० भा० सु० १ वा० शु०। प्रातकाल समाप्त शुभ भूयात् ।
२१५/१. द्रव्यसंग्रह Opening : . देखे-क्र० २१३ ।
Closing : देखे-ऋ० २१३ । Colophon . इति श्रीदबसग्रह जी सपूर्णम् । मीति माघवदी ५ रोज
शुक्र सन् १२७३ साल ।
२१५।२. द्रव्यसंग्रह Opening : देखे-२१३ । Closing : देखें-क्र० २१३ । Colophon! इति श्री द्रव्यसग्रह गाथा सपूर्णम् । विशेष—इस प्रति मे ६३ गथाएँ है ।
।। २१६: द्रव्यसंग्रह . Opening देखे-ऋ० २१३ ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Artah
Closing :
णिक्कम्मा अट्टगुण किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा ।
लोयग्गठिदा णिच्चा उपादवयेहिं मजुत्ता ।। अनुपलब्ध।
Colophon :
२१७. द्रव्यसंग्रह
Opering : Closing !
देखे ऋ० २१३ ।'
कुकया के नासनि कू बुद्धि के प्रकाशनि कू।
भाषा यह प्रथ भयो सम्यक समाज जी ।। इति श्रीद्रव्यमग्रह भाषा और प्राकृत सम्पूर्णम् ।
Colophon :
२५०. द्रव्यसंग्रह
Opening : देखे-० २१३ । Closing |
द्यानत तनक बुद्धि तापरि बखान करी, वाल रीति धरी ढकी लीजो गुणसाज जी। कुकथा के नाशन को बुद्धि के प्रकाशन को,
भाषा यह अथ भयो सम्यक् समाज जी ॥ Colopnon I ___ इति द्रव्यसग्रह नेमिचन्द्राचार्य विरचितमिद पचधा द्रव्यसग्रह
समाप्त । श्रीरस्तु। स. १९६२ । नेत्ररसाकेन्दुवत्सरे विक्रमनृपस्य वर्तमाने माघमासे तमपक्षे वाणतिथौ शशिवासरे लिपिकृतम् । सीताराम करेण चक्षुषापि बुद्धिमदतया विशेष कथ' शक्यम् । इदमपि विद्वास पठनीयाः। शुभमस्तु ।
२१६. द्रव्यसंग्रह . Opening : देखें, ऋ० २१३ । Closing : मंगलकरण परम सुखधाम । द्रव्यसंग्रह प्रति करौं प्रणाम ॥
आगे चेतन कर्मचरित्र। वरनी भाषा बंध कवित्त ।। Colophon • इति श्री दर्वसग्रह प्रथ गाथा कवित्त वध 'सम्पूर्णम् । विशेष-अन्त मे चेतन कर्म चरित्र प्रारम्भ करने की बात लिखी है लेकिन
लिखा नहीं गया है। । .:.
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsna, Acāra)
२२०. द्रव्यसग्रह
Opening :
Closing : Colophon:
देखें-० ११३ । देखें-क० २१८ ।
इति द्रव्यसग्रह मूल गाथा वा भाषा सपूर्णम् ।
२२१. द्रव्यसंग्रह
Opening • Closing :
देखे-क्र० २१३ ।
सवत् सतरस इकतीस, माहसुदी दशमी सुभदीस । मगलकरण परम सुखधाम द्रच्यसग्रह प्रति करू प्रणाम ।। इति श्री द्रव्यसग्रह कवित्तवध सम्पूर्णम् ।
Colophon.
२२२, द्रव्यसंग्रह
Opening :
रिपभनाथ । जगनाथ सुगुण भनषान हे, देव इन्द्र नरविंद वद सुखदान है। मूल जीव निरजीव दरव षट्विध कहे,
वदौ सीस नवाय सदा हम सरदहै ॥१॥ देखे, क्रा० २१ ।'
इतिपूर्ण ।
Cloeing : Colophon:
२२३. द्रव्यसंग्रह टीका ( अवचूरि)
Opening : अथेष्टदेवताविशेष नमस्कृत्य महामुनि सैद्धान्तिक श्री नेमि
चन्द्र प्रतिपादितानां षद्रव्याणा स्वल्पबोधप्रबोधार्थं सक्षेपार्थतया विव
रण करिष्ये । Clophon:
.. . द्रव्यसग्रहमिम किं विशिष्टा. दोषसचयचुदा रामद्वषादिदोषसघातच्युतार वर्चन गोचरा ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colophon: इति द्रव्यसग्रह टीकावचूरि सम्पूर्ण । सवत् १७२१ वर्षे
चैत्रमासे शुक्लपक्षे पचमी दिवसे पुस्तिका लिखापित सा. कल्याण दासेन ।
२२४. द्रव्यसंग्रह वचनिका
Closing |
Opening : • • • या मैं कहूँ हीनाधिक अर्थ लिखा होय तो पडित जन
___ सोधियो .. । Closing : मगल श्री अरहतवर मगल सिद्धि सुसूरि ।
उपाध्याय साधू सदा करो पाप सब दूरि ॥ Colophon . इति श्री द्रव्यसग्रह भाषा सम्पूर्णम् ।
२२५. धर्मपरीक्षा Opening : श्रीमन्नभस्वरत्रयतुन्गशाल जगद्गृहवोधमय प्रदीप. ।
समततोद्योतयते यदीया भवतु ते तीर्थकरा. श्रियेन ।। सवत्सराणा विगते सहस्र', ससप्तातो विक्रम पार्थिवास्या ।
इद निषिद्धान्यमत समाप्त, जिनिन्द्र धर्मामितियुक्तशास्त्र ।। Colophon: ___ इत्यमितगतिकृता धर्मपरीक्षा समाप्ता। सवत् १६८१ वर्षे
पोषवदी पष्ठी तिथौ। पुस्तक पडित जी श्रीरामचद जी आत्मपठनाथं लिपिकृता।
देखे, (१) दि, जि न. र.,पृ.४७ ।
(२) जि र. को,,पृ. १८६ । (३) प्र. जै सा., पृ. १६१ । (४) आ. सू., पृ.७६ । (5) Catg. of Skt & Pkt. Ms., P655.
२२६. धर्मपरीक्षा Opening : देखें, ऋ० २२५ ।
Closing : देखें, ३० २२५ । Colophon: इत्यामितगति कृत्ता धर्म परीक्षा ममाप्ता॥
संवत् १७७६ ॥ समय कातिक सुदि वदि दशम्या मगलवासरे लिखितमिद पुस्तक गोवन पडितेन ।
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८७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara) २२७. धर्मपरीक्षा
Opening : प्रणमु अरिहत देव, गुरु निरन थ दया धर्म ।
भवदधि तारण एव, अवर सकल मिथ्यात भणि ॥ Closing :
पढे सुन उपजै सुवुद्धि कल्याण शुभ सुख धरण ।
मनरसि मनोहर इम कह सकल संघ मगलकरण । Colohpon: इति श्री धर्मपरीक्षा भाषा मनोहर दास कृत स गानेरी
खडेलवाल कृत सम्पूर्ण। ग्रन्थ स ख्या ३३०० श्लोक ।
Opening .
Closing: Colophon:
२२८. धर्मपरीक्षा देखो - ० २२७ । देखे - २० २२७ ।
इतिश्री धर्मपरीक्षा भाषा सम्पूर्ण । लिखत धरमदास अय पुस्तकम् ।
Opening :
Closing . Colophon:
२२६. धर्मपरीक्षा देखे – ३० २२७ । देखे- क्र. २२७।
इतिश्री धर्मपरीक्षा भाषा मनोहरदास कृत सम्पूर्ण ।
२३०, धर्मरत्नाकर
Opening :
लक्ष्मीनिरस्तनिखिला पदमाप्रवतो, लोकप्रकाशखयप्रभवति भव्या । यत् कीर्ति-कीर्तनपराजित बर्धमान, त नौमि कोविदनु त सु.िया सुधर्मम् ।। य वद्यो नयता सुधाकरदवी, विश्व निजाश्रृत्कर, यावल्लोकमिम विभतधरणी, यावच्च मेरुस्बिर । रत्नासुछरितो तरगपल्मो यावत्पयो राशय , नावच्छास्त्रमिद महपिनिवहे तत्यच्चमानधिये ।।
Closing:
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shre Devakumar Jain, Oriental Library, Jaun Siddhant Bhavan, Airah
Colophon :
Opening :
Closing :
Colophon :
Opening:
Closing.
Colophon :
Opening Closing :
Colophon :
इति श्री सूरि श्री जयसेन विरचिते धर्मरत्नाकरनामशास्त्र सम्पूर्णम् । मिती वैशाख सुदी दोयज ( २ ) सवत् १९८५ भृगुवासरे शुभ लिषा भुजवल प्रसाद जैनी श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा के लिए | इत्यलम् ।
देखे -- जि० २० को०, पृ० १६२ ।
२३१. धर्मरत्नाकर
देखे, क्र० २३० ॥
देखें, ऋ० २३० ।
इति श्री सूरि श्री जयसेन विरचिते धर्मरत्नाकरनामशास्त्र सपूर्णम् । सवत् १९१० का मार्गशीर्ष वदी ५ बुधवासरे शुभम् ।
२३२. धर्मरत्नोद्योत
मगल लोकोत्तम नमो श्रीजिन सिद्ध महत । साधु केवली कथित वर, धरम शरण जयवत ॥ स्याद्वाद आगम निर्दोष, अन्य सर्व ही है ज सदोष ॥
त्याग दोप गुण धरे विचार । हेतु विचय ध्यान निर्द्वार ॥
इति श्री बावू जगमोहन लाल कृत धर्मरत्न ग्रन्ये मध्य आराधना नाम नवमी अधिकार ||६|| याके पूर्ण होते श्री धर्मरत्नग्रन्य
पूर्णगया।
आदि मध्य अरू अत में, मंगल सर्वप्रकार | श्रीजिनेन्द्र पद कज जुग, नमो सुकर सिरधार ॥ तकंवात लागे नही नहि आज्ञानतमग्च । धर्मरत्न उद्योन मे करि उद्यम सुय मच ॥ २३३. धर्मरत्नोद्योत
देणे, ऋ० २३२ ॥
वानिक कृ पठनार्थम् ।
उपमा
अहमिन्द्र, है मही स्वाधीन ।
हे पुरातन अयं की दाहे व नवीन ॥
इति श्री धर्मरत्नग्रन्ध सम्पूर्णम् । सवत् १९८८ मिि ६ रविवासरे निग्रित नीarcaina meerata
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Catalogue of Sanskrit, Praktit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Dharma, Darsana, ācāra )
Opening
Closing :
Colophon :
Opening:
Closing :
Colophon :
Opening
Closing :
२३४. धर्मरसायन
Colophon.
इति श्री धम्मरसायण सपूर्णम् ।
इति श्री धर्मरसायन ग्रन्थ की भाई देवीदासजी खडेलवाल गोधा गोती जंनगर वासी ने पटना मे भाषा की।
मिति आसिन
सुदी १४ ।
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वाले कृत
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मऊण देवदेव धरणिदरद इद थुयचलण । जाण जस्स अणत लोयालोय पयासेइ ||१|| भव्वियाण वोहणत्थ इयधम्मरसायण समासेण । वरपउमणदि मुणिणा रइयजमणियमजुत्तेण ॥
देखे - जि० २० को०, पृ० १६२ ।
Catg. of Skt. & pkt. Ms. P. 656,
२३५. धर्मरसायन
देखे, क्र० २३४ ॥
देखे, क्र• २३४ |
इतिश्री धम्मरसायण सपूर्णम् ।
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२३६. धर्मविलास
गुण अनतकरि सहित रहित दस आठ दोषकर ॥ विमल ज्योति परगास भास निज आन विषं हर ॥
जग धन्न धन्न सब साधु तुम वकना श्रोता सुखकरौ । धानत है माता सरसुती तुम प्रसाद सब नर तरी ॥
इति श्री धर्म विलाम भाषा महाग्रथ सुकवि द्यानतराय अगरसम्पूर्णः ।
पुस्तक रिषवदास जी छावडा के
डेरै मस्तक परि विराज, ती वाई जैपुर का तेरापंथ के मंदिर की पचायती में ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Labrary Jun. Beddhant Bhavan, Arrah
२३७. धर्मविलास Opening : वदौ आदि जिनेश पाप तमहरन दिनेश्वर ।
वदत हौ प्रभु चंद चद दुख तपत हनेश्वर ।। Closing : देखे, ऋ० २३६ । Colophon : इति श्री श्री धर्म विलास भापा महारथ सुकवि द्यानतराय
अग्रवालकृत उनासी अधिकार मपूर्ण। सवत् १९३४ मिति माह (माध) सुदी ६ रोज (दिन) सोमवार।
लिखत पीतम्वर दास जैमवार मोज सह्यऊ मध्ये परगन्ह सादावाद जिला मपुरा। लिखायत लाला जगभूषणदास जी अगरवाले मोजे आरे वाले।
२३८. धर्मविलास Opening : देखे-ऋ० २३७ । Closing : कनक किरती करी भाव, श्री जिन भक्ति रचे जी।
पढे सुणे नर नारि सुरग सुख लह्यो जी। Colophon: इति विनती सम्पूर्णम ।
विशेष- प्रति के अन्त मे एक विनती है । प्रशस्ति नहीं।
Opening :
Closing -
Colophoni
२३६. धर्मो देशकाव्य टीका
श्री पार्श्व प्रणिपत्यादौ श्री गुरू भारती तथा। धर्मोपदेश ग्रन्थस्य वृत्तिरेषा विधीयते ॥ . यावन्मेरु क्षितिभृत् यावन्नक्षत्रमडल विलसत् ।
तावन्नन्दतु नित्य प्रथ. सवृत्ति सदिनोयम् ।। इति श्री धर्मोपदेश काव्य सवृत्तिक सम्पूर्णम् ।
शास्त्राभ्यास सदाकार्या विवुधे धर्मभीरुभिः । पुस्तक साधनं तस्य तस्माद्रक्षेन् पुस्तकम् ॥ १॥ अचनास्ति जिनाधीश नास्ति सप्रति केवली। बाधारः पुस्तकस्यैव नृणा सम्यक्त्वधारिणाम् ।।२॥ शृण्वन्ति जिनवाणी य गद्यपद्यमयरी बुधाः।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jaia Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab
Closing . आासेन गुणसमूह सधार्याऽजित सेन गुरुर्भुवनगुरु. यस्य
गोम्मटो जयतु । Colophon: नही है।
२४४. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) Opening -
वदौ ज्ञानानन्दकर, नेमिचद गुणकद ।
माधव वदित विमल पद पुण्य पयोनिधि नव ।। Closing : धन्य धन्य तुम तुमही सब काज भयो कर जोरि
बारवार वदना हमारी है। मगल कल्यान सुख ऐसो अब चाहत हौं होऊ मेरी
ऐसी दशा जैसी तुम्हारी है ॥ Colophon: इति श्रीमत् लब्धिसार वा क्षपणासार सहित गोमटसार
शास्त्र की सम्यग्ज्ञान चद्रिका नामा भाषाटीका सपूर्ण। श्री महाराजा श्री राजाराम चद्रराज्य शुभ। लिख्यत नग्रचद्रापुरी मध्ये हीराधर जो वाचै सुनै ताकी-श्री शब्द वचन । सवत १८४८ आपाढ़ सुदी १५ दिन शुभ भवत् ।
Opening :
Closing :
२४५. गोम्मटसार (कर्मकांड)
पगमिय सिरसा णैमि गुणरयणविभूषण महावीर । सम्मत्तरयणनिलय पयडिसमुक्कित्तण वोन्छ । पाणवधादीसु रदो जिणपूआमोक्खमग्गविग्घयरो।
अज्जोड अतराय ण लहइ इच्छिय जेण ॥ इति श्री कर्मकाण्ड सम्पूर्णम् । देखे, जि० र० को०, पृ० ११०
Catg, of Skt & pkt. Ms., P. 608. Catg. of Skt. Ms., P.310.
Colophon
२४६. गोम्मटसार (कर्मकांड) देखें-क्र. २४५ ।
Opening :
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Caxloquc o! Sanolnit, Prakrit, snabhranthn & Hindi Manuscripts
i Dharma. Darians, Acira) Cloting: .7०२१५ । Colophon: ftrian: माना।
२१७. गोगटमार (कमंगाड) Opening देखें , १५ । Closing : ... ... पानाज • । Colophon
२४८. गोम्मसार (पमंकार) Opening : ..: । Cloring , . . . gan r गारंग hि अगभाग की
Harar Ranा । Coloshon:ो शामिना पिपिरो हेमगजात टोगता
मा fir TITE मुदी १३ मा १८८८, लिपन भोपन माय ननियाग पिम मा फन : पो।
२४६. गोम्मटशार (कमंकार) Opening: d 7. २४५ । Closing .
• • मा प्रत्यनीफ आदिक पूर्वोक्त प्रियाकरि कर मुम्बिगिजानुभाग को विपना कर यह मिसान्त जानना श्य
भाषा टीका पटित ऐमगन गृप्ता स्वयुध्यानुगारेण । Colonhon: इति श्री पमंकाः टीका मपूर्णगमाप्ता श्री फरयाणमस्तु
श्री तु । मवत् १८४५ शाके १७१० श्रावणयदि ११ भौम ।
२५०. गोत्रप्रवर निर्णय
Opening
गौत्रादियियर-अमिततेजगोत्रं वृषमप्रवरकुम्भसूत्रम पर्यायशापा, हरिवोतु गोत्रम् सम्भवप्रवर सतधनु सूत्रम् पर्याय समास शाळा,
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing . भागिनि रथगोत्र निष्कलङ्क प्रवर गङ्गदेवसूत्रम् अग्रायणीय
शाखा। Colophon: नही है।
२५१. गुणस्थान चर्चा
Opening : गुन आतमीक परिनाम गुनी जीऊ नाम पदार्य ते
आतमी परिनामतीन जातके, शुभ, अशुभ,
शुद्ध " " । Closing :
ए पाच भाव सिद्ध के रहे, तिन सहित अविनासी टकोत्कीर्ण
उत्कृष्ट परमातम Colophon : यह चौदह गुणस्थानक कथनरूप सवेपमान् जिनवाणी
अनुसार कथनकर पूरनकिया। सवत् १७३६ मगसिर वदी त्रयोदशी तिथौ।
२५२. गुरोपदेश श्रावकाचार
Opening:
पचपरम मंगलकरन, उत्तम लोक मझारि ।
असग्न की ये ही सरन, नमू सीस करधारि ।। Closing . माधौ नूपपुर जाहि डालूराम न्यौ गयाहि, इप्टदेववललहि
उमगको अनाय है। गुरुउपदेशसार श्रावक आचारग्रन्थ, पूरनता पाहि अक्ष पदवी
को दायक है ॥ Colophon: ___ इति श्री गुरोपदेश श्रावकाचार सम्पूर्णम् । इति शुभ मिती
भाद्रपदसुदी ३ शनिवार सम्वत् १९१२। हस्ताक्षर पं. श्री वञ्चलाल चौबे के ।
२५३. गुरुशिष्यबोध
Opening:
जनत जुगत जगदीश से है वो बडो सुजान । साकू वदी भाव से, सौ परमातम जान ।। • अर जैसो और है तैसो तू नाही,
Closing :
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acāra)
जाहा (जहाँ) तहा (तहाँ) तू है सो तू ही है। (Missing ) नही है।
Colophong :
२५४. हितोपदेश
Opening :
Closing:
जयति पर ज्योतिरिदं लोकालोकावभासनम् । यस्या परमात्मनामध्येम तद्वन्देशुद्धचैतन्यम् । ये यत्रोक्तविधायिन सुमत्तयास्तेनन्त सोख्योज्वला । जायन्ते च हितोपदेशममल सन्त श्रयन्तु श्रीय ॥ समाप्तोडय ग्रन्थः । हस्ता० वटुकप्रसान । सवद् १९७० ।
Colophon;
२५५. इन्द्रनन्दिसहिता (४ अध्याय)
Opening :
अथस्नानविधिप्रक्रमा । लोगियधम्मो लोगुत्तरोहि धम्मो जिणेहिं णिहिट्ठो।
पढमेमतरसुद्धी पच्छादुवहिभवासुद्धी ।। Closing :
भावेइ छेदपिड जो एद इदणदिगणिरचिद ।
लोइयलोउत्तरिएववहारे होइ सो जुसलो ॥४८॥ Colophon: इति इन्द्रतन्दिसहिताया प्रायश्चित्तप्रकरणो नाम चतुर्थोड
ध्याय।। इतिम्पूसर्णम्।
२५६. इष्टोपदेश
Opening :
Closing :
पूज्यपाद मुनिराजजी, रच्यो पाठ सुखदाय । धर्मदास वदनकर, अतरघटमे जाय ॥
अर मोक्ष ने प्राप्त होय है तात सर्व, प्रयत्नकरि निर्ममल्वभाव " " । अनुपलब्ध।
Colophon:
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jinen, Oriental Library, Jain Siddhani Bhavan, Arrah
२५७. जलगालनी Opening : प्रथम वदे जिवदेव अनत । परम सुभग शीतल शुभ सत ॥
सारद गुरं वदं प्रमाण । जलगालण विधि करु वखाण ।। Closing : जो जलगालि जुगतिसु जिहि विधि कहु पुराण ।
गुलाल ब्रह्मइत नुरस किहिऊ, लोकमधि परमान ॥३१॥ Colophon: इति जलगाल परिसपूर्णम् । भट्टारक शुमकीर्ति तत्शिष्य
स्वामी मेधकीति लिखितम् । शुभभवतु ।
२५८. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति व्याख्यान Opening : जबूद्वीपमटीपणक । पचवीसकोडाकोडी उद्धार, पल्य । सजेत्ता
रोम हवति तेत्ता द्वीपसमुद्रा भवति । Closing . . " गजदत-२०, वृषभगिरि १७०, मलेच्छखड ८५०,
कुभोगभूमि ९६, समुद्र २, तोरणद्वार २२५०, एव ज्ञातव्यम् ।। Colophont इति श्री पद्मनदी सिद्धातिवचनकाकृत जवूद्वीपप्रज्ञप्ति
व्याख्यानक कृत समाप्तम् । कर्मक्षयोनिमित्तम् । सवत् १९७६ आषाढकृष्णा ३ भौमवासरे श्री जैन सिद्धान्तभवन आरा के लिए प० भुजवलीशास्त्री की अध्यक्षता में काशीमण्डलान्तर्गत सथवाग्रामनिवामी वटुकप्रसाद कायस्य ने लिखा। देखें, Catg of Skt & Pkt Ms., P. 64.
२५६. जैनाचार
Opening :
Closings
श्रीमदमरराजनुतपादसरसिज सोमभास्कर कोटितेज। कामितार्थवनीवसुरवीजसुखबीजक्षेमदोरि सु जिनराज ।। दिनकरशशिकोटिभासुर सुज्ञानतनुरूपपुण्यकलाप । गुणमणिमयदीपयन्नधमताप तणिसिसतेसु निर्लेप ।। समाप्तम् ।
Colophon:
Opening i
२६० जिनसंहिता मंगल भगवानहन्मगल भगवान् जिन.।। मगल प्रथमाचार्यों मगल वृषभेश्वर ॥१॥
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Dharma, Darśana, ācāra )
Closing
Colopnon⚫
Opening :
Closing!
Colophon :
Opening
Closing
Colophon
Opening
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·
विज्ञान विमल यस्य भासते विश्वगोचरम् । नमस्तस्मै जिनेन्द्राय सुरेन्द्राम्यचिता घये ॥२॥ नाटकस्थल तुल्यस्तत्पार्श्वं मित्यच्छ्रियो भवेत् । तद्भित्तिस्थल भित्ति च यथाशोभ प्रकल्पयेत् ॥७५॥ सभद्रो वा कल्पोऽथ रथोभवेत् । वासोऽस्मिन्पञ्चताल स्यादुक्तांशज्ञापितोच्छ्रये ॥ ७६ ॥ इति जिनसहिता सपूर्णम् ।
देखे - जि० २० को ०, पृ० १३७ । दि० जि० ग्र० र०, पृ० ५२ । रा० सू० II, पृ० १४ ।
२६१. जीवसमास
श्रीमत त्रिजगन्नाथ केवलज्ञानभूषितम् । अनतमहीरूढ श्री पार्श्वेश नमाम्यहम् ॥ नवधामानवाश्चैव नवधा विकलागिन । इति जीवसामासा स्युरष्टयानवति सख्यका ||
नही है ।
२६२. ज्ञानसूर्योदय नाटक
वदो केवलज्ञान रवि, उदय अखडित जास ।
जो भ्रमतमहर मोक्षपुर, मारग
करत प्रकाश ॥
६७
ये चार परममगल विमल ये ही लोकोत्तम विदित । ये ही शरण्य जगजीव को जानि भजहु जो चहत हित ॥
इति श्री ज्ञानसूर्योदय नाटक सपूर्णम् । विक्रम संवत् १९६१ तत्र भाद्रशुक्ला १५ पौर्णिमाया लिपिकृतम् प० सीताराम शास्त्री स्वकरेण विमलमालायाम् ।
देखें, Catg. of Skt. & Pkt. Ms, P. 649.
२६३. ज्ञानसूर्योदयनाटक वचनिका
देखे -- क्र० २६२ ॥
देखे क्र० २६२ ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, J an 8 ddhant Bhavan, Arro Colophon :
इति श्री ज्ञानसूर्योदय नाटक की वनि का सम्पूणम् । मिति फाल्गुणमास शुक्लपक्ष द्वादश्या वृहस्य (वृहस्पति) दान शुभ सवत् १९४५ का सवाई आरानगर मध्ये लिपिकृत्वा। शुभ ।
२६४. ज्ञानसूर्योदय नाटक (वचनिका)
Opening I देखे-३० २६२ ।
Closing . देखें-क्र० २६२ । Colophon .
___ इति ज्ञान सूर्योदय नाटक सम्पूर्णम् । मिती वैशाख वदी १० वुधवार सवत् १८६६ ।
२६५. ज्ञानमूर्योदय नाटक वचनिका Opening
नेखे--क्र. २६२ । Closing • देखे--० २६२ । Colophon : इति श्री ज्ञानसूर्योदय नाटक की वचनिका सपूर्ण। मिति
कार्तिकशुक्ल एकम्या शुक्रवासरे शुभ सवत् १६४६ का सवाई आरा नगर। कल्याणमस्तु।
२६६ ज्ञानार्णव
Opening :
ज्ञानलक्ष्मीघनाश्लेष प्रभवानदनदितम् ।
निशितार्थनज नौमि परमात्मानमव्ययम ॥ Closing .
इति जिनपति सूत्रात्सारमुख त्य किञ्चित्, स्वमति विभवयोग्य ध्यानशास्त्र प्रणीतम् । विवुधमुनि मनीषाभोधि चन्द्रायमाणम्,
चतुरतु भुवि विभूत्यै यावदीद्रचंद्रान् ।। Colophon
___ इत्याचार्य श्री शुभचन्द्र विरचिते ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे मोक्षप्रकरणम् समाप्तम्। इति श्री ज्ञानार्णव समाप्त । सवत् १५२१ वर्षे आपाढ सुदी ६ सोमवासरे श्री गोपाचलदुर्गे तोमर वरवशे श्री राजाधिराज श्री कीर्तिसिंह राज्यप्रवर्तमाने श्री काण्ठास माथुरान्वये पुस्करगणे भ श्री गुणकीर्तिदेवस्तत्प? भ श्रीयशः कीतिदेवस्तत्पट्ट भ श्रीमलयकीर्तिदेवम्तदाम्नाये गर्गगोत्रे मा महणासद्भा
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६६ Ca'alogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara)
हिलोसृत्पुत्रत्रिपचाशत् क्रियाकमलिनी मार्तण्ड चगुविधदानपरपरा धारापरा सारपोपितानेकोत्तममध्यमावरपात्र अनेक गुणिजनहृदयानदाकूपारोल्लासेदूयकल्मदेहा सदा सदयोदय प्रभाकर करापहस्रित पाप सतापतमश्चय अनवरत दान पूजाश्रुतश्रवणादिगुणगणनिवासनिलय कागपितप्रतिष्ठा महामहोत्सव अत्यात्मरसरसिक सघभारधुरवर मंघाविपति बुधानानवेय सद्भार्याविमलतर शीलनीरतरगिणी जिणधर्माणुरागिणी निर्मलतपाचरणा अनवरतकृतशरणा सघमणिपत्हो तयो प्रथमपुत्रआहारदानदानेश्वर आश्रितजनकल्पवृक्ष गुरुचरणकमलपट्पद पटव मरत दानपूजाकारापितनिरतरक्षमामूर्ति सघाधिपति ग्लभार्या ऋनही स वुधाद्वितीयपुत्र हाथी भार्यापाल्हाही स. बुधा तृतीयपुत्र देवराजएतेपा मध्ये च विधदानरतेन सघई क्षेमल नामधेयेन निजज्ञानावरणीय कर्मक्षयाय श्री ज्ञानार्णव पुरतक लिखाय्य मुनि श्री पद्मनदिने दत्तम् ।
श्री मूलनदि सघादि बलात्कारगणे गिर । • गछे भट्टारकस्येद ज्ञानभूषणस्य पुस्तकम् ।। द्रष्टव्य-(१) दि० जि० ग्र० र०, पृ० ५३ ।
(२) जि० र० को०, पृ० १५० । (३) प्र० जै० सा०, पृ० २५७ । (४) आ० सू०, पृ० १६६ । (५) रा० सू. 1I, पृ० २०२, ३४६ । (६) रा० सू० III, पृ० ४०, १९२ । (7) Catg. of Skt & Pkt. Ms , P 646.
२६७. ज्ञानार्णव'
Opening : देखे- क्र० २६ । Closing | देखे-क्र० २६६ ।
ज्ञानार्णवस्य माहात्म्य चित्त कोवित्ततत्रत
य ज्ञानातीयते भव्यै दुस्तरोपि भवार्णव ॥३॥ Colophon ' इत्याचार्य श्री शुभचन्द्रदेवविरचिते ज्ञानार्णवे योगप्रदी
पधिकार । मोक्षप्रकरण समाप्त । इति श्री ज्ञानार्णवसूत्रस
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श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jair Siddhant Bhavan, Arrak
पूर्ण। सवत् १९८० वर्षे माघमासे कृष्णपने पचमी तिथी गुरुवासरे। श्री ज्ञानार्णवम् सपूर्णकृता।
लिखित श्री पट्टणानगरमध्ये । लेपक-पाठकयो चिर जीयात् । श्रीरस्तु शुभ भवतु ॥
२६८. ज्ञानार्णव Opening : देखे-० २६६ ।
Closing : देखें-० २६६ । Colophon .. इत्याचार्य श्री शुभचंद्रविरचिते ज्ञानार्णवे योगप्रदीपा. __धिकारे मोक्षप्रकरण समाप्तम् । सवत् १८७० ।
२६६. ज्ञानार्णव भाषा Opening : ललितचिन्ह पद कलित निरखत निजसपति ।
हरषित मुनिजन होइ धोइ कलिमलगुन जपति ।। Closing :
ताके जिनवानी को श्रद्धान है प्रमान ज्ञान, दरसन दान दयावान अवधान है। ज्ञान ही के कारणतै भाषा भयो ज्ञान सिंधु,
आगम को अग यामे ध्यान को विधान है ।। Colophon. इति श्री शुभचन्द्राचार्यविरचिते ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकार
श्री श्रीमालान्वये बदलियागोत्रे परमपवित्र भईआ श्रीवस्तुपाल सुत श्री ताराचन्द्रस्याभ्यर्थनया पडित श्रीलक्ष्मीचन्द्रेण विहिताभापय सुखबोधनार्थम् । सवत् १८६६ शाके १७३४ वैशाखमासे तिथी ११ बुधवासरे समाप्तम् भवत, लिखत काशि मध्ये राजमदिर लिखायित लाला वगसुलाल जी पठनार्थ परोपकरणार्थम । श्रीभगवानार्पणमस्तु । लिखत ब्राह्मण शिवलाल जाति गौड ब्राह्मण ।शुभ भूयात् ।
२७०. ज्ञानार्णव टीका Opening : शिवोय वैनतेयश्च स्मरश्चात्मव कीर्तितः ।
आणिमादिगुणन_रत्नवादिq धर्मतः॥ Closing:
" ." शुभ कारित गद्याना. गुणवत्त्रिय विनयतों ज्ञानावर्णवस्यातरे विद्यानदि गुरुप्रसादजनितदयादमेय सुखम् ।
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१०१ Catalogue of Sanskrit. Prakrit, Apabhrainsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Dardana, Acara ) Colophon: इति श्री ज्ञानार्णवस्य स्थितिगनटीकातत्त्वप्रय प्रकाशिन
समाप्ता।
२७१. कर्मप्रकृति
Opening :
प्रक्षीणायरण समोहप्रत्यूह फर्मणे ।
बनतानतघोष्टि सुखवीर्यात्मने नमः ।। Closing : जन्ति विमुताशेपपापाजन समुच्चया. ।
मनमानतघी दृष्टिसुपवीर्या जिनेश्वराः ॥ Colophone पति गृतिरियमभयचर निद्धान्तचक्रवतिन । भद्रमस्तु स्थाहादशामनाय ।
देखें--जि० २० फो०, पृ० ७२ ।
२७२. कर्मप्रकृति ग्रंथ Opening : देखें-१० २४५। Closing :
गे--T०२४५ । Colophon: इति श्री नेमिचदमितान्ति विरचित कर्मप्रकृति प्रथ
ममाप्तः ॥ सवत् १३६६ का शुभमस्तु ।। विशेष-यह प्रय श्री देवेन्द्र प्रसाद जैन द्वारा दिनाक १३-६-१९१८ को श्री
जैन सिद्धान्त भवन. आरा को सादर समर्पित किया गया है। देखें-(१) जि० र० को०, पृ० ७१ ।
(2) Catg. of skt & Pkt Me., page, 632. २७३. कर्मविपाक
Opening : सिरिवीरजिण वदिय, कम्मविवाग समासओ वुच्छु ।
कोरड जिराणु हेहिं जेण सोमणराकम्म । Closing ! गाहगाभयरीए व दमहत्तरमयाणुसारीए ।
टीगाए णिम्मियाण एगुणा होइ णऊईऊ (ओ)॥ Colophon इति श्री कर्मग्रंथ सूत्रसमाप्तम् । षष्ट कर्मग्रथ । श्रीरन्तु ।
सवत् १९६६ शाके १७३१ मिती भादववदि ३ सोमवारे तया विज
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Labrary Jun. Siddhant Bhavun Arr h
आणदसूरगन्छे लिपि शराज (स्वराज) विजमुनि श्री नागपुर मध्ये दिक्षणदेशे।
देखें, जि र को पृ. ७२, ७३ । २७४. कपायजयभावना
Opening : येन कपायचतुक ध्वति ससारदुःखतरवीजम् ।
प्रणिपत्य त जिनेन्द्र कपायजयभावना वक्ष्ये ॥ Closnig : यत कषायग्हिजन्मवासे समाप्यते दु खमनन्तपारम् ।
हिताहित प्राप्तविचारदक्षरत व पाया खलु वर्जनीया.॥ Colophon ; __ इति कनककीतिमुनिना कपायजयावना प्रयत्लेन भव्यचि
त्तशुद्धय विनयेन समासतो रचिता। इति कपायजय चत्वारिंशत् समाप्त । जैन सिद्धान्त भवन, आरा ता १८-१०-२६ ताडपत्रसे उतारा गया।
२७५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा सटीक Opening : शुभचद्र जिन नत्वानतानतगुणार्णवम् ।
कातिकेयानुप्रेक्षायास्टीका वक्ष्ये शुभश्रिये ॥ Closing : लक्ष्मीचद्रगुरु रवामी शिप्यस्तस्य सुधीयमा ।
__ वृत्तिविस्तारिता तेन श्री शुभेन्दु प्रसादत ॥ Colophon: इति श्री स्वामी कातिकेयटीकाया त्रिद्य विद्याधरपट
भाषा कवि चक्रवर्तिभट्टारक श्री शुभचन्द्र विरचिताया धर्मात्प्रेक्षायाद्वादशमोधिकार समाप्तम् । १२ सपूणम् । रामपि वेदवस्वेदु विक्रमार्कगतेपि वैशालिवाहनसाकश्च नागावरमुनिचद्र ।
देखे,-जि० र० को, पृष्ठ ८५ ।
Catg: of skt & pkt Ms., P.634.
Opening ! Closings
२७६/१. कार्तिकेयानुप्रेक्षा सटीक देखे०-०, २७५ । देखे०-क्र०, २७५ ।
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१०३ Catalozue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramiha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsina, Acira)
Colophon • नि श्री स्यामि , जातियटोकाया विधविद्याधरपटभापा
कविवस्वति भट्टारक श्री गुमनद्रविरचिताया धर्मानुप्रेक्षाया द्वादशमोधिकार नगाप्तम्। यार्णः सवत् १८५८ वर्षे शाके १७२३ ज्येष्ठमासे कृष्णपक्षे तिची पाठी मगलवागरे हिनार पट्टे लोहाचार्याम्नाये काठामधे पुम्भारगणे माथुरगम्चे श्रीमद्भट्टारकत्रिभुवणकीति जी तत्व भट्टारक भी रोमकीति जी तत्पट्ट भट्टारक श्रीगहसकीत्ति जी तत्पट्ट भट्टारक श्री महेन्द्रकोत्ति जी तत्पट्ट भट्टारक श्रीदेवेद्र. फीत्ति जी तत्पट्ट भट्टारक श्री जगत्तीति जी तत्पट्टे भट्टारक श्री ललितकीर्ति जी तत् भाता पंडित माणदराम तच्छिष्य खेमचन्द्रग प्रयागमध्ये लिपि कृतम् । स्वय पठनार्थम् । शुमस्तु ।
२७६।२. कार्तिकेयानुप्रेक्षा
Opening:
अथ रवामिकातिकेयो मुनीद्रोऽनुपेक्षा व्याख्यातुकामो। मलगालनमगावाप्तिलक्षण मगलमाचण्टे ॥
Closing :
निहुयणपहाण सामि कुमारकाले वि तवियत्तवयरण ।
वसुपुज्जसुय मल्लि चरिमतिय ससुवे णिच्च ।। Colophong इति स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा समाप्ता। मिती कार्तिगमासे
शुभे कृष्णपक्षे तिथि ७ वार सोमवार सवत् १८६० का साल
__ मध्यचीरजीव अमिचन्दगोतसेठी लिखायत चिरजीव श्री चन्द्रेण स्वकीय पठनार्थ वाचपढ ज्यानजथा योग्य वचज्यो । श्रारस्तु कल्याणमस्तु । यादृश
.... ... दीयते। इद पुस्तक राज्येद्रकीर्तिमुने पठनार्थ श्रीचन्द्रेणदत्तम् ।
२७७. कात्तिकेयानुप्रेक्षा Opening : प्रथम रिषभजिन धरम कर, सनमति चरन जिनेश ।
विधनहरन मगलकरन, भवतम दुरन दिनेश ।। Closing
जैनधर्म जयवत जग, जाको मर्म सुपाय । वस्तु यथारथ रूपलखि, ध्याये शिवपुर जाय ॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakuma Jain, Oriental Library, Jain Siddh in Bhav in, Arrah
Colophon
Opening :
Closing :
Opening!
Closing
इति श्री स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा नाम प्राकृत ग्रंथ की देश भाषामय वचनका सम्पूर्ण । मिती कार्तिक वदी ५ वार गुरु सम्वत् १९१४ को समाप्त भया । लिखा चढूनाल काएथ ( कायस्थ ) निजत्राय । जौरीलाल अग्रवाल नारायण दास के बेटा ने मोकामी आरे वास्ते सिरी (श्री) असदासके ।
२७८. क्रियाकलाप टीका
Colophon
·
Opening
Colophon :
जिनेन्द्रमुन्मीलितकर्मवन्ध, प्रणम्य सन्मार्ग कृतस्वरूपम् । जनतबोधादि भव गुणौघ, क्रियाकलाप प्रकट प्रवक्ष्ये ॥ एतावश्सख्यश्रवाच्छित्रयदपरिमाण श्रुत पचपद पचभि, पादैरधिक नामानि - ११२८३५८००० ।
इति श्रीपडित प्रभाचन्द्र विरचिताया क्रिया कलापटीकाया श्री मूलस समाप्तम् । सवत् १५७० वर्षे चैत्रवदि ७ शुक्रवासरे। सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्रीसिंहनन्दिनः शिष्यनीवाई विनय श्री
लिखायितम् ।
देखे, Catg of Skt & Pkt Ms. P 635
२७६. क्रियाकलापभाषा
समवसरण लछमी सहित वर्द्धमान जिनराम । नमो विबुध वदित चरण, भविजन को सुखदाय ॥ जबलौ धर्मं जिनेसर सार ।
जगतमाहि वरतै
सुखकार ।। तवली विस्तर ज्यो यह ग्रथ । भविजन सुरसित् दायक पथ ॥ ११०० ॥
इति श्री क्रियाको भाषा मूलत्रेपन क्रिया ने आदि दं
भर और ग्रन्थ की शाखका मूलकथन उपरि सम्पूर्णम् ।
इति क्रियाकलाप भाषा समाप्तम् ।
२५० लघुतप्वार्थसूत्र
दृष्ट चराचरं येन केवलज्ञानचक्षुषा । त प्रणम्य महावीर वेदिका त प्रवक्ष्यते ॥
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Dharma, Darśana, ācāra )
वोधि समाधि प्रणमामि सिद्धि, स्वात्मोपलब्धि
चिंतामणि
Closing :
Colophon :
Opening
Closing
Colophon
Opening:
Closing;
Colophono :
Opening
Closing!
शिवसौख्यमिद्धि |
चितितवस्तुदाने,
देव ॥
Colohpon !
त्वा
विद्यमानस्य ममास्तु
इति श्री लघुतत्वार्थानि समाप्तम् ।
२८१. लघुनत्त्वार्थं
देखे, ऋ० २८० |
देखे, क्र० २८० |
इति श्री लघुतत्वानि समाप्तानि ।
लोकवर्णन
'
२८२.
भवणेसु सत्तकोडी, वावत्तरिलख होति जिणगेहा । भवणामरिंद महिया, भवणसमा ताणि वदामि ॥ जबूरविंदीवे चरति सीदि सद च अवसेस । लवणे चरति सेसा ---
11
-
१०५
नही है ।
विशेष - प्रारंभ मे गाथा एक से नौ तक मूल है । उसके बाद क्रमाङ्क ३०२ से ३७४ तक पूर्ण है । अन्त मे अधूरी गाथा Closing मे दी हुई है । ग्रन्थ अव्यवस्थित
1
२८३.
लोकविभाग
लोकालोकविभागज्ञान् भक्त्या स्तुत्वा जिनेश्वरान् । व्याख्यास्वामि समासेन लोकतत्वमनेकधा ॥ पञ्चादशशतान्याहु षट्त्रिंशदधिकानि वै । शास्त्रस्य सग्रहस्त्वेद छन्दसानुष्टुभेन च ॥
इति लोकविभागे मोक्षविभागो नामैकादश प्रकरणं समाप्तम् । देखे -- जि० र० को०, पृ०३३९ ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
२८४. मरणकडिका
Opening :
पणमतिसुरासुरमनुलियरयणव्वकिरणकतिवियरयम् ।। वीरजिणयजयलणमिनुगमणेमिरिद्गातम् ।।१।।
Closing :
दयदअरकराइ गुणह भावहलोराहिं हरहणि जीवइ सोणरइले समेणमरण च सुणण ।।
१॥
Colophon: इति मरनकाड सपूर्ण मिती कात्यागवदी ५ बुधवासरे सन्तु
१८८७ समनलाल ।
२८५. मिथ्यात्व खण्डन
Opening :
प्रथम सुमरि अरिहत को, सिद्धन को धरि ध्यान । सरस्वती शीश नवाइके, वदी गुरु जत ध्यान ।।
Closing :
महिमा श्री जिनधर्म की, सुनियत अगम अनत । जा प्रसादतै होन नर मुक्ति वधू के कत ॥ ग्रन्थ अनूपम रच्यो यह, दै ग्रन्थनिकी साखि । मूरख हाथि न देहु भवि, अधिक जतन सौ राखि ॥
Colophon : इति मिथ्यात्व खडन नाटक सम्पूर्ण। सवत् १९३५ मिती
ज्येष्ठ कृष्ण नवमी शनिवारे।
२८६. मिथ्यात्व खण्डन
Opening : देखे, ऋ० २८५ ।
Closing : देखे, ऋ० २८५। Colophon: इति मिथ्यात्व खंडन नाटक सम्पूर्ण। मिती श्रावण कृष्ण ४
वुधवार सवत् १८७१ लिखी फतेपुर मध्ये ।
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१०७ Cotalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhraigha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acara )
२८७. गि-यात्व खंउन नाटक
Opening
Closing: Colophon
देखें - म० २८५।
-~-० २८५। :निगेमियात
नाटक मापूर्ण ।
२८. मोक्षमान प्रकारक
Opening
माना मगमग मीनाग विमान । गनी ना जाने भये अनादि मान ।।
गि जिनमर्ग विना धर्मात्माजीयनि विगं परिणीगि भारगी पालन्यौपाठ जगनाननं ।
Cloring
Colophon:
नती
।
२८६. मोक्षमार्ग प्रकाशक
Opening Closing .
गे-१० २८८। ... .. मो परलोक के पियोगे, ग्मरण
पार है पिष्ट विचार हाय मकाता नाही। इति श्री मोक्षमार्ग प्रकाशजी स पूर्ण ।
Colophon .
२९०. मृत्यु महोत्सव
Opening
मृत्युमार्गोप्रवृत्तस्य वीतरागो ददातु मे ।
ममाधि योधिपाथेय यावन्मुक्ति पुरीपुरः ॥ Closing : उगणी अठारा सुकल पचमि मास असाढ ।
पूरण लखी वाचो सदा मनधारि सम्यक् गाढ ।। Colophon • इति श्री मृत्यु महोत्सव पाठ वचनिका समाप्ता। लिखत
विरामण सियाराम वासी नग्न लिझमणगढ का। मिति पो (प) सुदी २ सवत् १९४४ ।
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१०८
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Labrary Jein. Siddhant Bhavan, Arrah
२९१. मृत्युमहोत्सववचनिका Opening : कृमिजालशताकीर्णे, जर्जरे देहपजरे ।
भज्यमानेन भेतव्य यस्त्व ज्ञानविग्रहः ।। Closing : देखे, क्र० २६० । Colophon: इति श्री मृत्युमहोत्सव वचनिका सम्पूर्णम् ।
विशेग-अन्तमे अभिषेक पाठ भी लिखाहुआ है, जो अपूर्ण है ।
२६२. मूलाचार Opening : मूलगुणे सुविसुद्ध वदित्ता सव्वसजदे शिरसा ।
इह परलोगहिदत्थे मूलगुणे कित्तइस्सामि ।। Closing:
• ... सकललोकालोकस्वभाव श्रीमत्परमेश्वरजिनपतिमतवितत मतिचिदचित्स्वावचिद्भावसाधितस्वभाव परमाराध्यतम.
सैद्धान्तपारावार पारीणाय आचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्याय नम । Colophon
इति समाप्तोऽय ग्रथ.।
Opening :
Closing :
Colophon:
२६३. मूलाचार प्रदीप श्रीमत मुक्ति भार, वृषभ वृषनायकम् । धर्मतीर्थकर ज्येष्ठ, वदेनतगुणार्णवम् ।। पचषष्ठ्याधिका', श्लोका त्रयस्त्रिशशतप्रमा ।
अस्याचारसुशास्त्रस्य ज्ञ या पिंडीकृर्ता बुध ॥
नहीं है। देखें--(१) दि० जि० प्र० २०, पृ० ५६ ।
(२) जि० २० को०, पृ० २५ । (३) आ० सू०, पृ० ११३, २०११ (४) रा० सू०, पृ० १६५ । (५) Catg. of Skt.& pkt. Ms. P.681.
२६४. मूलाचार प्रदीप देखे, क्र. २६३ । देखे, ऋ० २६३ ।
'Opening :
Closing :
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१०६ Hindi Manuscripto
Catalogue of Sanskrit, Pralkrit, Apnbhransha &
( Dhnima, Darsana, Acira)
(olophon: ति धी मूलाचारप्रदीपकाग्ये महारथे भट्टारक श्री सकल
फोतिविनोअनुया पनयमादियणंनोनाम द्वादामोधिकारः । लिग्गन दयानन्द यह पानी जनगर का हालवासी जैसिघपुरामध्ये । मिनि पंजाब पुलिपतियो चनुरथ्या रविवासरे सवत् १८७४ का। वाचकाना नेयपाना शुभ गया।
२६५. नवरत्न परीक्षा Opening : नायाय भवनप्रयपदिताय सत्वा नम समवलोक्य च
रत्नशास्त्रम् । रत्नप्रारमधियत्य विमुन्य फरगुन् नक्षेपमान मिति बुद्ध
पटेन दृष्टम् ॥१॥ मुदनश्तियाजातप्रकापीमतविक्रमः ।
यनो नामावच्च्छीमान्दानवेंद्रो महावरा ॥२॥ Closing I तपपुगहनूनुना गमामोगिन । मणिशास्त्र मस्ता बुद्धभट
क्षयेणेयमिति वज़मौक्ति पराग मरकतेंद्र नीलवर्यकर्केतन पुलक रुधिराप म्फटिक विद्रमाणा। वीजाकर गुणदोष कृतिममूल्य परीक्षा
धारयितुम् । दोपगुगानाम् हानियोग च विस्तारेऽनौमुद्धभटेन निर्दिष्ट । Colophon . ति युद्ध मट्टनाम रत्नगारत समाप्तम् ।। मद्र भूयादिति
स्तोमि अयमपि गन्थ रान्० नेमिराजास्येन लिखित ॥ माघशुक्ल चर्दया समाप्तश्च ताक्षि मवत्सर । विस्तशक १९२५-फेबुअरी।। मूडयिती ॥
२६६. नयचक्र सटोक Opening |
वदो श्री जिनके वचन, स्याद्वाद नयमूल ।
___ ताहि सुनत अनभवतही, ह मिथ्यात निरमूल ॥ Closing: तसो ही कहनी सोइ अनुपचरित असद्भूत विवहार कहिये ।
जैसे जीवको शरीर ऐसी कहणी। Colophont इति पडित नारायणदासोप् शेन यह हेमराजकृत नयचक्र
की सामान्य वचनिका समाप्तम् । श्री मिती पीप सुदी ११ सवत् १६५६ । हस्ताक्षर बलदेव प्रसाद।
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श्री जैन सिद्वान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain 8 ddhant Bhavan, Arra
२६७. नीतिसार ( समयभूषण ) Opening
प्रणम्यन्त्रिजगन्नाथानिन्द्रा नन्दितसम्यद ।
अनागाराम्प्रवक्ष्यामि नीतिसारसमुच्चयम् ।।१।। Closing : माघत्प्रात्यर्थिवादिद्विरद घटिघटाटोपवेगपावनोदे ।
वाणी यस्याभिरामामृगपतिपदवी गाहते देवमान्या । श्रीमानिन्द्रनन्दी जगतिविजयता भूरिभावानुभावी।
दैवज्ञ कुण्डकुन्दप्रभुपदविनय स्वागमाचारचञ्चु ॥११३।। Colophon: इति श्रीमदिन्द्रनन्धाचार्य विरचितमिद समयभूषण समाप्तम
॥ शुभ भूयात् ॥ देखे-जि० र० को , पृ० २१६ ।।
Catg. of skt & Pkt Ms., P. 660.
२६८. नीतिसार Opening : श्रीमदुभलक्ष्मीरमणाय नम ॥ निम्रन्यसमय भूषणम् ।।
देखे, क्र. ४४७ । Closing :
साधन्त सिद्वशान्तिस्तुतिजिनगर्मजनुपोस्तु या द्वैत ॥
निष्क्रमणेयोग्यतं विधिश्रुताद्यपि शिवे शिवान्तमपि ॥ Colophon :
नही है।
२६६. न्यायकुमुदचन्द्रोदय Opneing : सिद्विप्रद प्रकटिताबिलवस्तुतत्त्वमानदमदिरमशेषगुणक पानम् । श्रीमज्जेिनन्द्रमकलकमनतवीर्य मानम्य लक्षणपद प्रवर
प्रवक्ष्ये ॥१॥ Closing
तत्स पत्तौ च मुमुक्षुजनमोक्षमाग्रौपेदशद्वारेण परार्थ
स पत्तये सौचेपहत इति ॥ Colophon.
इति श्री भट्टारकाकलङ्कशशाङ्कानुस्मृतप्रवचनप्रवेश समाप्तः। इति ग्रन्थ समाप्तः।
- देखे-जि. र० को०, पृ० २१९ ।
३००. पद्मनन्दि पंचविशतिका Opening:
देखे-क्र० १८४॥
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma. Darsana, Actra)
Closing .
यूवतिसगतिवर्जनमप्टक प्रतिमुमुक्षुजन भणित मया ।।
सुरभिरागसमुद्रगता जना रुत माक्रुध मत्रमुनी मयि ।। Colophon: इति श्री ब्रह्मचर्याष्टकप्रकरण समाप्तम् ।।
इति श्री पपनदिकृता पचविंशतिका समाप्ता ।। देखें,--जि० र० को०, पृ० २२८ ।
Cotg. of kt & Pkt. Ms., P 664
३०१. पद्मनंदि पविशतिका Opening : देखे--२० १८४ । Closing . देखें-क्र० ३०० । Colophon इति श्री ब्रह्मचर्याप्टकप्रकरण समाप्तम् ॥ इति श्री पद्मन
दिकृता पचविंशतिका समाप्ता ।। २५॥ अथ सवत्सरेऽस्मिन् नृपतिविक्रमादित्यराज्ये सवत् १८३६ मितिचैत्र शुक्लनवम्या शनिवासरे इद पुस्तक लिपीकृत पूर्ण जात श्री रस्तु शुभ भूयात् कल्याणमस्तु ।
३०२. पंचमिथ्यात्व वर्णन
Opening : वदान्त क्षणकत्व च शून्यत्व विनयात्मकम् ।
अज्ञान देति मिथ्यात्व पचधा वतते भुवि ।। Closing : इत्येव पचधा प्रोक्ता मिथ्यादृष्टिभिधानकम् ।
नोपादेयमिद सर्व मिथ्यात्व विपदोपत ॥ Colophon i इति श्री पचमिथ्यात्व वर्णन सपूर्णम् । सवत् १८०३ वर्षे
पोह (पोप) सुदी २ तिथौ बुधवारे श्री दिल्लीमध्ये श्री माथुर गच्छे काण्ठासघे स्वामी जी भट्टारक श्रीदेवेन्द्रकीत्ति जी तस्य भ्रातृयामे श्री जैरामजी तस्य यामे रामचद लिखापितम् । शुभ भवतु ।
परस्परस्य मर्माणि, न भाषन्ते बुधाजना ।
ते नरा च क्षय याति, वल्मीकोदर सर्पवत् ।। ३०३. पञ्चास्तिकाय भाषा
Opening :
की नाही प्राप्त हुए है, तिनको सरण है। तिनको नमस्कार होउ।
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११२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Ehri Devakumar Jain, Oriental Library, Jain Siddh ant Bhavan, Arrak
Closing : • ससार समुद्रको उतरि करि सम ... " | Colophon;
अनुपलब्ध।
३०४. पंचास्तिकाय भाषा
जीर्ण ।
Opening :
Closing : Colophon:
जीर्ण ।
Closing :
३०५. पंचसंग्रह Opening :
छटवलवपयत्ये दवाइ चउव्यिहेण जाणते । वन्दित्ता अरहन्ते जीवस्स परूवण वोन्छ ॥१॥ जाएत्य अपडिपुणो अत्यो अप्पागमेणर२ उत्ति ।
त खमिऊण वहुसुया पूरऊण परिकहिंतु ॥ ६॥ Colophon
एव पचसगह समाप्तः ॥ शुभ भवरलेखकपाठकयो । अथ श्री टवक नगर ।। मवत् १५२७ वर्षे माधवदि ३ गुन्वासन श्री मूलमधे सारम्वतगच्छे। भट्रारक श्री पद्मनदिदेवा तपट्टे भट्टारक श्री शुमचन्द्रदेवा तत्त भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेवा ।। तत्छिप्यो मुनि रनिकोतिदेवा ॥
देखे, जि. र० को०, पृ० २२८, २२६ ।
Catg of Skt & pkt Ms , P.662.
३०६. परमार्थोपदेश Opening :
नत्वानंदमय शुद्ध परमात्मानमव्ययम् ।
परमार्योपदेणाव्य अब पच्मि तदयिन.॥ Closing : येधुनय गममयमयुक्ताः द्वेपरागमदमोहयिगुना ।
गति गुदपरमात्मनि रक्ता ने जयतु गतत जिनमता in Colophoni
नि परमादिगग्रन्यः भट्टारक श्री शानभूपण विमा.
অ পিৰিবি এল সি
এন, গায়া ম না
।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Dharma, Darsana, ācāra )
Opening
Closing
Colophon
Opening
Closing
गई। शुभमिती पोपकृष्णा ७ मंगलवार विक्रम संवत् १९६२, हस्ताक्षर रोशनलाल जैन ।
Colophon.
११३
देखे - - ( १ ) दि० जि० ग्र०र०, पृ० ६१ ।
Opening :
३०७ परमात्म प्रकाश
चिदान देकरूपाय जिनाय परमात्मने । परमात्मप्रकाशाय, निन्य सिद्धात्मने नमः ॥ परम पय गयाण सवो दिव्वकाउ, मणस मुणिवराण मुदो दिव्व जोई । विसय सुह रयाण दुलहो जोउ लोए, जयउ सिव मख्यो केवली कोवि वोहो ||
इति श्री योगीन्द्रदेव विरचित परमात्मप्रकाश सपूर्णम । मवत् १८२६ वर्षे मिती भादो वदी ११ एकादशी चद्रवासरे लिखित गुमीनीराम मौन पोयी गुन आगर लेखक पाठकयो शुभ अस्तु कल्याणमस्तु ।
(२) जै० ग्र० प्र० म०, प्रस्तावना, पृ० ५१ । (३) भ सम्प्र, पृ १४२, १५४, १८३, १६७
देखे --- जि र को, पृ २३७ ।
Catg of Skt & Pkt Ms, P. 665.
३०८ परमात्मप्रकाश वचनिका
चिदानद चिद्रूप जो, जिन परमातम देव । सिद्धरूप सुविशुद्ध जो, नमौ ताहि करि सेव ॥ ऐसा श्री जिन भाषित शासन सुखनिक कैसे करानिकरि । वृद्धि प्राप्त होऊ ।
श्री योगिन्द्राचार्यकृत मूल दोहा ब्रह्मदेव कृत संस्कृत टीका दौलतराम कृत भाषा वचनिका सम्पूर्ण भई, सवत् १८६१ ।
३०९ परमात्म वच निका
चेतन आनद एक रूप है, कर्मरूपी वैरीको जीते ताते जिन है ।
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११४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddh int Bhavan, Arrah Closing ! और विष सुखमे जो मग्न है तिनके इह जोग दुरलभ है।
जैवत प्रवर्ती सेव दुरलभ कोई ग्यान है सो । Colophon: इति परमात्मप्रकाश समाप्तम् ।
३१०. परसमयग्रथ Opening : श्रयता धर्मसर्वस्व श्रुत्वा चैवावधार्यताम् ।
आत्मन प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।। Closing . निश्चेष्टाना वधो राजन कुत्सितो जगती पते ।
ऋतु मध्योपनीताना पशुनामिवराघव. ॥ १६५ । Colophon : नही है। विशेप-विभिन्न पुराणो से संग्रहीत सदाचार विषयक श्लोक हैं ।
३११. प्रश्नमाला भाषा Opening : आगे राजाश्रेणिक गौतम स्वामी त प्रश्न किये । Closing
• ते भव्यात्मा कल्याण के अयि सूवृद्धी परभवमे सोभा.
पावेगे ऐसी जानि इस प्रश्नमाला को धारन करहु । Colophon: इति श्री प्रश्नमाला सम्पूर्णम् ।
प्रश्नमाला पूरनभई, आदेश्वर गुनगाय । मग्यक्ति सहित याचित रहो, ज्ञान सुरति मनमाह ।।
३१२. प्रबोधसार Opening : नम श्री वीरनाथाय भव्याभोव्ह भास्वते ।
सदानद सुधास्यदत् स्वादम वेदनात्मने । Closing . सर्वलोकोत्तरत्वाच्च जेष्ठत्वात्मर्वभूभृताम् ।
महात्वात्स्वर्णवर्णत्वात्वमाद्य इह पुरुषः ॥ Colophou इति प्रबोधसार, समाप्त. ।
देखें-जि० २० को, पृ० १७३ ।
Opening :
३१३. प्रश्नोत्तरोपासकाचार (२४ सर्ग)
जिनेण वृपम वदे वृपन वृपनायकम् । पाय भवनाधीश वृपतीय प्रवर्तकम् ॥१॥
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११५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripta
(Dharma, Darsana, Acara) Closing :
शून्याष्टाष्टद्वया काढ्य सध्ययामुनिनोदिन ।
नदत्वे पावनो प्रथो यावत्कालातमेव हि ॥१३४ ।। Colophon इति श्री प्रश्नोत्तरोपासकाचारे भट्टारक श्री सकलकोत्ति
विरचिते अनुमत्यादि प्रतिमा द्वयप्ररूपको नाम चतुर्विंशतितम. परिच्छेद ॥ २४६ ॥ स वत् १६७। लिखितमिद मिश्रोपनामक गुलजारीलालशर्मणा ॥ मिती माघ शुद्ध ५ शनी शुभ भवतु श्लोकसंख्या प्रमाणम् ३३०० ॥ स वत् १८७५ की लिखी हुई प्रति से यह नकल की गई है।
देखें-(१) दि० जि० २०, पृ० ६३ ।
(२) जि र को., २७८ ।
Opening : Closing :
३१४. प्रश्नोत्तरोपासकाचार देखे-क्र० ३१३ ।
गुणधरमुनिसेव्य, विश्वतत्वप्रदीपम् ।
विगतसकलादेश अनुपलब्ध।
Colophon:
३१५. प्रश्नोतरश्रावकाचार Opening
सेवत जहिं सुरईश, वृपनायक वृषदाइ हैं।
वदौ जिनवृपभेश, रच्यो तीर्थ वृष आदिजिन ।। Closing : तीनहिसे या ग्रथ के, भए जहानाबाद ।
चौथाई जलपथ विष, वीतराग परमाद ।। Colophon: इति श्री मन्महाशीलाभरण भूषित जैनी सुनु लाला बुलाकी
दास विरचिताया प्रश्नोत्तरोपासकाचारभाषायां अनुमत्यादिमप्रतिमाद्वय प्ररूपणो नाम चतुर्विशतिम प्रभाव ॥२४॥ इति भाषा प्रश्नोत्तर श्रावकाचार अथ सम्पूर्ण । सवत् १८२१ पौष शुक्ल दशमी चद्रवार । पुस्तकमिद रघुनाथ शर्मा ने लिखि। मगलमस्तु ।
३१६. प्रतिक्रमण सूत्र Opening: इच्छामि पडिकमिउ पगामसिज्झाए निगामसिज्झाण उब
तणाण परियत्तणाए आउदृणाए सारणाए" .
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११६
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain. Srddhant Bhavan, Arrahi Closing : एवमाह आलोइय निदिय गरहिय दुगथिय ।
तिविहेण पडिक्कतो वदामिणे चौवीस ।। Colophon: इति यतिना प्रतिक्रमणसूत्र सम्पूर्णम् । श्रीररतु ।
देखे--(१) जि० र० को०, पृ० २५६ ।
(2) Catg. of skt. & Pkt. Ms., page, 669.
Opening :
Closing •
३१७. प्रवचनपरीक्षा त्रिलोकीतिलकायार्हत्पु वराय नमो नमः । वाचामगोचराचिन्त्य बहिरभ्यन्तरश्रिये ।।
परमामृतदानेन प्रीणयद्विवुधान् परम् ।
शरण भक्तिमन्नेमिचन्द्रवज्जिनशासनम् ।। अनुपलब्ध ।
वेखे--जि० २० को०, पृ० २७० । ३१८. प्रवचन प्रवेश
Colophon :
Opening : धर्मतीर्थकरेभ्योस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः ।
वृपभादिमहावीरातेभ्य स्वात्मोपलव्धये ।। Closing : प्रवचन पदान्यभ्यस्यार्था स्तत परिनिष्ठिता
नसकृदववुद्ध द्धाद्वोधाद्वधो हतसशय ।
भगवदकलकाना स्थान सुखेन समाश्रित ,
___ कथयतु शिव पथान व. पदस्य महात्मनाम् ।। Coophon: इति भट्टाकलकशशाकानुस्मृतप्रवचनप्रवेश समाप्त ।
अयमपि एन नेमिराजाख्येन लिखित । माघशुवल अयोदश्या समाप्तः । दक्षिण कनाडा मृडविद्री १९२५ फेब्रवरी।
देखे-जि० २० को०, पृ० २७० । ३१६. प्रवचनसार Opening . सर्व व्याप्यकचिद्रूप, स्वरूपाय परमात्मने ।
स्वोपलब्धि. प्रसिद्धाय ज्ञानानदात्मने नम ॥ Closing : इतिगदितिमनीचस्तत्वमुन्चावच
य, चित्तित्तदपि किलाभूवकल्पमग्नौ कृतस्य ।।
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११७ Catalogue of Sanskrit, Prakrt, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acāra) अनुभवत्तदुच्चः विश्चिदेवाद्य यस्माद्,
अपरमिह न किंचित् तत्वमेफ परचित् ॥ Coloplion : इति तत्वदीपिका नाम प्रवचनसारवृत्ति समाप्ता ।
श्रीरस्तु। मवत् १७०५ वर्षे माद्रपदमासे शुक्लपक्षे पौर्णमास्या चुधवासरे अर्गलपुरमध्ये शाह जहान राज्ये लि० श्वेतावर रामविजयेन लिखाय्येद भाडिकास्यगोनृणा सधपत्तिना श्री साह श्री जयतीदासेन पुत्र जगतराजयुतेन स्वकीयज्ञानावरणीय कर्मक्षयनिमित्त पडित श्री वीस्कायदत्त वाच्यमान श्री चतुर्विघसघपुरत " . पुस्तक
जीयात् ।
देखें, (१) दि. जि प र, पृ. ६३ ।
(२) जि. र को, पृ. २७० । (३) प्र.जै सा., पृ. १७८ । (४) आ. सू, पृ.६६ ।
(5) Catg. of skt & pkt. Ms., P.671. ३२०. प्रवचनसार
Opening : मिद मदन बुधिवदन मदनमदकदनदहन रज,
लवद्विलसन अनत चारु गुनवत सत अज ॥ Closing : प्रवचनसार जी महान, वृदावन छदवद करी ।
ताको दूजिप्रत्यहरि आन मनयछित पूरन करी ।। Colophon
श्री प्रवचनसार जी गाया २७५ टीका सस्कृत २७५ भापा उद २८९४ । मकरमामे कृरणपक्षे तिथौ ७ वुधवासरे सवत् १९६६ ।
३२१. प्रायश्चित्त Opening ।
जिनचन्द्र प्रणम्यामकलक समन्तत ।
प्रागश्चिन प्रवक्ष्यामि श्रावकाणा विशुद्धये ॥ Closing :
महम्बागि बत्वेका पचनिष्क प्रपूजनम्, प्रायश्चित्त य करोत्येतदेव जाते दोषे तथा शान्त्यर्थमार्या ।
राष्ट्रस्गामो भूमिपस्यात्मनोपि स्वस्थावस्थित श तनोति ।। Colopnon: इत्यकलकस्वामि निरूपित प्रायश्चित्त समाप्तम् । मिती वि
सवत् १९७६ श्रावण शुक्ला चतुर्थी लिखित जयपुरे प० मूल चन्द्रण समाप्त प्रायश्चित्तो ग्रथ अकलकविरचित ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavaan, Arrab
Opening :
Cloing :
(१) दि० जि. न. र०, पृ. ६४ । देखे- (२) जि० २० को०, पृ० २७६ ।
(३) प्र. जै० सा०, पृ १८० । (४) रा सू II, पृ १७२ । (५) रा सू III, पृ १८६ ।
(६) Catg of Skt & Pkt M3, P 673 ३२२. पुण्य पचीसी
प्रथम प्रणाम अरिहत वहुरि श्रीसिद्ध नमीजे । __आचारज उवझाय तासु पदवदन कीजे । सत्रह से तेतीनके उन्म फागुगमाम ।
आदि पक्ष नमिभावमो कहै भगोती द्रास ।। इति पुण्य पचीसी। ३२३. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
परमपुरुष निज अर्थ को साधि भए गुणवृ द । आनदामृत्त चद को वदत्त ह्र सुषकद ।। अठारह से ऊपरे सवत् सत्ताईस ।
मास मागिमररतिससिर सुदि दोयज रजनीस ।। इति श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय ।
Colophon .
Opening .
Closing :
Colophoni
३२४. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय Opening :
देखें-क्र० ३२३ । Closing
अठारह से ऊपरे सवत् है बीस मास ।
मार्गसिर शिशिर रितु, सुदी है जरनीस ॥ Colophon इति श्री अमृतचन्द्र सूरि कृत पुरुषार्थसिद्धयुपाय सम्पूर्णम् ।
इद पुस्तक लिखत हरचदराय श्रवक पल्लीवार गोटि गुजरात कास्यप गोत्र तस्य तनय रामदयाल निविसते कान्यकुब्जे मिति वैशाखमासे शुक्लपक्षे गुरुवासरे दशम्या सवत् विक्रमादित्यै १९४७ ॥ विशेष—इसके आवरण ( कूट) पर एक स्टीकर चिपका हुआ है
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Gath'ogue of Sanskrit. Prakrit, Apabhrainsha & Hindi Manuscripts (Dharma, Dartana ācāra )
Opening :
Closing :
Colophon :
Opening
Closnig :
जिन्दरम्यान विलोपाय दाबू सीरी असदारा " हिन्दी अयं दोनों भाषाओं में निया हुआ है। जिसका अन्य की प्रति में भम्बन्ध नही प्रतीत होता, अत. हामा टिन है।
३२५. रत्नकरण्ड श्रावकाचार मूत्री
ममः श्रीमाना निर्धातरुनिलात्मनेः । मानोकानां कितना वह्निद्यादपर्णायते ॥
११६
सुप्रयति मुगभूमि. कागिन फामिनीव,
नगिच जननी मां घुक्षशीलाभुनक्तु । कुनमिव गुणभूषण कन्यका नपुनीतात्, freelayers प्रेक्षिणो दृष्टिलक्ष्मी || इति श्री नमतभद्रस्वामि विरचितोपासकाध्ययने पचम परिच्छेदः समाप्तः ।
देखें - दि० मि० ग्र० २०, पृ० ६५ । जि० २० पो०, पृ० ३२६
प्र० जे० सा०, पृ० २०८ |
Colophon :
३२६. रत्नकरण्ड श्रावकाचार वचनिका
रहा इस ग्रन्थ के आदि में स्याद्वाद विद्याके परमेश्वर परम निग्रंथ वीतरागी श्री समन्तभद्रस्वामी जगतके भव्यनि के परमोपकार
के अर्थ
1
भा० सू० पृ० १२० ।
रा० सू० II, पृ० १६८ ।
रा० सू० III, पृ० ३४
Catg of Sht & Pkt Me., P 685.
हरि अनीति कुमरण हरो, करो
1
मोक् निति भूषित करो, शास्त्र जु रत्नकरड ||
इति श्री स्वामी समन्तभद्र विचित रत्नकरड श्रावकाचार
की देशभापामय वचनिका समाप्ता । इस प्रकार मूलग्रन्थ के अर्थ
का प्रसाद अपने शुक्ल चतुर्दश्यां शनिवासरे । सपूर्ण लिखा ।
•
हस्त ते लिखा । संवत् १९२६ श्रावण श्लोक अनुष्टुप १६०० हजार ग्रन्थ
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१२०
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
३२७: रत्नकरण्ड श्रावकाचार वचनिका
Opening:
वृपभ आदि जिन सन्मति सार । शारद गुरुकू नमि सुखकार ॥ मूल समन्तभद्र मुनिराज ।
वृत्ति करी प्रभेन्दु यतिराज । Closing
टीका रमणी देखिकरि, सस्कृत करि अभिराम ।
कल्पित किंचित् नही लिखी, रची तासकी दाम ।। Colophon: इति रत्नकरड वचनिका सम्पूर्णम् ।
३२८. रत्नकरण्ड विषम पद Opening :
रत्नकरडक विषमपदव्याख्यान कथ्यते । श्री वर्धमानाय ।। अतिम तीर्थङ्कराय ॥
जिनोक्तपदपदार्थप्रेक्षमशेलेति ।। Colophon. इति रत्नकरडक घिषमपदव्याख्यान समाप्तम् ।
विशेष--समत भद्राचार्य के रत्नकरडक के विषम पदो का व्याख्यान
है। आचार विषयक होने पर भी पुस्तक की प्रकृति कोशात्मक है। ३२९ रत्नमाला
Closing'
Openitig.
Co'sing
Colophon
सर्वज्ञ सर्ववागीश वीर मारमदायकम् । प्रणमामि महामोह-शातये मुक्तिताप्तये ॥ यो नित्य पठति श्रीमान रत्नमालामिमा परा। ससुद्धचरणो नन शिवकोटित्वमाप्नुयात् ।।
इति रत्नमाला सपूर्णम् । विशेष-छपी पुस्तक मे ६७ श्लोक है, जबकि उक्त प्रति मे ६८ हैं। देखे--जि०र० को०, पृ० ३२७ ।
Catg. of Skt & Pkt. Ms , P 686. ३३०. रत्नमाला
Opening:
सर्वज्ञ सर्ववागीश वीर मारमदापह । प्रणमामि गहामोह शन्तयेम मुक्ततापये ॥१॥
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१२१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acara)
Closing : योनित्यम्पठति श्रीमान् रत्नमालामिआ पराम् ।
सशुद्धभावनोनून शिवकोटित्वमाश्रुयात् ॥६७॥ Colophon इति श्री समन्तभद्र स्वामि शिष्यशिव कोटयाचार्य विरचिता___रत्नमाला समाप्ता ॥ शुभभूयात् ।
३३१: राजवात्तिक
Opening : प्रणम्यसर्वविज्ञानमहास्पदमुसाश्रेय ॥
मिथों तकल्मपचीर वछये तत्वार्थवत्तिकम् ।।१।। Closing | प्रत्यक्ष तमगवतानहतातैश्च माषितम् ।।
गुहयतेस्तीत्यत प्रान्निधद्मपरीक्षया ॥३२ ।। Colophon . इति तत्त्वार्थवात्तिके व्याज्यानालकारे दशमो ध्याय । समाप्त ।
देखे-जि० र० को, पृ० १५६ । __Catg of Skt & Pkt Ms,P 869
३३२. रूपचन्द्र शतक
Openings
Closing :
अपनी पद न विचारहु, अहो जगत के राय । भववन ज्ञायकहार हे, शिवपुर सुधि विसराय ॥ रूपचद सद्गुरुनिकी जतु वलिहारी जाइ ।
आपुनर्व सिवपुर गए, भव्यनु पथ दिखाइ ।। इति श्री पाडे रूपचद शतक समाप्तम् ।
Colophoni
३३३. सद्वोध चन्द्रोदय
Opening :
यज्जानन्नपि बुद्धिमानपि गुरु शक्तो न वक्त गिरा, प्रोक्त चेन्न तथापि चेतसि नृणा सम्मातिचाकाशवत् । यत्रस्वानुभवस्थितेपि विरला लक्ष्य लभन्ते चिरात्, तन्मोक्षकनिबन्धन विजयते चिततृमत्यङ्ग तम् ॥१॥
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१२२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Slir Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing!
तत्वज्ञानसुधार्णव लहरिभिर्दू र समुल्लायन्, तृच्छायत्र विचित्रचित्तकमले सकोचमुद्रां दधत् । सद्विद्याश्रितभव्यकैरवकुले कुर्वन्विकाश श्रिय,
योगीन्द्रोदयभूधरैविजयते सद्वोधचन्द्रोदय. ॥५०॥ Colophon! इति श्री सद्वौषचन्द्रोदय समाप्तम् ।
विशेष-जिनरत्नकोष पृ० ४१२ पर 'पद्नानन्द' कृत सद्बोधचन्द्रोद्रय
का उल्लेख है, जिसमे ६० मस्कृत श्लोक है। किन्तु इसमे मात्र ५० श्लोक हैं। देखे-जि० र० को०, पृ. ४१२ ।
Catg. of Skt & pkt, M. P 700.
३३४. सद्वोध चन्द्रोदय
Opening
Closing 1 Colophon
देखे--क्र० ३३३ ।
देखे--क्र० ३३३ । इति पद्मनन्दिविरचितसद्वोधचन्द्रोदय समाप्तः ।
३३५. सज्जनचित्त बल्लभ
Opening |
Closing 1 Colophons
नत्वा वीरजिन जगत्त्रयगुरु मुक्तिश्रियो वत्लभं, पुष्पेषु क्षीयनीतवाणनिवह ससारदुखापहम् । वक्ष्ये भव्यजनप्रबोधजनन अथ समासादह नाम्ना सज्जनचितवल्लभमिम शृण्वतु सतो जना ।। वृत्तै विशति · · " ससारविच्छित्तये ॥ इति सज्जनचित्तवल्लभ समाप्तम् । देखे--दि० जि० ग्र० २०, पृ० ६७ ।
जि० र० को., पृ. ४११ । प्र० जै० सा०, पृ० २३० । रा० सू० II, पृ० ३६०, ३७३ ३५६ । जै. ग्र प्र. स. १ पृ ६१, ७२ । Catg. of Skt & Pkt. Ms., P. 700.
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१२३ Cata'ogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara)
३३६. सज्जनचित्त बल्लभ
Opening:
Closing .
यहा प्रथम हो टीकाकार अपने इष्टदेवगुरुशास्त्रदेव को नम
स्काररूप मगलाचरण कर है। हरगुलाल कहै, जोली जगजालदहै । और शिवनाही लहै तोली तू ही स्वामी हमार है । इति सज्जनचित्तवल्लभ नाम ग्रन्थ सपूर्णम् सवत् १९५३ ।
Colophon .
३३७• संबोध पंचास्तिका
Opening
Closing :
णमिऊण अरूहचरण वदे युणु सिद्ध तिहुथणे सार । आयरियउज्झायाण साहू वदामि तिविहेण ।। सावणमासम्मि कया गाहावधेण विरइय सुणह।
कहिय समुच्चय छपयडिज्जत च सुहवोह ॥५०॥ इति सवोध पचास्तिका समाप्तम् । देखे,--जि. र० को०, पृ० ४२२ ।
Catg. of Skt & Pkt. Me., P 704.
Colophon
३३८. संबोध पंचारित्तका सटीक
Opening: Closing
Colophn:
देखे-क्र० ३३७ ।
अस्या सवोधपचासिकाया बहवो अर्थों भवति परन्तु मया सपेक्षार्थे कथिताः च पुन. सुख स्वात्मोत्पन्नसुख बोधि प्राप्त्यर्थ मया कृता ।
इति सवोधपचासिका धर्माविकाशिकशास्त्र समाप्तम् । श्री गौतमस्वामीविरचित शास्त्र समाप्तम् । सम्वत् १७६३ वर्षे शाके १६५८ प्रवर्तमाने कार्तिकमासे कृष्णपक्षे पष्ठी तिथौ।
शुभमिती पौपकृष्णा ७ मंगलवार श्रीवीर सवत् २४६२ वि० स० १९९२ के दिन यह प्रतिलिपि लिखकर तैयार हुई। ह. रोशनलाल जैन।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
३३९. समयसार (आत्मख्याति टीका)
Opening : नम समयसाराय स्वानुभूत्या चकाशते ।
चित्स्वभावायभावाय सर्वभावातरच्छिदे ॥ Closing | स्वशक्तिससूचितवस्तुतत्वं., व्याख्याकृतेय समयस्य शब्द ।
स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति, कर्त्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरि ॥ Colophon: इति समयसारव्याख्यायामात्मख्यातिनाम्नी वृत्ति समाप्ता ।
समाप्तश्चसमयसारव्याख्याव्यास. । श्रीरस्तु लेखकपाठकयोः मगलमस्तु । ओकाराय नमो नम । परमात्मविनाशिने नमोनम । ओ नम सिद्धाय।
देखे--दि जि नर,पृ. ६६ ।
जि र. को,पृ. ४१८ । प्र. जै सा., पृ २३५ । आ सू पृ. १३५ । रा. सू. II, पृ. १९६, ३८६ । र सू III, पृ ४३ ।
Catg of Skt. & Pkt. Ms., P. 703.
३४०. समयसार (आत्मख्याति टीका) Opening : देखें-क्र० ३३६ ।
Closing i देखे--क० ३३६ । Colophon: इत्यात्मख्यातिनामा समयसार व्याख्या समाप्ता ।
विशेष—यह ग्रन्थ करीव १६०० विक्रम संवत् का है।
३४१. समयसार सटीक Opening I देखे–० ३३९ । Closing : अनुपलब्ध।
३४२. समयसार नाटक Opening : करम भरम जगतिमिर हरन खगतुरग लसन पगशिव
मगदरमी। निरखत नयन भविक जल वरपत हरपत अमितविक
जन सरसी॥
Chen
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१२५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acara)
Closing .
समसार आतमदरव, नाटकभाव अनत ।
मोहै आगम नामपै, परमारथ विरतत ।। Colophon: ___ इति श्री परमागम समसार (समयसार) नाटकनाम सिद्धान्त
सम्पूर्ण ।
मवत् १७३५ वर्षे माधसुदि ८ वृहस्पतिवारे साहिजहानाबादमध्ये पातिसाह श्री अवरगजेबराज्ये। श्रीमालज्ञाति शृगार।
अज्ञानभावान्मतिविभ्रमाद्वा, यदर्थहीन लिखत मयात्र । तत्सर्वमार्यपरिशोधनाय, कोप न कुर्यात खलु लेखकस्य ।
३४३. समयसार नाटक
Opening
देखे- क्र० ३४२ । Closing : देखे-क्र० ३४२। Colophon:
इति श्री परमागम नाटक समयसार सिद्धान्त सम्पूर्णम्। लिखत प्रयागमभ्ये। सवत् १८२८ वर्षे मिति श्रावण सुदि १२ तिथी ज्ञवासरे लिखत शुभवेलाया लेखक पाठक चिरजीव आयु । श्रीरस्तु ।
ओसवाल जातीय वैणी प्रसाद जी पुस्तक लिखायो प्रयाग मध्ये स० १८२८ वर्षे लिखत श्री।
३४४. समयसार नाटक
Opening ! देखे-त्रम ३४२ । Closing : देखे-क्र० ३४२ । Colophon:
___इति श्री परमागम समयसार नाटकनाम सिद्धान्त सपूर्णम् ।
इति श्री परमागम समयसार नाटक मिति अग्रहण शुक्ल प्रतिपदा बुधवासरे तृतीये प्रहरे पूर्ण किया। ।
३४५. समयसार नाटक ।
'Opening :
Closing Colophon .
देखे०-०, ३४२। देखे०-३०, ३४२।
सर्वत् १७४५ फागुन वदि १० शनिवार को पूरन भया।
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१२६
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavran, Arrab
३४६. समयसार नाटक सार्थ
Opening :
Closing : Colophon :
देखे, ऋ० ३४२ । देखे, ऋ० ३४२ ।
इतिःश्री परमागम समयसार सिद्धान्त नाटक समाप्त ।
३४७. समयसार नाटक
Opening
Closing : Colophon:
देखें, ऋ० ३४२ । ... बानी लीन भयो जगमो ___ अनुपलब्ध।
।
३४८. समयसार नाटक
Opening : देखें, ऋ० ३४२ । Closing
देखें, क्र० ३४२ । Colophono: इति श्री परमागम समयसार नाटक नाम सिद्धान्त समा
प्तम् । श्लोकसख्या १७०७ । सन् १८८६ मिती माघ शुक्ल ४ वार रविवार के सपूरन भया। दसखत दुरगाप्रसाद आरेमध्ये महाजन टोली मे।
३४६. समयसार नाटक
Opening: देखें, क्र० ३४२ । Closing # देखें, ऋ० ३४२ । Colohpon ! इति श्री नाटक समयसार सम्पूर्ण। सवत् १८६२ ।
वैशाख मास कृष्णपक्ष तिथि साने (सप्तमी) शनिवार दिन गौरीशकर अग्रवाल जैन धर्म प्रतिपालक • लिखी पठनार्य जैनधरम पालनहार भी मगल ददातु ।
Page #327
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१२७
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acāra)
३५०. समयसार नाटक
Opening : देखे, क० ३४२ ।
Closing ; देखे क्र० ३४२ । Colophon; इति श्री समयसार नाटक सिद्धान्त समाप्तः। सवत १७२५
असु १० म.।
३५१. समयसार नाटक
Opening : • दलन नरकपद क्षयकरन, अतट भव जलतरन ।
घरसवल मदन वनहर दहन, जय जय परम अभय करन ।। Closing : देखे क्र. ३४२ । Colophon इति त्री परमागम समसार नाटक नाम सिद्धान्त बनारसी
दासकृतम् । लिखित नित्यानदब्राह्मणेन लिखायत श्रावग जीवसुखराम उभयोमगल ददातु। सवत् १८७६ वर्षे भाद्रपद शुक्ला ५ बुधवासरे समाप्ता. । शुभ भूयात् ।
३५२. सम्यक कौमुदी
Opening :
श्री वर्द्धमानस्य जिनदेव जगद्गुरुम् ।
वक्षेह कौमुदी नृणा सम्यक्तगुण हेतवे ॥ १॥ Closing! अर्हद्दामेन राजा हृष्टस्तस्य पुण्य कृता प्रशसनश्च ।।
देखें-(१) दि० जि०म० २०, पृ०७१ ।
(२) जि० र० को०, पृ० ४२४ । (३) प्र जै सा , २३६ । (४) ० सू., पृ० १३२, १३३ ।
(५) रा० सू० II, पृ० ८१ । ३५३. समाधिमरण
यश अपने इष्टदेव को नमस्कार करि अतिम समाधिमरण ताका सरूप वरनन करिए है। सो हे भव्य तुम सुणौ। सोही अब लक्षण वरणन करिह। मो समाधिनाम नि कषाय का है शाति प्रणामौ (परिणामो) का है।
Opening :
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain. Siddhant Bhavan, Arrah
Closing :
ताका सुख की महिमा वचन अगोचर है। Colophon • इति श्री समाधिमरण सरूप सम्पूर्णम् । सवत् १८६२
आसोज सुदि ५ गुरुवारे लिखत महात्मा वकसराम सवाई जयपुर मध्ये । श्री चन्द्रप्रभ चैत्यालय ।
३५४. समाधितन्त्र
Opening : जिनान् प्रणम्याखिलकर्ममुक्तान गुरुन यदाचारपरान तथैव ।
समाधितन्त्रस्य करोमि वालाविवोधन भव्यविबोधनाय ।। Closing :
इण ही आठ प्रकार का पृथक-२ जघन्य अतरासमय १ जाणिवा । Colophon • इति समाधितत्रसूत्र बालबोध समाप्ता। ग्रन्थसख्या ४८००,
सवत् १८७४ शाके १७३९ । आषाढ शुक्ल १ रवि पुस्तकग्घुनाथशर्मणा लेषि पाठार्थ रत्नचदस्य । शुभ भूयात् । __ देखे, जि. र० को०, पृ० ४२१ ।
Catg. of Skt & pkt Ms , P. 703.
३५५. समाधितन्त्र सटीक Opneing : जिनान् प्रणम्याखिल कर्ममुक्तान गुरुन् सदाचार
परात् तथैव। समाधितत्रस्य करोमि वालावबोधन . भव्य
विवोधनाय ॥ Closing ! ' अर्घोदय सुकृतधी कृत्त वा समाधौ ॥ Colophoni ___वालबोध समाधितत्रसूत्र भव्यप्रबोधनाधिकारे आत्मर
सप्रकाशे धर्माधिकार सम्पूर्णम् । सवत् १७८८ प्रवर्तमाने फागुण (फाल्गुन) वदी ११ तिथौ मुनि फत्तेसागरेण लिपि चक्रे ।
३५६. समाधितन्त्र
Opening !
Closing : Colophon.
देखें-क्र० ३५४ । देखे-क्र० ३५४ ।
नही है।
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१२६ Catalogue of Sanskrit, Prakrt, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara )
३५ ७. समावितन्त्र वचनिका
Opening
इहाँ स स्कृत मे प्रवीग नाही अर अर्थ सीखने के रोचक
असे केत्तेक्सुबुद्धी मूलग्नथ का प्रयोजन । Closing ! औरनितू भी मेरी सोधिवे निमित्त प्रार्थना है सो देखि सोधि
लीजियो। Colophon ' इति समाधितत्र वचनिका माणिकचद कृत स पूर्णम् । स वत्
१९३८ का मिती माघ शुक्ल पडिवा शुक्रवार ।
३५८. समाधिशतक
Opening :
येनात्मावुद्धात्मव परत्वेनैवचापर ।।
अक्षयानतबोधाय तस्मै सिद्धात्मने नम ॥१॥ Closing :
ज्योतिर्मय सुखमुपैति परात्मतिष्ट ।।
स्तन्मार्गमेतीधगम्यसमाधितत्रम् ।। १०५ ॥ Colophon इति श्री समाधिशतक समाप्तम् ॥ शुभमस्तु सिद्धिरस्तु। स वत् १८१४ । आश्विनकृष्ण ७ गुरुवासरे पुस्तकदमिद स पूर्णम् ।।
देखे-जि० र० को०, पृ०४२१
३५९. सम्मेदशिखर महात्म्य
Opening : पच परमगुरु को नमो दोकर सीस नवाय ।
श्रीजिन भापित भारती, ताको लागो पाय ॥ Closing : रेवा सहर मनोग, वस श्रावग भव्य सव ।
आदित्य ऐश्वर्य योग, तृतीय पहर पूरन भयौ ।। Colophon
इति श्री स मेदशिखरमहात्मे लोहाचार्यानुसारेण भट्टारक श्री जगत्कीर्ति छप्पय लालचद विरचिते सूवरकूटवर्णनो नाम एकविंशतिम सर्गः ॥२१॥ समाप्त भया। इति श्री सवेदशिखर महात्म जी सपूर्णम् । लिवित गुचद अगरवाले जैनी कानतीलगोत्रस्य पुत्र
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah ३५६ बाबू मुन्नीलाल जीके। श्लोक ॥ १२६० ॥ मिति जेठ वदी ५
रोज सनीचर। संवत् १९३३ साल के सपूर्ण भया। पत्र चौतीस ।
३६०. सप्तपंचास दास्त्रविका
Opening ,
अभिवन्द्य जिनान् वीरान् सज्ञानादि गुणात्मकान । कर्णाटभाषाया वक्ष्ये जकामास्रव सन्मते । ध्यानमुम मेनगे दिसदुदये गेय्यलिकर कृतपराध क्षतुमर्हति
Closing :
सतः।
Colophon : मन्मथ नाम संवत्सरद श्रावग बहुल विदिगे बुधवारदल्लु
मगलम् ।
३६१. सत्वत्रिभगी
Opening : पणमीय सुरेंद्रपूजिय पयकमल वड्डभाडममलगुण ।
पचासतावण वोछेह सुणुह भवियजणा ॥१॥ Closing : पचासवेहि विरमण पचिदिय णिगहोकसायजया ॥
तिहि दडेहि यविरदिस सारस संयमा भणियो । तिथयरातपि यराहट्टधर चकायअधकाय ।।
देवायभोगभूमिआहारा अत्यिणस्थिणिहारा ॥ १६४ ॥ Colophon: इत्यास्रवबधउदयोदीरसत्वत्रिभगीमूल समाप्तः उडुयपुर
प्रात दुर्ग ग्रामस्थ रामकृष्ण शास्त्रि तनयेन रगनाथ भट्टारव्येन लिखित्वा परिधाविवत्सरे वैशाख मासी शुक्लपक्षे पौणिग्या समापितस्यास्य प्रथस्य शुभमस्तु ।
३६२. सत्यशासन परीक्षा
Openingr विद्यानन्दाधिष स्वामी विद्वद्देवो जिनेश्वर ।
यो लोककहितस्तस्मै नमस्तात्स्वात्मलव्धये ।। Closing : तदेवमनेकवाधव सद्भावात् भादप्राभाकररिष्टम् । •
भूयात् । Colophone नही है।
देखे-जि० र० को, पृ. ४१२ ।
भद्र
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१३१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acāra)
३६३. सत्यशासन परीक्षा
Opening : देखे-क्र. ३६२ । Colophon यतो युगपद्भिन्नदेशस्वाधारवृतित्वे सत्येकत्व तस्थासिद्ध
त्स्वाधारावृत्तित्वेसत्येकत्व तस्य सिद्धयत्स्वाधारातरालेस्तित्व साधयेदिति तदेवमनेकवाधकसद्भावाद्भातृप्राभाकरिष्टम् ॥
३६४. सागारधर्मामृत ( स्वोपज्ञटीका )
Opening . श्री वर्द्धमाननमाम्य मदबुद्धि प्रबुद्धये ।
धर्मामृतोक्न सागार धर्मटीका करोम्यहम् ।। Closing : यावत्तिप्ट शासन जिनपते छिंदानमतस्तमो,
यावच्चार्कनिशाकरौ प्रकुरुत पुसा इशामुत्सव । तावत्तिष्ठतु धर्मस्तरिभिरिय व्याख्यायमाना निश,
भव्याना पुरतोत्रदेशविरता वार प्रवोधोद्ध र ।। Colophon: इप्याशाधर विरचिता स्वोपज्ञधर्मामृतसागारधर्मटीकाया भव्य
कुमुदचद्रिका नाम्नी समाप्ता।
अनुपस्या दसापचशतायाणिसता मता सहस्त्राण्यस्य चत्वारि ग्रथस्य प्रमिति किल। मिति मार्गशिर (शीर्ष) कृष्णा ४ रविवासरे लिखत रामगोपाल ब्राह्मण वासी मौजपुरमध्ये अलवर का राजमै ।
देखे- जि० र० को०, पृ० १६५।।
Catg. of ekt. & pkt. Ms., P.707.
३६५. सामायिक
Opening , पडिक्कमामि भते। इरिया वहियाए विराहणाए
अणागुत्ते • " । Closing : गुरव पातु नो नित्य ज्ञातदर्शननायकाः ।
चारित्रार्णवगभीरा मोक्षमार्गोपदेशका ॥ Colophon ; इति सामयिक सपूर्णम् ।
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___ श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah
३६६. सामायिक
Opening. I
Closing :
सिद्धश्चाप्ट गुणान्भक्त्या सिद्धान् प्रमणमत सदा । सिद्धकार्या. शिव प्राप्ता. सिद्धि ददतु नोहिते ॥
एव सामयिक सम्यक् सामायिकमखण्डितम् । __ वर्तता मुक्तिमानेन वसीभूतमिद मम ।। १२ ।। इति श्रीलघु भामायिक समाप्तम् ।
Colophon :
३६७. सामायिक
Opening : सिद्धिवस्तुवचोभवत्या सिद्धान् प्रणमते सदा ।
सिद्धिकार्यासिवप्रेदा सिद्ध दधतु नोव्ययम् ॥ Closing : - भो मामायक मुक्ति वध के वसीभूत असे
___तुम्हारे अर्थ हमारा नमस्कार होहु । Colophon i इति सामायक सम्पूर्णम् ।
३६८. सामायिक
Opening i
अर्हन्त भगवान की वाणी की भक्ति करि सदाकाल सिद्धभगवान कू नमस्कार करते । Closing : जलयी वाकी संख्या। वाजिक वजासुन वाकी संख्या।
दशोदिशा की सख्या । Colophon इति सामायिक सम्पूर्णम् ।
३६६. सामायिक वचनिका
Opening:
आदि रिपभ सनमति चरम, तीर्थंकर चउवीस । सिद्ध मुरि उवझाय मुनि, नमू धारिकरि शीश ।। ऐस सामायिक पठ्यो सारजानि मुनि वृद। धर्मराज मति अल्प फुनि भाषामय जयचद ।।
Closing i
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Catalogue of Sanarit. Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts (Dharma, Darsana Acara )
Colophon :
Opening
Closing
Colopnon :
Opening
नामा िवचनका नपूर्णम् । लिखितमिद [ पुस्तक श्रावक नौ (नव) नव पुत्र नन्हे रामजी योदूका का सवाई मिति भाषा मुद्री १० नवत् १८७० का ।
३७०. सामायिक वचनिका
Closing:
Opening:
देखें- ३६६॥
२०३६
सामाजिक वचनिका नपूर्णम् ।
३७१. शानन प्रभावना
Closing :
निवद्भगुगलकरणानंतर परापरगुरून् शास्त्राणिपूर्वाचाविविनथाः उपदेशा गुर्वाकारहरय प्रकाशका व्यवहारः कर्मयोग जिनप्रतिष्ठाया शान्त्राणि पाच व्यवहारश्च तेपा दृष्टिः नम्मा प्रतिपतिया
१३३
1
1
प्रकृत्या नहींदवजिनेन्द्रप्रमाणणा. त्र जैनेन्द्रन्याकरण च पति महारेरात् जयवर्मा नाममानवाधिपति पतिदेवचद्रादीन् श्लोके - नोपरतुन वशिप्रविशालकोर्योदय जयति म बालनरस्वती महाक विमदनादय विदाधेमध्ये भट्टारक दिनयचद्रादय अहंत्प्रवचन मोक्षमार्गे स्वय कृतनिर्धन स्फुट प्रतिभाग सिद्धिशब्दो कचिदुप्रातेषु यम्य तत् जिनागम निर्यासभूत आराधनासारभूपालचतुविशतिस्तवनाद्ययं प्रतिष्ठाचार्य सर्वाधिन वसुनदिसंद्धांत्याद्याचार्यविरचितानि स्पष्टीकृत्य पचकल्याणा (का) दिविधानकयनात् शासनप्रभावना अभ्यर्चनम् ।
अनुपलब्ध |
३७२. शास्त्र-सार-समुच्चय -
श्री विवुधधजिनके लि चित्सुख दमिद्धपरमे पितगलम् । भावजजयमावुगल भविसिपोडे व पटुपडवेनक्षयसुखमम् ॥ १ ॥
देखे – जि० २० को०, पृ० ३८३ ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jarn Oriental Library, Jain Siddhant Bhavaan, Arrah
३७३. सिद्धान्तागमप्रशस्ति
Opening : गिद्धमणतमणि दिय मणुवममप्पत्य सोक्खमणवज्ज ।
केवल पहोह णिज्जियदुण्णय तिमिर जिण णमह ॥१॥ Closing !
सर्वज प्रतिपादितार्थ गणभृत्सूत्रानुटीकामिमा। यभ्यग्यन्ति बहुश्रुता श्रुतगुरु मपूज्य वीर प्रभु ॥ ते नित्योज्वल पद्मसेन परम श्री देवसेनाचिंता ।
भासन्ते रविचद्र भासिसुतप श्री पाल सत्यकोतिय ॥३६॥ Colophon :
These two Prashastees of Shri धवन सिद्धान्त and जयधवल सिद्धान्त are personally Copied from श्रा सिद्धान्त शास्त्र at गुरुवस्ति in moodbidri for the sake of the, Central Jain Oriental Library alias » सिद्धान्त भवन at Arrah, on the 30 th August 1912 at 10.30am. to 1230 am
By the most humble
जिनवाणी सेवक तात्या नेमिनाथ पॉगल
वार्शी-टोन
३७४. सिद्धान्तसार
Opening : जीवगुणट्ठाणसण्णापज्जत्ती पाणमग्गणणवणे ॥
सिद्ध तसारमिणमो भजामि सिद्धणमूसित्ता ॥ १॥ Closing!
सिद्दन्तसारवरसुत्तगुत्ता साहतु साहू मयमोहचता।
पूरतु हीण जिणणाहभत्ता वीरायचित्तासीवमग्ग जुत्ता ।। ।। Colophono :
सिद्धान्त सारसमाप्त.। श्रीवर्धमानाय नमः। हृयेन जिनेन्द्रदेवाचार्यनिन्दगता ॥
- सपूर्ण - देखे--जि० र० को०, पृ० ४४० । Catg. of Skt. & pkt Ms., P. 709. Catg. of Skt & Pkt. Ms., P. 312
Page #335
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१३५ Cntalogue of Sanskrit. Prakrit. Apabhromghn & Hindi Monuscripte
( Dharma, Darsann, Acira) ३७५ सिदान्तसार दीपक
Opening:
प्रीमंत EिITrine |
गोगीन्द्रयानि पिण्याद्वीप ||१॥ Closing :
प्रोरिमन पचनशिfilrना।
पोरगाय या मlanार मानिनि ॥ ११६ । Colohpon: निधी pिatrमारी समाना। अशुभनमानपत् १ वर्ग मागोगमा gril
-150 70....१०॥ Catg. of Ski of Phi. Ms., P 702. Catg.of Sit. SPht Ais,P 320.
३७६. सिद्वानमार दीपमा
Opening | Closing !
नही। नरी।।
७७. मिद्विविनिश्चय टीका
Opening :
आता जिनभाग्या गुबी मयसीम् ।
नत्या टीया प्रयक्ष्यामि गुगनिशि विनिश्चये ।। Closing : यत् एष तरमात् नैगम्य गालशून्यत्व यहिरन्तर्वा इत्येव
प्रयता इत्यादिना मम्मन्धः स्याद्वादमन्तरेण तदप्रतिपत्ते इतिभाव। Colophon: इति श्री रविभद्रपादोपजीवि अनन्तवीर्य विरचिताया सिद्धिविनिश्चय टीकामा प्रत्यक्षमिद्धि. प्रथम प्रस्ताव ।
__ देखे--जि० र० को, कृ० ४४१ ।
३७८. शलोकवात्तिक
Opening :
श्री वर्द्धमानमाध्याय घाति सघातपातनम् । विद्यास्पद प्रवक्ष्यामि तत्वार्थश्लोकवात्तिकम् ॥
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१३६
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jarn Oriental Library, Jain 'Erddhant Bhavan, Artah
Closing : Colophon :
अनुपलब्ध। अनुपलब्ध ।
देखे—जि २ को , पृ १५६ ॥
Catg, of Skt & Pkt Ms, P 698.
३७६. श्रादक प्रतिक्रमण
Opening !
जीवे प्रमादजनिता. प्रचुराप्तदोपा, यस्मात्ततिक्रमणत प्रलय प्रयान्ति ।
तस्मात्तदर्थममल मुनिवोधनार्थम्, ___ वक्ष्ये विचित्रभवकर्मविगोधनार्थम् ॥ अरकर पयथ हीन मत्ता हीन च जमए भाणिय । त खु मउणाणदेवयमप्भविदु खु खु वदितु ।। इति श्रावक प्रतिक्रमण सम्पूर्णम् ।
Closing :
Colophon :
३८०. श्रावकाचार
Opening : प्रणम्य त्रिजगत्कीति जिनेन्द्र गुणभूषणम् ।
सक्षेणैव सवक्ष्ये धर्म सागारगोचरम् ।। Closing ;
श्रीमद्वीरजिनेशपादकमले चेत षडघ्रि सदा, हेयादेयविचारबोधनिपुणा बुद्धिश्च यस्यात्मनि । दान श्रीकरकुडमलेगुणततिर्देहोशिरस्युन्नती,
रत्नाना त्रितय हृदि स्थितमसौ नेमिश्चिर नदतु ।। Colophon: इति श्रीमद्गुण भूषणाचार्य विरचितेभव्यजनवल्लभाभिदान
श्रावकाचारो साधुनेमिदेवनामाड़िते सम्यक्त्वचारित्रवर्णनम् तृतीयोद्देशसमाप्त । ग. रत्नेन लिखितम् । श्री सवत् १५२६ वर्षे चत्रसुदी ५ शनिदिने।
जैनसिद्धान्त भवन, आरा मे रोशनलाल लेखक द्वारा लिखी। शुभ बवत् १९६२ वर्षे आषाढ शुक्ला १५ मगलवासरे।
देखे--दि. जि. ग्र० र०, पृ० ४२, ७७ ।
रा० सू० III, पृ० ३६ ।
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१३७ Catalozue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acira)
३८१. श्रावकाचार
Opening :
श्रीमग्जिनेन्द्रचन्द्रस्य नाद्रवान चन्द्रिकागिनाम् ।। हपीकदुष्टकर्माप्टधर्ममतापनभम् ॥१॥ दुराचारचयानान्त दु ख ग दोह हानये ।।
नवीजियुपानकाचार चारमुत्ति. सुखप्रदम् ।।९।। Cloting . जीवन्त मृतक मन्ये देटिन धर्मवजितम् ।।
मनो धर्मेण न गुको दीधजीवी भविष्यति ॥१०१।। परीरमउन शील स्वर्णत्दावह तनो. ॥
रागोवक्तस्य ताम्वून मत्येनवोज्वल मुखम् ॥१०२।। Colophon • प्रति श्री पूज्यपाद स्वामि विचित श्रावकाचार समाप्त ।।
शुमभयतु ग १९७६ भादो वदी ३ निप्रित पं० मूलचन्द्रेण जयपुरे ।
देगे--जि र पो, ३६५ । (X)
Catg of Skt & Pkt Ms., P. 696. ३८२. श्रावकाचार
Opening : गजत केवलज्ञान जुत, परमौदारिक काय ।
निरपि छवि भवि छफत है, पीरम सहज सुभाय ॥ Closing . अमे ताका वचन के अनुमारि देवगुरुधर्म का श्रद्धान करें।
ति कुदेवादिक का वर्णन सपूर्ण । Colophon
इति श्री श्रावकाचार अथ समाप्त । श्रीरस्तु लेखकपाठकयो लिपि कृत पडिन शिवलाल नगर भालपुरा मध्ये मिति आपाढ वदी ३ भूमि (भीम) वासरे पूर्णीकृत सम्वत् १८८८ का।
३८३. श्रावकाचार
Opening : देखे-क्र० ३८२ । Closing:
सर्वज्ञ कीतराग का वचन ताने तू अगीकार कर और ताले
सरूप अगीकार कर श्रद्धान कर। Colophon • इति कुदेवादिक का वर्णन पूर्ण । इति श्री श्रावकाचार
ग्रन्थ पूर्ण। सवत् १८५६ फाल्गुन शुक्ल अष्टमी ।
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Closing:
१३८
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Juin iddhant Bhavan, Allah
३८४. श्रुतस्कन्ध Opening : बूढलियलालहर माणुस जम्मस्स याणियदिन्न ।
जीवा जेहिं णाणाया ना कुण नारकिया जेहिं ।। जो पढइ सुणइ गाहा, अथ' (अस्थ) जाणेइ कुणइ सद्वहण ।
आसण्णभब्वजीवो सो पावइ परम णिवाण ।। इति ब्रह्महेमचन्द्र विरचित श्रुत स्कंध समाप्तम् । श्रीरस्तु । शुभमस्तु ।
देखे-जि० र० को०, पृ० ३११ ।
Catg. of Skt. & pkt. MS , P. 697.
३८५. श्रुसागरी टीका Opening , अथ श्रुतमागरी टीका तत्त्वार्थसूत्रम्यद शाध्यायस्य प्रारम्यते ।।
सिद्धोमास्वामिपूज्य जिनवरवृषभ वीरमुत्तीरमाप्त
श्रीमत पूज्यपाद गुणनिधिमधियन्सत्प्रभाचद्रमिदुः ।। श्री विद्यानदधीशगतम् लमकल कार्यम नम्यरम्यम्
वक्ष्ये तत्त्वार्थवृत्ति निविभवतयाहंश्रुतादन्वदाख्य ।।१।। Closing : श्रीवर्धमानमकलकसमतभद्र. श्रीपूज्यपावसदुमापति
पूज्यपादम् ॥ विधा दिनदि गुणरत्नमुनीन्द्रसत्य भवत्या नमामि
परित श्रुतसागरायै ॥१॥ Colophon: इत्यनवधगधपधविद्याकविनोदनोदितप्रमोदरीयूष.रसपान विन
मतिसमासरल राज मतिसागर यतिराज राजितार्थनसमर्थेन तर्कव्याक ण छदोलकारसाहित्यादिशास्त्र निशिनमतिना यतिनादेवेन्द्र कीति भट्टारकप्रशिष्येण सकलविद्वज्जनविहितचरणसेवस्य श्री विधानदिदेवस्य सघायितमिथ्यामत ? देण श्रुतसागरेण सूरिणा विरचिलाया श्लोकवात्तिक राजवात्तिक मर्वासिद्धि न्याय कुमुदचन्द्रोदय प्रमेयकमलमार्कण्ड प्रचण्डाप्रर्वसहररीषमुख अन्य सदर्भ निर्मरावलोकनवुद्धिवि जिरा तत्त्वार्थटीकाया दशमो ऽन्याय ॥ इति तत्वार्थस्य श्रुतसागरी टीका समाप्ता चक्षुपत्कमिते वर्षे द्विससे माशते माघेवदि पक्षे पचम्या संवत्सरे ।।१॥ सहारणपुरे मध्ये लिषित मदबुद्धिना। भव्याना पठनार्थाय सीयारामकर शुभम् ॥२॥
देखे-जि. र० को०,पृ० १५६ (१५) ।
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१३६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara)
३८६. सुदृष्टि तरंगिणी
Opening :
जानिय । मनवचनतनत्रय सुद्धकरिक मदा तिनहि प्रनामिय ।। सवत् अष्टादश शतक, फिरि ऊपरि अडतीस । सावन सुदि एकादशी, अर्धनिश पूरणकीन ।
Closing :
Colophon: इति श्री सुदृष्टि तरगिणी नाममध्ये व्यालीसमी सधि सपूर्णम् ।
इति श्री सुदृष्टि तरगिणी नाम ग्रन्थ सम्पूर्णम् ।
धर्मकरत ससारसुख, धर्मकरत निर्वान ।
धर्मपथ साधन विना, नर तिर्यञ्च समान ।।
शुभ भवत् मगल दद्यात् । मिती ज्येष्ठ सुदी १० स वत् १९६१ ।
३८७. सुदृष्टि तरंगिणी
Opening
श्री अरहतमहत के, वदौ जुग पदसार । ग्रन्थ सुदृष्टितरगनी, करौ स्घपर हिदकार ।।
Closing असे समुद्घातनका शामान्य सरूप कया विशेष श्री गोम्मट:
सार जीत जानना तहां। Colophon i अनुपलब्ध।
३८८. सुखबोध टीका
Opening! .. ' न सम्यक्त्वपर्याय उत्पद्याते तदैव मत्यज्ञानश्रुताज्ञानाभावे
मतिज्ञान श्रुतज्ञान चोत्पद्यत इति । Closing . ... ... सख्येयगुणा पुष्करद्वीपसिद्धाः संख्येयगुणा. एवं
कालदिविभागेऽल्पबहुत्वमागमाढोद्धव्यम् ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Librury Jain Siddhant Bhavan, Arrah Colonhon: अथप्रशस्ती । शुद्वद्धतप प्रभाव पवित्रपादपद्मराज किंजल्प
पुजस्यमन: कोणकदेशकोडीकृताखिलशास्त्रार्था तरस्य पडित श्री वधुदेवस्यगुण प्रबन्धानुस्मरणजातानुग्रहेण प्रमाणनमनिर्णीताखिलपदार्थप्रपचेन श्रीमद्भ जबलभीमभूपालमार्तउसभायामनेकधा लब्धतर्कचक्राकल्केनावलवरादीनामात्मनश्चोपकारार्थेन पाडिल्यमदविलासात्सुखवोधामिधा वृत्ति कृता महाभट्टारकेन कुभनगरवास्तव्येन पडित श्री योगदेवेन प्रकटयतु सशोध्य बुधायदत्तायुक्तमुक्त किञ्चिन्मति विभ्रममभवादिति । प्रचड पडित. मडलीमौनदीक्षागुरोर्यो योगदेव विदुष कृती सुखबोधतत्वार्थवृत्तौ दशम. पाद समाप्त । जैन सिद्धान्त भवन आरा मे शुभमिति आषाढ शुक्ल ५ वृहस्पतिवार स० १६६२ वी० स० २४६१ । ह. राशनलाल जैन लेखक ।
देखे-जि-र. को०, पृ० १५६ (१३) ।
३८६. स्वस्वरूप स्वानुभव सूचक ( सचित्र ) Opening :
अथ अनादि अनत जिनेश्वरमुर मरस सुदर वोध मयिपर ।
परम मगलदायक हैं सही, नमतहूइस कारण शुभ मही ।। Colsing :
__ बहुत क्या कहूँ ज्ञान अज्ञान सूर्य प्रकाशवत् नये कहू वान है न होगा। Colophon | इति श्री क्षुल्लक ब्रह्मचारी धर्मदास रचित स्वरूपपस्वानु
भव सूचक समाप्त । स० १६४६ आ० सु० १०। ; विशेष-(आठो कर्मों की प्रकृतियो को आठ चित्रो द्वारा दिखाया
गया है)।
३९०. स्वरूप स्वानुभव सम्यक् ज्ञान Opening : देखे-क्रम ३८६ । । Closing :
मेरे अर तेरे वीच मे कर्म है, सो म मेरे न तेरे ____ कर्म कर्म ही मे निश्चय है। Colophone नही है। विशेश-(१) क्र० ३८६ की ही प्रतिलिपि है।
(२) मात्र नामकरण मे थोडा सा अन्तर है । (३) पेज न० २, ६, ७, ८, ९, १०, १२, १३ और १४
'मे बने हुए है।
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151 Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darśana Ācāra, ) ३६१. स्वरूप सम्बोधन
Opening.
Closing
मुक्तामुक्त करूपो य कर्मभिस्सविदादिना । अक्षय परमात्मान हानमूर्ति नमामि तम् ॥ इति स्वतत्व परिभाव्यवाड मय, य एतदाख्याति शृणोति चादरात् । करोति तस्मै परमार्थसपदम्, स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशति ॥२५॥ अकरो दार्हितो ब्रह्ममूरि पडित सद्विज । स्वरूपबोधनाख्यस्य टीका कर्णाटभापया ।। नही है।
देखे--जि० र० को०, पृ० ४५८ । ३६२. तत्त्वरत्न प्रदीप
Colophon .
Opening •
श्री निधिममन्तभद्र नबू ? पूज्यपादनजितनज,
विद्यानद तत्त्व सत्धान मनेमगीजे - मवयसार वीरम । Closing . माक्षाद्राक्षाफलाना सुग्ममधुरताधूरमास्ता निरस्ता मौधी
माधुर्य रीति परमतिविदुरा कर्कशागर्करापि वीचा वीचिविचारप्रचरतररसा सारनिष्यन्विनीना चेत्माक्लप्रवधप्रणयनसुहृदा श्रयते धर्मकीर्ते ॥
श्री श्रुतमुनये नम । तत्वसार ।
३६३. तत्वसार
Opening .
Closing .
झाणाग्निट्टकम्मे णिम्मलसुविसुद्धलद्धसल्भावे । णमिऊण परमसिद्ध सुतन्चसार पवुच्छामि ॥१॥ सोऊण तच्चसार रइय मुणिणाहदेवसेणेग।
जो सद्धिट्ठी भावइ मो पावइ सासय सुख ।।७४॥ इति तत्त्वसार समाप्तम् । देखे-जि० र० को०, पृ० १५३ ।
Catg, of skt. & Pkt. Ms., peag. 648,
Colophon!
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jarn Oriental Library, Jain Siddh int Bhavan, Arrah
३६४. तत्वसार भाषा
Opening |
Closing :
आदि सुखी अतज सुखी, सिद्धसिद्ध भगवान । निज प्रताप प्रलाप विन, जगदर्पण जग आन । सत्रहरी एकावने, पौष सुकल तिथि चार ।
जो ईश्वर के गुन लखै, सो पावै भवपार ॥ । नही है । ३६५. तत्वसार वचनिका
Colophon .
Opening i प्रणमि श्री अर्ह त · सिद्धनिकू शिरनाय ।
आचार्य उवझाय मुनि पूजू मनवचकाय ॥ Closing ! - - - पन्नालाल जु चौधरी विरचि जो कारक दुलीचदजी। Colophone इति ग्रन्य वचनिका बनने का सवध समाप्तम् । सवत् १९३८
का महावुदि १२ सोमवार ।
३६६. तत्वानुशासन
Opening
सिद्धस्वार्थान शेषार्थ स्वरूपस्योपदेशकान ।
परापरगुरून्नत्वा वक्ष्ये तभ्वानुशासनम् ।। Closing :
तेन प्रसिद्धधिषणेन गुरूपदेश, मासाद्य सिंफिसुखसपदुपाय भूतम् । तत्वानुशासनमिद जगते हिताय,
श्री रामसेन विदुषाव्यरच स्फुटोर्थम् ॥ Colophon: इद पुस्तक परिधावि मवत्सरे उत्तरायणे अधिक आषाढमासे
कृष्णपक्षे एकादश्याया सौम्यवासरे द्वाविंश घटिकाया दिवा च वेणूपुरस्त पन्नेचारीरित्तल विद्वत् वामनशर्मणा पचम पुत्र भग्दीति केशव शर्मणेन लिखित समाप्तमित्यर्थ श्री जिनेश्वराय नमः।
देखे,--जि० २० को०, पृ० १५३ । ३९७• तत्वार्थसार
Opening .
मोक्षमार्गस्य नेनार भेत्तार कर्मभूभृताम् । ज्ञानार विश्वनशाना वदे तद्गुणलब्धये ॥
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१४३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acāra) Closing: वर्णा पदाना कारो वाक्याना तु पदावलि ।
याक्यानि चाम्य शास्त्रस्य कणि न पुनर्वयम् ।। Colophon : इति श्री अमृतसूरीणाति तत्वार्थमारोनाम मोक्षशास्त्र
समाप्तम् । देखें--(१) दि० जि० म० २०, पृ० ७६ ।
(२) जि० र० को०, पृ० १५३ । (३)प्र० जै० सा०, पृ० १५० । (४) आ० सू०, पृ० ६६ । (५) रा० मू० II, पृ० १३३ । (E) रा० सू० II, पृ० १७६ ।
Catg. of Skt & Pkt. Ms., P.648,
३६८. तत्वार्थसार
Opening :
देखें, ३० ३६७। Closing
देखे, ३० ३६७ । Colophon: ___ इति श्री अमृतचद्रसूरीणा कृतिस्तत्वार्थमार्गेनाममोक्षशात्र
समाप्तम् । लिपिकृतम् बालमोकुन्दलाल अग्रवाला आराख्नग्न । श्रीरस्तु।
१६६. तत्वार्थसार
Opening :
देखे, क्र. ३६७ । Closing.
देखे, क्र. ३६७ । Colophon: इति अमृतचद्र सूरीणा कृति तत्वार्थसारी नाम मोक्षशास्त्र
समाप्तम् ।
श्री काष्ठासघे श्री रामकीर्तिदेवामुन्कन्दकीत्ति । गृथश्लोक सय्या ७२४ । मवत् १५५३ वैशाख सुदी सोमे श्री काप्ठासघे मापुरगच्छे पुष्करगणे आर्गलपुरमध्ये लिखाप्त ताड ? कीर्तिदेवा ।
४००. तन्वार्थमूत्र (श्रुतसागरी टीका)
Opening Cosing
देखे, क्र० ३८५। देखे, ३० ३८५।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavran, arrah
Colophon : इत्यनवद्मगद्यपद्यविद्याविनोंदेनोदितप्रमोदपीयूषरसपानपावन
मनिसमाजरत्तराराजमतिसागर यतिराजराजितार्थेनसमर्थेन तद्धर्मव्याकरण छदोलकारसाहित्यादि शास्त्रनिशितमतिना यतिना श्रीमद्यवेन्द्रोनि भट्टारकप्रशिप्येण चशिप्येण सकलविद्वज्वन विरचितचिरसो सेवस्य की विद्यानदिदेवस्य सर्दित मिथ्यामतदुर्गरेण श्रुतसागरेण सुरिणा मिरचिताया श्लोकवातिक राजवार्तिकसर्वार्थसिद्धिन्यायकुमुदचद्रोद्वय प्रमेय कमलमार्तण्ड प्रचडाप्टसहस्त्री प्रमुखग्राथ सदर्भनिर्भरावलोकनबुर्शिी राजिताया तत्वार्थटीकाया वशमोध्याय. समाप्त । इति तत्वार्यस्य श्रुतसागरी टीका समाप्ता। सवत् १७७० माघमामे शुक्लपक्षे तिसरी सप्तम्या रविवागरे पाटलिपुरे लिखितम् अमीसागरेण आत्मार्थे । श्री। श्री।
देखे--दि जि प र,पृ८५ ।
जि र को, १९६ (१५)। आ० सू० पृ०६७ रा० सू० III, पृ १३ । भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० १८१ । Catg of Skt & Pkt Ms, P 619
४०१. तत्वार्थसूत्र
Opening :
मम्यग्दर्शन ज्ञानचरियाणि मोक्षमार्ग । Closia:
तत्वार्यनूप्रकार शुक्ल पक्षोपनक्षितम् ।
यदे गणेन्द्र सजातगुमाग्वामि मुनीश्वरम् ॥ Colophon .
नि दमध्याय मूष मम्पूर्णम् लिखित पडिग परशुगे पर तारतोलमध्ये पनार्थम् लाला मोदयान मा बेटा मनुलाल में यान गयन् १९४६ मा मिति आमोज मुदी पूर्णमागी दिन गमाग .. दे-(१) दि० जि०म०1०, पृ०६१।
(२) जि.70 मी०, पृ० १५४ (२) (3) प्र ० माल., १५१।
11 ग ग III.12.11
Catg of Skt. & Pkti, P.T
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१४५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apa'yhr msha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara)
४०२. तत्त्वार्थमूत्र Opneing : वैकल्य द्रव्यपदक नवपदमहित जीवपटकायलेंग्या ॥
पचापचास्तिकाया व्रत समिति गति ज्ञानचरित्रभेदा ॥ इत्येतन्मोक्षमूल त्रिभुवनमहितं प्रोक्तमहंगिरीश ।।
प्रत्येतिश्रद्धाति स्पृशति च मतिमानय मवैशुद्धदृष्टि ।।१।। Closing . णवमे मपर निजर। दसमे मोक्ष्य वियाणेहि ।
इयत्त तच्च भणिय । दहसूत्रे मुणिदेहि ॥७॥ Colophon: इति श्री उमास्वामि विरचित तत्वार्यसूत्र समाप्त ।
लिखित पडित किसनचद सवाई जयपुर का वामी ।। धर्ममूर्ति धर्मात्मा कवरजी श्री दिलसुखजी पठनार्य ।।
४०३. तत्वार्थमूत्र
Opening : Closing : Colophon :
• • • ससारिणस्त्रमस्थावरा । देखे-क्र०४०१. इति उमास्वामीकृत तत्वार्थसूत्र समाप्तम् ।
४०४. तन्वार्थसूत्र Opening : काल्यं द्रव्यपटक · .. शुद्धदृष्टि ॥ Closing i तवयरण
निवारई ।। Colophon: इति श्री तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशाध्यायसूत्र जी
समाप्तम् ।
Opening : Closing Colophon:
४०५. तत्वार्थसूत्र वचनिका देखे- ऋ० ४०२॥
आनयन, प्रेष्यप्रयोग, पुद्गलक्षेप ... ...। अनुपलब्ध।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jan Siddhant Bhavan, Arrah
४०६. तत्वार्थसूत्र
Opening : देखे-क्रम ४०४ ।
Closing! देखे-० ४०४ । Colophon: इति सूत्रदशाध्याय समाप्तम् ।
श्रावणमासे कृष्णपक्षे तिथौ १ (एक) चन्द्रवासरे सवत् १६५५ श्री।
४०७. तत्वार्थसूत्र
Opening!
Closing ! Colophon!
काल्य द्रव्यपटक . . शुद्धदृष्टि ॥ तत्वार्थसूत्रकर्तारं - - मुनीश्वरम् ।।
इति उमास्वामीकृत तत्वार्थसूत्र समाप्तम् ।
४०८. तत्वार्थमूत्र ( मूल)
Opening :
कात्यद्रव्यपटक . शुद्धदृष्टि ॥ Closing : तत्वार्थसूत्र __... उमास्वामिमुनीश्वरम् ।। Colophoni इमि तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशमोध्याय. सवत् १६०८
चत्रकृष्णपक्ष नवम्या बुद्धवारे ।
४०६. तत्वार्थमूत्र Opening
त्रैकाल्य द्रव्यषद्क . ." शुद्धदृष्टि ॥ पहिले चतुके जीवपचमे जाणि पुग्गलत च । छहसत्तमेत्राश्रव अष्टमे जानि बध ।।
नवमे मवरनिर्जरा, दशमे ज्ञानकेवल मोक्ष ।। Colophon: इति तत्वार्थमूत्रम् ।
पुरन सुतर जी।
४१०. तत्वार्थमूत्र Opening : मोक्षमार्गस्य नैनारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
जातार विश्वतत्वाना वदे तद्गुणलब्धये ।
Closing'
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१४७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apnbhrathsha & Hindi Manupcripts
( Dharma, Darsana, Acira )
Closing :
भयो गिद्धकारज यह मगरा करता सोई।
माया पंधराधर्मजिन परमव मिलियो मोह ।। अनुपलब्ध।
Colophon:
४११. तत्वार्थमूत्र टिप्पण Opening : देखें-० ४१०। Closing :
मवत्
उगणीमैदशशुद्ध । फाल्गुण वदि दशमी तिथि बुद्ध ।। लिग्यो सून टिप्पण गुणयान ।
नमें सदा सुख निति धरिम्यान ।। Coloplion इति श्री तत्वार्थ सूत्र का देशभाषामय टिप्पण समाप्तम् ।
सवत् १६१० मिति फाल्गुण कृष्ण १४ दीत्त वार समाप्तम् ।
४१२. तत्त्वार्थवृत्ति
Openings जयन्ति कुमतध्वांतपाटने पटु मास्वरा ।
विद्यानदास्मता मान्या पूज्यपादा जिनेश्वरा. ॥ Closing
तस्यात्सुविशुदृष्टिविभव सिद्धान्त पारगत , शिष्य. श्रीजिनचद्रनामकलित चारित्रभूषान्वित.। वाशिष्ठेरपिनदिनामविवुधम्तस्याभवत्तत्ववित्,
तेनाकारिसुखादिबोधविषया तत्वार्थवृत्ति स्फुटम् ।। Colophon:
परमत महासैद्धान्तिजिनचद्रभट्टारकस्ताच्छिष्य पडित श्रीभास्करनदिविरचितमहाशास्त्रतत्वार्यवृत्तौ सुखवोधाया दशमोध्याय. समाप्तः।
स्वस्ति श्री विजयाभ्युदयशालिवाहनशकाब्दा. १७५० ने सर्वधारिसवत्सरद्कार्तिकसुद्ध १४ गुरुवारदिन तत्वार्थसूत्रक्के सुखवोधय व वृत्तियन्नु तगडूरू सिद्धान्तिब्रह्मसूरि ज्येष्ठपुत्रनादता, चद्रोपाध्यसिद्धातियुवरे दुदु सपूर्णवादुदु । जयमगल। शोभनमस्तु ॥
देखे-जि० २० को, पृ० १५६ ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devalcu mar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan. Arrah
४१३. तत्वार्थबोध
Opening : सिवमग दाइकमान, कर्मतिमिर गिरके हरने ।
सर्वतत्वमय ग्यान, वद जिणगुण हेतकू॥ Closing : सवठारास विप, अधिक गुन्यासी देम ।
कातिकसुद सासिपचमी, पूरनग्रथ असेस । मगल श्री अरिहत, सिधमगलदायक सदा ।
मगलमाधमहत, मगल जिनवर धर्मवर । Colophon : इति श्री तत्वार्यवोध ग्रथ मपूणम्। इति शुभ मिति
आषाढ सुदी १२ सवत् १९८२ ।
जैमी प्रत पाई हती, तंसी दई उतार । भूलचूक जो होय सो, बुधजन लियौ सुधार ।।
हस्ताक्षर प० चौबे लक्ष्मीनारायण के।
४१४. तत्वार्थमूत्र टोका
Opening : देखे०-०, ४१० । Closing : इह भाति करि घणाही भेदास्यो सिद्ध हुआ सो सिद्धान्त से
समझि लीज्यौ। Colophon : इति श्री तत्वार्थाधिगमै मोक्षशास्त्र दशमोध्यायः ।१०। श्री
उमास्वामी विरचित सूत्र बालावोध टीका पाडे जैवतकृत सपूर्ण । मवत् १९०४ वैशाख शुक्ल १२ लिपि कृत इदम् ।
४१५. तत्वार्थमूत्र वचनिका Opening : देखें-क्र० ४१० । Closing : जैसे ही कालादिक का विभागत अल्पवहुत्व जानना। ऐसे
द्वादश अनुयोगनि करि सिद्धनि में भेद है और स्वरूप भेद नहीं है। Colophon: इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे दशमोध्यायः ॥१०॥
__ देखें-क्र. ४११।
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१४६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Dharma, Darsana, Acara)
इति श्री तत्वार्थम्न का देगभापामय टिप्पण समाप्त । लिखत दौलतराम ब्रह्मरावसासनी मध्ये गुरु वकस के बेटा ने। संवत् १९२५ शुवन ६ गुरुवामरे सम्पूर्ण। शुभमस्तु ।
४१६. तत्वार्थमूत्र टीका
Opening
Closing .
शुद्धतत्व की अर्थ मे, लह्यो सार जिनराय । तिनपद नमो त्रियोगिकरि, होहु इप्ट सुखदाय ॥
आदि अत मगल करत, होत काज हितकार । __ तात मगलमय नमो, पच परम गुरु सार ।
इति तत्वार्थमूत्र दशाध्याय की तत्वार्थसार नामा भापा टीका समाप्ता। मवत् १९७० शक १८१५ चैत्र शुक्ला ५ भृगुवासरे लिपिकृतम् प० सीताराम शास्त्री निजक ण सशोधिता. ।
Colophon
४१७. तत्वार्थाधिगम मूत्र
Oprning:
पूज्यपाद जगढ द्य नत्वोमास्वामीभाषितम् ।
क्रियते दालबोधाय मोक्षशास्त्रस्य टिप्पणीम् ।। Closing
रत्नप्रभाकरा सर्वार्थसिद्धिराजवातिका.। श्रुताभोधिकृतयाश्चश्लोकवतिकसज्ञिका ॥ ताभ्य विशेषज्ञानाय ज्ञेया विस्तारमजसा।
अल्पज्ञानाय सर्वेषा रचिता बोधच द्रिका ॥ Colophon:
इति तत्वार्थ सिद्धान्त सूत्रस्य टीकासमाप्तेयम् । श्री रस्तु ।
सम्वत् १९१६ मिती फाल्गुन शुक्लदशम्या स्वहस्तेन लिपिकृतम् इन्द्रप्रस्थे प० शिवचन्द्रेण ।
४१८. तत्वार्थ वार्तिक
Opening:
Closing !
अनुपलब्ध।
इति तत्त्वासूत्राणां भाष्य भाषितमुत्तमः । यत्रसनिहितस्तर्कन्यायागम विनिर्णय ॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Colophon: इति तत्त्वार्थवार्तिकव्याख्यानालकारे दशमोध्याय समाप्त ॥
जीयाज्जगतिजिनेश्वरनिगदितधर्मप्रकाशक. सूरि. अभयेदुरितिख्यात परुवादिपितामह सततम् ।। वदे वालेदु मुनितममदवुधाणि गुर्णाननिधिम् यस्य वचस्तोऽशस्त स्वातघ्वत दुरस्तमपि नश्येत् ।।
श्रीपचगुरुभ्यो नम. मगलमहा। शके २२६२ वर्तमान परिधावी सवत्सरे भाद्रपदशुक्लएकादश्या भानुवासरे समाप्तोऽय प्रथः ॥ दक्षिणकर्नाटदेशे उडुपी कार्ककप्रात्यदुर्गग्रामनिवासस्थरामकृष्णशास्त्रिण पुत्रो रगनाथ भट्टन लिखित पुस्तकम् ।।
शुभ मगलानि भवतु ॥ देखे-जि. र० को०, पृ० १५६ ।
४१६. कालिकद्रव्य
.इत्यादि"
इस गथ मे मात्र "त्रकाल्य द्रव्यपटक अर्थ सहित लिखा गया है। अन्त मे एक भजन भी है।
४२०. त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति
Opening :
Closing :
अविहकम्मवियना णिय कज्जाारण? ससारा । दिट्ठसलत्यसारासिद्धासिद्धि मम दिसतु ॥१॥ सूरि श्री जिनचा ह्रि स्मरणाधीन चेनसा । प्रपास्तिविहिता वासौमीहाख्येनसुधीमत्ता ॥१३॥ यत्रद्यक्ताप्पवधस्यादर्थे जमयावृत्त । तदाशोध्यवृधर्वाच्चमनत गन्दवारिधि ॥१२४।।
Colophon :
इति मूरि श्रीजिनचद्रातेवामिना पडित मेधाविना विरचिता प्रयस्ता प्रशस्ति ममाप्ता ॥ श्री सिंहपुरी जैननीय समीप सथवा ग्राम निवानी कायस्थ बटनप्रसाद ने श्री जैन सिद्धान्त भवन, आ लिखा ॥ न. १९८८ विक्रम ।
द्धान्त मैवन, आरा में
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१५१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Ilındı Manuscripts
( Dharma, Darsana Ācāra, )
४२१. त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति
Opening i देखे--२० ४२० । Closing
देखे,-क्र० ४२० । Colopnon :
देखे--क्र० ४२० ।
४२२.. त्रिभङ्गा Opening i
श्री पचगुरुम्यो नमः॥ पणमियसुरिन्वद पूजियपयकमल वडमाणममलगुण ।
पच्चयपत्तावण्ण बोध्छेह सुणुह भवियजणा ॥१॥ Closing : जह चक्केण चक्की छयखड साहये अविग्घेण ।
तहमइ चक्केण मया छक्खड सहि सम ।। Colophon : इति श्री कनकनदि सैद्धातिकचक्रवतिकृत विस्तरसत्वविभगी
समाप्ता॥
४२३. त्रिभंगीसार टीका
Opening : सर्वज्ञ करुणार्णव त्रिभुवन धीमार्यपाद विभुम् ,
य जीवादिपदार्थसार्थकलमे लब्धप्रशम सदा । स नत्वाखिलमगलास्पदमह श्रीममिचन्द्र जिन,
वक्ष्ये भव्यजनप्रवोधजनक टीका सुवोधाभिधाम् ॥ Closing : श्री सद्यो हि युगे जिनस्य नितरा लीन शिवासाधरः,
सोम. सद्गुणभाजन सविनय, सत्पात्रदाने रतः। सद्रत्नत्रययुक् सदा वुध मनोल्हादीचिर भूतले,
नद्याद्यन विवेकिना विरचिता टीका सुवोधाभिधा ॥ Colophon:
इति त्रिभगीसार टीका समाप्ता। सवत् १६१५। विक्रगिताब्द्यवाणकरद्धाचंद्र वर्ष ज्येष्ठवदि तृतीयाया ३ सरगलवार पूज्य श्री अर्यानीऋपिशिष्य दुर्गनाम्नेति ऋपिलिस्यत नार्थ जलमार्गसज्ञाभिधानेन नगरे लिख्यनमिद पुस्तकमा ।
। यहप्रतिलिपि श्रावणकृष्णा १३ गुरुवार वि० सं० लिखी गई। हस्ताक्षर रोशनलाल लेखक। ,
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१५२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakum ir Jain Oriental Library, Jun S'ddhant Bhavan, Arrah
Opening
•
Closing :
Colophon.
Opening:
Closing:
Opening
Closing:
Colophon
देखे - जि० र० को०, पृ० १६२ । दि जि. ग्रर, पृ. ८७ ।
जं ग्र प्रस. १, पृ २८ प्रस्तावना, पृ २६ ।
४२४. त्रिलोकसार
गोविदमहामणि किरणकलावरुणचरणमा किरण । विमलपरममिचद तिहुवणचद णमसामि ॥ अरहतासिद्धआयरिय उवज्झायासाहु चपरमेट्ठी । sayaणमोयारो भवे भवे मम सुह हितु ॥ १०१० ॥
इति श्री त्रिलोकसारजी श्रीनेमिचद आचार्यकृत मूलगाया म गंम् । शुभमस्तु ॥
दखें - जि० र० को०, पृ० १६२ ।
Catg of Skt & pkt Ms, P. Catg, of Skt Ms, P. 320
४२५. त्रिलोकसार
देखें- -ऋ० ४२४ ।
महाध्वज प्रणपरिवारध्वज १०८ । महाध्वज इ १०८० । ल दि १
भी तैर्म हो जानना ।
४२६. त्रिलोकसार भाषा
११६६२० ।
समान ही सिन्धु नदी है मोम वर्णन
162,
तात परमवीतराग भावस्प शुद्धात्म स्वरूप जनित परम आनद की प्राप्ति करहु |
प्रति श्री त्रिलोकगार जी श्री नेमिचद्र आचार्यकृत लगाया नारी टीकृत कर्ता आचार्यमाधवचद्रताको भाषा टोमाटोडरम
J
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts (Dharma, Darśana, ācāra )
४२७. त्रिलोकसार
Opening :
Closing":
Colophon
2
★ Opening :
Closing
Colophon :
Opening Closing :
त्रिभुवनसार अपारगुन, ज्ञायक नायक सत । त्रिभुवन हितकारी नमो, श्री अरहत महत ||
अर्थको जानता सता रागादिक त्यागि मोक्षपद को पावै है |
अव संस्कृत टीका अनुसार लिए मूलशास्त्र का अर्थ लिखिए है । इति श्री त्रिलोकंसार का टीका का पीठवध सम्पूर्णम् । विशेष - अन्त मे पीठबध सम्पूर्ण ऐसा लिखा है, लेकिन ग्रथ की भाषा
टीका लिखी जा चुकी है ।
है ।
Colophon :
Opening :
Closing :
४२८. त्रिलोकसार
१५३
मगलमय मंगलकरन वीतराग विज्ञान नमो ताहि जाते भये अरिहतादि महान ||
इति श्री अरिष्ट नेम पुराण
1
अनुपलब्ध ।
४२६. त्रिलोकसार भाषा
देखे - क्र० ४२७ ।
अव संस्कृत टीका अनुसार लिए मूलशास्त्र का अर्थ लिखिए
इति श्री त्रिलोकसारसाषाटीका का पीठवध सम्पूर्ण । सवत् १८६६ वर्षे मिती सावन वदी दो लिखत भूपतिराम तिवारी, लिखी मोहोकमगज मध्ये 1
४३०. त्रिवर्णाचार (५ पर्व )
अथोच्यते त्रिवर्णाना शौचाचारविधिक्रम | शौचाचारविधिप्राप्ती देह सस्कतुमर्हसि ॥१॥ संस्कृतो देह एवासौ दीक्षणाद्यभिसम्मत | विशिष्ठान्वयजोऽप्यस्मं नेष्यतेऽयमसस्कृत. ॥२॥
तत्रोपनयादारभ्य समावर्तनपर्यन्तमुपनयनब्रह्मचारी । स्ती
सेवां कुर्वाणो जुगुप्सया गुरुसमक्षे तन्निवृत्त: आलम्वन ब्रह्मचाचारी । विवाहपूर्वक त्रिभुवनपरिग्रहारम्भाद् त्रियाप्रवृत्तो गृहस्थः । परिग्रहानु
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१५४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah
मत्युद्धिष्टनिवृत्ता वाणप्रस्था. । वैराग्यदीक्षितो महाव्रती भिक्षु. । इत्याश्रमलक्षणम् ।
Colophon: इति ब्रह्मरि विरचिते जिनसहितासारोद्धारे
प्रतिष्ठातिलकनाम्नि त्रैवर्णिकाचारग्रथे (सग्रहे) गर्भाधानादिविवाहपर्यन्तकर्मणा मन्त्रप्रयोगो नाम पञ्चम पर्व समाप्तम् । फाल्गुनशुद्ध द्वितीयाया तियो समाप्त ॥
देखे- जि. र० को०, पृ० १६३ ।
४३१. त्रिवर्णाचार ( ५ पवं ) Opening :
देखें, ऋ० ३०। Closing!
देखे, २० ४३० । Colophon ! ___ इति श्री ब्रह्ममूरिविरचिते जिनस हितासारोद्धारे प्रतिष्ठाति
लकनाम्नि श्रेणिकाच रसग्रहे गर्भाधानादि विवाहपर्मन्तकर्मणा मत्रप्रयोगो नाम पम पर्व । नम सिद्धभ्य । श्री चद्रप्रभजिनाय नम ॥
४३२. त्रिवर्णाचार ( १३ अध्याय ) Opening :
श्री चद्रप्रभदेवदेवचरणी नत्वा सदा पावनौ, ससारार्णवतारको शिवकरौ धर्मार्थकामप्रदी। वर्णाचार विकाशक वसुकर वक्ष्ये सुशास्त्र परम्,
यच्छ्रुत्वा सुचरति भव्यमनुजा स्वर्गादिसौख्यार्थिनः ॥ Closing श्लोकाना यत्र सख्यास्ति शतानिसप्तत्रिंशति ।
तद्धर्मरसिक शास्त्र वक्तु श्रोत्रु सुखप्रदम् ॥ Colophon: इति श्री धर्मास्तिकशास्त्र त्रिवर्णाचारप्ररूपणे भट्टारक श्रीसोभ
सेनविरचिते सूतकशुद्धिकथनीगो नाम त्रयोदशमोध्याय ॥ इति त्रिवर्णाचारः समाप्त ॥ सवत् १७५९ वर्षे फाल्गुन सित पक्षे त्रयोदशी गुरुवासरे इय सपूर्णा जाता । अहमदाबादमध्ये इद पुस्तक लिखितमस्ति । शुभ भूयात् । श्री मूलसघे बलात्कारगणे सरस्वती ग · कुन्दकुन्दान्वये श्रीभट्टारक विश्वभूषण जी देवास्तत्पट्ट श्रीभट्टारक जिनेन्द्रभूषणजी देवास्तत्प? श्रीभट्टारक महेन्द्रभूषण जी देवा तेनेद देवेन्द्रकीर्ते दत्तम् ।
देखे-दि० जि० ग्र० र०, पृ० ८८ ।
जि०र० को०, पृ. १६३, ।।
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१५५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrain sha & Hindi Manuscripta
( Dharma, Darsana, Acara)
Opening
Closing:
प्र. जै० सा०, पृ० २५६ । रा० सू० II, पृ० ७, १५५ । रा० सू• III, पृ० १८४ । जै० म०प्र० स० १ प्रस्तावना पृ. २६ ।
Catg of skt & pkt Ms., P.651. ४३३. त्रिवर्णीचार
तज्जयति पर ज्योति सम समस्तैरनतपर्यायः । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।
(पद्य पुरुषार्थ सिद्धयुपाय का है।) धर्मार्थकामाय कृत सुशास्त्र, श्री जैनसेनेन शिवार्थिनापि ।
गृहस्थधर्मेषु सदारता ये कुर्वन्तु तेऽभ्यासमहोजनास्ते ॥
इत्याचे श्रीमद्भगवन्मुखारविन्दविनिर्गते श्री गौतर्मीष पादपद्माराधकेन श्री जिनसेनाचार्येण विरचिते त्रिवर्णाचारे उपासकाध्ययनसारोद्धारे सूतकशुद्धि कयनीय नाम अष्टादश पर्व ॥१८॥ इति त्रिवर्णाचार समाप्तम् । सवत् १९७० । मिती पौष वदी ५ बुधवासरे लिखितमिद पुस्तक गुलजारीलाल शर्मणा । भिण्डाननगरवासोस्ति । रिग्वालियर ।
देखे-जि० र० को०, पृ० १६३ ।
Catg. of skt & Pkt. Ms., p.651. ४३४. त्रिवर्णाचार
Colophon
Opening :
Closing : Colophon:
देखे-क्र० ४३३ । देखे-क्र० ४३३ ।
देखे-क्र० ४३३ । मिति श्रावण कृष्ण ११ सवत् १९१६ । सुभ भूयात् ।। ४३५. त्रिवर्णाचार
देखे-क्र० ४३३ ।
देखे-ऋ० ४३३ । ___ इत्या श्रीमद्भगवद्न्मुखारबिंदाद्विनिर्गते श्री गौतमर्षि-पदा
Opening:
Closing i Colophon :
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavian, Arrab
पद्माराधकेन श्री जिनसेनाचार्येण विरचिते त्रिवर्णाचारे उपासकाध्ययनसारोद्धारे सूतकशुद्धि कथनीय नाम अप्टादश पर्व ॥१५॥ सवत् १९१६
वार मगलवारे लि कोठारी मोहनलाल मु गरशी ॥ रहेवाशी बडवाण शे हेरना ।। श्लोक संख्या ८५२५ ।।
४३६. त्रिवीचार वचनिका
Opening :
देखें-क्र० ४३२। Closing : जयवतो यह शास्त्र शुभ भूमडल में नित्त ।
मंगलर्ता हू जियो सुखकर्ता भविचित्त ।।
इति त्रिवर्णाचार ग्रन्थ की वचनिका समाप्तम् । ज्येष्ठ शुक्ला १५ शनिवासरे यवत् १९५६ ।
४३७. त्रिवर्णी शौचाचार (७ परिच्छेद)
Opening :
देखें--ऋ, ४३० । Closing :
आपं यद्यच्च तेषामुदितखनयान्तनापुण्यभाजः ।
मेतत्त्रवणिकाद्याचरणविधिमहाकरिठका कण्ठमेति ।। Colophon: इत्यार्पसग्रहे वणिकाचारे नित्यनैमित्तिकक्रमो नाम सप्तम
परिच्छेद ॥ श्रीमदादिनाथाय नमः ॥ श्रीमद्विद्यागुरु श्री मदन तमुनये नम ॥पुस्तकमिद श्री वेणुपुरस्थगीर्वाणपाठशालाध्यापकनेमिराजय्याज्ञानुसारेण सक्रमणात्मजेन पद्मराजनाम्ना मया प्रणीतमस्ति मगलमस्तु चिर भूयात् । करकृतमपराध क्षन्तुमर्हन्ति सन्त इति विरम्यते ।
श्रीरस्तु ।
४३८. उपदेश रत्नमाला Opening: तिहुवण परमेसरेहइवमीसरे अनतचतुष्टय महियो।
वदमि श्रुतमारणे कबुपसारणे सुरनरेन्द्र महिमहियो ।। Closing : मी अवियाणिधरौं अणलगत्त अपहुछद हीणय ।
सवार सुबुधिपडित जनतुमती जगि पमाणय ॥ Colophon इति श्री महापुराणसम्बन्धिनिकलिका ममाप्ता। शुममिति
फागुन शुक्ला २ वृहस्पतिवार वीर स० २४६० वि० स. १६६० ।
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१५७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Dharma, Darsana, Acira) ४३६. उपदेश रत्नमाला (१८ परिच्छेद)
Opening: वदे श्री वृषभ देव, दिव्यलक्षणलक्षितम् ।
प्रीणित प्राणिमवर्ग, युगादिपुरुणेत्तमम् ।।१।। अजित जितफार्मारि, मतान शीलसागरम् ।
भवभूधरभेत्तार, शगव च भवे सदा ॥२॥ Closing : सहस्त्रयितय चंदा परि असीत मयुतम् ।
अनुष्टप् यद सा चाम्य, प्रमाण निश्चित बुधै ॥ Colophon: ऽति भट्टारक श्री गुभचन्द्र शिष्याचार्य श्री सकलभूपण विरचि
तायामुपदेशरत्नमालाया पुण्यषट्कर्मप्रकाणिकाया तपोदानमाहात्म्यवर्णनौ नामाप्टदश परिच्छेद 1१८। समाप्त । श्री माहिजहनावादे पृथ्वीपति मुहम्मद नाह शुभराज्ये सवत् वेदनभगजशशि वैशाख शुक्ल सप्तम्या।
मकलगुणधारिणो भव्यजीवतारणो, परोपकारिणो गुरुगुण अनुवारिणो ॥ श्री भट्टारकपदधार देवेन्द्रकीति विस्तार तत्पट्टे सुखकार श्री जगकीर्तिवहुश्रुत धारम् ।। एपा प्रति प्रमुदितया लिखापिता शिष्यपरपराचार्थे मेरु शशि भानु यावत् तावदिय विस्तरता यान्तु ॥ (१११४) देखे--दि. जिन र, पृ. ८६ ।
जि. र को, पृ. ५१ (VI)। रा सू. II, पृ. १४६ । रा सू. III, पृ. २३ । आ० सू० पृ० १६। जै० ग्र० प्र० स० १, पृ० १६ । प्र० स० (कस्तूरचन्द), पृ० २-४ सट्टारक सम्प्रदाय, पृ. २४ । Catg. of Skt. & Pkt. Ms., P.628. Catg. of Skt Ms., P. 312.
४४०, उपदेश रत्नमाला
Opening:
देखे--क्र० ४३६॥
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श्री जैन सिद्धान्तभवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant E709/7, Artoh
Closing : Colophon
देखे--ऋ० ४३९ । इति श्री भट्टारक श्री शुभचन्द्र शिष्याचार्य श्री सकलभूगण विरचितायमुपदेशरत्नमालाया पुण्यषटकर्मप्रकाशिकायां तपोदान माहात्म्यवर्णनोनामष्टादश परिच्छेद १८॥ मितीफागुनसुदी ॥३॥ भृगुवासरे ।। सम्वत् ।।१६७०।। लिखितमिद पुस्तक मिश्रोपनामक गुलजारीलालशर्मणा भिडागनगरवासोस्ति ॥ इस ग्रन्थ की श्लोक सख्या ॥३६००॥ प्रमाणम् ॥
४४१. वैरागसार सटीक
Opening इक्कहिं घरेवधामणा अण्णहिं घरि धाहहि रोविज्जइ ।
परमत्यई सुप्पउ भणई किमवइ सयभाउण किज्जइ ।। Closing : ____ असौ जीव चतुर्गतिपु अनतदु खानि भुजति । कदा- .
चित् सुख न प्राप्नोति । Colophon · इति सुप्रभाचार्यकृत वैराग्यसार प्राकृत दोहावध सटीक
सपूर्ण । सवत् १८२७ वर्षे मिति पौष वदि ३ बुधवारे वसवानगर. मध्ये श्री चन्नप्रभचैत्यालये पडित जी श्री परसराम जी तशिष्य प० अणतराम जी ततशिप्य श्रीचद्र स्ववाचनार्थ वा उपदेशार्थ लिपिकृत। लेखकपाठकयो शभमस्ति। श्रीजिनराजसहाय । तत्लिपे सवत् १९८६ विक्रमीये मासोत्तमेमासे कातिकमासे शुक्लपक्ष चतुर्दश्या गुरुवासरे आरानगरे स्व. देवकुमारेण स्थापित श्री जैनसिद्धान्तभवने श्री के० भुववलीशास्त्रिग अध्यक्षताया इद प्रतिलिपि पूर्तिमभवत् । इति शुभ भूयात् ।
देखें-जि० र० को, पृ० ३६६ ।
४४२. वसुनन्दि श्रावकाचार वचनिका
Opening!
वटू मै अरिहतपद, नमू सिद्ध शिवराय । सूरि सु पाठक साधुके, चरण नमू सुखदाय ॥१॥ वर श्री जिनवैन कू, वदू श्री जिनधर्म । जिनप्रतिमा जिनभवन कू नमू हरण वसुकर्म ॥२॥ ऋपि पूरण नव एक फुनि, माधव फुनि शुभ स्वेत। जया प्रथम कुजवार मम, मगल होऊ निकेत ।।
Closing .
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Dharma, Darśana, ācāra )
Colophon :
Opening :
Closing :
Colophon
Opening Closing
Colohpon
Opening
इति श्री वसुनन्दि सिद्धान्ती चक्रवर्ति विरचित श्रावकाचार की वचनका सपूर्णम् ।
•
Closing
Colophon !
वेदपणन्द चन्द्रेन्दे वैशाखे पूर्तिगे सिते । सीतारामाभिधेयेन लिखित शोधित मया ॥
भग्न पृप्टिकटिग्रीवा ऊर्ध्वदृष्टि अधोमुखम् । कष्टेन लिखित शाम्त्र यत्नेन परिकल्पयेत् ॥
१५६
४४३. वसुनन्दि श्रावकाचार
देखें क्र० ४४२ ।
देखे – क्र० ४४२ |
इति श्री वसुनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित श्रावकाचार की वचनिका सम्पूर्णम् । सवत् १९०७ वैशाख शुक्ल ३ भौमवासरे । पुस्तक लिखी ब्राह्मण श्री गौणमालवी ज्ञाति साप्रदाय पडा भैरव लाले सू ।
४४४• वसूनन्दि श्रावकाचार वचनिका
देखे – क्र० ४४२ ।
अपठनीय ( जीर्ण) ।
अपठनीय (जीर्णं ) ।
४४५. विदग्धमुखमण्डन ( ४ परिच्छेद)
सिद्धोषधानि भवदु ख महागदाना, पुण्यात्मना परम कर्ण रसायनानि । प्रक्षालनै कमलिलानि मनोमलाना, शौद्धोदने. प्रवचनानि चिर जयन्ति ॥ पूर्णचन्द्रमुखीरम्या कामिनी निर्मलाबरा । करोति कस्य न स्वातमेकान्तमदनोत्तरम् ॥ पुतदत्ताक्षरजाति । इति धर्मदासविरचिते चतुर्थपरिच्छेद समाप्त शास्त्ररत्नमिद विदग्धमुखमडनारगम् ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Bhri Devakumar Jain Oriental Library, Juin Siddhant Bhavan, Arrah
Opening
Closing t
ado
Opening!
Closing :
Colophon :
४८० प्रथश्लोका ।
देखे - जि० र० को, पृ ३५५ ।
दि. जिग्रर, पृ
Catg. of Skt. & Pkt. Ms, P. 691
४४६. विश्वनत्वप्रकाश (१ अध्याय )
विश्वतत्व प्रकाशाय अनाञ्चनतरूपाय
परमानदमूर्त्तये ।
नमस्त परमात्मने ॥
चार्वाकवेदातिकयोगभाट्टप्राभाकरार्षक्षणिकोक्ततत्वम् । यथोक्तयुक्त्या वितय समर्थ्य समापितोऽय प्रथमोधिकार ||
Colophon •
इति परवादिगिरिसुरेश्वर श्री भावसेनत्रविद्यदेवविरचिते मोक्षशास्त्र विकाशे अगेषपरमततत्वविचारे प्रथम परिच्छेद समाप्त । शुभसवत् १६८८ फाल्गुण शुक्ला १० गुरुवासर । विशेष – प्रथम परिच्छेद के अतिरिक्त एक पत्र मे प्रमाण के विषमरे थोडा सा लिखा है, जिसे विभिन्न मतो मे स्वीकृत प्रमाण सख्या दी गई है । जिनरत्नकोष मे भी पृष्ठ ३६० पर इसका एकही अधिकार होने की सूचना है ।
देखे - दि० जि० ग्र० २०, पृ० ३६०
Catg of Skt & Pkt. Ms, P. 692.
४४७. विवाद मत खण्डन
कि जापहोमनिय तीर्थस्नानश्व यदि स्वादति माशानि सर्वमेव मद्वयमद्वय चैव व त्रिय व चतुष्टय | अनया कुस्कलिंगानि पुराणानष्टादशानि च ॥
इति विवादमत खटन सम्पूर्णम् ।
भारत । निर्थकम् ॥
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१६१ Cotalogue of Sonolrit, Prakril, Apnbhirisha & Ilindi Manuscripts
(Dharma, Darsana cira,)
४४८. विवादमत घन्डन
Opening |
यासमोय तागी मैगुनयनम् ।
बन म्ये तर धनधर्मा. प्रतिष्ठिना ।। Closing :
भावारगागणाना यागम्य परनस्यम् ।
परोपकार पार पापार परपीनम् ।। Colophon:
भाग्ने fragmaiधिकार, परिगतिनमः २१६ी मांग।
४४९. विवेक विलाग
Opening |
भायगान पाय तम. गामक भास्यते ।
गर्यशाय नगन्न फारमनिन्परमात्मने । Closing : मा पुगपागणी ग गुमटीत न प्रनगाम्पर ग,
प्राश: गानानिधि ग ग गुनि गामातले योगविश । नगानी नगृणि समन्पतिनगो जानातिय म्यानि,
निर्मोह नमुपायगया पर गोगातर नास्पतम् ।। Colophon |
श्री जिनदत्त (म) रि विचित मारनोलामे विवेक बिताने जन्माया पग्मपरप्रापणीनाम बादनमोनाग ।।
पर यकीय विममम० १६०० मे कम पा है। द--जि. २० नो, पृ० ३५६ ।
Calg of Skt & Pkt Ms, P 692
Opening : Colsing
४५०. बृहद्दीक्षाविधि पूर्व दिने भोजनसमये भोजनतिरकारविधि विधाय · ...
स्वान्येपा ज्ञानसिद्धयर्य शास्त्राप्यालाच्य युक्तिन' गुरुमार्गानुयायोति प्रतिप्ढासारसग्रहम् ।। लिलेरोम फतेलालपडितो हितकाम्यया। सशोधयतु विद्रवास. सद्धर्मस्मिग्धमानसा ॥३॥
Colophoni
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१६२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Librury, Jain Siddhant Bl.avan,Arrah
४५१. योगसार
Opening ! भद्र भूरिभवाम्भोधि शोषिणी दोषमोषिणी।
जिनेशशासनायालम् कुशासनविशासिने ॥११॥ Closing 1 श्रीनन्दनन्दिवत्स श्रीनन्दीगुरुपादाब्जपट्चरणः ।
श्रीगुरुदासो नन्धान्मुग्दमति श्री सरस्वति सूनुः ॥ Colophoni इति श्री योगसारमग्रह समाप्तम् । सवत् १९८६ विक्र
मीये मासोत्तमेमासे कार्तिकमासे शुक्लपक्षे नवमीतिथी रविवासरे जैनसिद्धान्त भवने इद पुस्तके पूर्णमगमत् ।
देखे-जि. र० को०, पृ० ३२४ (१) ।
४५२. योगसार
Opening | देखें--ऋ० ४५१ ।
तस्याभवच्छतनिधिर्जिनचद्रनामा
शिप्योनुतस्यकृति भास्करन (द)नाम्ना ।। शिप्वेण सस्तवमिम निजभावनार्थ
___ ध्यानानुग विरचित सुवितो विदतु ।। Colophon इतिध्यानस्तव समाप्त । विशेष अर्वाचीन लेख
यह ग्रन्थ करीव १९५० विक्रम स० का ज्ञात होता है ।
४५३.योगसार सटीका
Opening ! णिम्मलझाण परट्ठिया कम्मकलक डहेवि ।
अप्पा लद्धर जेण परू ते परमप्पणवेवि ।। Closing : ससारह भयभीयएण जोगचद मुणिएण ।
अप्पा सवोहणकया दोहा इक्कमणेण ।। इति श्री जोगसारपथ समाप्त ।
जैनसिद्धान्त भवन आरा मे लिखा। हस्ताक्षर रोशनलाल जैन। शुभमिति कार्तिक शुक्ला १२ शनिवार श्री वीर सम्वत् २४६२ श्री विक्रम संवत् १९९२। इति सपूर्णम् ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavuan, Arab श्रीपद्मनधिपपट्टपयोजटसश्वेवातपचितयशः
स्फुरदात्मवश। राजाधिराजकृतपादपयोजसेव स्यान्न श्रिये कुवलये
शुभचद्रदेव ॥२॥ आर्याशीदार्यवयर्यादीक्षिता पद्मनदिभि । रत्नश्रीरितिविव्याता तन्नाम्नवास्तिदीक्षिता ।। शुभचद्रार्यवयर्या श्रीमद्भि. शीलशालिनी मलयश्रीरितिख्याता क्षातिका गर्वगालि ॥ तयैपा लेखिता स्वस्थ ज्ञानावरजशातये लिखिता राजराजेन जीयादप्टसहस्रिका ।।
संवत् १८४२ कर्तिक शुक्लसप्तग्या गुरुवारे इद पुस्तका लिपिकृता महात्मा सीतारामेण जयनगरमध्ये। लेखकपाठक चिर. जीयात् शुभं भवतु कल्याणमस्तु ।
४५६. आप्तमीमांसा
Opening I
Closing i
श्रीवद्धमानमभिवद्य समन्तभद्रमुद्भवोधमहिमा
ननियवाचम् । शास्त्रावतार रचितस्तुतिगोचराप्त मीमासित कृतिरत्नं
क्रियते मयास्य । अनुपलब्ध । देखे--(१) दि० जि० ग्र० २०, पृ०६१ ।
(२) जि० र० को०, पृ० १७६ (VI)। (३) प्र. जै० सा०, पृ० १०४ । (४) रा० सू० II, पृ० १९६ ।
(५) रा० सू० III, पृ० ४७ २४० । ४५७. आप्तमीमांसा भाष्य
Opening • उद्दीपीद्धतधर्मतीर्यमचल ज्योतितलत्केवलालोकालोकित
लोकलोकमखिलिद्रादिभि. वदितम् । वदित्वापरमार्हता समुदय गा सप्तभङ्गीविधि, ___ स्याद्वादामृतविणी प्रतिहति काताधकमरादयम् ।।
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१६५ Catalogue of Sanskrit, Prakril, Apabhraigha & Hindi Manuscripts
(Nyayasāstra)
Closing : श्रीवर्द्ध मानमकलकनिंघमघ पादारविन्दयुगलल प्रणिपत्य
मूद्धर्ना ।। भाव्येकलाकनयन परिपालयत स्याद्वादवर्मपरिणोमि
समन्तभद्रम् ।। Colophon: इत्याप्तमीमासाभाप्यवशमा परिच्छेद । इति श्री भट्टकल
कदेवविरचिताप्तमीमासावृत्तिरप्टशवतीय परिसमाप्ता । मवत् १९६५ वर्षे कातिकवदि ८ शुक्र श्री मूलमधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुदकु दाचार्यान्वये भट्टारक श्री विजयकातिदेवा. तत्पट्ट भट्टारक श्री विजयकीतिदेवा तत्पट्ट भट्टारक श्रीशुभचन्द्रदेवास्तच्छियेण ब. सधारणाख्येन रवहस्तेन लिखितमिद शास्त्रम् । शुभ भवतु । देखे-(१) दि० जि. प्र. र०, पृ० ६३ ।।
(२) जि० र० को०, पृ० १६, १७८ । (३) प्र. जै० सा०, पृ १७ । (4) Catg af Skt. Ms. P. 306.
४५८. देवागम स्तोत्र
Opening : देवागमनभोयान् .... नो महान् ।
Closing : जयति जगति क्लेशा .... समुपासते ।। Colophon
इति श्री समन्तभद्रपरमर्हता विरचिते देवागमापारनाम अप्टसीमामा स्त्रोत्रम् ।
४५६. देवागम स्तोत्र Opening !
देवागमनभोवाम ....... नो महान ।। Closing ! जयति जगनि ' . समुपासते ।। Colophon इति श्रीसमन्तभद्रपरमहंताचार्य विरचित देवागमस्तोत्रं
सम्पूर्णम् ।
४६०. देवागम वनिका Opening !
वृपभ आदि चउवीसजिन, वदौ शीश नवाय। , विधनहरन मगलकरन मनवाछित फलदाय ॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Librury Jain Siddhant Bhavan Arrub
Closing i सुखी होऊ पाठक सदा, श्रवणकरै चितधारि ।
बुद्धि विधि मगल कहा, होउ सदा विस्तारि ।। Colophont इति श्री देवागमस्तोत्र वनिका सम्पूर्णम् । शुभ मवत्
१८६८ मासोत्तमे मासे अधिक आश्विनमासे शुम्लपक्षे द्वादश्या चन्द्रवासरे पुस्तकमिदं मपूर्णम् । लेखाकाक्षर रघुनाथशर्मा पट्टनपुरमध्ये
आलमगज निवसति । शुभमस्तु ।
४६१. देवागम वचनिका
Opening : देखे-क्र० ४६० । Closing : अष्टादश सत साठि पट विक्रम संवत् जानि ।
चैत्र कृष्ण चतुर्थी दिवस, पूर्ण वचनिका मानि ।। Colophon : इति श्री देवागम स्तोत्र की वनिका सम्पूर्ण ।
४६२. आप्त परीक्षा Opening , प्रवुद्धाशेषतत्त्वार्थ वोधर्दीधिधितमालिने ।
नम श्रीजिनचन्द्राय मोहध्वातप्रभेदिने ॥१॥ Closing | स जयतु विधानदो रत्नत्रयभूरिभूषणस्सततम् ।
___ तत्त्वार्थार्णवतरणे सदुपाय प्रकटितो येन ॥ ॥ Colophon : इति श्री आप्त परीक्षा विद्यानदिश्चाचार्य ॥
समाप्तम् । सपूर्ण । शुभम् ।। देखे-(१' दि० जि प र,६१।
(२) जि. र० को०, पृ. ३० । (३) प्र० ज०मा०, पृ० १०३ । (४) रा० सू० II, पृ १६३ । (५) रा. सू. III, पृ० १६६ ।
(6) Catg of Skt & pkt Ms, P. 625. ४६३. आप्त परोक्षा
Opening :
प्रवुद्धाशेषतत्वार्थ तोधदीधितिमालिने । नम श्री जिनचद्राय मोहध्वातप्रभेदिने।।
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૧૬૭ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Nyayasatra)
Closing : स जयतु विद्यानदो रत्नत्रयभूरिभूषणस्सतम् ।
तत्त्वार्थार्णवतरणे सदुपाय प्रकटितो येन ।।१२६॥ Colophon :
इति आप्त परीक्षा टीका विद्यानन्दि आचार्यकृतसमाप्तम् ॥ श्री गुरुभ्यो नमो नम ॥
नेत्रषट्खेटचद्रेब्दे माधवस्यासितेशरे ।। तिथौमृगाकवारेऽय मूलक्षपूर्तिमाप्नुयात् ।।।। शिवयोगे शिव भद्र शास्त्र शिवप्रकाशकम् सीतारामेण लिपित भव्या पाठयितु क्षमा. ॥ रामे राज्ये चहामीये पौराज्ये जनवाद्धिके । पड्दर्शनानि प्राप्तानि गू मरेदानमानत. ॥३॥ इच्छापडिभर्गुणिता इच्छार्धा चतुर्गुणणय इत्रब्धम् ।
पुनरपि तदष्टगुणित तीर्यकरकदवक वन्दे ॥४॥ संवत् १९६२ शक पट १८२७ वैशाख कृष्ण पचम्याम् चदवासरे लिपिकृतम् प० सीतारामशास्त्री शुभ सहारनपुरनगरे। भव्यजनाना सर्वेपा पठनार्थम् । मगल भवतु । शुभ ।।२।।
४६४, न्यायदीपिका
Opening : श्री वर्तमानमहंत नत्वा वालप्रवुद्धये ॥
विरच्यते मितस्पष्ट सदर्भन्याय दीपिका ॥१॥ closing ! ततो नयप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिरितिसिद्ध. सिद्धान्त पर्याप्त
मागमप्रमाणम् ॥ hon इति श्रीमद्वर्द्ध मानभट्टारकाचार्य गुरुकारूण्यसिद्धसारस्वतोदय
श्रीमदभिनवधर्मभूषणाचार्यविरचिताया न्यायदीपिकायामागमप्रकाश समाप्त । सवत् १९१० मिति माघमासे शुक्ल पक्ष प्रतिपद्दिवसे रविवारे । शुभ भवतु ।।
देखे-दि० जि० ग्र० र०, पृ० ६५ ।
जि. र० को०, पृ० २१६ II प्र. जै० सा०, पृ० १६४ । आ० सू०॥ ० ५२। रा० सू० ॥, पृ० १६७।
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श्री जैन सिद्धान्तभवन ग्रन्थावली Shri Devakun.ar Jain Oriental Library, Jarn Siddhant Bhavan, Arrah
रा० सू० , पृ० ४७, १६६ । Catg of Skt. & Pkt. Ms, P.662.
४६५. न्यायदीपिका
Openings
श्री वर्द्ध मानमर्हन्त नत्वा वालप्रवुद्धये ।
विरध्येतु मितस्पष्टसदर्भ न्यायदीपिका ॥ Closing :
___तत्समाप्तौ च रमाप्ता न्यायदीपिका मद्गुरोः वर्द्ध मादेशोवर्द्ध मानदयानिधे. श्रीपादस्नेह-सबन्धात् सिद्धय न्यायदी
पिका। Colophon: इति श्री मद्व मानभट्टारकाचार्य गुरुकारुण्यसिद्धिसिद्वसारस्व
तोदय श्री मदभिनवधर्मभूषणाचार्य विरचिताया न्यायदीपिकायामागमप्रकाश समाप्त.।
४६६. न्यायमणिदीपिक
४६६
Opening!
श्रीवर्द्धमानमकलङ्कमनन्तवीर्यमाणिम्यनन्दियतिमापितशास्त्रवृत्तिम् । भक्त्या प्रभेप्दुरचितालधुवृत्तिदृस्टया, नत्वा यथाविधि वृणोमि लघुप्रपचम् ॥१॥ मदज्ञानमरुन्नीत मलमत्र यदि स्थितम् ।
तनिष्काश्योमिवन्मन्त प्रवर्तन्तामिहाव्दिवत् ॥२॥ Closing
अकलङ्करत्ननन्दिप्रभेन्दुमददन्तगुणिभक्त्या । एतद्विका वालो निरुढवारि ने(२) किल गुरु भक्त्या ।। रयादादनीनिकान्तामुखलोकनमुख्यसौख्यमिच्छन्त ।
न्यायमणिदीपिका हृद्वासागारे प्रवर्तयन्तु बुधा । Colophon• इनि परीक्षामुखलघवृत्ते प्रमेयरत्नमाला नामधेयप्रसिद्धाया
न्यायमणिदीपिकासज्ञाया टीकाया षष्ठ परिच्छेद ।।
श्रीमत्स्वर्गीयबावूदेवकुमारस्यात्मजदानवीरवावूनिर्मलकुमारस्यादेशमादाय आगराप्रान्तगतसकरौलीनिवासिनः रेवतीलालस्यात्मजराजकुमरविद्यार्थिना लिखितमिद शास्त्रम् ।
इद लक्ष्मण मट्ट'न विलिखित प्रथम शास्त्र लक्षीकृत्य लिखितम् । मगोधयितव्या विद्वज्जन.। प्रतिलिपिकाल स० १९५० श्रावण-शुक्ल-त्रयोदशी।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Nyāyaśātra)
४६७. न्यायविनिश्चय विवरण Opening!
श्रोमज्ज्ञानमयोदयोन्नतपदव्यक्तोविविक्त जगत् कुर्वन्सर्वतनूमदीक्षामप्ससविश्व वचो रश्मिभि ॥ व्यातन्वन्भुवि भन्यलोक नलिनी पडेप्वरखडश्रिय
श्रेय शाश्वतमातनोतु भवता देवोजिनाहयन्यति. ||१|| Closing : व्याख्यानरत्नमालेय प्रस्फुरन्नयदीधिति ।
क्रियता हृदि विद्वद्भिस्तुदतीमानस तम ॥ Colophon . श्रीमासिंह महीपते परिषधि प्रख्यातवादोन्नति
तर्कन्यायतमोघ्नतोदयगिरि सारस्वत श्री निधिः ॥ शिप्य श्रीमतिसागरस्य विदुषा पत्युस्तप. श्रीभृता
भर्तु · सिंहपुरेश्वरो विजयते स्याद्वादविद्यापति ॥
इत्याचार्यवर्यस्याद्वादविद्यापति विरचिताया न्यायविनिश्चयतात्पर्यावधोतिन्या व्याख्यानरत्नमालाया तृतीय प्रस्ताव समाप्त. ॥ समाप्त च शास्त्रम् । ॐ नमो वीतरागाय ॐ नम सिद्ध भ्य । करकृतमपराध क्षन्तुमर्हन्ति सन्त । ६ शाके १८३२ वर्तमानसाधारण नाम सवत्सरे उदयगयने वसतऋतौ चैत्रे मासे कृष्णपक्षे द्वादश्या भार्गववासरे मध्याह्नसमये समाप्तोऽय अथः । इदपुस्तक ३६ पी प्रात दुर्घग्रामवासिना फुडा जेमरावटे इत्युपनामक रामकृष्णशास्त्रीणा लिखितम् ॥
श्री सन् १२१०-५-७ ॥
४६८. परीक्षामुखवचनिका Opening :
श्रीमत् वीर जिनेश रवि, तम अज्ञान नशाय ।
शिव पथ वरतायो जगति, वदो मै तसु पाय ।। Closing : अष्टादशतमाठिलय विक्रम सवत माहि ।
सुकल असाढ सु चोथि बुध पूरण करी सुचाहि ॥ Colophon: इति परीक्षामुख जैनन्यायप्रकरण की लघुवृत्ति प्रमेयरत्न.
माला की देशभापामय वचनिका जयचद छावडा कृत सपूर्ण। सवत् १९२७ मिती पोहोवदी १। श्री।
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श्री जैन सिद्धान्तभवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oru ntal Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
.४६६. परीक्षामुखवचनिका
Opening | देखे-क्र० ४६४ ।
Closing : देखे-क्र. ४६४। Colophon इति परीक्षामुख जैनन्याय प्रकरण की लघुवृत्ति प्रयेयरत्न
माला की देशभाषामय वचनिका जयचद्र छावडा कृता समाप्ता। सवत् १९६२ वैशाख कृष्णा ५ पचमी सोमवासरे । शुभ भवतु ।
४७०. प्रमाणलक्षण
Opening
सिद्धर्धाम महारिमोहहनन कीर्ते पर मदिरम्, मिथ्यात्वप्रतिपक्षमक्षयसुख संशीति विध्वसनम् । सर्वप्राणिहित प्रभेदु वचन सिद्ध प्रमालक्षणम्,
सतश्चेतसि चिंतयतु सतत श्री वर्धमान जिनम् । Closing : . . . . तत्कालभावी-उत्तरकालभावी वा विज्ञानप्रमाणता
हेतु: न भावत्तत्कालभाविक्वचिन्मिथ्यात्वज्ञानेपि तस्य भावात् अथोत्तर
कालभावि-स किं ज्ञातोऽज्ञातो न तावदज्ञा ॥ Colophon: नही है।
४७१. प्रमाण मीमांसा
Opening : अनन्तदर्शनज्ञानवीर्यानन्दमयात्मने ।
नमोऽर्हते कृत्याकृत्य धर्मतीर्थायतायिने ।। Closing ! यतो न विज्ञातस्वरूपस्यास्यवलवनं जयाय प्रभवति न चावि.
ज्ञातस्वरुप परतत्र भेत्तु शक्यमित्याह । Colophon: ____ इति प्रमाणमीमासा ग्रन्थ । मिती श्रावण कृष्णा १०
सवत् १९८७।
४७२. प्रमाणप्रमेय
Opening : तत्रिकालवयंशेपवस्तुक्रमव्यापि केवल सकलप्रत्यक्षम् ॥ Closing, स्पर्शरसगधरूपा शब्दसख्याविभागसयोगो परिमाण च प्रथक्त्व
तथा परत्वापेच ? समाप्त श्रीरस्तु.॥
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१७१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Nyayasastra)
Colophon: इद पुस्तक परिधाविनाम सवत्सरे दक्षिणायने ग्रीष्मऋतौ
निज आषाढमासे कृष्णपक्षे दशम्या गुरुवासरे दिवा दश घटिकाया वेणुपुरस्थित पन्नेचारी मठस्थ श्रीपति अर्चक गौडसारस्वत ब्राह्मन् विदवत् षटकर्मी वेदमूत्तिवामननाम शर्मणस्य पचमात्मजः केशवनाम शर्मणेन लिखितमिति । समाप्तमित्यर्थ श्रीरस्तु । श्री पचगुरुभ्यः वीतरागाय नमः। नयी लिपि मे-यह ग्रन्थ वीर निर्वाण सवत् २४४० मे लिखा गया ।
४७३. प्रमाण-प्रमेय-कलिका
Opening i
जयति निजिताशेषसर्वथकान्तनीतय । सत्यवाक्याधिपा शश्वविद्यानदादिजिनेश्वरा ॥
Closing :
ननु यद्य व कथमेकाधिपत्य न भवतीति चेत्, इत्यत्राप्युक्त
समतभद्राचार्य ।
काल कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतु प्रवर्वचनात्ययो वा । स्वच्छासनकाधिपतित्वलक्ष्मी प्रभुत्वशक्त रपवादहेतुः ॥
Colophoni इति श्री नरेन्द्रमेनविरचिता प्रमाणप्रमेयकलिका समाप्ता ।
लिप्यकृतशुभचितक लेख्यकदयाचदमहात्मा। शुभमस्तु । मिति भादवा प्रथमशुक्लपक्षे छठि रविवासरे सवत् १८७१ का ।
जैन सिद्धान्त भवन, आरा के लिए प्रतिलिपि की गई। शुभमिति मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादमी १२ चन्द्रवार विक्रम संवत् १९९१ । हस्ताक्षर रोशनलाल जैन । इति ।
देखे--जि र को., पृ. २६८ ।
दि. जि न र, ६८1 रा सू II, पृ. १९८६
४७४. प्रमेयक मल मार्तण्ड
Opening !
देखे-क्र० ४७० ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavian, Arrab
Closing! इति श्री प्रभाचदविरचिते प्रयेयकमलमार्तण्डे परीक्षामुखाल.
___ कारे पष्ठ परिच्छेद सपूर्ण ॥ Colophon ; गभीरनिखिलार्थगोचरमल शिष्यप्रबोधप्रद .
यद्व्यक्त पदमद्विचीयमखिल माणिक्य नन्दी प्रभो । तद्व्याख्यातमदोयथागमत. किंचन्मया लेशत स्वेया(?) बुधिया मनोरवतिगृहे चद्रार्कतारावधि ।। मोहभ्रातदिनाशनो निखिलतो विज्ञानवुद्धिप्रदो मेयानतनभोविमर्पणपटुर्वस्तु विभाभामुर शिष्याञ्चप्रतिवोधने समुदितो योग्रेपरीक्षामुखाज्जीयात् सोत्र निवधरावसुचिर मार्तण्डतुल्गोमल्पः ।।२।। गुरु श्री नदि माणिक्यनदिताशेषसज्जन
नदता हरितकतर जार्जनमती ॥ श्री पद्मनदिसिद्धामतिशिष्योनेकगुणालय प्रमाचद्राश्चिर जीया । पदेरत इति श्री प्रमेयकमलमार्तण्डः सपूर्णतामगमत् ।
मिति प्रथमजेवा सुदी ६ सनीचरवार सवत् १८६६ का सपूर्ण हुवो ग्रथ विशेष -बाबू श्रीमधरदास आरेवाले की पोथी है।
देखे -दि० जि० ग्र० र०, पृ०६८।
जि० र० को०, पृ० २३८, २६६ ।। प्र० जै० सा०, पृ० १७७ ।। रा० सू० II, पृ० १६८। Catg. of skt & pkt. Ms.,,P.671. Catg. of skt. Ms., P.306.
४७५. प्रमेयकमलमार्तण्ड
Opening
सिद्धर्धाममहारिमोहहनन कीर्ते पर मन्दिर मिथ्यात्वप्रतिपक्षमक्षयसुख संशीतिविध्वसनम् ॥ मर्वप्राणिहित प्रभेन्दुभवन सिद्ध प्रमालक्षण
सन्तश्चेतसि चिन्तयन्तु सतत श्री वर्धमान जिनम् ॥२॥
यत्तुशास्त्रान्तरद्वारेणापगतहेयोपादेयस्वरूपो न त प्रतीत्यर्थ ।। इति ॥
Closing a
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१७३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Nyâyaśāstra )
Colophon: हति श्री प्रभाचन्द्राचार्यविरचिते प्रमेयकमलमार्तण्डे परीक्षा
मुखालकारे पड परिच्छेद ॥
४७६. प्रमेय कण्ठिका
Opening ! श्रीवर्द्ध मगनमानम्य विष्णु विश्वसृज हरम् ।
परीक्षामुखसूत्रस्य अन्यस्यार्थ विवृण्महे ॥१॥ अथ स्वापूर्थिव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाणमिति प्रमाणलक्षण वाधातीत नान्यद्य क्तिशतवाधितत्त्वात् । ननु स्वापूर्वार्थेतिलक्षणे यानि विशेणान्युपात्तावितानि निर्यकानीतिचेन्न परप्रतिपादितानेकदूपणवारकत्वेन तेपा
सार्थकत्वात् । Closing :
प्रमेयकण्ठिका जीयात्प्रमिद्वानेकसद्गुणा लसन्मार्तण्डमाम्राज्ययौवराज्यस्य कण्ठिका ॥ सनिष्कलङ्क जनयन्तु तर्के वा वाधितर्को मम तर्क रत्ने । केनानिश ब्रह्मकृत कलङ्कश्चन्द्रम्य किं भूपण
कारण न।। Colophone क्रोधन मवत्सरे माघमासे कृष्णचतुर्द श्याय विजयचद्रेण
जैन क्षत्रियेण । श्री शांतिणविरचिता प्रयकठिका लिखिरवा समापिता ॥
५। भद्रभूयात् वर्द्ध तो जिनशामनम् ।।
४७७. प्रमेयरत्नमाला
Opening ' अनुपलब्ध । Closing ! तस्योपरोधवशतो विशदोरुकोतिर्माणिक्यनदि
कृतशास्त्रमगाधबोध ॥ स्पप्टीकृत कतिपयैर्वचनरुदारैर्वालप्रवोधकरमे
सदनत विय.॥ Colophon: इति प्रमेयरत्नमालापरनामधया परीक्षामुखलघुवृत्ति समा ___ता. ॥ शुभम् सवत् १९६३ चै० शुक्ल लि. पं० सीतारामशास्त्रि ॥
__ देखे Catg. of Skt & Pkt. Ms , P. 671.
Catg. Skt. Ms , P 306.
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली
Shri Devakumar Jain Oriental Libr.ry Jain, Siddhant Bhavan, Arrah
४७८. प्रमेयरत्नमाला (न्यायमणिदीपिका)
वर्द्धमानमकल कमनतवीर्यामाणिवयन दि
यतिभापितशास्त्रवृत्तिम् ॥
भक्या प्रभेदूरचिता लघुवृत्तिद्रष्ट्या नता यथाविधिवृणोमि लघु प्रपचम् ||१||
Opening
Closing
Colophon :
Opening :
Closing
Colophon :
Opening
श्री
स्याद्वादनीतिकता मुखलोकन मुरगसौस्याभि वतः ॥ न्यायमणिदीपिका हृदा सागारे प्रवर्त्तयन्तु बुधा ॥ ॥ इति परीक्षामुखलघुवृत्ते प्रमेयरत्नमाला नामधेयप्रसिद्धाया न्यायमणिदीपिकायाम् सज्ञाया टीकार्या षष्ठ परिच्छेद ॥ श्री वी. रागाय नमः | श्रीमद्महाफलक मुनये नम | श्रीमद्वेदशास्त्रसपन्न मूडविदे दक्षिण कन्नडापन्ने च्चारि (रिधत) वेदमूर्तिवामन महस्यपुत्रलक्ष्मण भट्टेन लिखितमिद पुस्तक परिधावि सवत्सरे भाद्रपद ५ कुजवासरे सपूर्णश्च ॥
४७९. प्रमे रत्नमाला - अर्थप्रकाशिका
श्रीमन्नेमिजिनेन्द्रस्य वन्दित्वा पादपङ्कजम् । प्रमेय रत्नमालार्थं सक्षेपेण विविच्यते ॥१॥ प्रमेयरत्नमालाया. व्याख्यास्सन्ति सहस्रश तथापि पणिताचार्यकृतिग्रह्यंव कोविदं ॥२॥ सर्वदाशक्रपद शक्ररूपार्थवोधकमिति ज्ञानमित्य भूतनयाभासमित्यत्र विस्तर । सम्पूर्ण मगलमहा श्री ॥
स्वस्ति श्रीमन्सुरासुरवृ दव दिनपाद योज श्री मन्नमीश्व रसमुत्पत्ति पवित्रीकृत गौतमगोत्र समुद्र तान् द्विज श्रीब्रहमूरि शास्त्रि तनुज श्री मद्दोवैलिजिन दास शास्त्रिणामतेवासिना । मेरु गिरि गोत्रोत्पन्न । बि । विजय चद्राभिधेन जैन क्षत्रिणा लेखीति ॥
1
भद्रं भूयात् ॥
षड्दर्शन प्रमाण प्रमेयानुप्रवेश
सावनन्त समाख्यात व्यक्तानन्तचतुष्टयम् । त्रैलोक्ये यस्य साम्राज्य तस्मै तीर्थकृते नम ॥
४८०,
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१७५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Vyakarana)
Closing:
जयति शुभचद्रदेव कण्डगणपुण्डरीकवनमार्तण्ड ।
चण्डालदण्डदूरो सिद्धान्तपयोधिपारगोबुधाविनुतः ॥ Colophon:
इति समाप्त शुभ भवतात् वर्धता जिनशासनम् । इत्ययग्रथ. दक्षिण कर्णाटके मूडविंद्री निवासिना राजू० नेमिराजाख्येन लिखितस्समाप्रश्चस्मिन दिने ॥ रक्ताक्षिस । माघशुक्ल द्वादशी ।
४८१. चिन्तामणिवृत्ति
Opening .
Closing'
Colophon
श्रिय कियाद सर्वज्ञज्ञानज्योतिरनश्वरीम् । विश्व प्रकाशयश्चितामणिश्चितार्यसाधनम् ॥
किं भोजको गन्छति तुल्यकर्तृक इति किं इच्छामि बवान क्रियाया तदर्थायामिति किं इच्छा न भुक्ते ॥
इति श्री श्रुतकेवलिदेशीयाचार्य शाकटायनकृती शब्दानुशासने चितामणी वृत्तौ चतुर्थस्याध्यायस्य चतुर्थ पाद समाप्तोध्यायश्चतुर्थ ।। स्याद्वादाधिपशाकटायनमहाचार्य प्रणीतस्यय शब्दानुशासनस्य महतीवृत्ति -स्समाहृत्यताम् ।
प्रेक्षातिक्षम यक्षवर्मरचिता वृत्तिलघीयस्यऽसौ ।
श्री चिंतामणिसज्ञिकाविजयतामाचद्रतार भुवि ।। श्रीमते शाकटायनाचार्याय नम ॥श्रीयक्षवर्माचार्याय नम
दक्षिणकर्नाटदेशे कार्कल दुर्गाग्रामे शके १८३२ स्य वर्त माने साधारण नाम सवत्सरे मार्गशी कृष्ण अष्टम्याया स्थिरवामरे लिखितोऽय ग्रन्थ । फुडाजेरामकृष्णशास्त्रिण पुत्रेण रगनाथ शास्त्रिगर अस्मद्गुरवे नम. । लक्ष्मीसेन गुरुभ्यो नमः ।
देखे-Catg of Skt & Pkt. Ms., P 694 ४८२. धातुपाठ
Opening :
श्री विद्याप्रति नत्वा जिन शब्दानुशासने ।
मूलप्रकृति पाठोऽय क्रियायेगणसिद्धये ॥ ॥ ... एकादशेति शब्दानुशासने धातवो मता ॥ धातुपाठ समाप्त । श्रीकल्याणकीत्तिमुनये नम
Closing :
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental L brary, Jarn Sıddb in! Bhavan, Arrak
४८३. हेमचन्द्रकोष Opening. इमनालाइ इम प्रत्ययातमल प्रयात नान पुल्लिग । इनम्
प्रतिधिमा प्रदिमाश्रतिम्याठमा इत्यादि। तथा निवसिद्ध इम न ग्रहण
भाचाशदिरिति नपुसक च वाधनार्थ । Closing : यत्रोक्तमत्रसद्धिल्लो वत्तएव विजय लिग शिष्या लोकाश्रय
चाल्लिगस्पेतिबान ता सख्याइति मदमस्चस्फरनिंगका पटवाव्यमव्ययचित्य सख्य च तछ हुलर विपुला निस्वाप नाम लिगानुशासनाम्यभि
समीक्ष्य संख्या क्षप्पत । आचार्य हेमचन्द्र समद्दमदनुशासनानि लिंगाना । Colophone इत्याचार्य श्री हेमवद्रविरचित स्वोपज्ञलिंगानुशासन
विवरण समाप्त। विशेष—यह ग्रन्थ पूर्णतः जीर्णशीर्ण अवस्था में है। अत इसके सभी अभर स्पष्ट पढे नहीं जा सकते है।
देखे-(१) दि. जि, नर,पृ.१०१
(२) जि. र. को, पृ ४६२ ।
४८४. जैनेन्द्रव्याकरल महावृत्ति Opening
परम्भ के ७९ पत्र नहीं है। __ चतुष्टय समन्तभद्रस्य ॥१२४॥ फोह इत्यादि चतुष्टय
समन्तभद्राचार्यस्य मतेन भवति, नान्येषा, तथाचैवोदाहृतम् । Colophon : इत्यभयनदिविरचिताया जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ पचमस्या
ध्यायस्य चतुर्थ पादः समाप्तः । समाप्तश्चपचमोध्याय. । मगलमस्तु । इति श्री जैनेन्द्रव्याकरणग्रस्य । आरे मध्ये लिलायित जैनधर्मीशुभकर्मीबाबू कन्हैयालाल तस्यात्मज बाबू श्रीमन्दिरदास निजपरोपकारार्य लिपिकृत देवकुमारलालभक्त कायस्थ शुभ मिति आषाढ सुदी सप्तमी सोमवार संवत १९०७ । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु । देखे-(१) दि. जि. र., पृ. १०२ ॥
(२) जि र. को, पृ. १४६ (I)। (३) प्र. जै० सा०, पृ० १४८ ! (४) आ० सू० पृ० ६४ । (४) रा. सू. II, पृ. २५७ । (५) रा सू III, पृ.८७ । (६) Catg of Skt & Pkt. Ms., P.645.
Closing !
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१७७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Vyakarana)
४०५. जैनेन्द्र व्याकरण महावृत्ति Opening : लक्ष्मीरात्यतिकीयस्य निरवयावभासते।
देवनदितपूजेशे नमस्तस्मै स्वयभुवे ॥ Closing |
झरोझरिखे २३ ॥ Colophon! इत्यभयनदिविरचिताया जैनेन्द्रमहावृनौ पचमस्याध्यस्य चतुर्थः
पाद समाप्तः। शुभमस्तु मगलमस्तु ।
४८६/१. जैनेन्द्र व्याकरण महावृत्ति Opening :
Missing. Closing : कुयोह इत्यादिचतुष्टय समतभद्राचार्यस्य मतेन भवति नान्येषा
तथाचेवोदाहृतम् । Colophon: इत्यभयनदिविरचिताया जैनेन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ पचमस्या
ध्यायस्य चतुर्थ. पाद समाप्त । समाप्तश्चाय पचमोध्याय: ॥
४८६।२. कातन्त्र विस्तार Opening : जिनेश्वर नमस्कृत्य गौतम तदनन्तरम् ।
सुगम क्रियतेऽस्माभिरय कातत्रविस्तर ॥ Closing : · · सणे तद्धिते वृद्धिरागमो वा भवति । न्यकोरिदन्याकव
नयकव । Colophon इति श्री मत्कर्णदेवोपाध्यायश्रीवर्धमानविरचिते कातत्रविस्तरे
तद्धिते दशमप्रकरण समाप्तमिति ।
परिसमाप्तोऽय कातत्रविस्तरो नाम ग्रन्यो माधवकृष्णाप्टम्या लिखित्वा मया रानू नामधेयेन । सन् १९२८ ।
४८७. पंचसन्धि व्याकरण Opening : प्रणम्य परमात्मान वालधी वृद्धिसिद्धये ।
सारस्वतीमृजुकुर्वेपि किया नातिविस्तराम् ।। Closing , भ्रमत् मग रडप्रत्यय डित्वादिलोप स्वरहीन अत्र तकारस्य
नाश. प्रथमैकवचन सि इकार उच्चारणार्थ. इति इकारलोप. स्त्रोवित्तगं. अमन सन् रौतिशब्द करोतीति भ्रमर इति सिद्धम् ।
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श्री जैन सिद्धान्तभवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arinh
Colophon: इति विसर्ग सधिः। पचसंधि पूर्ण जातम् । इति सारश्वत
पचसंधि सपूर्णम् ।
४८८. प्राकृत व्याकरण ( २ अध्याय ) Opening अत्र प्रणम्य सर्वज्ञ विद्यानदारपदप्रदम् ।
पूज्यपाद प्रवक्ष्यामि प्राकृतव्याकृतस्सताम् ।। .Closing : ....... एक्केक्क एक्केक्के एअगगस्मिरसेडारत अत अका
___ रातात् लिङ्गात् परस्य स्यादि । Colophons अनुपलब्ध ।
४८६. रूपसिद्धि व्याकरण Opening :
श्री वीरममल पूर्णधी दृग्वीर्यसुखात्मकम् ।
नत्वा देवमवाधोति रूपसिद्धि हिता वे ॥ Closing : इन इति दी। अधिजिगासते व्याकरणं । इत्यादि
समस्त सप्रवच शब्दानुशासन विद्वद्भिन्नेतव्यम् । Colophone इति रूपसिद्धि, समाप्त.। श्री कृष्नार्पण श्री गुमटनाथाय
नमः। इति धातुप्रत्ययसिद्धि,
व्याकरणोधमो नीत्वा प्राप्तु ज्ञानसुखामृतम् । बालानामृजुमार्गोय सक्षेपेण प्रणितः ॥ दयापालकृता नग्वत् रूपसिद्धि प्रवर्धताम् । भूमावदित्तमो भेत्ति विपुनो (लो) भानु रश्मिवत् ।। जिननाथाय नमः। ४६०. सरस्वती प्रक्रिया
Opening
" • आव भवति स्वरे परे पौ अक., पावकः " " ! Closing !
अचताद्वोहयग्रीवः कमलाकरईश्वर, ।
सुरासुरनराकारमधूपापीतपत्क्ज' ।। Colophon: इति श्री सरस्वती प्रक्रिया समाप्ता ।
सवत १८०६ वर्षे मार्ग वदी ४ शुक्रे लिखित पडित श्री हेम-- राजेन स्व पठनार्थम् । शुभ भवतु ।
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१७६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Vyakarana & Koşa )
४६१. सिद्वान्त चन्द्रिका
Opening: नमस्कृत्य महेशान
वर्णप्रतीतिसूत्रागा, कुर्वे सिद्धान्तचन्द्रिका। Closing !
___ ककारादि फो वा रेफ रकार लोकाछे वपस्य सिद्धियंप्वामातरा दे। Colophone इति श्री रामचद्राश्रम विरचिताया सिद्धान्तचन्द्रिका सम्पूर्णम् ।
अदृष्टिदोपान मतिविभ्रमाश्च यदर्पहीन लिपत मयात्र।। तत्साधु मुख्य रपि शोधनीय कोपो न कार्य खलु लेषकाय ॥ यादृश पुस्तक
वाचनाचार्यवर्यधुर्यज्ञानकुशलगणि. तशिष्यप्रशिष्यपडितोत्तमपडित श्री ज्ञानसिंहगणि शिष्य धनजी लिपत । श्री मेदणी तटमध्ये ।
देखें-(१) दि० जि० ग्र० र०, पृ० १०६ ।
(२) रा० सू०॥, पृ० २६, २६४ । (३) रा० सू० ॥, पृ० २३१ । (४) आ० सू०, पृ० १४२ । (५) जि र. को., पृ ४३९ (॥)।
४६२. तद्धित प्रक्रिया
Opening : __." आआ एऐ औ एते वृद्धिसज्ञका' भवन्ति । Closing !
सख्याया द्वितय, त्रितय, द्वय शेषानिपात्या. कृत्यादया कृति यति तति । Opening | इति तद्धितप्रक्रिया समाप्ता।
४६३. धनजयकोष
Opening!
तन्नमामि पर ज्योतिरवाड्मनसगोचरम् । उन्मूलयत्यविद्या यत् विद्यामुन्मीलयत्यपि ।।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing :
अहंत्सिद्धमितिद्वावप्यहत्सिद्धाभिधायिनै । अहंदादिनापि प्राहु शरणोत्तममगलान् ।। नही है।
देखे - Catg. of Skt. & Pkt. Ms., P. 654.
Colophon !
४६४. नाममाला
Opening! वदौ श्री परमातमा, दरसावन निजपंथ ।
तसु प्रसाद भाषा करो, नाम मालिका ग्रन्थ ।। Closing | सवत् अष्टादश लिपो, जा ऊपर उनतीस ।
वासो दे भादौ सुदी, वातेचतुरदशीश ॥ Colophont इति श्री देवीदास कृत नाममालिका सम्पूर्णम् । सवत् १८७३
वैशाख वदी २ आदि वारे।
४६५. शारदीयाख्यनाममाला
Opening : प्रणम्य परमात्मान सच्चिदानदमीश्वरम् ।
अथनाम्यह नाममाला मालामिवमनोरमाम् । Closing : भूद्वीपवर्षसरिददिनभः समुद्रपातालदिक,
ज्वलनवायु वनानि यावत् । यावन्मुद वितरतो भूवितरतो भुवि पुष्पदंतो,
तावस्थिरा विजयता वत् नामालामिमा ।। Colophon: इति श्री शारदीयाख्यनाममाला समाप्ता।
सवत् १८२८ वर्षे मासोत्त (मे) मासे वैशाखमासे कृष्णपक्षपचम्या गुरुवासरे गोपाचलमध्ये लिखितमाचार्य सकलकीति स्वहस्थे । श्रीरस्तु। कल्याणमस्तु । शुभभवतु ।
एकाक्षर परमदातारो ज्योगुरु नयव मन्यते । म्वानज्योन्गमन गत्वा चौकालो शुभजायते ।। देव-(१) दि० जि० ग्र० २०, पृ० १११ ।
(२) जि० २० को०, पृ. ३३५ । (8) Catg. of Skt. & Pkt. Ms, P.695.
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१८१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Kosa)
४९६. शारदीयाख्यनाममाला
Opening
देखे-क्र० ४६३। Closing
देखे,-० ४६३ । Colophon : इति श्री सारदीयाख्य लघु नाममाला समाप्तम् । सवत् १९१८
मासाना मासोत्तममासे मार्गशिर मासे शुभेशुक्लपक्षे तिथौ षष्ठी भुगुवासरे लिपीकृत ब्राह्मण रामगोपालेन वासी मौजपुर को लीखी रामगढमध्ये। शुभमस्तु ।
४९७. शारदीयाख्यनाममाला
Opening देखें-० ४६३ । Closing !
देखे-क्र. ४६३ । Colophon : इति श्री सारदीयाख्य नाममाला समाप्त । सवत् १९८५ का
जेष्ट शुक्ला ८ शनिवासरे ।
४९८. पनक्रियाकोष
Opening i समवसरण लिछिमी सहित वरधमान जिनराय ।
नमो विबुध वदित चरन भविजन की सुखदाय ॥ Closing : जबलौ धर्मजिनेश्वर साह । जगत माहिं वरतै सुखकार ।। तबलो विसतरिजो ईह ग्रन्थ । भविजन सुर शिव दायक
पथ ॥ Colophon:
इति श्री पनक्रिया भाषा ग्रन्थ सिंघई किसनसिंघ (सिंह) कृत सपूर्णम् । मिती फूस (पोप) सुदी ११ संवत् १९६१ ।
४६६. पनक्रिया कोष
Opening | Closing ,
देखे-ऋ० ४६६ । देखे-ऋ० ४६६ ।
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१८२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain. Siddhant Bhuvan, Arruh
Colophon: इति श्री त्रेपनक्रिया कोस विधान का छद की जाति का
अक २६१५ एक अधिकार का अक १०८। श्लोक सख्या टीका शुद्ध । ३००० । तीन हजार के ऊन मान ।
___ इति श्री क्रियाकोस भाषग्रन्थ सिही किमनसिंघ कृत सपूर्णम् श्रीरस्तु ॥
५००. उर्वशीनाममाला
Opening :
Closing:
श्री आदिपुरुप कहिये जगत, जाकी आदि अनत । अगम अगोचर बिम्बपति, सो सुमिरो भगवत ॥ वक्तासुरगुरुसी हुतो श्रोता हो सुरराज । तहमवन पारन लयो कहा औरको काज ॥ इति श्री शिरोमणि कृता उर्वशीनाममाला सपूर्ण । शुभभवतु ।
Colophon:
५०१. विश्वलोचन कोष
Opening : जयति भगवानास्ता धर्म प्रसीदतु भारती,
वहन्तु जगतीप्रेमोद्गारतरज्वशुभ जना । अयमपि ममश्र यानगु स्तनोन्नुमनोमुद
किमधिकमितस्त्यक्तावेगान् भवन्तु विपश्चित ॥१॥ Closing : हेहे व्यस्तो समस्तौ च स्मृत्य मत्र हूनिषु ॥
___ हौच होव समस्तौ व सबुद्धया ध्यानयोर्मतौ ॥६६॥ Colophon ' ' इति श्री पडित श्री श्री धरसेन विरचितायां विश्वलोचन
मित्यपराभिधानाया मुक्तवल्या नामार्थकाड समाप्त ।। मवत् ।।१९६१।। वर्षे ? मासे शुक्लपक्षे ........ गेदासा ? आनतीयो १३ दिने गुरुवारे ॥ ५०२. अलंकारसग्रह
Opening :
जगढ चिन्यजनन जागरुकपद्वयम् । अवियोगरसाभिन्नमाध मिथुनमाश्रये ॥१॥
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१८३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Rasa, chanda, Alankara&Kavya)
Closing
सर्वदोपरहित सगुण यत् काव्यमव्यययशकरमूाम् ।
त्वच्चारित्रमि वमादुनिषिव्य गर्वितारियमग डरग डए । Colophon: इत्यमृतानदयोगी प्रवरविरचितेऽलकारसग्रहे दोषगुणनिर्णयो
नाम षठ परिच्छेद ॥५२४॥ जुम्ला श्लोक ६६०।
__ देखें-जि० र० को०, पृ० १७
,
५०३. अल कारसंग्रह
Opening : देखे, ऋ० ५०२ । Closing
रसोक्तस्यान्यथाव्याख्यारावीचार्या बुद्धिशालिभिः ।। Colophon: ____इत्यमृतानदयोगि प्रवरविरचिते अलकारसग्रहे वसुनिर्णयो नामा
ष्टमो अध्याय ।
करकृतमपराध क्षतुमर्हन्तिसत ॥
अयमलकारमग्रहो नाम ग्रथ रानू नेमिराजाख्येन लिखिता रक्ताक्षिस माघमासे शुलपक्षे द्वितीया तिथी समाप्तश्च ।।
५०४. बारहमासा
Opening :
Closing:
अलिरी घर नेमपिया विनमै नर होरी। प्रथ(म)लियो नहि मन समुकाय ।
नाहक पठयो है लगन लिषाय ॥ जेठ सपूरन बारहमास, नेम लियो सिवथान
नेवास। रजमति सुरपद पाई विख्यात, सागरबुध
कहत यह बात ॥ बारहमामा मारन।
Colophon:
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१८४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jarn Oriental Library, Jain Siddhant Bhavuan, Arrah
५०५. चन्द्रोन्मीलन
Opening
Closing :
चद्रप्रभ नमस्कृत्य चद्राभ चद्रलाच्छनम् ।। चद्रोन्मीलनक वक्ष्ये, सकलाद्यं चराचरम् । यत्तु लभ्यते तत्तत्सवत्सर आदित्य वद्वितप्रश्ना
दित्य लभ्यते। चद्रवद्वितप्रश्ना चद्र लभ्यते, क्षितिजद्वित प्रश्ना भौम लभ्यते ॥ इति चद्रोन्मीलन समाप्त ।
देखे--जि० र० को० पृ०, १२१
Colophone
५०६. चन्द्रोन्मीलन Opening : देखे, ऋ० ५०५ । Closing
"" " " ""
एव चन्द्रमा से चन्द्रलोक की प्राप्ति और भौम
एव च से भौम लोक की प्राप्ति कहना चाहिए। Colophon: इति चन्द्रोन्मीलन समाप्तम् । शुभ भवतु । शुममिति फाल्गुन शुक्ला ५ स० १९६० ।
देखे-जि० र० को०, पृ० १२१ ।
५०७. चन्द्रोन्मीलन
Opening :
Closing : Colophon.
देखें, ऋ० ५०५ । देखें, ऋ० ५०६।
इति चन्द्रोन्मीलन समाप्तम् ।
Opening :
५०८. दोहावली
जिनके वचन विनोद ते प्रगटे शिवपुर राह। ते जिनेन्द्र मगल करो नितप्रति नयो उछाह ॥१॥ सो सम्यक्त्त सहित वने व्रत सयम सम्बन्ध ।
तो उपमा सांची फवे सोना और सुगन्ध ।। मही है।
Olosing ,
Colophon
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१८५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Rasa, Chanda, Alankara & Kavya)
५०६. फुटकर कवित्त
Opening:
भी (भव) जल माहि भरयो चिर जीव सदीव
अतीत भवस्थिति गाठी। राग विरोध विमोह उदै बसु कर्मप्रकृति लगि
अति गाठी ॥ ... ...२ अस्पष्ट ।
Closing ! Colophon:
इति कवित्तानि ।
५१०: फुटकर कवित्त
Opening :
Closing |
Colophon :
देखे, क्र० ५०६ । कहू लताह फूल्यो कहू फूलह फूल्यो कहू, भौरह भूल्यो कहूँ रूप कहू दिष्ट है। सफल निवासी अविनाशी सर्वभूतवासी, गुप्त प्रकासी आप सिण्ट आप मिप्ट हैं। इति श्री तिलोकचदकृत फुटकर कवित्त सम्पूर्णम् ।
सवत् द्वादशषष्टहै, अवर असी परमानि । माघशुक्ल द्वितीण तिथी, बार चद्र शुभ जानि ॥१॥ अच्छेलाल आरे वस, लिखवायो जिन गथ । नदलाल लेखक सही, समीचीन यह पथ ॥२॥ गगातट छपरा नगर देवलत गज सुधाम । सहा निखि पूरन कियो, सु दर रचि विश्राम ॥३॥
५११. नीतिवाक्यामृत
Opening
सोम सोमसमाकार, सोमाभ सोमसंभवम् । सोमदेवमुनि नत्वा, नीतिवाक्यामृत अवे ।।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Libı ary, Jain Siddhant Bhavan, Arrah Closing! . ... जनस्याकृत्तविप्रियस्य हि वालकस्य जनन्येव जीवि
तव्यकारणम् । Colophon: इति सकलतार्किकचक्रचूडामणिचु वितचरणस्ग रमणीय
पंचपचाश-महावादिविजयोपार्जितोजिकीर्ति मदाकिनीपवित्रित त्रिभुवनस्य परमतपश्चरणरत्नोदन्वतः श्रीनेमिदेवभगवत प्रियशिष्येण वादीन्द्रकालानल श्रीमन्महेन्द्रदेवभट्टारकानुजेन स्याद्वादाचलसिंह तार्किकचक्रवर्तिवादिभय चाननवाक्कल्लोलपयोनिधि के कुलराजकु जरप्रभृतिप्रशस्तिप्रशस्तालकारेण षण्णवतिप्रकरणयुक्तिचितामणि त्रिवर्गामहेन्द्रमातलिसजल्पयशोधरमहाराज चरित्र महाशास्त्रवेधसा श्रीमत्सोमदेवसूरिणा विरचित नीतिवावयामृत नाम राजनीतिशास्त्र समाप्तम् ।
मिति पौष कृष्णदशम्यया रविवामरान्यतार्या शुभसवत्सर १९१० का मध्ये समाप्तम् । लिखित ब्राह्मण रामकवारकेन, लिखायतचिरजीवसाह जी श्री सदासुख जी कासलीवाल जयनगरमध्ये लिखि।
देखे-जि र को, पृ २१५ । Catg of Skt. & Pkt Ms., P. 660.
५१२. नीतिवाक्यामृत
Opening! देखें-ऋ० ५११ । Closing : अथाप्तलक्षणमाह । यथानुभूतानुमतश्रुतार्थाविसवादिवचन
पुमानास. यथाभूत सत्य अनुमत लोकसमत यथाश्रुतार्थ भुताथी यस्य वचनस्य स
५१३. रत्नमंजूषा
Opening :
यो भूतमव्यमवदर्थयथार्थवेदी, देवासुरेन्द्र मुकुटपादपद्मः । विद्यानदीप्रभवपर्वत एक एव, त क्षीणकल्मपगण
प्रणमामि वीरम् ॥
Closing:
सकामेकगणोज्ज्वलामभिमतच्छन्दोऽक्षरागारिकामेका श्रेणिमुपक्षिपन्नधरतोऽप्येकवहीनाश्च ता. ।
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१८७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha& Hindi Manuscripts
(Rasa, Chanda, Alankāra & Kāvya) उर्ध्व द्विद्विगृहाकमेलनमत्रोध स्थानकेष्वालिखे
देकच्छन्दसि खण्डमेरुरमल पु नागचन्द्रोदित ॥१॥ Colophon : एततद्योक्तक्रमेण प्रस्तारे कृने विवक्षितछन्दस लगक्रियया सह तत पूर्वस्थितसकलछन्दसा लगक्रिया सर्वा समायान्तीत्यर्थ ॥
देखे- जि. र० को०, पृ० ३२७ । ५१४. राघवपाण्डवीयम् सटीक Opening 1
श्रीमान् शिवानदनयीशवमो
___ भूयादिभूत्य मुनिसुव्रतो वः ॥ सद्धर्मसभूतिनरेन्द्रपूज्यो
भिन्नेन्दुनीलोल्लसदगकाति. ॥१॥ Closing : केन गुरुणा किमाख्येन दशरथेनेति Colophon इति निरवद्यविधामडनपडितमडलीजितस्य षट्तर्कचक्रवर्तिनः
श्रीमद्विनयचद्रपडितस्य गुरुरतेवासिनो देवनदिनाम्न. शिष्येण सकलकलोद्मवचारुचातुरीचद्रिकाचकोरेण विरचिताया द्विसधानकवेर्धनजयस्य राघवपाडवीयाभिधानस्य महाकाव्यस्य पदकौमुदीनामदधानाया टीकाया नायकाभ्युदयरावणजरासघवधमावर्णन नामष्टादशः सर्गः ॥१८॥
देखे--Catg of Skt & Pkt Ms. P 654. ५१५. शृगारमञ्जरी
Opening : श्री मदादीश्वर नत्वा सोमवशभुवाथित ।
रायाख्य जैनभूपेन वक्ष्ये शृगारमञ्जरीम् ॥१॥ Closing
तद्भू मिपालपाठार्थमुदितेयमलकिया ।
सक्षेपेण वुर्घोषा यद्यत्रास्ति विशोध्यताम् ।। Colophon : इति शृगारमञ्जयां तृतीय परिच्छेद । श्री सेनगणान
गण्यातपोलक्ष्मीविराजिताजितसेनदेवयतीश्वरविरचित. शृगारमजरीनामालागेऽयम् । सवत् १९८६ विक्रमीये मासोत्तमेमासे कार्तिकमासे शुभशुक्लपक्षे चतुर्दश्या शुक्रवासरे आरानगरे श्रीयुत स्व. देवकुमारेग स्थापित जैनसिद्धान्तभवने श्री के० भुजबलिशास्त्रिण अध्यक्षता इद पुस्तक पूर्तिमगमत् ।
देखें-जि० र० को०, पृ० ३८६ ।
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१८८
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
५१६. शृगारवर्णव चन्द्रिका Opening
जयति ससिद्धकाव्यालापपद्याकरेयम् (१) बहुगुणयुतजीवन्मुक्तिपुस ।
रवाणीसारनिक्काणरम्यो-~जिनपतिकलहसश्चारुसनीति(?) वक्ष्ये ॥१॥ अमन्दानन्दसन्दोहपीयूषरसदायिनीम् । स्तवीमि शारद दिव्या सज्ज्ञानफल
शालिनीम् ।।२।। Closing ! कीतिस्ते विमला सदा वरगुणा वाणी जयश्रीपरा,
लक्ष्मी सर्वहिता सुख सुरसुख दान विधान महत् । ज्ञान पीनमिव पराक्रमगुणस्तुङ्गो नय कोमल
रूप कान्ततर जयन्तमिव(?) भो श्रीरायभूमीश्वर ॥११७ Colophone इति परमजिनेन्द्रवदनचन्दिरविनिर्गतस्याद्वादचन्द्रिकाचकोर
विजयकीर्तिमुनीन्द्रचरणाब्जचञ्चरीकविजयवणिविरचिते श्रीवीरनरसिंहकाभिरायनरेन्द्रशरदिन्दुसन्निभकीतिप्रकाशके शृङ्गारार्णवचन्द्रिकानाम्नि अलङ्कारसग्रहे दोषगुणनिर्णयो नाम दशमः परिच्छेद समाप्त ।
श्रवणवेलुगुलक्षेत्र निवासि बि० विजयचद्रेण जैन क्षत्रियेण इद अथ समाप्त लेखीति मगल महा ॥
Opening 1
५.१७. श्रुतबोध
छन्दसा लक्षण येन, श्रुतमात्रेण बुध्यते । तमह सप्रवक्ष्यामि श्रुतबोधमविस्तरम् ।। चत्वारो यत्रवर्णा प्रथमलघव षष्टकस्सप्तमोऽपि,
द्वौतावत्षोडशाधौ मृगमदमुदिते षोडशान्त्यी तथान्त्यौ । ' रम्भास्तम्भोरुकाण्ड मुनि मुनि' मुनिभिर्यत्रकान्ते विराम , बाले वन्द्य कवीन्द्र रसुतनु निगदिता स्त्रग्धरा सा प्रसिद्धा ॥
Closing :
Colophon ! ___ इति श्रीमदजितमेनाचार्य विरचित श्रुतत्रोधामिधानच्छन्दो
लक्षण ग्रन्य समाप्त ।
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१८६
Catalogue of Sanskrit, Prokrit. Apabhramsha & Hind: Manuscripte
(Rasa, Chanda, Alankara & Kavya) विशेष--यह पन्य नानिदान रचित है, किन्तु इराकी प्रशस्ति मे अजितसेन रचित लिखा है। देखें--(१) दि० लि. न र., पृ. १०८ ।
(२) जि० २० बरे०, पृ. ३६८ ।
(३) रा. सू. III, पृ० ८६, २३३ । १ . ध्रुनबोध
Opening | देखें-० ५१४॥
Closing : देखें-मा० ५१७॥ Colophon! पति श्री कालिदानविरचित घुतवोधास्य छदस्सपूर्णम् ।
माधवद्य बन पचम्या लिलेख गनाभिधरे द्विजन्मर ।
५१६. श्रुतपंचमीरासा Opening :
__.... • सुनहु भन्य एक चित देय सवही सुखकारी ॥१५॥ Closing : नरनारी जे रास सुनइ मन वच रुचिगाय ।
मुख सपति ननंद लहै वछित फल पावइ ।। Colophon
५२०. सुभद्रा नाटिका
Opening ' आहन्तीमतुलामवाप्य तपसामेक फल भूयसाम,
यो नैराश्य धमस्त्रयस्य जगतामभ्यर्हणाया. पदस् ।
स्वीचके स्तवनातिवतिविभवा सिद्धिश्रिय शाश्वती
___ माद्यस्तीर्थकृतां कृति स वृषभः श्रेयामि पुष्णातु म. ॥ Closing | " .. भह चिराय भवता जिन शासनाय । नामि.
एवमस्तु। इतिनिष्क्रान्ता. सर्वे । Colophon: इति श्री भट्टारगोविन्दस्वामिन सुनुना श्रीकुमारसरयवाक्यदे:
वरवल्लभोदयभूषणानामार्य मिश्राणमनुजेन कवेर्वद्ध'मानस्याग्रजेन महाकविना हस्तिमल्लेग विरचिताया सुभद्रानामनाटिकायाँ चतुर्थोऽङ्कः ।
हस्तिमल्लस्य गोविन्दनन्दनस्य महीयस ।
सूनिलाकरस्यैषा सुभद्रानामनाटिका ॥ समाप्ता चेय सुभद्रा नाटिका। भद्र भूधात् ।
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१९०
श्री जैन सिद्धान्तभवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain rddhunt Bhatan, Arin
मग्यक्त्वम्य परीक्षार्थ मुक्त मनमतगजम् । य सरप्यापुरेजित्वा हस्तिमतिकोनित ।।१॥ कविकुलगुरुणा तेन हि रचितेय नाटिका भाद्राख्या।
'लिखिता' सुमार्थरम्या बुधजनपदसेविना 'शशिना' ॥२॥
समाप्तश्चाय ग्रन्थ. वैशाख शुक्ला प्रतिपत वीर नि० सं० २४५८ ।
देखें--जि. २०, को. पृ० ४४५ ।।
Catg. of skt. Ms., P.304
!
५२१. सुभाषित मुक्तावली
Opening : अर्हतो भगवंतइद्रमहिता सिद्धाश्च सिद्धिस्थिता,
आचार्या जिनशासनोन्नतिकरा. पूज्या उपाध्यायका । श्री सिद्धान्तसुपाठका मुनिवरा. रत्ननयाराधकाः,
पचं ते परमेष्ठिन. प्रदिदिन कुर्वतु ते मगलम् । Closing .
सुखस्य दु:यस्य न कोपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेपा। पुराकृत कर्म तदैव भुज्यते,
शरीरतो निम्तृपयत्वयाकृतम् ।। Colophone नहीं है।
विशेप-प्रारभ का पलोक मग नाप्टक का है।
५२२. सुभाषितरत्नसंदोह Opening । जननि मुदमतमव्ययायोगाणा द्वानि तिमिर राशि या प्रभागानवीन
___ तनिग्लिपदायितनाभारतीद्वा विनर घनदो पामाईतीभारतीयः ॥१॥
Closing :
मागीविध्यम्नानापियुगमन श्रीमर फोनमोति। मूग्याम्य पार पामविनोदेवीनगर । विमातामेषगाम्नानामपिगितामगीरन कारः पीमामाको मुनीनामगिणी गनिम्या नि. म.॥ ॥ दे--(१) िनि० प्र०,१०२८ ।
(070700, .४४ ॥
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૧૧ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Rasa, Chanda, Alankara & Kavya)
(३) प्र. जै० सा०, पृ० २५० । (४) आ० स०, पृ० २१४ । (५) रा. सू० II, पृ० २८८ । १६) रा० सू० III, पृ० २३६ । (७) भ० सप्र०, पृ० २१३ ।
५२३. सुभाषितरत्नसंदोह
Opening :
दोषनत नृपतयो रिपवोपि रुष्टा । कुर्वति केशरि करीद्रमहोरू गावा। धर्म निहत्य भवकानन दाव वन्हि ।
घदोयमत्र विदधाति नरस्य शेष ॥३॥ Closing : यावञ्चद्रदिवाकरौ दिविगतो भित्रस्तम शार्वर
यावन्मेरू तरगिणी परिवृढौनोमु चत. स्वस्थितिं यावद्याति सरग भगुर तनुर्गगाहिमा
द्रे व तावच्छास्त्रमिद करोतु विदुषां पृथ्जीतले सम्मद ॥६॥ Colophon:
इस्यमितगति विरचित. सुभापितरत्नसदोह सपूर्णता । संवत् १७८४ वर्षे कार्तिकमासे कृष्ण चतुर्दसी दीपोत्सव दिने श्री युगल वदिरे लिषतोय अथः शुभ भूयात् ।
Opening |
Closing |
५२४. सुभाषितावली
जनिाधीश नमस्कृत्य ससाराबुधितारकम् ।। स्वान्यस्पहितमुद्दिश्य वक्ष्ये सद्भाषितावलीम् ॥ जिनवरमुखजाते ग्रथितं श्री गणेन्द्र , त्रिभुवनपति सेव्य विश्वतस्वैकदीपम् । अमृतमिव सुमिप्ट धर्मबीज पवित्र,
सकलजनहितार्थ ज्ञानतीर्थ हि जीयात् ।। ___ इति श्री सुभाषितावली सपूर्ण । देखें-दि० जि०म० र०, पृ० २७ ।
जि. र० को०, पृ० ४४६ ।
Colophon
Page #392
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१६२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shr: Devakumar Jan Oriental Librury Jain Siddhant Bhavan Artik
आ० सू०, पृ० १४७ । रा० सू० II, पृ० ४४, ७४,२८८ । रा० सू० III, पृ० ६६, ३३७ । Catg. of ekt. & pkt. Ms., P. 701, 712.
Opening : Closing :
५२५. सुभाषितावली देखें-क० २२४ । नाभेयादिजिनेश्वराश्चविमला: ख्याता परे ये जिना ।
काल्ये प्रमवा व्यतीतगणना सौख्याकराः सौख्यदा.॥ .........। नही है।
Colophon
Opening !
Closing.
५२६. सुभाषित रत्नावली देखें, ऋ० ५२४ । देखें, ऋ० ५२४ ।
Colophon इति श्रीमदाचार्य श्री सकलकीतिविरचिंता सुभाषितावली
समाप्ता। संवत् १८३६ मिति आश्विन शुक्ला तृतीया भौमवामरे पुस्तक लिपिकृतम् दिलसुखबाह्मणस्य फरकनग्रमध्ये पठनार्थ लालचद
जी स्वपउनार्थम् । विशेष-"ॐ नमो सुग्रीवाय हगवताय (हामंता) सर्वकोटका नक्षायपिनीलका
विलेप्रवेशाय स्वाहा ।"
'५३७. सूक्ति मुक्तावली Openings सकादिवत् नवनीत पंकादि च परममित्र जलात्' ।
- मुक्तामणिरिव वशात् धर्म सारमनुष्यभवात् ।। Closing 1
नगरे वससि त्व वाले, अटव्या नेव गच्छसि ।
व्याघ्ररीछमनुष्याणी, कयं जानासि भाषितम् ।। Culophon
Missing
Page #393
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१६३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Rasa, chanda, Alankara & Kavya) .
५२८. मूक्ति मुक्तावली
Opening : Closing :
देखे, ३० ५२१ ।
लक्ष्मीर्वसति वाणिज्ये किंचित् किचित् कर्षणे ।
Colophoni
Missing. ५२९. मूक्ति मुक्तावली
Opening : सिंदूरप्रकरस्तप करिशिर कोडे कषायाटवी
दावाचिनिचय. प्रवोधदिवसप्रारभसूर्योदयः । मुक्तस्थिकुत्रचकुंभ कु कुमरस. श्रेयस्तरोपल्लव • • ।
प्रोल्लास: क्रमयोनं खधुतिभरः पार्श्वप्रभो पातुव. ॥१॥ Closing . अमजदजितदेवाचार्यपट्टोदयाद्रि
व्युमणिविजय-सिंहाचार्य पादारविंदे ।। मधुकरसमता यस्तेन सोमप्रभेण
विरचि मुनिपराजा सूक्तिमुक्तावलीयम् ।। Colophon 1 इति श्री सोमप्रभुमूरि विरचित सूक्त्तिमुक्ता वली सपूर्णम् ।
श्रीरस्तु कल्याणमस्तु । देखें-(१) दि० जि० ग्र० २०, पृ० ३०-३१ ।
(२) जि० २० को०, पृ० ४४१, ४४८, ४४६ । (३) प्र. जै० सा०, पृ० २५१ । (४) मा० सू० पृ २१४ । (२) रा० सू० II, पृ. २६ । (६) रा० सू III, पृ० १००, २३७ । (7) Catg. of Skt. & Pkt. Me., P. 710, 712.''
५१०. सूक्ति मुक्तावली (सिन्दूर प्रकरण)
Opening : Closing:
देखें-० ५२६ । देखे--ऋ० ५२६ ।
Page #394
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१६४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arta Colophon: इति सूक्तिमुक्तावली सिन्दूरप्रकरणः संपूर्णः । लिखत
मुन्यषेतसी जी तस्य शिष्य ....." तस्य शिष्य सेवक आज्ञाकारी मून्य. चन्द्रभाण गढ रणस्थभोर मध्ये सवत् १८१३ का ॥श्री॥
५३१. सिन्दूरप्रकरण
Opening ! देखे क्र0 ५२६ । Closing | सोमप्रभाचार्यमभाषयन्न पु सातम पकमपाकरोति । तदप्यमुस्मिन्नुपदेशलेशे निशम्यमाने निशमेति
नाशम् ।। Colophoni इति श्री सोमप्रभाचार्यकृत सिंदूरप्रकरण काव्य समाप्त
मिदम् । स्वस्ति श्री काप्ठासघे लौहाचार्याम्नाये भट्टारकोत्तमभट्टारक जी श्री १०८ ललितकीत्तिदेवा तदपट्टे भट्टारक श्री १०८ राजेन्द्रकीर्तिदेवा तेषा पट्ट' भट्टारक जी श्री १०८ मुनीन्द्रकीत्तिदेवा महातपासि तेषा पठनार्थम् । सवत् १९४७ मध्ये कार्तिकमासे कृष्णपक्षे तिथौ दशम्या बुधवासरे आदिनाथवृहज्जिनमदिरे लक्ष्मणपुरमध्ये प्रात काले पडितपरमानन्देन रचितमिद शुभ भूगत् । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु । शुभ भूयात् लेखकपाठक्यो ।
सन्दर्भ के लिए.-१० ५२६ ।
५३२. अक्षर केवली
Opening |
Closing'
ॐकारे लभते मिद्धि प्रतिष्ठां च सुशोभना । सर्वकार्याणि सिद्धयति मित्राणा च समागम ॥ क्षकारे क्षेममारोग्य सर्वसिद्धिर्नसशय । पृछकस्यमहालाभ मित्रदर्शनमाप्नुते ॥ इति अक्षरकेवली शकुन समाप्त.।
Colophon:
५३३. अक्षरकेवली प्रश्नशास्त्र
Opening i
ओ चिलि चिलि मिलि मिलि मानगिनि । सत्य निर्दशय निर्दशय स्वाहा। ककारादि हकारान्त वर्णमात्रक विलिखैत् । तत्र
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१६५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Jyotisa)
स्वकार्य चिंतित यत्त्वया पश्यन् सर्वेषा वर्णमेक पृच्छय, सफलाफल
शुभाशुभ निवेदयति । Closing : ह-हकारे सर्वासिद्विश्च द्रव्यलाभश्च जायते ।
तस्मात्कर्मप्रकर्त्तव्य सफल तस्य जायते ॥४८॥ Colophon : इति अक्षग्केवली प्रश्नशास्त्रम् ।
श्री वेण्पुर ( मूडविद्रि ) स्थ श्री वीरवाणी विलाससिद्धान्त भवनस्य तालपत्रप्रथादुद्ध त श्री लोकनाथशास्त्रिणा आरा 'जैनसिद्धान्तभवन कृते' श्री महावीर निर्वाण शक २४७० तमे मार्गशीर्ष शुक्लपक्षपूर्णिमाया तिथौ परिसमापित च । इति मगलमह । ११-१२-१९४३ ।
५३४. अरिष्टाध्याय
Opening | पणमत सुरासुरमउलि रयणवरकिरणकत विछुरिय ।
वीरजिनपाय जुयल मिऊण भणेमि रिट्ठाइ ॥ Closing : अट्ठारहछिणे जे लद्धहितछरे हाऊ ।
पढमो हि रेह अक गविज्जए याहिण तछ । Colophon: इत्यारिष्टाध्याय शास्त्र जिनभाषित समाप्तम् । मरणकाण्ड
निमित्तसारशास्त्र सम्पूर्णम् । सवत् १८३५ मास आषाढ वदि ३ शनीवार । शुभ भूयात् । लिखापित पडित रामचन्द ।
५३५. द्वादसभावफल
Opening I
Closing i
अथ द्वादसभावमध्ये रविफलम् ।
उच्च कन्या को सुग्रीव धन को नीच। इति उच्चनीच सुग्रीव ।
साथ मे उच्चनीच चक्र भी है। नही है ।
Colophon |
Opening :
५३६. गणितप्रकरण
यत्राप्यक्षरसदेहं तत्र स्थाप्य तु देवरम् । त्यजेत्तद्गतवाक्यानि अन्य वाक्यानि शोधयेत् ॥
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१६६
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddha. t Bhuvan, Arrub
Closing I भिन्ना खविर्जानि रत्न भा नु सुनिर्णय । इत्यपूर्णोऽय
ग्रन्थ ।
Colophon! श्री वेण्पुरनिवासिना लोकनाथशास्त्रिणा मूडविद्रिस्थ-श्री
वीरवाणी विलास-नामक जैन सिद्धान्तभवनस्य ग्रन्थसग्रहादुद्धृत्य ज्योतिर्ज्ञानविधि आरा जैनसिद्धान्त भवनकृते श्री महावीर शक २४७० पौषमासस्य अमावस्याया दिने लिखित्वा परिसमापितमिति भद्र भूयात् ।
५३७. ज्ञानतिलक सटीक (२४ प्रकरण)
Opening I नमिऊण नमिय नमिय दुत्तरससारसायरुत्तिन्न ।
सव्वन्न वीरजिण पुलिदिणि सिद्धसघ च ॥ Closing .
• • • अतश्चेतो वसति ११ महादेवान्मात्री (१२) Colophon: इति श्री दिगम्बराचार्य पडितश्रीदामनदिशिष्य भट्टवोसरि
विरचिते सायश्री टीकाया ज्ञानतिलके चत्रपूजाप्रकरणम् समाप्तम् ।
शुभमिति आषाढ ष्णा ३ स० १९६० विक्रमीय । लिपि कर्ता रोशनलाल जैन कठूमर ( अलवर ) निवासी ।
देखे-जि० र० को०, पृ० १४७ । ५३८. ज्योतिर्ज्ञानविधि
Opening
प्रणिपत्य वर्धमान स्फुटकेवलदृाटतत्वमीशानम् ।
ज्योतिर्ज्ञानविधान सभ्यस्वायभुव वक्ष्ये ॥ Closing :
ललाटलोके कलमा सुधी समा,
खनोरि खिन्नोरिव चेरि दो नवा । कापालिकोपागमसाधुसमि
गाच्छायाहि, मध्यान्हनिमेषमुख्यतः ॥ १३ ॥ Colophon: इति श्री धराचार्य विरचिते ज्योति नविधी श्रीकरणे
लग्नप्रकरण नाम अष्टम परिच्छेद.।
५३९. ज्ञानप्रदीपिका
Opening |
मद्वीरजिनाधीश सर्वज्ञ त्रिजगद्गुरुम् । प्रातिहस्याप्टकोपेत प्रकृष्ट प्रणमाम्यहम् ॥
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१६७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Jyotışa ) द्वितीये वा तृतीये वा शुक्रश्चेन्नौ समागम ।
अनेन च क्रमेणैव सर्व वक्ष्मि वदेत् स्फुट ।। Colophon! इति ज्ञानप्रदीपिका नाम ज्योतिषशास्त्र समाप्तम् । मंगलमस्तु।। श्री भारव्यै नमो नमः ।। अयमपि रानू नेमिराजनामधेयेन लिखित. ॥
देखे-जि० र० को०, पृ. १४८ ।
५४०. केवलज्ञानप्रश्न चूडामणि
Opening :
अक च ट त प य श वर्गा । आ एक त्रट त प य शा. इति।
प्रथम ॥१॥
Closing :
Colophon
जो पढमो सो मरओ, जो मरओ सो होइ अत्ति आ।
अत्तिल्लेशा पढमो जतण्णाम पत्थि सदेहो ।। ममाप्ता केवलज्ञानप्रश्न चूडामणिः । ५४१. केवलज्ञानहोरा
Opening :
Closing
अनन्तविद्याविभच जिनेन्द्र निधाय नित्य निरवद्यबोधम् । स्वान्तेदुहभिन्दुप्रममिन्द्रवन्ध वक्ष्ये परा केवलवोधहोराम् ।।१। xxx X हगरे ६५ । हरियट्टि ९६ । हुक्केरि ६७ । हरिगे १८ । हिप्परिगे १६ । हुरुमु जि १०० । कोडनहुन्वल्लि १०१। होसदुर्ग १०२ । हिजCिड १०३ । हुबल्लि १०४। हुणिसिगे १०५ । हनगवाडे १०६ हामाल्लि १०७ । सम्पूर्णम् । यादृश पुस्त ............ दीयते ॥१॥
Colophon:
देखे-जि र. को,पृ. १६ । ____Catg. of Skt. Ms , P. 318.
५४२. निमित्तशास्त्र टीका
Opening |
सो जयउ जाए उसहो अणत ससार सायरूत्तिणो। काणाणलेण जेण लीलाइ निउज्जइ मयणो।
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१६८
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jun Siddhint Bhavan, Arrah
Closing
Colophone :
Opening
Closing
Colophon :
Opening 1
Closing
Colophon
Colophon
एव बहुपायार उत्पायपरपरायणाऊण । रिसिपुतेामुणिणा सर्वाप्पय अप्पमथेण ||
इति श्री एव रिखिपुत्तिकेय सपूर्ण । इति श्री गाथा निमित्त शास्त्र की सपूर्णम् ।
५४३. महानिमित्तशास्त्र
Closing :
Closing!
नमस्कृत्य जिन वीर, सुरासुरनतक्रमम् । यस्य ज्ञानाबुधः प्राप्य, किचिद्वक्ष्ये निमित्तकम् ॥ चत्तारि एक चत्ता मासावरणे चोत्तसंसदावतसा । पाऊण विह विहिणा ततो विवियारण कुणह ॥
इति श्री भद्रबाहु विरचिते निमित्त परिसमाप्तम् । शुभ भवतु कल्याणमस्तु । श्री । इति श्री भद्रवाहु विरचिते महानिमित्त - शास्त्र सप्तविंशतिमोध्याय समाप्त |
दखे - ( १ ) जि र को पृ २१२, २९ । (भद्रबाहु महिता )
,
(२) दि जिग्रर, पृ. ११५ ।
५४४. महानिमित्तशास्त्र
देखे – ० ५४३ |
देखें – क्र० ५४३ ॥
देखें क्र० ५४३ ।
संवत् १८७७ कार्तिकमासे कृष्णपक्षे १ रविवासरे लिखित
मिद पुस्तकम् । श्रीरस्तु । शुभ भूयात् ।
५४५. निमित्तशास्त्र टीका
देखे ऋ० ५४३ |
देखे - ० ५४३ |
देखे ऋ० ५४३
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१६६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Jyotışa)
५४६. षट्पञ्चषिका सूत्र
Opening : प्रणिपत्य रविमूर्ना वराहमिहिरात्मजेन पृथु यशसा ।
प्रश्नेक्रियातार्थ ग्रहाना परार्थमुद्दिश्य सद्यशशा ॥ Closing : जीवसितौ विप्राणा क्षेत्र स्यारोप्लगूविशाचद्र ।
शूद्राधिप शशि स्तुतः शनीश्वरशकरो भवानाम् ।। Colophon: इति श्री षट्पचासिकाया मित्रकानाम सप्तमोऽध्यायः । इति
श्री षटपचासिकासूत्र नाम ज्योनिष सपूर्णम् । सवत् द्वीपनयनमुनिचद्र वत्सरे शालिवाहन गताब्द अबकनदभूत कौमदी प्रवर्त्तमाने पौषमासे कृष्णपक्षे चतुर्दशी पोषणवासरे मैत्री नक्षत्रे श्री उग्रसेनपुरे लिखितम् ।
देखे-जि र. को, पृ. ४०१
५४७. सामुद्रिकाशास्त्रम्
Opening:
आदिदेव नमस्कृत्य सर्वज्ञ सर्वदर्शनम् । सामुद्रिक प्रवक्ष्यामि शुभाग पुरुषस्त्रियोः ॥ पद्मिनी पद्मगधा च मदगधा च हस्तिनी। शखिनी क्षारगधा च शून्यगधा च चित्रिनी॥
Closing .
Colophon. इति सामुद्रिकाशास्त्रे स्त्रीलक्षण कथन नाम तृतीय पर्व समा. प्तोऽय ग्रन्थश्च ।
देखे--जि० र० को०, पृ० ४३३ ।
Catg of Skt & Pkt Ms , P. 708.
५४८. जनतिथिनिर्णय
OPening:
श्रीमत वर्द्ध मानेश भारती गोतमा गुरुम् । नत्वा वक्ष्ये तिथिना वै निर्णय व्रतनिर्णयम् ॥
श्रममुल्लध्य यो नारी नरो वा गच्छति स्वयम् । स एव नरक याति जिनाज्ञा गुरुलोपत ॥७॥
Closing
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२००
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jarn Siddhant Bhavan, Arnh
Colophon:
इति आचार्य सिंहनदि विरचित व्रततिथिनिर्णय समाप्तमा सम्वत् १९६६ चैत्रशुक्ल ६ का लिखी हुई सरस्वती भवन बम्बई की प्रति से श्री ५० के० भुजवली जी शास्त्री की अध्यक्षता मे श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा के लिए प्रतिलिपि की गई। शुभ मिति ज्येष्ठ शुक्ला १२ रविवार विक्रमसम्वत् १६६१ वीर स. २४६० । हस्ताक्षर रोशनलाल लखक ।
देखे-जि र, को, पृ ३६८ ।
५४८. यात्रामुहत्तं इसमे ग्यारह मुहूर्त वोधक चक्र ह ।
५५०/1. आकाशमामिनी विद्या विधि
Opening ! जहा गगा तथा और नदी के संगम के निकास पर वट का
वृक्ष होइ । Closing : . . . णमो लोए सब्बसाहूण । एहो मत्रराज
को एक सौ आठ बार जपै । Colophone इति आकाशगामिनी विद्या विधि ।
५५०१२. अम्बिका कल्प।
Opening : वन्देऽह वीरसन्नाथम् शुमचद्रजगत्पतिम् ।
येनाप्येतमहामुक्तिवधूस्त्रीहस्तपालनम् ।।१।। Closing : समसामधन भरभारभर धरधारमर पुरुत सुखकारम् ।
अतएव भजध्वमतिप्रथित प्रयित सार्थकमेव जनं. ॥ Colophon: इत्यविकाकल्ले चार्षे शुभचद्रप्रणीते सप्तमोऽधिकारः समाप्त ।।७।।
नाम्नाधिकार प्रयितोय यत्रसाधनकर्मण. समाप्त एष मत्रोडय पूर्ण कुर्यात् शुम वन. ॥१॥ इत्यम्बिका कल्पः।
" ... ~ शुभमिति कार्तिक कृष्णा ७ मंगलवार विक्रम सम्वत् १९९४ वीर सम्वत् २४६३ । इति शुभम् । ह. रोशनलाल ।
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२०१ Catal-gue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Mantra, Karmakanda)
देखे-दि० जि० ग्र० २०, पृ० १२१ ।
जि० र० को०, पृ० १५ । जै० ग्र० प्र० म०, I, पृ० १७१ । ।
५५. वाल ह चिकिमा
Opening :
Closing .
श्रीमाच गुरुतत्वा नत्र मात्र मुद्रत । बालग्रहविकित्सेय मस्तिषणेन रयते ।। ...
रामस्य सजया ... ... मन माया विति नापाको ।
इन्युनमायाकापोवरश्री मनरेगरि पिचिने . ल. चि. सि-मालाची द्विनी योध्धार ।
दखें -जि. र० को, पृ. २०२ ।
Colophon
५५२. वा ग्रह चि कत्सा
Opening .
अयाम्प प्रथने दिवने माने वर्ष वाल वाहक सना ना! माता तस्य प्रथम जायते ज्वर " .... .."।
___- एतेषा चूर्णी ठत्य विजयवा नारकर कुर्यात् । विशेष--यह प्रति अपूर्ण है।
Closing :
५५३. बालग्रह शान्ति
Opening:
(bing: Colap.ion:
प्रणिरत्य जिनेन्द्रस्य बरण. गोरुहद्वयम् । सहा गा बिकने शरति वदा का पनि धिनाम् ।
Tी हि-२ नि : नुव २ यान: - पहा । इति वाशी पोसार ११ पूज्य दमिद नि-fi विधा ।
कटिक न कुर्न मन इति +7
देवे - -जि. और, पृ. ।
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२०२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrch
५५४. बालकमुण्डन विधि
Opening | मुन्डन सर्वजातीना वालकेपु प्रवर्तते ।
पुण्टिबलप्रद वक्षे, जनशास्त्रानुमार्गत ॥ Closing
..-." तत कुमार स्थापयित्वा वस्त्राभूषण अलकृत्वा गृहमानीय यक्षादीना अर्घदत्वा पुण्याहवचन पुन सचयित्वा सज्जनान्
भोजयेत् इति । Colophons नही है ।
५५५. भक्तामरस्तोत्र ऋद्धिमंत्र
Opening
भक्तामरप्रणत . " - जनानाम् ।। Closing ! - ... अजनातस्कर वत निसक सत्य जान तो सर्वसिद्ध
होइ सत्यमेव ॥४॥ Colophon इति श्री गौतमस्वामी विरचिते अढ तालीस ऋद्धिमत्रभित
स्तोत्र भक्तामरमूलमत्र सम्पूर्णम् ।
५५६. भक्तामरस्तोत्र ऋद्धिमत्र
Opening |
देखे, क्र० ५५५। Closing |
देखे-क्र० ५५५ । Colophon i इति श्री गौतमस्वामी विरचिते अडतालीस ऋद्धिमत्रगुणगर्भित.
स्तोत्र सम्पूर्णम् ।
सम्वत् १९५० मी० 40 कृ०:१० । ५५७. भूमिशुद्धिकरण मंत्र
Opening
Closing | Colophon
ॐक्षी भू. शुद्धयत् स्वाहा।
2. तालुरध्रण गत त श्रवतममृता तुभिः । नहीं है।
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२०३ Catalozue of Sanskrit, Prakrit,' Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Mantra, Karmakanda)
५५८. बीज मत्र
Opening ! मन वचन काय के जोग की जो क्रिया सो जोग ताके दोय
भेद एक शुभ एक अशुभ । Closing : वक्तु लालविनोदेन श्री गुरुणा प्रभावत. ।
श्लोकसख्यामिति ज्ञय अष्टाधिकशतद्वयी ॥ Colophon : लालविनोदी ने रचा सस्कृतवानी माहि ।
वृदावन भाषा लिखी कछु इक ताकी छाह ॥१८६।। भूलचुक सब क्षिमा करि लीजो पडित सोध । बालक बुद्धी जानि मोहि मत कीजो उर क्रोध ।।१९०॥ सम्वतसर विक्रमविगत चन्द्रर,दिगचद ।
माघ कृष्ण आठ गुरु पूरण जयति जिनद |॥१६॥ इति भाषाकारनामकुलाग्ननामसमस्त लिखित सम्वत् १८६१ माघवदी ८ गुरौ वार कू नवीन भाषा वनी सो यही मूल प्रति है कर्ता के हाय की लिषी।
५५९. बीजकोश
Opening :
Closing |
तेजो भक्तिविनयः प्रणव: ब्रह्मप्रदीपवामाश्च । वेदोब्जदहनध्र वमादि (?) ओमितिख्यातम् ।। मायातत्वं शक्तिर्लोकेशो ह्री त्रिमूर्तिबीजेशो। कूटाक्षरं क्षकारं मलवरयू पिण्डमष्टमूर्तिञ्च ।। सर्वधान्यकृताजस्तद्रजोभिर्गुडान्वितैः । चन्द्रनागुरुकर्पूरगुग्गुलानघृतादिभिः ।। पायामानाक्षमिश्रब्रह्मवृक्षोद्भवादिभि । समिद्भिश्च चरेद्धोम प्रतिष्ठाणान्तिपौष्टिके ।। ॥ इति षट्कर्मविधि समाप्त ॥ ५६०. ब्रह्मविद्याविधि
Colophon:
Opening :
श्रीमद्वीर महासेन ब्रह्माण पुरुषोत्तमम् । जिनेश्वर व त वदे मोक्षलक्षम्यकनायकम् ।।
Page #404
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२०४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri lezakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhav 1.7, Arri.h
Clotirg! Colophon:
चन्द्रप्रभ जिन नत्वा सर्वज्ञ निजग रुम् ।
ब्रह्मविद्याविधि वक्ष्ये यथाविद्योपदेशतः ॥ धेनुमुद्रया सर्वोपचारं कृत्वा पूजाविधि परिसमापयेत् । नहीं है।
५६१. चन्द्रप्रभमंत्र
Opering !
ॐ चद्रप्रभो प्रभाधीश-बद्रशेखग्चभू । चन्द्रलक्ष्मकचन्द्राग चन्द्रवीजनमाऽस्तु ते ।।
- नित्य जपने ते मर्वमगल होय है। नहीं है।
Closing : Co'cphons
५६२. चौबीस तीर्थकर मंत्र
सव
Opening : आदिनाथमत्र। ॐही श्री चक्रेश्वरी अप्रतिनके
शातिं कुरु कुरु स्वाहा। Closing t - ... नित्य स्मरण करना सर्वकार्य सिद्ध होय । Colophon: इति श्री मत्र सम्पूर्णस् ।
५६३. चौबीस शासन देवी मंत्र
Opening :
मत्र के अन्त मे मरन माह नवसा अरण विद्वषण आकपनए सब .. .. ।
... धनार्थी आकपन करे ता धन बहुत पावे । नही है।
Closing Colcphon.
५६४. गणधरवलयकल्प
Opening : देवदत्तस्य नामाई कारेण वैष्टयेत् ।
ततोऽनाहतेन तस्याध कमक्षयार्थ अर्थप्राप्त्यर्थ पमासनम् शातिकोटि. सारस्वाधिकारासन [ शत्रुविनाशार्थ क्रूरप्राणिवश्या । डूरामन।
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२०६
श्री जैन सिद्धान्त मवन ग्रन्यावनी Shri Devakumar Jain Oriental Library. Jain Siddh int Bhavan, Arrih
५६७. घंटाकर्णवृद्धिकल्प
Opening:
Closing : Colophon:
__ देखें-क्र० ५६६ । .
देख-ऋ० ५६६ । इति घटाकर्णवृद्धि कल्प सपूर्णम्। मिति अगहन कृष्णामावस्या लिखत रूवनप्रसाद अग्रवाल अपने पठनार्थम् । सम्वत् १९०३ ।
५६८. घंटाकर्णवृद्धिकल्प
Opening'
Closing : Colophon
देखे, ऋ० ५६६ ।
देने, क्र० ५६६ । इति घटाकर्णवृद्धि कल्प सम्पूर्णम् । विशेष-सात मत्रचित्र ( मत्र चक्र ) भी हैं।
५६६. हाथाजोडीकल्प
Opening
Closing
रविभौमशनिवार, हस्तपुष्य पुनर्वसु । दीपोब्दव होलिका च, गृहीत्वा हस्त जोडीका ।। अदोसो दासता ज्योति, मनोवाच्छितदायकम् । मस्तके कठव्याप्त च, पार्वे रक्ष गुणाद्विक ॥ इति हाथाजोडीकल्प शिवोक्त सम्पूर्णम् ।
Colophon
५७०. इष्टदेवताराधन मत्र
Opening
Closing :
वश्यकर्मणिपूर्वाङ्ग कालश्च स्वस्तिकाशनम् । उत्तरादिक सरोजास्या मुद्राविद्रुममालिका ॥ ... " मोहस्य समोहन पापात्पचनमस्क्रियाक्षरमग
साराधना देवता ।। इति मत्र इप्टदेवता के आराधना का समाप्तम् ।
Colophon:
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२०७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apnbhramsha & Hindi Manuscripts
(Mantra, Karmakanda)
५७१. जैनसन्ध्या
Opening ! मां भू युद्धयतु स्वाहा । Closing : में भय म्व अमिमा उमा है प्राणायाम करोति स्वाहा ।
बनामिया गृहीत्वा नियार जपेत् । Colophon: नि प्रणायाममत्र । इति जैनमन्ध्या सम्पूर्णम् ।
५७२. जैन विवाह विधि
Opening |
Closing'
धीतारक नया वर्षमानजिनेश्वर । गोमादिगणाधीनं वान्देयि प विशेषत ।। मगनमय मगरण परमपूज्य गुणवृन्द ।
न तुम को गगन को नाभिगय युलचन्द ।। जिनविवार, पदधति नमाप्तम् । गिनी अगार वदी १० म० १९७८ । सहारनपुर ।
Culophon
५७३. जैन संहिता Opening : विज्ञान विमल यन्य गागते विश्वगोचरम् ।
नमन्नाम जिन्देन्द्राय सुरेन्द्राभ्यचितात्रये ॥ Closing ; सोपंग गुनुमाउधनु. शर च, नेटासिपाशवरदोत्पलमक्षसूत्र । वि. पनगागयफल गरादिरुढा, मिद्धायिनी धरति हेमगिरिप्रभा
श्री॥ Colophon: ति धी मापनन्दिविरचितायां गिनमहितायायक्षयक्षी प्रतिष्ठा
विधानम् ।
इति श्री माधमन्दिविरचित जिनमहिता समाप्ता।
उक्त मन्हिता वैदर्भदेणस्थ पूज्य प्रात स्मरणीय वालनमचारीरामचन्द्रजी महाराज का परमप्रिय शिप्य दिगम्बर वालकृष्ण टाकलफर मईतवाल जैन चम्पापुरी निवासी ने सोलापुर ( महाराष्ट्र प्रान्त ) में वर्धमान जिनचैत्यालय मे अत्यन्त भनिपूर्वक लिखकर पूर्ण की। मिती कार्तिक वदी ६ बुधवार शके १८६० वीर सं० २४६५ विक्रम सम्वत् १९६५ गन् १९३८ । कल्याणमस्तु ।
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२०८
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Sri Devakumar Jan Oriental Libruru Jain, Siddhant Bhavan, Arrab
५७४. कर्मदहन मत्र
Opening!
ॐ ह्री नर्व कर्मरहिताय गिद्धाय नम ॥१॥ Closing i
__ह्री वीन्निराय रहिताय मिद्धाय नम ॥१६४।। Colophong! इति कर्मदहनमन्त्रसम्पूर्णम १६॥ श्रावणमासे शुतिले
___तियौ ११ रविवासरे नमान १६६५ ।
Opening : Closing' Colophon:
५७५ कतिकु।ड मत्र
ऊही श्री कनी ऐं अई कलिकुंड "। ____ पापात्यचनमस्कारक्रियाक्षरमयी सारावनादेवता । इति नन इष्टता के आरावन का समाप्तम् ।
५७६.मंत्र यंत्र
Opening :
Closing :
अघताज के पोडशी जोग सुवर्णमाती सारा की ढी ऊपर धरिये अग्नि देई तब .........।
...... सिद्धि गुरु श्रीराम आज्ञा काली करि घर पहा तेल पलाय अमुकी नरबहे घर । मत्र ।
नही है।
Colophon :
५७७. नमोकार गण विधि
Opening:
Closing :
रेषयाष्ट गुण पुन्य पुत्रजीवेफलर्दम । सत स्यात्सखमणिभिः सहस्वं च प्रवान. ॥ अगुल्यग्रेनुयज्जप्त यज्जत्तमेरुलंघनाद्। __ सख्यासहित जप्त सर्व तनिफ्ल नत्रत् ।। इति जाप्य विधि समाप्नम् ।
Colophon.
Opening
५७८, णमोकार मंत्र
णमो अन्हिताण, जो frarmir नमो आयग्यिाग, रमा ३. काप।
णमो लोए नव्या
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२०६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrathsha & Hindi Manuscripts
(Mantra, Karmakauda)
Closing:
समस्त लोकपथ प्रभु खसतापछनि स्त्र ॥ नग्नही करिवार १०८ जपण जपक्षेवण ॥ पसासन पूर्व दिशि मुखराखणु जो विचार सोही वश्यहोवे मयदीन जपण ।।
५७६. पद्मावती कवच
ॐ अस्य यी मनराजस्य परमदेता पद्मावती चरणावुजेभ्यो
Qpening!
नमः। Closing : Colophon:
पाठालं कपता " - .... परमेश्वरी ॥३३॥ इति पद्यावती स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।
देखें-जि० २० को०. पृ० २३५ ।
५८०. पंचपरमेष्ठी मंत्र
Opening :
Closing . Colophon:
ऊँ ही नि स्वेदगुग मयुक श्री जिनेभ्यो नमः स्वाहा ।
ह्नी सातत्यागमूनगुणसहितसर्वसाधुभ्यो नमः । नहीं है। ५८१. पञ्चनमस्कार चक्र
Opening 1
देनास्यामवससिण्यामादावुत्पाद्यकेवलम् ।। कृत्स्नो मन्त्रविधि. 'प्रोक्तक्तम तंत्राण्यथोक्तवान, तस्मै सर्वज्ञदेवाय देवदेवात्मने नमः ।।
Closing . सम्यग्दृष्टिजनस्य एषा विद्या दातव्या। निन्दासूयानास्तिक्य
युक्तानां धर्मपिर्णा मिथ्यादृशामपुष्टधर्माणञ्च न दातव्या। कदा:
चिद्दते (१) सति (?) तदा महापातक प्रयुक्त भवति । Colephon! एव पञ्चनमस्कारचक्र समाप्तमिति
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrah
२१०
५५२. पीठिका मंत्र
Opening :
Closing | Colophon i
ॐ नीरजसे नमः। ॐ दप्मथनाय नमः । ॐ ह्री अर्ह नमो भयदो महावीरवठ्माणानम् । नही है।
५८३. सरस्वती कल्प
Opening i
Closing :
बारहअग गिज्जा दसणनिलया चरित्तट्ठहरा। चउदसपुत्वाद्रण ठावे दव्याय सुखदेवी ॥ आचारशिरस सूत्रकृतवा (सरस्वती) सणिठकाम् । स्थानेन समयौद्ध (स्थानागसमयाघ्रिता) व्याख्याप्रज्ञप्तिदोलताम
परमहसहिमाचलनिर्गता सकलपातकपकविवजिता।। अमितवोधपय परिपूरिता दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती ॥ परममुक्तिनिवाससमुज्जवल कमलया कृतवासमनुत्तमम्।। वहति या वदनाम्बुरूह सदा दिशतु मेऽभिमतानि सरस्वती।। मलयकीर्ति कृतामिति सस्तुति सतत मतिमान्नर । विजयकीति गुरुकृतमादरात् समति कल्पलता फलमश्नुते ।। इति सरस्वति कल्प, समाप्त.
Colophon:
५८४. शान्तिनाथ मंत्र
Opening |
Closing: Colophon :
ॐ नमोहते भगवते प्रक्षीणाशेषदोष .. ।
चक्रादिसपदका दाता अचिन्त्य प्रतापी हैं । नही है।
५८५. सिद्ध भगवान के गुण
Opening
Closing Colophoni
केही मतिज्ञानावरणीकर्मरहित श्री सिद्धदेवेभ्यो नमः स्वाहा ।
ॐ ह्री सम्य .. .. । नही है।
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२११ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Mantra, Karmakinda)
५८६. सोलह चाली Opening | श्री जिन नमि फुनि गुरु को नमो, मन धरि अधिक सनेह ।
सोलह चाली मन की रची सुविधि कर एह ।।। Closing !
..... - और जो एक घटाईये तो एक-एक घटाइ
लिप ८ के अक तही। Colophong ! इति श्री १६ चाली पूर्णम् ।
५८७. विवाह विधि Opening : स्वस्ति श्री कारक नत्वा वर्धमान जिनेश्वरम् ।
गौतमादि गणाधीश वाग्देव विशेषतः । Closing :
... ... विपुल नीलोत्पलाल कृत स्वस्येकोचन,
भूषितरूपचितः विद्य प्रमा भासुरै । Colophoni Missing.
५८८. यन्त्रमंत्र संग्रह
Opening:
Closing :
यस्तु कोटिमहागि मन्त्रतत्राण्य गोकवान् ।
तस्मै सर्वज्ञदेवाय देवदेवात्मने नम ॥
अपुष्टधर्माणा च न दातव्य इद दृश्वा यदि कदाचिद्ददाति तदा महापातक प्रयुक्तो भवति एवं पचनमस्कारचक्र नानाक्रियासाधन स • • • यसार समाप्तमिति ।
समाप्तमभूत् । ५८६, अलंक संहिता (सारसंग्रह)
Colophon:
Opening ! श्री मच्चातुनिकायामरखचरवर नृत्यमगीतकोतिम्
व्याप्ता ......""शाल सुरपटहादि सत्प्रतिहार्यम् । नत्वा श्री वीरनाथ भुवि सकलजनारोग्यसिद्धय समस्तै
रायुर्वेदोक्तसारैरिहममल(१) महासग्रह सलिखामि ॥ Closing ! नालिगेय दोष २० वगेय प्रमेह प्रदर चैत्य कामाले पाडु सह
सह परिहर । इच्छा पथ्य ।
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२१२
श्री जैन सिद्धान्त भवन अन्थावली Skiri Devakumar Jain Oriental Library. Join Siddhant Bhavan, Arrrbi Colophon: वद्यनथ परिसमाप्तम् ।
५६०. आरोग्य चिन्तामणि
Opening! भारोग्य भवरोगपीडितनृणां यच्चितना ज्ञायते
ते सग्र्गादिविधायिन सुरनुलं नत्वा शिव शाश्वतम् ॥ आयुर्वेदिमहोदधेलघुतर सर्वार्थद सुप्रभ
वक्ष्येहं चरकादिसूक्तिनिचयरारोग्यचिंतामणिम् ॥ ॥ Closing | बालादिह प्रमाणेन पुष्यमाला सदीपकम् ।।
प्रगृह्य मुष्टिका भक्त बलिई य सुमत्रिणा ।। ।।
इति सूतिका वालरोगाध्याय; स्त्रिश' बालत्रमम् ॥ इति श्री भट्टारविष्णुसुतपडितदामोदरविरचितायांमारोग्यचितामगिसहितायामुत्तरस्थानं षष्ठ समाप्तम् ।। एवं ग्रयसंख्या शत ॥ १२०० ।। परिधावि संवत्शरद माघ शुक्लपक्ष १४ चतुर्दशीयु गुरुवारदल्लु । मूडविद्रे पन्ने च्यारि श्रीधरभट्टनुवरदशा आरोग्यचितामणिसहितेये मगलमहा | श्री वीतरागाय नमः॥ करकृतमपराध भतुमहति संतः ॥ विजयापुरीश्च भवनस्वर्गावलरोजिन' ॥ श्रीमन्मदुरमस्तैकाग्रसदनः श्रीमत्तपोधासन लोकालोक विभासि बोधनघनोलोकानसिंहासनः ॥ सधानक्यकमुह माणिकजिन 'पयातु पायात्मन॥
श्रीजिनार्पणमस्तु ॥ श्री शुभमस्तु । श्री वीतरागार्पणमस्तु," ॐ श्री वासुपूज्याय नमः॥ सिध्यदिनदलूवजेठ माडुवागल कदम प्रात: का लदलूमौंनदि पागि ॥
'ॐ नमः औषधेभ्य उर्जावतोमतिषययवीर्य मकैकस्मिन् कुरुघ्वं पथ दह दहन धारय तुभ्य नमः काचीपुरवासिन । दिमत्रदिभत्रि सिमग दुत छायांशुष्क कमठ भाडि अजमूदिनस्य जग्ये सर्व ग्रहं ॥
देखें- जि० २० को, पृ० ३४ ।
Opening |
५६१. कल्याण कारक, किरीकोटि-माणिक्यरश्मि निकराचिन
पादपीठा तीर्थादिपूजितवपुर्वृषभो. वभूव साक्षादकारणजग- ।
त्रितयकवन्धुः॥१॥
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२१३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramslia & Hindi Manuscripts
Ayurveda Closing i इति जिनवऋनिर्गत सुशास्त्रमहाम्बुनिधे सकलपदा
र्थविस्तृततरगकुलाकुलत.। उभय भवार्थसाधनत उदयभासुरतो निसृतमिद हि
शोकरनिभ जगदेकहितम् ॥२॥ Colophone इत्युग्रादित्यचार्यकृत कल्याणकोत्तरे नानाविधकल्पककल्पनासिद्धये कल्पाधिकार; पंञ्चमोऽध्यायोऽप्यादित. पञ्चविंश परिच्छेद, ।
देखे-जि० र० को., पृ. ७६ ।
५६२. मदनकामरत्न
Opening :
Closing :
मृतस्तनोहारोप्य समाशम्
.' . मृतन्वर्णगन्ध (२) समर्व विनिक्षिप्य खल्वे विमर्वेत्तत म्वर्णतैलोद्भवेन त्रिवारम् ।।१।।
अहन्येव रज. स्त्रीणा भवन्ति प्रियदर्शनात् । वीर्यवृद्धिकञ्चव नारीणा रमते शतम् ।। पञ्चवाणरनो नाम पूज्यपादेन निर्मित ।।
Colophon:
५६३. निदान मुक्तावलो
Opening
Closing :
रिष्ट दोप प्रवक्ष्यामि सर्वशास्त्रेषु सम्मतम् । सर्वप्राणिहित दृष्ट कालारिष्टञ्च निर्णयम् ॥१॥ गुरौ मैत्रे देवेऽप्यगदनिकरैर्नास्ति भजनम् तथाप्येव विद्या अतिनिगदिता शानिपुर्ण । अरिप्ट प्रत्यक्ष सुभवमनुमारूढसुभगम् विचार्य्यन्तच्छश्वन्नि
पुणमतिभि कर्मणि सदा ॥ विज्ञाय यो नरः काललक्षणरेवमादिभि. ।
न भूयो मृत्यवे यस्माद्विद्वान्कर्म समाचरेत् ।। इति पूज्यापादविरचिताया स्वस्थारिष्ठनिदान समाप्तम् । ५६४. रससार संग्रह
Colophon i
Opening |
भद्र भूयात् जिनेन्द्राणा शासनायाघनासिने । कुतीर्थध्वातसघातरभिन्नघनभानवे ॥१॥
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२१४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing :
" · एव रक्तश्रयारी · · ·।
५९५. वयकसार संग्रह
Opening ! सिद्धोषवानि पश्यानि रागढ परुजां जये।
जयन्ति यद्वचाशत्र तीर्थकृच्छे स्तुव श्रिये ॥ Closing : पथायोग प्रदीपोऽस्ति पूर्वयोगा शत तथा ।
तथैवाय विजयता योगन्तिामणिश्चिरम् ।। नागपूरि यतयो गणराज श्रीहर्षकीति सकलिते ।
वैद्यकसारोद्धारे सप्तमोमिशकाध्याय.॥ Colophone इति श्रीमन्नागपुरि पतपातया गच्छाय श्रीहर्षकीर्ति सक
लिते वैद्यकसारसग्रहे योगचिन्तामणी मिशकाध्यायः समाप्त । इति योगचिन्तामणि सपूर्ण ।
देखें, जि. र. को, पृ. ३६५ ।
५९६. वैद्यकसार संग्रह
Opening: यत्र चित्रा समयाति तेजासिजतमासिच
मटीयस्तोदय वद चिदानदमयभह ॥१॥ Closing 1
नागपूरियतयो गणराज श्रीहर्षकीति सकलिते।
वैदकसारोद्धारे सप्तमकोमिश्रकाध्याय ॥३०॥ Colophon: इति श्रीमन्नागपूरियतपायतपागछाय श्री हर्षकीति सकलिते बंद्य
कसारसग्रहे जोगचितामणौ मिश्रकाध्याय समाप्तम् ॥ यादृश पुस्तक दृष्टा तादृश लिखत मया । यदिश्रुद्ध अशुद्ध वा मम दोषो न दियते ॥ मिति भाद्रवा शुक्ल १० भोमवासरेः सवत् १८५० साके १७१५ शुभ भूयात् कल्यागमस्तु ।।
५६७. वैद्य विधान
Opening : महारस सिवुर विधि शुद्ध पान्द पडगुणोंक सुरभी जीणी
तंद्र मयुरोस नवसरक मणिशिला पत्रामक टरुण वज़ क्षारकलाश
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२१२ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Ayurveda )
कैविमलित गधार्घभाग प्रमात् सर्वं बल्वतले विमद्यं ममल योगादि
ऋक्षे शुभे कन्या भास्कर हस पादि मनल। Closing | स्यात्स्वेदन तदनुमर्दन मूउनेन, स्यादुत्थिता पतन रोद निया
मनानि । सदीपन गगन भक्षण मानमात्रा सज्जारणा तदनुगर्भगता धृतिश्च ॥ पाह्या धृति सूतक जारणस्याद्रागस्तथा सारण कर्म पश्चात् । सत्रामणावेद विधिः शरीरा योग किलाण्टादश वेति
फर्म ॥२॥ विशेष -वैसाख कृष्ण द्वितीयायां समाप्तश्च शाली घाहन शक् १८४८ ।।
सन् १९२६ ईश्वी।
५६८. विद्याविनोदनम्
Opening :
प्रप्रणम्य जिन देव सर्वश दोपजितम् । सर्मवक्षीति चतुर दाराकल्पमकल्पकम् ॥
Closing
व्याध्युजिकुठाररोगदण्ड णाति कूरदान भूवरूपम वावगाहमिदं
भूपैरल सेव्यताम् ।। Colophon: इति श्रीमदर्हत्परमेश्पर चारु चरणारविन्द गन्धगुणानन्दित
मानसाशेपकला शास्त्र प्रवीण परमागमत्रयवेदि प्राणापायागमान्तर समुदित वेद्य शास्त्राम्बुनिधिपारगम सर्व विद्यानन्द मानस श्रीमद्कलक्क स्वामि विरचित महावंद्यशास्त्र विद्याविनोदाख्ये अवगाहन लक्षण समाप्तम् ।।
देखें, जि. र. को., पृ. ३५६ ।
५९६. योगचिन्ता मणि
Opening 1
यत्र वित्रासमायोति, तेजांसि च तमासि च । महीयस्तदह पदे, चिदानदमययहम् ।। यथायोगप्रदायोस्ति पूर्न योगसत यथा। सर्थवार्य विजयता योगश्चितामणिश्चिरम
Closing
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'२१६
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Colophon:
Opening
Closing :
Colophon :
Openings
Closing
Opening I
Closing
इति श्री नागारावयो गणराजः । श्री हर्षकीर्ति सकलिते: वैद्यकसारो, द्धारे संप्तको मिश्रकाध्याय ७ । इति श्री योगचितामणिवैद्यकशास्त्र सपूर्ण म् ।
सवत् १८६६ मिती ज्येष्ठ शुक्ल ३ शुक्रवार कु सम्पूर्णम् ।
देखें, जि० र० को०, पृ० ३२१ ।
६००. योगचिन्ता मणि
देखे - ऋ० ५६६ 1
देखे क्र० ५६६ ।
इति श्री योगचिन्तामणि वैद्यकशास्त्र
१९८५ का साल जेष्ट शुक्लमासे एकादशी वृहस्पति
।
प्रसाद जैनी मुकाम आरा नगरे श्री मनेजर भुजवली
दाय में लिखा गया । इत्यल भवनु शुभ 1
६०१. आचार्य भुक्ति
इति आचार्यभक्ति ।
सिद्धगुणम्, तिनिरता उद्भूत तरूपाग्निजालबहुल विशेषान् । गुणिन् मुक्तियुक्त सत्यवचनलक्षितभावान् ||१|| जिणगुणतपत्ति होउ मज्झ ।
सपूर्णम् । सवत्
लेखक भुजबल - शास्त्री के सप्र
देख - जि, र, को,, पृ. २५ ।
६०२. अंकगर्भषडारचक्र
सिद्धिप्रियं प्रतिदिन प्रतिधाममान, जन्मप्रर्वधमथनं प्रतिभासमानः । श्री नाभिराजतनुभूपदवीक्षणेन, प्रायजनैवितनुभूपदवीक्षणेन ॥
तुष्टि: देमनया जनस्य मनसे येन स्थितिदित्सता, सर्वं वस्तुविजानता समवता ये नक्षता कृच्छ्रता । भव्यान दकरेण येन महता तत्वप्रणीति कृता, ताप हेतु जिन, समेशुभधिया तत सतामीशिता ॥
1
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२१७ Catalozue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramaha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
Colophon:
इति देवनदि कृत्तिरित्यकगर्भषडारचक्र सम्पूर्णम् ।
देखे-जि० र० को०, पृ० १। ६०३. अष्टगायत्री टीका
Opening!
भूर्भुव स्वस्तत्सवितुर्वरेण्य ।
भर्गोदेवस्य धीमहि धीयो यो न प्रचोदयात् ॥१॥ Closing
थी तीर्थराज पदपद्मसेवा हेवाकिदवासुरकिन्नरेश ।
गभीरगीस्नारतण्वेरेण्य प्रभावदाताददता शिव व ॥१॥ Colophon! इति जनगायत्री पट दर्शन अष्टमतयेन वेदात रक्षस्येन तीर्थ
राजस्तुति समाप्ता ॥ इति अष्ट गायनी टीका समाप्त ॥ श्रावणमासे कृष्णपक्षे तिथी ६ भौमवासरे श्री सम्वत् १९६२ ।
६०४. आत्मतत्वाप्टक
Opening !
.
Closing .
अनुपमगुणकोष छिन्न लोभोरूपाशम् ।, तनुभुवन समान केवलज्ञानभानुम् । विनमदमरवृद सच्चिदानदकद, जिनवलसमतत्व भावयाम्यात्मतत्वम् ।। त्रिदशनुतमनिंद्य मदभयमलदूरं, शास्वतानदपूर चिदमलगुणमूर्ति घालचद्रोरुकीति विदित सकलतत्व:
भावयाम्यात्मतत्वम् ॥ नही है।
Colophon
६०५. भात्मतत्वाष्टक
Opening |
यद्वीतराग धरचिन्मय बोधरूपम्, एस्स्वर्णटकसदृश धनसारभूतम् । यल्लोकमात्र कथित नय निश्चयेन, तचिन्तयामि निजदेहगतात्मतत्वम् ॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
२१८
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing!
Colophon :
Opening :
Closing:
Colophon⚫
Opening.
Closing.
Colophon
ये चिन्तयति पदपिंड स्वरूपभेदम्, सालम्वन तदपित मुनयो वदन्ति । यन्निविकल्प कवलेन समाधिजातम्, तच्चिन्तयामि निजदेहगतात्मतत्वम् ||
नहीं है।
६०६. आत्मज्ञान प्रकरण स्तोत्र
नमोभि क्षीणपापाना शांताना वीतरागिणाम् । मुमुक्षुणामपेक्षायमात्मबोधो विधीयते ॥१॥ दिग्देशकाला
अमृतो भवेत् ||६||
दिगम्बराद्यामनायपद्मसूरिभिः
....
इति श्री गुरुपरमहस श्री कृते आत्मज्ञानमहाज्ञानप्रकरण स्तोत्र समाप्तम् ।
६०७. भक्तामर स्तोत्र
भक्तामर प्रणतमौलिमणिप्रमाणामुद्योतक दलित पाप तपोवितानम् । सम्यक्प्रणम्य जिनपादयुग युगदा वाल वन भवजले पतताम् जनाना । स्तोत्रस्रज तवजिनेन्द्र गुणैनिवद्धाम् : भवत्या मया रुचिरवर्णविचित्रपुष्पा । धत्ते जनो य इह कण्ठगतामजस्न त मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मी ॥
यह ग्रथ वीर स० २४४० मे लिखा गया । देखे - ( १ ) दि० जि० ग्र० २०, पृ० १२२ ॥ (२) जि. र. को, २८७ ॥
(३) आ० सू० पृ० १०६ |
(४) रा० सू० 11, पृ० ४६, ८९ ।
(५) रा० सू० 111, पृ० ११, ३५, १०५, २४१ ।
(६) प्र० जे० सा०, पृ० १६०
(7) Catg of Skt. & Pkt. Ms, P. 676,
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-२१९ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhrathsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
६०८. भक्तामर स्तोत्र
Opening ! देखें, ३० ६०७ । Closing I देखें, ऋ० ६०७ ।
इति श्री मानतु गाचार्यविरचिते भक्तामरस्तोत्र समाप्तम् । सवत् १८८२ श्रावण द्वितीक वदी।
युग्म सिद्धि गजमेदनी, मवत्मर इह सार । द्वितीक मास नम तिथि, मुनि यक्ष रुक्मिण भरतार ॥१॥ सूर्य स्त्त शुभवार कहि प्रथम नक्षत्र घडी वाण। गड योग षटयत्र में, लिख्यौ स्तोत्र हित जाण ॥२॥
बादि ५ दोहे।
६०६. भक्तामर स्तोत्र
Opening :
Closing ! Colophon!
देखें, क्र० ६०७ । देखें क्र० ६०७ । ___ इति भक्तमर स्तोत्र सपूर्णम् । ६१०. भक्तामर स्तोत्र
Openings देखे, ऋ0 ६०७ ।
Closing। देखे, क्र. ६०७ । Colophon:
इति मानतु गाचार्यविरचित भक्तामरस्तोत्र समाप्तम् । सवत् १७६३ भादव वदी ४ दिने लिखत अमरुगो नगरमध्ये ।
६११. भक्तामर स्तोत्र Opening । देखे, ऋ० ६०७ ।
Closing | देखें, क्र0 ६०७ । Colophon: इति मानतु ङ्गाचार्यकृत्त भक्तामरस्तोत्र समाप्तम् ।
६१२. भक्तामर स्तोत्र
Opening :
देखें, ऋ0 ६०७ ।
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२२०
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing | Colophon
देखें, ऋ0 ६०७ ।
इति श्री मानतुङ्गाचार्यविरचित भक्तामरस्तोत्र सपूर्णम् ।
६१३. भक्तामरस्तोत्र
Opening ! देखें, क्र0 ६०७ । Closing: ... " "मत्र का थोडा थोडा फल विध सुय लिखा
ऐसा जानना। Colophon: इति श्री भक्तामरनामा श्री आदिनाथ स्वामी का स्तोत्र श्री
मानतु गाचार्यविरचित समाप्तम् ।
६१४. भक्तामर स्तोत्र
Opening I Closing :
देखे, क्र0 ६०७ !
भाषा भक्तामर कियो हेमराज हितहेत ।
जे नर पढे सुभाव सो ते पावं सिवषेत ।।४।। इति श्री भक्तामर सस्कृतभाषा समाप्तम् । ६१५. भक्तामर स्तोत्र
Colophoni
Opening , देखे, 30 ६०७
Closing : देखे, 20 ६०७ । Colophon) इति मानतुङ्गाचार्यविरिचित भक्तामर आदिनाथस्तोत्र
'संपूर्णम् ।
६१६. भक्तामर स्तोत्र
Opening
Closing! Colophon!
देखें, 90 ६०७ । देखे, क्र0 ६०७ ।
इति भक्तामरसस्कृतसमाप्तम् । ६१७. भक्तामर स्तोत्र सटीक देखें ऋ० ६०७ ।
Opening !
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२२१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
Closing . ........."उस लक्ष्नी को विवश होकर इस स्तोत्र के पठन
अध्ययन करने वाले पुरुष के पास आना ही पड़ता है ॥२८॥ Colophon: इति भक्तामरसमाप्त ।
हस्ताक्षर बालकृष्ण जैन पालम निवासी। मिती मार्गशीर्ष शुक्ला ९ गुरुवासरे सम्वत् विक्रम १९७१ इति शुभम् । मङ्गलमस्तु।
Opening : Closing |
६१८. भक्तामर स्तोत्र देखें, 30 ६०७ । देखे क्र0 ६०७ ।
इति मानतुगाचार्यकृत भक्तामरस्तोत्र समाप्तम् ।
१९. भक्तामर स्तोत्र
Opening |
Closing : Colophon:
देखे ऋ0 ६०७ । देखें, 30 ६०७ ।
इति श्री मानुङ्गाचार्यविरचित श्री भवतीमरस्तोत्र सम्पूर्णम् । ६२०. भक्त स्तोत्र टीका
Opening ! देखे, क्र0 ६०७ ।
Coleing : देखे ऋ० ६२६ । Colonhon: इति भक्तामरस्तोत्रस्य टीका पडित हेमराजकृत सपू
र्णम् । सवत् १९१६ तत्र माघकृष्ण वुधवासरे लिखित अबाशंकर।
६२१. भक्तामर स्तोत्र मंत्र
Opening i
चदन अगर लवग वालछड शालीतिल अरलु मिठाई दूध घृत इनकी आहुति दशाश होमेन
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२२२
श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रम्यावली.
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Artah
Closing f
Colophon :
Opening I
Closing t
Colophon
Opening
Closing
Colophon
Opening Closing :
Colophon :
चक्रेश्वरी प्रसन्न भवति तत्काल सिद्धि चतुष्कोण करे मध्ये ही पचदण द्वितीये तृतीयेाकपालचर्ये नवग्रहा पत्रमे ॥ अदन कमलवत् गोलाकार कृत्वा मध्ये 1 अही लक्ष्मी प्राप्त्यै नम: लिखेत् पुन पोडश श्री कारेण वेष्टि तनष्मिण सवत् १९६७ फाल्गुन शुक्ला १२ प० मोताराम शास्त्री ||
६२२. भूक्तानर ऋद्धि मंत्र
य. संस्तुतः
प्रथम जिनेन्द्र ||२||
अष्टदल कमल कृत्वा तन्मध्ये ही लक्ष्मी प्राप्ति नम. लिखित्वाय श्रवादसोडश श्रीकारेण वेष्टित तदुपरिमृद्धि मत्र वेष्टित अयत्र पूजावाथ की एकाव्यनृद्धि मत्रवार १०८ नित्य जपवाथी दिन ४८ सर्वसिद्धि मनोवाहित काय सिद्धि होय जिह नैव मिकणो होयतिको नाम चितिज मनोवाहित सिद्धि होय ॥ इति काव्य सपूर्णम् । इद पुस्तक लिखित नीलकठदासेन ऋषभदास नामधेय अस्य अर्थ लेखनीकृत ।। सवत् १९३० मिति आश्विन शुक्ल अष्टम्या
वात्सर शुभ भूयात् ।
६२३. भक्तामर स्तोत्र मंत्र
देखें ऋ० ६२२ ।
देखें ऋ० ६२२ ।
देखें ऋ० ६२२ |
६२४. भक्तामर स्तोत्र
देखें क्र० ६०७ ।
देखे
० ६०७ ।
नही है ।
विशेष --- इसमे सभी काव्यो के मत्रचित्र (मंडल) बने हुए हैं।
चतुस्र कृत्वा । वेष्टयेत् ॥
रविवासरे लिपिकृत
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२२३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
Opening :
६२५. भक्तामर स्तोत्र मंत्र
ॐ णमो अरिहताण ।। नमो जिणाण ।। ॐ णमो तुहिजिणाण ।३। ॐ नमो परमोहि जिणाण ।। ॐ णमो तु सवों हि जिणाण ।। अय मयो महामत्र सर्वपापविनाशक । अप्टोत्तरशत जप्तो धत्ते कार्याणि सर्वश ॥ नही है।
Closing |
Colophon:
६१६. भक्तामर ऋद्धिमंत्र Opening ! देखें-० ६०७ । Closing : देखें-मा० ६०७ । Colophon: इति मानतुनाचार्यविरचिते भक्तामरस्तोत्र सिद्धि मत्र
यत्र विधि विधान सपूर्णम् । विशेष—इसमे सभी ऋद्धिमत्रचित्र रगीन हैं ।
६२७. भक्तामर ऋद्धिमंत्र
Opening : ॐ ह्री मह णमो जिणाण । Closing ! ईप्टार्थसपादिनी समापातु जिनेश्वरी भगवती पद्मावती
___ देवता ।१२। इत्याशीर्वाद । Colophon: इति पद्मावती पूजा चारूकीतिकृत मपूर्णम् । मिती माघ
वदी ३० वार बुध सवत् १९६६ मारा नगरमध्ये लिखत भट्टारक मुनीन्द्रकीति अगरेजी राजधानी मै काष्ठामधे माथुरगच्छे पुस्करगणे लोहाचार्याम्नाये भट्टारक राजेन्द्रकीर्ति तत्प? भ0 मुनीन्द्रकीर्ति
समये। विशेष—इसमे पद्मावती पूजा भी है।
६२८. भक्तामर ऋद्धिमंत्र Opening : • ति जन सहसा ग्रहीतु। अथ रिद्धि-ॐ ह्री अहं
नमो हिति नान ... "
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२२४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain, Siddhant Bhavan, Arrab
Closing I यह चौवालीसमा काव्य मत्र जप पढे ते ममुद्र जिहाज न
एवै पारलगै श्रापदा मिट काव्य उद्धत ।। Colophon: अपूर्ण ।
६२६. भक्तामर टीका
Opening : Closing
देखें, ऋ० ६०७ ।
भक्तामर टीका सदा, पढ़ सुन जो कोई । हेमराज शिवशुख लहै, तरामनव छित होई ।। इति श्री भक्तामरटीका समाप्ता ।।
देखें-टि. जि० प्र० र०, पृ० १२३ ।
Colophon:
६३०. भक्तामर टीका
Opening :
Closing
श्री वर्धमानं प्रणिपत्य मूर्ना दोव्य येत ह्यविरुद्धवाचम् । वक्ष्ये फल तत् वृषभस्तवस्य सूरीश्वरैर्यत् कथित क्रमेण ।। वर्णितः कूमार्मसीनाम्न वचनात्मयकारि च ॥ भक्तामरस्थ सद्वृतिः रायमल्लेन वर्णिता ।। त्रिभिः कुलकम् । इति श्री ब्रह्म श्री सायमल्लविरचित भक्तामरस्तोत्रवृतिः समाप्ता.॥
Colophon 1
६३१. भक्तामर स्तोत्र टीका
Opening | देखें, क्र0 ६०७ ।
Closing | देखें, ऋ0 ६२६ । Colophon __ इति श्री भक्तामर जी का टीका उक्त वातिक मया बाला
हेमराजकृत सपूर्णम् । सवत् १६0 माघसुदी १० वुधवार लिo जमनादास दिल्ली मध्ये धर्मपुरा आरहमल का मंदिर में।
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२२५ Catalogue of Sanskrit, Praknt, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
६३२. सक्तामर स्तोत्र चनिका Opening : देव जिनेसुर वदिकरि, वाणी गुरु उरलाय ।
स्तोत्र भक्तामर तणी, करूं वनिका भाय । Closing
संवत्सर शनअष्टदश, सत्तरि विक्रमराय ।
फातिकवदिबुधद्वादशी, पूरण भई सुभाय ।। Colophon 1 इति श्री मानतु'गाचार्य कृत भवतामर स्तोत्र की देशभाणा
भय वचनिका समाप्ता। मत् १६४४ मिति फागुण सुदी १० ।
Opening !
Closing! Colophon!
६३३. भक्तामर स्तोत्र सार्थ देखे, ०६०७६ देखें क्र0 ६२६ । ___ इति श्री भक्तामर जी की टीका सयुक्त ममाप्तम् ।
६३४. भक्तामर स्तोत्र का मंत्र सग्रह
Opening : Glosing
बुद्धया विनापि ... ... सहसा ग्रहीतुम् ।। बह भक्तां - -
६३५. भैरवाष्टक
Opening: Closing:
अतिपक्षणमहाकाय - . मानभद्रतमोहर ॥१॥ अपुत्रो लभ्यते पुत्रं बधो मुञ्चति बधनात् । राजाग्नि हरिभया भैरवाष्टककीर्तिनात् ।।११।।
इति भैरवाष्टकम् । ६३६. भैरवाष्टक स्तोत्र
Colophon:
Opening |
Closing ! Colophone
देखें, ऋ0 ६३५ । देखे ऋ0 ६३५ । इति भैरवाष्टकस्तोत्रसम्पूर्णम् ।
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-२२६
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddh int Bhavan, Arriba
६३७. भैरवपद्मावती कल्प
Opening : ॐकरिविष्टिसंयुक्त ध्वज यत्र सनामक
लिखित्वा परिवृक्षाणा बद्धमुच्चाटन रिपो० ॥१॥ Closing : यावद्वारिधिभूधरतारागणगगनचद्रदिनपतय'
तिप्टतु भुवितावदय भैरवपद्मावती कल्प ॥५६॥ Colophon इत्युभय भाषा कविशेखर श्री मल्लिषेण सूरि विरचिने
भैरवपद्मावती कल्प म्माप्ता. ॥ श्रीरस्तुवाचकाना मिति फाल्गुण कृष्ण चतुर्दश्या १४ बुभवासरे श्री नीलकमदास स्व पठनार्थम् सवत् १९५६ ॥
६३८ भैरवपद्मावती कल्प
Opening
श्री मच्चातुनिकायाऽमर ... वक्ष्यते मल्लिषेणे ॥१॥ Closing
जब तक समुद्रपर्वत तारागण आकाश चंद्र और
सूर्य रहै तब तक यह भैरव पद्मावती कल्प भी रहे । Colophon: इति उभयभाषा कविशेखर श्री मल्लिपणसूरि विरचित
भैरवपद्मावती कल्प की साहित्यतीर्थाचार्य प्राच्य विद्यावारिधि श्री चन्द्रशेखरशास्त्रीकृत भाषाटीका मे गारुडाधिकार नामका दशमपरिछेद समाप्तम् । इति सपूर्णम् । शुभमिति कार्तिक शुक्ला ४ वीर. संवत् २४६४ विक्रम संवत् १९९३ ।
देखें-(१) जि.र, को, पृ. २६६ ।
(2) Catg of ekt. & Pkt. Ms., P. 678,
६३६. भजन संग्रह
Opening 1
Closing |
हो वो सिले मोहे तेरि सगरी ॥टेक॥ तुम सुमिरत वत रिधि निधि पसरी,
अजितहि व्रत कर घर पकरी ॥नि० ॥४॥ इति सम्पूर्णम् ।
Colophoni
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Catalogue of Sanskrit, Praknt, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
_Stotra)
६४० भक्तिसग्रह टीका
Opening
Closing:
Colophon
Opening'
Closing
Colophon :
Opening
Mosing :
Colophon
सिद्धानुद्भू तकर्म्मप्रकृतिसमुदयान् साधितात्मस्वभावान् । वदे सिद्धि प्रसिद्ध तदनुपम गुणप्रग्रहाकृति तुष्ट' ।। दुखकरकउ कम्मरकउ वोहिलाओ सुगइगमण समहिमरण जिणगुण सपति होउ मष्टम् ।
इति नदीश्वर भक्ति: । मूल श्लोक ४७० सख्या । इति दशभक्ति पाठ की अक्षरार्थ भाषा बालवबोधार्थ पडित
शिवचंद्र कृत समाप्तम् । सवत् १९४८ मार्ग० वदी ६ शनौ शुभ
भूयात् ।
६४१. भाषापद संग्रह
२२७
दरसन भयो आज शिखिर जी के । बीस कोस पर गिरवर दीखे,
भाजे भरम सकल जी के ॥
कुंदन ऐसी अनर्थ माया, विधिना जगमे विस्तारी । अजठारह नाते हुए, जहा एक नही जारी । इति सपूर्णम् ।
६४२. भूपालचतुर्विंशतिकामूल
श्री लीलायतन महीकुलगृह कीर्तिप्रमोदास्पदम्, वाग्देवी रतिकेतन जयरमा क्रीडानिधान महत् । स स्यान्सर्व महोत्सर्वकभयन य: प्रार्थतार्थप्रद, प्रात पश्यति कल्पपादपद्म छाया जिनात्रिद्वयम् ॥ दृष्टस्त्व जिनराजचद्रविडूपेन्द्र नेत्रोत्पले, स्नात्तत्वन्तुति चद्रिकांभसि भवद्विद्विच्चकारोत्सवे । नीतश्चाघ निदाद्यज. त्झमभर शांतिमया गम्यते, देवत्वद्गतचेतसेव भवतो भूयात्पुनर्दर्शनम् ॥ इति भूपाल चौबीसी स्तोत्र सम्पूर्णम् । देखें - ( १ ) दि० जि० ग्र० २०, पृ० १२५ |
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श्री जैन सिद्धान्त भवन अन्यावली S'hrı Devakumar Jain Oriental Library Jain. Sıddhant Bhavan, Arrab
(२) जि० २० को०, पृ० २९८ । (३) रा० सू० III, पृ० १०६, २४२ । (४) आ० सू०पृ१०६ । (५) जै० म०प्र० स० I, पृ०६ ।
OPening: Closing :
६४३. भूपाल स्तोत्र
देखें-० ६४२। उपशम इति मृतिललित चद्रान्मुनीन्द्रा दजनि विनयचद्र सच्चकोरेकचन्द्र । जगदमृत सगर्भा शास्त्रसंदर्भ गर्भाः,
शुचि चरित चरिप्टमोर्यस्पधिन्वति वाच ॥ इति श्री भूपालस्तोत्र संपूर्णम् । मिति प्रथमभाद्रपद कृष्णा प्रतिपक्षभृगो सवत् १९४७ शुभ भवतु।। सन्दर्भ के लिए देखे--क्र० ६४२ ।।
(atg.of Skt & Pkt. Ms , 678
Colophon:
।
६४४. भूपालस्तोत्र टीका Closing :
देखे-क्र० ६४२॥ Closing : ....... ग्रीष्मभव प्रस्वेदभरः शांतिनीत समाप्ति प्रापितः
भो देव मया स्वगतचेतसारावगम्यते भवत तवपुनर्दर्शन भूयात् अस्तु
इत्येवस्तवनकत्रयि चित्र त्वय्येवगत चेतो यस्य स तेन । Colophon! इति भूपालस्तोत्र टीका सम्पूर्णम् ।
Opening
६४५. भावनाष्टक
मुनिस्तुत्य चिन्तत्वनीरेजभृगम्, परित्यक्त रागादिदोषानुसगम् । जगद्वस्तु विद्योतज्ञानरूपम्, सदा पावन भावयामि स्वरूपम् ।। स्वचिद्भावना सभवानन्तशक्ति, निरास निरीस परिप्राप्यमुक्तिम् ।
Closing 1
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२२६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra) त्रिलोकेश्वर निश्चल नित्यरूपम् सदा पावन भावयामि स्वरूपम् ।।
Colophoni
नही है।
६४६. चन्द्रप्रभ स्तोत्र
Opening :
शशाकशखगोक्षारहारधवलगात्राय " • • इत्यादिना। Closing:
.. घेघे आ को क्षी क्षु क्षी क्षा ज्वालामालिनिज्ञापतये
स्वाहा । Colophon ' इति चद्रप्रभस्तोत्र ज्वालामालिनि स्तोत्र सम्पूर्णम् ।
देखें-जि० र० को०, पृ० १२० । ६४७. चन्द्रप्रभशासन देवी स्तोत्र (ज्वामामालिनी स्तोत्र)
देखें-क्र. ६४६ ।
Opening: Closing
Colophon !
घेघे, ख ख ख ख ह्रां ह्री ह्रा-४ मा को ही क्षा क्षी वी क्ली क्लू ही ह्री क्ष्वी ज्वालामालिन्या ज्ञापयति स्वाहा । इति श्री चद्रप्रभुशासनदेच्या स्तोत्र सम्पूर्णम् । देखे-(१) जि० र० को०, पृ० १५१ ।
(२) रा. सू. III, पृ० २३६ ।
६४८. चतुर्विशति जिन स्तोत्र
Opening |
आद्योवर्वसहस्त्रमौनमगमत्प्राप्तो जिनो द्वादश., द्विसप्तव च सभवोष्ट च दश. श्री नदनो विशति । छद्मस्थो सुमतिश्चषष्ठजिनप षण्या समासत्रस्थिति, वर्षाण्यत्रनवेव सप्तमजिनो मासत्रय चद्रभ ॥ एते सर्वजिना शतक्रतुसमभ्यर्यक्रमाभोरुहाः ।
तद्वाश्चविरूद्धवाच्यरहिता कुर्वन्तु मे मगलम् ।। इति श्री चतुर्विंशतिस्तोत्र सपूर्णम् ।
Closing ,
colophon!
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२३०
थी जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावती Shri Devakumar Jain Oriental Library, Juin Siddhant Bhavan, Arruh
६४६. चतुर्विंशति जिन स्तोत्र
Opening :
Closing !
आदिनाथ जगन्नाथ अरनाथ तथा नमि । अजित जितमोहारि पाश्वं वन्दे गुणाकरम् ।।१।। तद्गृहे कोटिकल्याणश्रीविलसति लालया।
क्षुद्रोपद्रवभूतादि, नश्यति व्याधिवेदना ॥७॥ इति चतुर्विशतिजिनस्तोत्र समाप्तम् ।
Colophon :
Opening
६५० चतुर्विशति जिन स्तुति
सद्भक्तानतमौलिनिर्जरवग्भ्राजिघ्नुमौलिप्रभा, समिश्रारूण दीप्ति शोभिचरणा भोजद्वय. सर्वदा । सर्वज्ञ पुरुषोत्तम सुचरिते धर्मोधिना प्राणिना, भूयाद्भू रिविभूतये मुनिपति श्री नामिजिन ।। यस्या प्रमादात्परिपूर्णभाव भूत सुनिर्विधूतयास्तवोय ।
जगत्त्रयी जनहितकनिष्टा वाग्देवतासाजयतादजस्त्र ।। इति श्री चतुर्विशति जिनस्तुति.।
Closing
Colophon :
Opening : ___ Closing . Clolophon.
६५१. चरित्र भक्ति येनेंन्द्रान भुवनत्रयस्य - .. रभ्यर्चनम् ॥१॥
. . समाहिम ण जिणगुणमपत्तिहोउ मक्त । इति चारित्रभक्ति सम्पूर्णम् । ६५२. चौबीस तीर्थङ्कर स्तोत्र
Opening : सिद्धप्रियप्रतिदिन प्रतिभासमान - ... ।
- " " प्रापेजनैविनुतनुपदवीक्षणेन । Closing
तुष्टि देशनयाजनस्य मनसे येनस्थितिदसिता ।
शुभधियातात सतामीशितः । Colophon! इति श्री देवनदयाचार्य कृत चौवीस महाराज जाजमक
काध्यमई महास्तोत्र सम्पूर्णम् ।- .
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Cataloque of Sanoke
२३१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhram,ha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
देखें--(१) दि० जि. प र., पृ. १२८ ।
(२) जि० २० को०, पृ० ११४ ।
६५३. चिन्तामणि अण्ठक
Opening
वंदावत्रि सुरेन्द्रनमौलिसुधामयदाभोनिधिमौक्तिकचारुमणि
व्रजधृष्टपदम् । श्रीचितामणिमेस्यमहाभि सुराब्धिजलफैनसुधाकरचद तदाप्त
यशो विमलः ॥ स्याद्वादामृताशितफणि • - सुवाछितभावभृतः ।।
Closing : Colophon
इत्यष्टकम् ।
६५४. चिन्तामणि स्तोत्र
Opening :
Closings
श्री सुगुरु चिंतामणि देवसदा मुडसकल मनोरथपूर्णमुदा। कुलकमला दूरण होयकदा जपता प्रभुपारस नाम यदा ।। अमचीप्रभु पारस आसफलो भणतापसवासर वास भलो।
मन मित्र सुकोमल होयमिलो कीरति प्रभु पारसनाथ किये ॥ चिंतामणि स्तोत्र सपूर्णम् ।
Colophoni
६५५, चिन्तामणि पाश्वनाथ स्तोत्र
Opening'
जगद्गुरु जगद्दे व जगदानददायक ।
जमद द्य जगन्नाथ श्री पार्श्वसस्तुवे जिण ॥१॥ Closing
दर्भस्वस्तिकनैवेद्य - .. अर्चयाम्यहम् ।
इति दिम्कालार्चनविधानम् । Colophon!
इति चितामणिपूजाविधि सम्पूर्णम् ।
संवत् १८५३ वर्षे कार्तिककृष्णा एकादशी को सम्पूर्ण भवे । लिखत धाराजीत असवाल पठनपरठन निमित लिषी।
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२३२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jun Siddhant Bhavan, Arrah
६५६. दशमक्त्यादि महाशास्त्र
Opening:
Closing:
नम. श्री वर्द्धमानाय चिद्रूपाय स्वयम्भुवे । सहजात्मप्रकाशाय सप्तससार भेदिने । वर्द्ध मानमुनीन्द्रेण विद्यानन्द्यार्य वन्धुना। लिखित दशक्त्यादिदर्शन जनतार्थत् ॥ इत्यय समाप्त। अय । अस्तु ।
Colophon:
६५७. देवी स्तवन
Opening :
श्री मद्देवपतिप्रसनमुकुट प्रद्योतरत्नप्रमा, मालामानितपादपपपरमोत्कृष्टप्रभासुरा। या सा पातु सदा प्रसन्नवदना पद्मावनीभारती, समरागमदोषविस्तरणत सेवानमीपस्थितम् ।। इदमपि भगवतिवृत्तपुष्पालकारलकृतम् । स्तोत्र कहकरोति यश्च दिव्य श्रीस्त समाश्रयति ।। इति देव्य स्तवनम् ।
Closing 1
Colophon:
६५८. एको नाप स्तोत्र
Opening एकीभाव गत इव - " परतापहेतु ॥१॥
Closing . वादिराजमनु - ... भनुभव्यमहाय ॥२६॥ Colophon: इति श्री वादिराजश्वविरचित एकीभाव महास्तवन
समाप्तः।
देखें-(१) दि० जि०म० २०, पृ० १३० ।
(२) जि० र० को०, पृ० ६२ । (३) 'प्र० जे० सा०, पृ० ११० । (४) रा० सू० II, पृ० ४६, १०७, ११२, २७४ । (५) रा० सू III, पृ० १०१, १२३, २३८, ३०८ । (६) आ० सू०, पृ० १६ । (7) Catg of skt.& Pkt.Ms.,P. 630
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२३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
Openin !
Closing! Colophon:
६५९. एकीभावस्तोत्र
देखें-० ६५८ ॥
देखें-० ६५८। प्रति नदि ( राज) मुनि कृत एमोभाव स्तोष सम्पूर्णग। ६६.. एकीभाव स्तोत्र
Opening : Closiog : Colophone
देखें-क० ६५८।
देखें-०६५८ ॥ इति श्री वादिराजकृत एफोभावस्तोत्र मपूर्णम् ।
Opening: Closing:
Colophon !
६६१. एकीभावस्तोत्र
देखें-०६५८। शन्दिकाना मध्ये 'ताकिकाना मध्ये कवीश्वराष्णा मध्ये भव्यसहा. याना मध्ये वादिराज प्रधान इत्यर्थः ।
पति वादिराज कृत एकीभाव टीका मपूर्णम् । ६६२. एकीभाव स्तोत्र
देखें-क्र० ६५८ ॥ देखें-०६५। इति श्री एकीभावस्तोत्र समाप्तम् ।
Opening :
Closing Golophon
Opening Closing
६६३. एकीभाव स्तोत्र सटीक
देखें-ऋ० १५८ । भव्यसहाय' त वादिराजं अनुवर्तते भव्यामा सहाय सथात' पादिराजा न्यून इत्यर्थः । वादिराज एव शब्दिक मान्य., वादिराज एव ताकिक नान्य , वादिराज एव काव्यकृत नान्यः, वादिराज एव भव्यसहाय: नान्यः इति तात्पर्याय. अनुयोगे द्वितीया।
इति वादिराजसूरि विरचित एकीभावस्तोत्रटीका सम्पूर्णम् । भूयात् ।
Colophon
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२३४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Artak
Opening: Closing :
६६४. गौतम स्वामी स्तोत्र
श्रीमद्देवेन्द्र दा · ... पार्श्वनाथोत्रनित्यम् ॥१॥ इति श्री गौतमस्तोत्रमत्र ते सारतोन्हवम् । श्री जिनप्रभसूरिस्त्व भवसर्थार्थसिद्धये ।।६।। इति श्री गौतमस्वामी स्तोत्र सम्पूर्णम् ।
Colophon
६६५. गीतंवीत राग Opening विद्याव्याप्तसमस्तवस्तविसरो विश्वैर्गुणैर्भासुरों,
दिव्यश्रव्यवच, प्रतुण्टनृसुर सध्यानरत्नाकर । य संमारविषाधिपारसुतरौ निर्वाणसौख्यादर
से श्रीमान वृफ्भेश्वरो जिनवरो भक्त्यादारान् पातु न ॥१॥ Closings गगेयवशाम्बुधिपूर्णचन्द्रो यो देवराजोऽजनि राजपुत्र ।
तस्यानुरोधेन च गीतवीतराग-प्रवन्ध मुनिपश्र्चकार ।।१।। द्राविदेश विशिष्टे सिंहपुरे लब्धशस्तजन्मासौ । वेलगोलपण्डितवर्यश्चकार श्रीवृषभनाथवरचरितम् ॥२॥ स्वस्तिश्रीवेलगुले दोर्वलिजिननिकटे कुन्दकुन्दान्वये नोऽभूत्स्तुत्य पुस्तकाङ्कश्रुतगुणाभरण. ख्यातदेशीगणार्य विस्तीर्णापरीतिप्रगुणरसमृ त गीतयुग्वीतरागम्,
जस्तादोशप्रबन्ध बुधनुतमतनोत् पण्डिताचार्यावर्य । Colophont , इति श्रीमद्रायराजगुरुभूमण्डलाचार्यवर्यमहावादवादीश्वरराय
वादिपितामहसकलविद्वज्जनेचवत्तिवल्लालरायजीवरक्षापाल (?) कृत्याद्यनेकविरुदावालविराजच्छीमलंगोलसिद्धसिंहासनाधीश्वर श्रीमदभिनवचास्कीत्तिपण्डितार्चवर्यप्रणीतगीतवीतरागाभिधानाप्टपदी समाप्ता।
६६६. गोम्म हाष्टक
Opening |
तुन्यै नमोस्तु शिवशकरशकराय, तुभ्य नमोऽस्तु कृतकृत्यमहोन्नताय । तुभ्य नमोस्तु घनघातिविनाशकाय, तुभ्य नमोस्तु विभवे जिनगुम्मटाय।
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२३५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
Closing i
तम्य नमो निखिललोकविलोकनाय, तुभ्य नमो परमार्थ गुणाप्टकाय । तुभ्य नमो वेनुगुलाधिसाधनाय,
तुश्य नमोस्त विभवे जिन गुम्मटाय ।। नही है। ६६७ गुरुदेव की विनती
Colophon
Opening!
Closing:
जयवत दयावत सुगुरुदेय हमारें। समार विषमसार ते जिन भक्तानद्वारे ।।टेक।। इहलोक का सुख भोग सुरलोक मे जावे, नरलोक मे फिर आयक्त निर्वान को पावै ।।
जयबत दयावत ॥३२॥ इति गुरावली सपूर्ण ।
Colophon ;
६६८. जिनचैत्य स्तव
Opening:
Closing.
'वदौं श्रीजिन जगतगुरु, उपदेशक शिवपथ । • सम श्रुतिशासन ते. उचू , जिन चैत्यस्तव ग्रन्थ ।। अठार मै के ऊपर, लग्यो वियासीसाल ।
गुरु कातिग वदि अण्टमी, पूरण कियौ सुकाल ।।
इति श्रीजिनचैत्यस्तव ग्रन्थ दिवान चपाराम कृती समाप्ता शुभमस्तु । सवत् १८८३ मिति कार्तिक कृष्ण अष्टमी गुरुवार लिखतम्' खरगराय श्री वृदावन मध्ये लिखाइत श्री दिवान चपाराम जी ।
Colophon :
६६६. जिनदर्शननाष्टक
Opening |
Closing :
. अद्याखिल कर्मजित मयाद्यमोक्षो न भूतो ननुभूतपूर्व । तीर्णोनवार्णोनिधिरद्यवोरो जिनेन्द्रपादाबुनदर्शनेन ।।
अद्याप्टक निर्मितमुक्तसारः, - कोतिम्वनातरमन मुनीन्द्र।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन अन्पावली Shri Devakumar Jair. Oriental Library Jain, Siddhant Bhavan, Arrabe
यो धीयते नित्यमिदं प्रकोत्त,
पधाभवों ते परमालभते ।। इति जिमदर्शष्टक समाप्तम् ।
Colophon
६७.. जिनेन्द्र दर्शन पाठी
Opening Closing:
णमो अरिहताण ... ... मी लोए सन्चसाहूणं ।। अन्मजन्मकृत पापं जन्मकोटिमुपार्जितम् । जन्मरोग जरातक हन्यते जिनदर्शनात् ।। इति दर्शन समाप्तः ।
Colophon
६७१. जिनेन्द्र स्तोत्र
Opening :
Closing I Colophon
दृष्ट जिनेन्द्रभवन · .. विराजमानम ॥१॥
श्रेयः पद .. ... . प्रनानुव ॥११॥ इति दृष्ट जिनेन्द्रस्तोत्र सपूर्णम् । ६७२, जिनवाणी स्तुति
Opening
माधुरी जिनेसुर वानी, गुरु गनधर करत बखानी हो । Closing : चारो जोग प्रयोग कौं, औ पुरान परमान ।
अब नमत नंरिद्रप्रीतनित, सदा सत्य सरधान ।। Colophone इति संपूर्णम् । माघशुक्ल १ स. १६६३ सोमवार शुग ।
हरीदास प्यारा।
६७३, जिनगुण स्तवन
Opening 1
तवगतभवतापादौ प्रणम्य सम्यरिजवरपादौ । भक्तागुणमण्युदधेः विमविरपिरपि स्तुतिमहं विवधे ॥१॥
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Stotra)
Closing :
Colophon 1
Opening
1
Closing t
Colophon
Opening
Closing t
Colophong
Opening
इत्यन्तं स्तुत्वा स्वानालोचयतिय. सुधी दोषान् तद्भवमेनस्तस्मिन्वधनोपैति रज इवास्निग्धेः ॥ इति जिनगुणस्तव नपूर्वि कालोचना समाप्तम् ।
६७८. जिनगुभ सम्पत्ति
विबुधति वनवनरपति धमषोरमभूत पक्षपति महितम् । बससुखविमलनिरूपम शिवमचलमनामयम् ॥
दक्षो विकाररसप्राप्त गुणंन लोके, पिष्टादिक मधुरसानुपयाति यद्वत् । तच्च पुन्यपुरपितानि नित्यम्, जातानि तानि जगतामिट्ट पावनानि ॥
यता भवता च महामुनीनां, प्रोक्ता मात्र परिनिवृति भूमिदेशा' । ते मे जिनाजित या मुनयश्च शान्ता, दिना सुरागुसुगति निवासोव्यम् ॥
नहीं है ।
६७५. जिनस्तोत्र
ययान्दितः ।
उपनेमुनेश्च विरतो विपयास प्रविष्ट. कैकसीसुत. ॥ मासमात्रदशास्योप स्थित्वा के लाया महंते । प्रणिवस तिनदेश प्रपपावमि वांछितम् ॥ नहीं है ।
१३७
६७६, जिनपंजर स्तोत्र
परमेष्ठिनमस्कारं सार नवपदात्मकम् । बारमरक्षाकर वा मजराक्ष स्मराम्यहम् ॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Libram, Jarn S.ddhant Bhavan, Arrob
Closing :
श्री स्वास्नीय वरेण्य गण्ये देवप्रमाचार्य पदाजहमः। वादीन्द्रचूडामणिराप जैनी जीयाद श्री कमल प्रभाख्य ।। इति श्री जिनपजररतोत्र सम्पूर्णम् ।
Colophon
६७७. जिनपजर स्तोत्र ', ;
Opening: Closing
ॐ ह्री श्री अहं अहं दमो नमो नम ॥ यस्मिन् गृहे महामक्तया यत्रोय पूजते बुध ।
ឧ៧
Colophon:
Missing
Opening
Closing i ___Colophon .
६७८. जिनपजर स्तोत्र
ॐ ह्रा श्री हू, अभ्यो नमो नमः । ॐ ह्ना श्री ह्र. महदम्य
प्रात्समपुच्छीय , लक्ष्मीमनोठितपूरानाय ॥२४॥ इति जिनपजर सपूर्णम् ।
६७६: ज्वालामालिनी स्तोत्र Opening 1
ॐ नमो भगवते श्री चन्द्रप्रेजिनेन्द्राय शशाकशखगोक्षीर
हारधवलगात्राय घातिकर्मनिमलछेदनकराय । Closing :
"" " हरू हरू स्फुत स्फुट घे घे ऑ को क्षी डू सूक्षी क्षी
ज्वालामालिनि ज्ञापयते स्वाहा । Colophon: इति श्री ज्वालामालिनि स्तोत्र सपूर्णम् । शुभमस्तु ।
६८०. ज्वा तामालिनी देवी स्तुति ।। Opening: देखे--ऋष ६७६ .९ Closing . देखे--क्र० ६७६ । Colophon इति श्री बद्रप्रभतीवर की मालामालिनि शासनदेवी सकल
दुपहर मगलकर विजयकरस्त मोत्र सम्पूर्णम् ।
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२३६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
६.१. ज्वालामालिनी कल्प
opening :
Closing : Colophon:
चद्रप्रभजिननाय चद्रप्रमिंद्रनदिमहिमानम् । ज्वालामानिचितचरणसरोरहद्वय वदे ॥१॥
उरगफूरग्रहशाति कुम्-अनेन मण पुप्पान् क्षिपेत् । मपूर्णो।
देखें~-Cate of sht & Pkt. Ms., P. 647.
Opening :
Closing ।
Colophon:
६.२. णमंदिर स्तोत्र
कन्याणमन्दिरमुढारनवभेदि, भोताभयप्रदनिरिमज्रियान । ससारसगनिमग्नदीपजतु । पोतयमानमभिनय जिनेम्बरम्य ।। जननयनकुमुदचन्द्रप्रभासुरा स्वर्गमपदो भुक्त्वा । ते विगलितमलनिचया अचिगन् मोक्ष प्रपद्य ते ॥ इति श्री कल्याणमदि स्तोत्रम् देखें -(1) दि० जि० प्र० २०, पृ० १३७ ।
(२) जि. २० को, पृ० ८० । (3) ग. भू०, पृ० ४६, ६७, १०६ । (४) ग० मृ०111, पृ० १०१, ११२ । (1) आ० मु९, पृ० २४ । ___E) प्र. जै० सा०, पृ० ११३ ।
(7) Catg. of Skt & Pkt Ms, P. 633 ६८३. कल्याणमंदिर स्तोत्र
Opening |
Closing Colophon i
देखे ०६८२ देखे क्र० ६८२। हति कल्याणमदिरजीसस्कृतसमाप्तम् ।
६०४. कल्याणमदिर स्तोत्र देखे, १० ६८२।
Opening :
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२४.
श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Sıddhant Bhavan, Arroh
Closing ! देखें, ० ५८२ । Colophon! इति कल्याणमदिर स्तोत्रं संपूर्णम् । सवत् १७३१ वष
मार्गशीर्षमासे कृष्ण चतुर्दशा(श्या) चद्रवासरे लिपिकृता केशवसागरेण ।
६८५. कल्यागमदिर स्तोत्र
Opening I देखें, ऋ०६८२ ।
Closing ! देखें, क० ६८२ । Colophon: इति श्री कल्याणमदिर स्तवनं संपूर्णम् । प० हेममरून
गणियोग्य चद्रजय गणिना लिखितम् ।
६८६. कल्याणमंदिर स्तोत्र Opening देखें, क० ६८२।
Closing देखें, ऋ० ६५२। Colophon: इति श्री कल्याणमदिर स्तोत्र समाप्तम् । लिखत जमना
दास सुश्रावककुले हसार नगरे स्थान सवत् १८८७ मगशिर सुदी १२ सोमवारे।
६५७ कल्याणमंदिर स्तोत्र
Opening |
Closing ! Colophon
देखें, क० ६८२। देखें, क० ६८२ ।
इति श्री कुमुदचन्द्राचार्य कृत श्री कल्याणमदिर स्तोत्रम् । ६८८. कल्याणमंदिर स्तोत्र
Opening : देखें, क० ६८२ । Closing : ... पुन: कि भूता भव्या विगलितमसनिचया: रफ
टितपापसमूहा । Colophon
इति श्री कल्याणमदिर टीका समाप्ता सम्वत् १९२३ ।
Page #441
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Catalogue of Sanskrit, Praktit. Apábhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra) ६८९. कल्याणमंदिर स्तोत्र
Opening !
Closing : Colophon :
देखे, ऋ0 ६८२ । देखे, क्र0 ६८२। इति कव्याणमदिर स्तोत्र सपूर्णम् ।
६६०. कल्याणमदिर स्तोत्र
Opening :
Closing : Colophon
देखे, क्र0 ६८२ । देखें, ०६२। इति कल्याणमदिर स्तोत्र समाप्तम् ।
Opening : Closing .
Colophone
Opening |
Closing | Colophon i
६६१ भल्याणमदिर स्तोत्र
देखें, ऋ0 ६८२॥ ____ इह कल्याणमदिर कियो कुमुदचन्द्र की बुद्धि । __ भाषा करत बनारसी कारणसमकित सुद्धि ।
इति श्री कल्याणमदिर स्तोत्र भाषा समाप्तम् । ६९२ कल्याणमंदिर स्तोत्र देखें, ऋ० ६८२ । देखे ऋ0 ६८२।
इति कल्याणमदिरस्तोत्रसपूर्णम् । ६९३ कल्याणमंदिर स्तोत्र देखें, ऋ0 ६८२ । देखे, ऋ० ६६२।
इति श्री कुमुदचद्रमुनि विरचित कल्याणमदिर सम्पूर्णम् । ६६४ कल्याणमंदिर स्तोत्र
Opening :
Closing । Coophon •
Opening |
परम जौति परमात्मा परम ज्ञान परवीन । पंदू परमानंदमय घट घट अतरलीन ||१||
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૨૪૨
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain. Siddhant Bhavan, Arrab
Closing . प्रगटरलगिन ते .. ... । Clophont अनुपलब्ध ।
६९५ कल्याणमंदिर वचनिका
Opening ! देखे, ऋ0 ६८२। Casing
" " मल कहिये पाप के निचया: समूह ही ते भव्ये
असे हैं। Colophont इति श्री कल्याणमंदिर स्तोत्र भाषाटीका समाप्ता ।
६९६. कल्याण मन्दिर सार्थ Opening : देखें, 20 ६८२
Closing! देखे, 70 ६६५॥ Colophon: इति श्री कल्याणमंदिर जी की टीका सहित ममाप्तम् ।
६६७. क्षमावणी आरती
Openings
Closing i
उनतीस अग की आरती, सुनो भविक चितलाय । मन वच तन सरधा करो, उत्तम नर भी (भव) पाय ॥ दोष न कहियो कोई, गुणग्राही पढे भावसौ। भूल चूक जो होड, अरथ विचारि के सोधियो ॥२३॥ इति क्षमावणी की आरती भाषा सम्पूर्णम् । ६९८. क्षेत्रपाल स्तुति
Colophon :
Opening:
Closing :
जिनेन्द्र धर्म के सदैव रक्षपाल जी। बडै दयाल भक्तपाल क्षेत्रपाल जी ॥टेक। जिनेन्द्र द्वार रक्षपाल क्षेत्रपाल जी, तुम्हे वमे सदैव भव्यवृ द भाल जी। कृपा कटाक्ष हेरिए अहो कृपाल जी हमे समस्त रिद्धि सिद्धि द्यो दयाल जी । इति क्षेत्रपाल जी की सैर पूर्ण।
Colophon:
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
६६९ काष्ठासंघ गुर्वावली
Opening
Closing t
Colophon.
Opening.
Closing
Colophon :
Opening
Closing
Colophon
Opening Colsing
णम् ।
Opening
सम्प्राप्त ससारसमुद्रतीरं, जिनेन्द्रचन्द्र प्रणिपत्य वीरम् ।
समीहिताद्यं सुमनस्तरुणा, नामावलि वक्ष्मित मा गुरुणाम् ॥
•••••••••ससदि विचित्याश्वस्थ महिमातटिमा रोपि निपु
नही है ।
७००. लघु सहस्त्र नाम
नम
तोक्यनाथाय सर्वज्ञाय महात्मने ।
वक्ष्ये तस्य नामानी मोक्षसौख्याभिलाषया । ॥१॥ नामाष्टसहस्राणि जे पठति पुन पुनः ।
ते निर्वाणपद यान्ति मुच्यते नात्रससय ॥ ४० ॥ इति लघु सहस्रनाम सपूर्णम् ।
७० १. लघु सहस्त्र नाम स्तोत्र
२४३
देखें, ऋ० ७00 1
देखें, ऋ० ७00 1
इति श्री वीतराग सहस्रनामस्तोत्र सम्पूर्णम् ।
७०२. लक्ष्मी बाराधन विभि
ॐ रो श्री ही क्ली महालक्ष्मी सर्वसिद्धि कुरू कुरू स्वाहा । इस मंत्र सो चावल अक्षत मत्रिके जिस्म राख सरे वस्तु घटं नही । ७०३. महालक्ष्मी स्तोत्र
आद्य प्रणवततश्रीमायाकामाक्षरं तथा । महालक्ष्मी नमश्चति मत्रोऽय दशवर्णक ॥१॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar, Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing : Colophon:
वाराराशिरसी प्रसूय भवती... ."मन्येमहत्व सस्थित ॥१२॥
इति श्री महालक्ष्मीस्तोत्रसपूर्णम् ।
Opening r Closing 1
७०४. महालक्ष्मी स्तोत्र देखें, क्र० ७०३।
न कस्यापि हि मत्रीय क्थनीय विपश्चिता। यशोधर्मधनप्राप्त्य. सौभाग्य भूतिमिच्छिता ॥ इति श्री महालक्ष्मीस्तोत्रसपूर्णम् ।
Colophon:
Opening :
Closing :
७५, मगलाष्टक
श्री मन्नम्रसुरासुरेन्द्र - " कुर्वन्तु ते मगलम ॥१॥ जीर्ण-शीर्ण ।
७०६. मंगल आरती
Opening :
Closing i
मंगल आरती कीजे भोर । विधन हरन सुखकरण किसोर।।।। अरहंतसिद्ध सुरि उवझाय । साधु नाम जपिय सुखदाय ॥ मगलदान शील तपभाव, मगल मुक्तवधू को चाव । द्यानत मगल आठो जाम, मगल महा भक्ति जिन साम॥
इति आरती सम्पूर्णम् ।
Colophon :
७०७. माणि भद्राष्टक"
Opening: अपठनीय । Closing :
धर्मकामा लक्ष्मीस्तुष्टदेवोस्त्यवश्य,
धरणिधरकवे रती वक्तिः सत्यम् ॥ Colophon. इति श्री मणिभद्र यक्ष्यादि राज स्तोत्रमत्रयुत महाप्रभावीक
सम्मत्तम् । विशेष-- अन्त मे दिया गया मत्र अपूर्ण है।
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Catalogue of Srini, Prattis. Apslehrt mal altındi Moguncripta
Opening!
Closing : Colophon
०८. नंतीवर मागिन
fromrier: " HEAant ... RETRIERE Hirmiri
७०९. पानी
Opening .
thani मार ...IHARI
nail.. साम् । mintोष्ठिमा मन मितिमापि न पादापनः ।।
Closing .
Colophon
७१०. नवमार गाना स्तोत्र
Opening - मिनियन Trय मनौवन मनगट् ॥१॥
Closing • भ्यान जान नोर गुगतो ॥११॥ Colophon नि नयार मन्य नोत्र गमाण। मिति पूमयदी १०
दिन रविभवन १९५४२० नीलामाग। वियोप-2010 मम्पा अन्य एक पटका है, जिमगे ५३ पूजास्तोत्र आदि मकलित
हैं। उमरा लेगनकाल वित्रम न. १९४४ है।
७११. नेमिजिन स्तोत्र
Opening . कश्चितकांना विरहगुरुणा न्वाधिकारप्रमत्तः,
स्तोतापार सहगपितषेयाद्गुणान्धेर्जनोत्र । प्रान्त्योदन्वत्ममधिकतरस्येति तुष्टावमोदात्,
सुन्नाभाय दिशतु सशिव श्री शिवानदनो पः ॥ Closing | इनि स्तुत श्रीमुनिराज दीर्घदर्शिताम् ।।८।। Colophon: इति रघुनाथवृत श्रीमन्नेमिजिनस्तोत्र सम्पूर्णम् । विशेप-इमके ३-४ श्लोक कालिदाम एव भारवी के एलोको को आश्रय लेकर
बन ये गए हैं। प्रम चरण यथावत मिलता है।
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२४६
षी जैन सिद्धान्त भवन प्रन्थावली Shri Devakum'ır Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab
७१२. निजात्माष्टक
Opening:
closing ;
णिच्यन्तेलोकचक्काहिव सयणमिया जोजिणिन्दाय सिद्धा। अण्णगन्यन्थसन्था गमगमियमण उन्वज्झा झया। सूरि साहू सव्वे सुद्धणियाद अनुसरण प्रणामोखसम्म । ति तम्हासोऽहज्झायेमिणिञ्चपरमपयगओ णिविषप्पोणियप्पो ।११ रूवे पिंडेपयत्येण कलपरिचये जोयिविदेण णादे।। अत्थे गन्ये ण सत्येण करण किरि या णावरे भगचारे । साणन्दाणन्द हो अणुमह सुसुमवयेणा भावप्रम्बो। सोहझाये मिणिञ्च परमपयगओ णिविपम्पोणियम्पो॥
इति योगीन्द्रदेवविरचित निजात्माष्टक समाप्त शुभ भूयात।
Colophon:
७१३, निर्वाण कण्ड
Opening .
Closing : Colophon:
वर्द्धमानमह स्तोध्ये वर्द्धमानमहोदयम् ।
कल्याण पंचभिर्देव मुक्तिलक्ष्मीस्वयवरम् ।।१।। इत्यर्हता शमवत्ता • - निरवद्यसौख्यम् ॥१२॥ __ इति निर्वाणकाड सम्पूर्णम् ।
७१४. निर्वाण काण्ड
Opening
Closing | Colophon
अट्ठावम्मि उसहो - महावीरी ॥१॥
जोयट्ठ इतियाल .. लहइ णिव्वाण ॥२८॥ इति निर्वाण काड समाप्तम् ।
७१५. निर्वाण काण्ड
Opening :
Closing |
-
वीतराग वदी सदा, भाव सहित मिरनाय । कहूँ का निर्वाण की भाषा विविध बनाय । सवत् सत्रह से तैताल, आश्विन सुदि दशमी सुविशाल ।
भैया वदन कर त्रिकाल जय निर्वाण कांड गुनमाल ॥२२॥ इति निर्वाण काड भाषा समाप्तम् ।
Colophon s
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२४७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsha & Ilindi Manuscripts
(Stotro) ७१६. निर्वाण काण्ड
Opening I देखें-०८१५ । Closing är 981 Colophon: रनि निर्वाण का समापनम् । यत् १८७१ ज्येष्ठ यदि ___-fr(पा) बानमरण ।
७१७. निर्वाण भक्ति
Opening
Closing : Colophon:
विषमपति गणपनरसनि .. मनामम प्राप्तम् ।। • • • •जिगुणसंपत्ति होउ मग । पनि निर्यापक्तिमपूर्णम् ।
७१८. पद्मावती कवच
Opening :
Colsing :
श्रीमद्गीर्वाणवा म्फटमुकुट तटीदिव्यमाणियय माला। ज्योतिज्वाला फगला फुरित मुफरिका पप्टपादारविंदे ॥ ध्याघ्रोलकामहन्त्रज्वलदान शिखा लोक पाशाकु शात ।। भाकोही मत्ररूपे क्षपितदलमल रक्ष मां देविपन ॥१॥
इद कवच ज्ञात्वा पमायास्तोति ये नर। कलकोटिभतेनापि न भवेत् सिद्धिदायिनी ।।
___ देखें, जि० २० को०, पृ० २३५ । ७१६. पद्मावती कल्प
Opening . कमठोपसर्गदलन त्रिभुवननाथे प्रणम्यपाश्चे जिनम् ।।
पक्षेभीष्टकुलप्रद भैरवपयावतीकल्पम् ।११ Closing : यावधारिभूधरतारागणगगनचदिनपतय ।।
तिण्ठतु भुवि तावदय भैरवपद्मावती करप ५९ colophon: इत्युभयभाषाकविशेखर श्री मल्षिणमूरिविरचिते भैरवपमावतीकल्पे गरुडाधिकारो नाम दशम परिच्छेद ॥
देखें, जि० ९० को०, पृ० २३५१
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२४०
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jarn Siddhant Bhavan, Arcob
७२०. पद्मावती वृहत्कल्प
Opening : Closing :
देखें ऋ० ७१८ ।
जगभक्त्यासुकृत्ये कौ भक्त्या मा कुरुते सदा । वाञ्छित फलमाप्नोति तस्य पभावती स्वय ॥ इति पनावत्या वृहतकल्प समाप्तम । ७२१. पद्मामाता स्तुति
Colophon:
Opening :
Closing :
जिनसासनी हसामनी पद्मासनी माता। भुज चार ते कल चार दे पद्मावती माता । जिनधर्म से डिगने का कहु आपरे कारन । तो लीजियो उबार मुझे भक्त उद्धारन ।। निज कर्म के सयोग से जिस यौन म जाओ। तहा हो जियो सम्यक्त जो मिवघाम को पावो॥ जिनशासनी इति पूर्ण। ७२२. पद्मावती स्तोत्र
Colophon:
Oponings
श्री पार्श्वनायजिननायकरल बूटापाशाकुशोगयफनाकिन
दोश्चतु ॥ पद्मावत्तीविनयना त्रिफलावतमा पद्यमावती जयति शासन
पुण्यलक्ष्मी.॥
Closing
पठित भणित गुणितं जयविजयरमानिवधन परमम् मर्वाधिव्याघिहर निजगति पत्रमावतीस्तोत्रम् ॥ माह वान नंब जानामि नंब जानामि पूजनम्
विसर्जन न जानामि क्षमन परमेश्वरी ॥२८॥ विशेष- आरा मे पानीमादर नदायो भार, ता गुलान पाओ. मारी ॥
-(१) जि. र. 10, 2० २३५ ।
(2) Catg, of Skt & pkt. Ms.66s. ७२३. पद्मावती स्तोत्र
Opening •
दे
०
११८ ।
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Closing I
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts (Stotra)
Colophon
Opening:
Closing :
Colophon
Opening 1
Closing
Colophon :
Opening Closing
Colophon
Opening
Closing
Colophon
देखे, क्र० ७१८ |
देखें, क्र० ७२२ ।
इति श्री पद्मावती स्तोत्रं समाप्तम् ।
७२५. पद्मावती स्तोत्र
ॐ ह्री श्री वली पद्मावती सकल चराचर त्रैलोक्यव्यापी होली प्लू' ह्रां हो हो हो ह्रीं ह्रः ऋद्धि वृद्धि कुरु कुरु स्वाहा । इस मंत्र को १२०००० जपे तो सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त होय ।
पविशति श्लोक विधानम् सम्पूर्णम् । समाप्तम् ।
७२४. पद्मावती स्तोत्र
देखें, ०७१८ ।
देखें, क्र० ७२२ ।
इति पद्मावती स्तोत्र मपूर्णम् ।
७२६. पद्मावती स्तोत्र
"
२४६
प्रणम्य परमा भक्त्या देव्या पादोवुज त्रिधा । नामान्यष्टसहस्राणि वक्ष्ये तद्भक्तिमिद्धये ॥
भो देवि भीमा । -- . क्षम्म तिमीतिततापने कि ।
देखें, क्र० ७१८
ॐ णमो गोयमस्स सिद्धस्स आनय आनय पूरव पूरय मम कुरू कुरू वृद्धि कुरू कुरू ही भास्करी नमः । नही है ।
७२७. पद्मावती सहस्त्रनाम
इति पद्मावती स्तोत्र समाप्तम् ।
देखें- (१) दि. जिर, पृ. १४२ । (२) जि. र. को., पृ. २३५ ।
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२५०
धी जैन सिद्धान्त भवन प्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Atreb
७२८. परमानंदस्तोत्र Opening : परमानदसयुक्त निर्विकार निरामयम् ।
ध्यानहीना तु नश्यति निजदेहे व्यवस्थितम् ॥१॥ Closing | पाषाणेषु यथा " " ॥ Colophone अनुपलब्ध।
७२६. परमानन्दस्तोत्र Opening ! देखें-ऋ० २२८ । Closing : काष्टमध्ये ...... जानाति स पण्डितः ॥२४॥ Colophon: इति परमानदस्तोत्रसमाप्तम् ।
(१) दि० जि० अ० २०, पृ० १४४ । (२) जि० र० को०, पृ० २३८ । (३) रा० सू० II, पृ० ११२, १३३, १५७, २८५ । (4) ( atg.of Skt & Pkt. Ms., 665.
७३०. परमानन्द चतुविशतिवा Opening : देखे, क्र० ७२८ । Closing'
__स एव परमानदः स एव सुखदायकः ।
स एव परचिद्र पः स एव गुणसागरः ।। Colophon . परमामद चविशति(का) समाप्ता ।
देखे-जि० र० को०, पृ० २३७ । (पञ्चविंशतिका) ७३१. पाश्र्व जिनस्तवन
Opening:
Closing Colophon
देवेन्द्रा. शतशः स्तुति - ... स्तौमि भक्त्या निशम् ।। इति पायजिनेश्वर ... - सोत्यकरम् ।। इति यमकवध श्री पार्वनाथ स्तवन सम्पूर्णम् । ७३२. पाश्वनाथ स्तवन
नमिण पणयमुरगण नूडामणिकिरणरंजिय मुणिणो । चालणजपल गहाममं पगासणं गंयव वृत्यं ।।
Opening
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२५१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra) Closing: जो अठइ जो अनिसुणइ ताण, कइणो अमाणतु गस्स ।
पासो पाव समेक सयलभुवणच्चिअचलं ॥२१॥ Colophon इति पार्श्वनाथस्तवन सम्पूर्णम् ।
७३३. पार्श्वनाथ स्तोत्र
Opening i
Closing :
धरणोरगसुरपतिविद्याधरपूजित नत्वा । क्षुद्रोपद्रवसमन तस्यैव महास्तवन वक्ष्ये ।। भक्तिजिनेश्वरे यस्य गधमाल्याभिलेपनः ।
सपूजयति यश्चन तस्यैतत् सकल भवेत् ॥ ७३४. पार्श्वनाथ स्तोत्र
Opening : य श्री पादतवेश श्रयति सपदि स श्रीपुर सश्रयेत् ।
स्वामिन् पार्श्वप्रमोत्वत्प्रवचनवचनोद्दीप्रदीपप्रभाव ॥ लब्ध्वामार्ग निरस्ताखिलविपदमतो यत्यधीशैस्सु ॥ धीभिर्वन्ध स्तुत्यो महास्त्व विभुरसिजगतामेक
एवाप्सताथः ॥१॥ Closing : एभिः श्रीपुरपार्श्वनाथ विलन्माहात्म्य पुस्यत्सुधा ।
कूपागेहिनिदशित प्रविसरद्वार्मागचतुयंत. ॥ तस्मात्स्तोत्रमिद सुरत्नमिवयद्यत्नादृही ।। समया विद्यानन्द महोदयाय नियत धीमद्भिरासे
व्यताम् ॥३०॥ Colophon: __ इति श्रीमदमरकोनि यतीश्वर प्रियशिष्य श्रीमद्विद्यानन्द
स्वामी विचित श्री पुरपार्श्वनाथ स्तोत्र समाप्तमभूत् ।
७३५. पार्श्वनाथ स्तोत्र (सटीक)
Opening
लक्ष्मीर्महस्तुल्यसतीसतीसती प्रवृद्धकालो विरतोरतोरतो।। अरारुजाजन्महताहताहता पार्श्व फणे रामगिरी गिरौगिरौ ॥१॥ - - कोशनेत्रीणचतुरे अत. कारणात् ।।
Closing:
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
२५२
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Colophon
Opening:
Closing :
Colophon!
Opening Closing :
Colophon
Opening Closing
Colophon :
इति पद्मनदीमुनिविरचितं श्री पार्श्वनाथस्तोत्रटीकासहित सम्पूर्णम् ||
देखें - (१) दि० जि० ० २० पृ० १४० । (२) जि० २०, को०, पृ० २४७ ॥
३३६. पार्श्वनाथ स्तोत्र
देखें - क्र० ७३५ ।
त्रध्य य पठेन्नित्य नित्यमाप्नोति सश्रियम् । श्री पार्श्व परमात्मे ससेवध्व भो बुधा सुकृत् ॥ इति श्री पार्श्वनाथस्तोत्र समाप्तम् ।
७३७. पार्श्वनाथ स्तोत्र
देखें ऋ० ७३५
तर्कव्याकरणे च नाटकच काव्याकुले कौशले, विख्यातो भुवि पद्मनदमुनयः तत्वस्य कोश निधि' । गंभीर यसकाष्टक भणितय सस्तूय सा लभ्यते, श्री पद्मप्रभदेव निर्मितमिद स्तोत्र जगन्मगलम् ॥६॥ इति श्री लक्ष्मीपतिपार्श्वनाथस्तोत्रसमाप्तम् ।
७३८. पंचस्तोत्र सटीक
3
देखें, ऋ० ६०७ ॥
दृष्टस्तत्व जिमराजचंद्र विकसद्भू वेन्द्र नेत्रोत्पलें । स्नात त्वन्नुति चद्रिकाभसिभवद्विद्वचकारोत्सवे ॥ मीतवाद्य निदाद्यज क्तमभर शातिमयागम्यते । देवत्वद्गतचेतसंव भवतो भूयात्पुनर्वर्शनम् ||२६|| संवत् १६६७ फाल्गुण शुक्ला १२ रविवासरे लिपिकर्त
प० सीताराम शास्त्री |
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२५३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhransha & Hindi Manuscripte
(Stotra)
७३६. पंचासिकाशिक्षा
Openings करि करि आतम हित रे प्राणी।
जिन परिणामनि तजि बध होत है।
सो परिणति तजि दुखंदानी ॥ करि० ।। Closing !
यह शिक्षापचासिका, कीनी द्यानतराय ।
पढे सुनै जो मनधर, जन जन को सुखदाय ॥ Colophon:
इति श्री पचसिका शिक्षा सम्पूर्णम् । मिती भाद्रपद सुदी ६ सुभवार गुरु सम्वत् १९४७ ।
७४०. पंचपदाम्नाय
Opening : भक्तिभरामरप्रणत प्रणम्य परमेष्ठी पचकम् ।
शीर्षण नमस्कारसारस्तवन भणामि भव्याना भयहरणम् ॥ Closing: .. '' भनेन ध्यानेन पायोच्चाट्टनताडननिपुणा साधवः
सदा स्मरतः। Colophoran इति पचपदरम्नाय ।
७४१. प्रभावती कल्प
Opening
Closing | Colophone
हरिद्रानिवपत्राणि पिप्पली मरिचानि च । भद्रामुस्ता विभमानि सप्तम विश्व भेषजम् ॥
ॐ अटेवी स्वाहा गुटिका प्रयुञ्जनमत्र । इति प्रभावती कल्पा। श्रीरस्तु ।
देखें-जि० १० को०, पृ० २६६ ।
७४२. प्रार्थना स्तोत्र
त्रिभुवनगुरो जिनेश्वरपरमानदककारणम् । कुरुष्वमपि किंकरेत्रकम्णा तथा यथा जायते मुनि ॥१॥
Opening:
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली . Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing :
जगदेकशरण भगवन्नसमश्रीपद्मनदितगुणोध कि। वहुना कुरु करूणामत्रजने शरणमापन्ने ॥८॥ इति प्रार्थनास्तोत्र सम्पूर्णम् ।
nolophon :
७४३. रक्त पद्मावती कल्प
Opening I ... सन्निधापयेत् विसर्जना विसर्जयेत् । गधादि
प्रहणानतर पटमचल कृत्वा ततो जाप कुर्यात् " - । Closing! -- भवतोऽस्माभिर्दत्तो मत्रोऽय परपरायात. साक्षिणो
रव्यादिदेववता। Colophon : इति रक्तपद्मावती कल्प समाप्तम् । सवत् १७३८ वर्ष
कार्तिकसुदी १३ रवी श्री औरगाबाद नगरे श्री षरतर श्री वेगमुगदै भट्टारक श्री जिनसमुद्रसूरिविजयराज्ये तत् शिष्यसौभाग्यसमुद्रेण एषा प्रतिलिपि कृताः।
७४४. ऋषभस्तवन
Opening:
Closing :
Colophon:
सिद्धाचल श्रीललनाललाम, महीमहीयो महिमाभिराम" असारससार पथोपराम नवामि नाभेय जिन निकामम् ।। एव श्रतो यमकभेद परंपराभि , राभिर्मयाविमल शैलपति पराभिः। आदीश्वरो दिशतु मै कुशल विलासम्,
वाचा विचक्षण चकोरसुधाशु भारम् ।। ___इति श्री शत्रु जयालकरण श्री ऋषमस्तवनमेकादशयमकभेदैः समर्थितम् श्री जिनकुशलसूरिभिः सम्पूर्णम । ७४५. ऋषिमंडलस्तोत्र
प्रणम्य श्रीजिनाधीशं लन्धिसामस्तसयुत ।। ऋषिमडलयत्रस्य वक्षे पूज्यादिमल्यमम् ॥१॥ नि शेपामरशेषरचितपद उरोल्लसत्सख । वातप्रोतकाति सहतिहतप्रव्यक्त भक्त यासन
Opening:
Closing
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२५५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & ITind: Manuscripts
(Stotra)
निर्माण समहोत्तमागमुफत प्रस्फुत्तम पराकृद्धि वृद्धिमनारन जिनरत: जिनपग फुर्वन्तु य सयंदा ।
७४६. अपिमंडल स्तोत्र
Opening Closing?
नाधार ... on मन्यितम् ॥१॥ शतमष्टोत्तर प्राप्तयें पठन्ति दिन दिने । नेपा न ध्याधयो दो प्रभवं ... . ।।
Colophont
-(१) दि० जि०० २०.१० १७ ।
(7) Catg. or St. & Pkt. Ms., P.629.
७४७. मायमडल स्तोत्र
Opening
Closing Colop on i
में- म०७४। य यधिन .. - रक्षतु मयंत ॥६॥ महो।
Opening :
Closing 1 Colophon :
७४८. त्रिकालजन रान्ध्यावंदन अली अहं क्षमा 3 3. उपवेशनभूमिपुद्धि करोमि स्वाहा । . . . मत्र श्री जनमत्र जपजपजपित जन्मनिर्वाणमत्रम् ।। हसि निकालनमध्यावदन सम्पूर्णम् ।
Opening |
७४६. सहस्त्रनामाराधना
सुधामपूजित पूज्य सिद्ध शुद्ध निरजनम् । जन्मदाहविनाशाय नौमि प्रारब्ध सिद्धये ।। तदकजा ममस्कुर्वे शारदा विश्वशारदाम् । गोतमादि गुरुन् सम्यक् दर्शनशानमडितान् ।२। विशालकीतिरपुण्णमूतिः शतेंद्राचतिपादप । श्रीमज्जिने सुसहस्त्रनामा जिनेश्वरः पातु सा भन्यलोकान्।
Closing 1
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श्री जन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain. Siddhant Bhavan, Arrah
इत्य पुरोत्थ पुरूदेवयत्र सभाव्यमध्ये जिनमर्चयामि ।
सिद्धादिधर्मादि जिनालयात पत्रेषु नामाकित तत्पदेषु ॥ विशेष-प्रशस्ति सग्रह ( श्री जैन सिद्धान्त भवन ) द्वारा प्रकाशित पृ० १४ मे सम्पादक
भुजवली शास्त्री ने ग्रन्थ कर्ता के बारे में लिखा है। इसके कर्ता देवेन्द्रकीर्ति है और इन्होने जिनेन्द्र भगवान के विशेष रूप में अपना, अपने गुरु का एव प्रगुरु का क्रमश:-धर्मचन्द्र, धर्मभूषण, देवेन्द्र कीति इन नामो से उल्लेख किया है। देवेन्द्रकीति के नाम से कई व्यक्ति हुए है, इसलिये नहीं कहा जा सकता कि अमुक देवेन्द्रकीर्ति ही इसके प्रणेता है ।
७५०. सहस्त्रनामस्तोत्र टीका
Opening | ध्यात्वा विद्यानद समन्तभद्र मुनीन्द्रमहन्तम् ।
श्रीमत्सहस्त्रनाम्ना विवरणमावस्मि ससिद्धौ ।। Closing अस्ति स्वस्तिसमस्तसघ तिलक श्रीमूलसपोनघम्,
वृत्त'यत्र मुमुक्षुवर्गशिवद ससेवित साधुभिः ।। विद्यानदिगुरुस्त्विह गुणवद्गच्छे गिर साप्रतम्,
तच्छिष्यश्रुतसागरेण रचिता टीका चिर नदतु ।। Colophon, इत्याचार्य श्री श्रुतसागरविरचिताया जिनसहस्त्रनामटीका
यामतकृल्वतविवरणो नाम दशमोध्याय समाप्त. । इति जिनसहस्त्रनामस्तवन समाप्तम् । सवत् १७७५ वर्षे वैशाख सुदी ५ गुरी श्री मूलसघे भट्टारक श्री विश्वभूषणदेवास्तदेतेवासिनः ब्रह्म श्री विनयसागर तदतेवासिन पडित श्री हरिकृष्ण तदतेवासिन (पजीवनि ) गगारामेन लिखित मेंदग्रामे आदिनाथचैत्यालये लिखितमिद पुस्तकम् । .
७५१. सहस्त्रनाम स्तोत्र
Opening • Closing :
स्वयभुवै नमस्तुभ्यं ......... चित्तवृत्तये ॥१॥ अमोघवाघमोघज्ञो निमलोमोघशासन ।
Colophons
Missing
देखें, Catg. of Skt. & Pkt
Ms., P. 707.
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२५७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
७५२. सहस्त्रनाम
Opening: देखें, क० ७५० । Closing : देखें, क्र० ७५०1 Colophon: इत्याचार्य श्री श्रुतसागर विरचिताया जिनमहस्वनामटीका
यो दशमोध्याय समाप्त ।
___ सवत् -१९८५ वर्षे आपाटमासे सुदी ३ गुरौ श्री मूलमघे भट्टारक श्री विश्वभूषणदेवा. तदतेवासिनः ब्रह्म जो विनयमागर तदतेवामिन भुजवल प्रसाद जैनी लिखितम् । श्री मैनेजर भुजवली जी शास्त्री की सम्मति आदेगानुनार आरा स्थाने ।
७५३. सहस्त्रनाम टीका Opening:
चिनविरचितचित्तचमत्कार स्वर्गायवर्गमास्यदन पारुचारित्रचमत्कृतसकदन. " । Closing : ___.. नाम्नामप्टसहम्प्रेण स्मृतिमात्रेण स्मरणमात्रेण
प्रमाणेन सेवा कतुं इच्छाम प्रमाणेयेंढयसटदधच मायट् प्रत्यया भवति । इत्याचे भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीते श्रीमहापुराणे श्री पृषभस्तुतेस्टीका
सम्पूर्णा कृता सूरिश्रीमदमरकीर्तिना। Colophon: इति श्री जिनसहस्त्रनामटीका । इद घुटित ५० चिमनरा
मेण लिपि कृतम फतेपुरमध्ये स० १८९७ मश्विन शुक्ल तृतीयाया शुभ भूयात् ।
७५४. सत अष्टोत्तरी स्तोत्र
Opening :
Closing
ओकार गुनि अति अगम, पच प्रमिष्ट निवास । 'प्रथम तासु वदन किये, लहिये ब्रह्म विलास ॥
यह श्री सत्य अठोतरी, कोनी निजहित काज ।
जे नर पठे विवेक सो, ते पावहि मुनिराज ।। इति श्री सत अठोतरी कवित्त बंध सम्पूर्णम् ।
•Colophoni
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श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रम्यावली
२५८
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Artoh
Opening
Closing: Clolophon :
Opening:
Closing
Colophon :
Opening:
Closing:
Colophon :
Opening
Closing :
Colophon
७५५. शन स्तवन
ॐ नमो अहंते परमात्मने, परमज्योतिषे परमपरमेष्ठिने परमवेधसे परमयोगिने "I
- तथाय सिद्धसेनेन लिलिखे सपदा पदम् ।
इति शत्रस्तव समाप्तः । सवत् १७७४ वर्षे पौष वदि ८ दिने लिखत श्री कास्मावाजारमध्ये |
;
७५६. सत्तरिसय स्तवन
तिजयपहुतपासय अट्टमहापाडिहारजुत्ता' समयखित विधाण सरेमि चक्कजिणदाण ॥
इस रिस त समम त दुवारिपडि निहिये । दुरियारि विजयत त निजात्मान निच्चमचेह ||१४|| इति सत्तरियस्तवन सम्पूर्णम् ।
७५७. सम्मेदाष्टक
एकैक सिद्धकूट आधिव्याधि. प्रवाधिः
"
• इति श्री जगद्भू ष्णकृत सम्मेदाप्टक सम्पूर्णम् ।
does
राजते स्पृष्टराजकं ॥१॥
- जगद्भ षणानाम् ||
deco
७५८. समवशरण स्तोत्र
वृषभादयानभिर्वद्याश्वदित्वा वीरपश्चिमजिनैन्द्रान् । भक्त्या नतोत्तमागः स्तोष्टोतत्समवशरणानि ॥ अगुनवामहंत माग्धर्णदि, व्रतिरचित सुवर्णानेकपुष्पप्रजानाम् । सभवति नुतिमाला यो विधत्ते, स्वकठे, प्रियपतिरमश्री मोक्षलक्ष्मीवधूनाम् ॥ इति श्री लघुसमतमद्र स्तोत्र सम्पूर्णम् ॥
Page #459
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• २५६ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra) -
७५६: सकटहरण विनती
.. Opening : ,
Closing ।
सारद दीजे ग्यान अपार । ' मुझ भरमन छुटे ससार ।। वर्द्धमान स्वामी जिनराय । करो वीनती मनचित लाय ।। इह वीनती नित भणे प्रागी, सिवधाम पावै परै ।
सुभ भावधर मन सदा गुणिय, सुद्ध चेतन सो तर ॥३७।। इति सकटहरण वीनती सम्पूर्णम् ।
Colophon
७६०. शान्तिनाथ आरती
Opening ।
Closing : Colophoni
शांत जिनेसरं स्वामि वीनती अवधार प्रभु । सेवक जनसाधार, पापपनासन शाति जिनो । पाटन नगर मझार, शातकरण स्वामी शात जिनो ॥ इति शातिनाथ बीनती ( विनती )। ७६१. शान्तिनाथ स्तोत्र
Opening :
Glosing ::
नानाविचित्र भवदु खराशि नानाप्रकार मोहादियणशिः पापानि दोषानि हरति देवा इह जन्मशरण तुवशान्ति
नाथम् । जपति पठति नित्य शान्तिनाथादिशुद्धम्, स्तवनमधुगिराया पावतापापहारम् । शिवसुखनिधिपोतं सर्वसत्त्वानुकपम्, ' कृतमुनिगुणभद्र भद्रकार्येषु नित्यम् ॥६॥ इति श्री शान्तिनाथस्तोत्रगुणभद्राचार्यकृत समाप्तम् ।
·
Colophon । ' -
। ७६२. शान्तिनाप प्रभातिक स्तवन Opening ! . सुरेनं सदासक्षरद्दानतोय वरं हारचन्द्रोज्वल सोरभेयम् । ददातुच्चल शातिनाथो जिनो नो यदं वक्षताल सदा
सुप्रभातम् ॥१॥
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भी जन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrib
Closing :
श्री शान्तिनाथस्य जिनेश्वरस्य प्रभातिक स्तोत्रमिद पविः ।
त्रम् । पुमानधीते भवती हयोपि श्री भूषणस्याद्वरचंद्र ॥६॥ इति श्री शान्तिनाथप्रभातिकस्तवन समाप्तम् ।
Colophon:
७६३. शान्तिनाथ स्तवन
Opening : closing :
ॐ शातिशांति · शांतये स्तौमि ॥१॥ येश्चन पठति सवा शृणोति भावयति वा यथायोग ! शिवशातिपदं जयात् सूरिश्रीमानदेवस्य ॥१७॥ इतिशांतिस्रावनं समाप्तम् ।
देखें-वि. जि, प्र. र.,पृ. १५० ।
colophon:
७६४. शान्तिनाथ स्तवन
Cpering .
closings
अयशाच्च गृहस्यास्य मध्ये परमसुन्दरम् ।। भवन शांतिनाथस्य युक्तविस्तारतुगतम् ।। कृत्वा स्तुति प्रणाम च भूयोभूयः सुचेतस. 1
यथासुख सभासीना प्रश्रणे जिनकेश्मन ।। नहीं है।
Colophen :
७६५: सरस्वती कल्प
Openings
जगदीश जिन देवमभिवद्यामि नन्दन ।
क्ष्ये सरस्वतीकस्प समासादल्पमेधसाम्॥ Closing :
कृतिना मल्लिक्षणेन श्रीषणस्य सूनुना। . .
रचितो भारतीकल्प. शिष्टलोकलनोहर ।। .: सूर्यचन्द्रमसा यावत् मेदिनीभूधरार्णवः ।
- तावत्सरस्वतीकल्फ. स्थैयाच्चेतसि धीमताम् ।। Colophon .:.:, - इत्युभयभाषाककिरोखर श्री मल्लिषेणसूरिविर
वितो भारतीकल्प समाप्तोऽभूत् ।
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२६१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
७६६. सरस्वती स्तोत्र
Opening :
ॐ ऐं ह्री श्री मत्ररूपे विवुधजननुते देवदेवेन्द्रवद्य, मच्चचद्रावदाते क्षपतिफलिमले हार गारगोरे। भोमे भीमादहाश्ये भवभयहरणे भैरवे मेरूधारे,
ह्रा हू फारनादे मम मनसि सदा सारदे तिष्ठ देवी ।। Closing
करवदनसदृशमखिल भुवनातला यत्प्रसादतः कवया ।
पश्यन्ति सूक्ष्मानतयः सा जयतु सरस्वती देवी ॥ Colophon: इति सरस्वती स्तुति । विशेष-अन्त में सरस्वती मन्त्र भी लिखा है।
देखें-Catg. of Skt.& Pkt. Ms., P. 706.
७६७. सरस्वती स्तोत्र
Opening
Closing Colophons
देखें-०६४ देखें-क० ६६८.
इति सरस्वती स्तोत्र समाप्तम् ।
७६८. सरस्वती स्तोष
Opening:
Closing :
नमस्ते शारदादेवी मिनस्याबुजवासनी। स्वामहं प्रार्थये नाणे विद्यादान प्रदेहमे ।। सरस्वती महाभागे यादृष्टा देवी कमललोचना, इसस्कधसमारूढा वीणापुस्तकधारणी । सरस्वती महाभागे परदे कामरूपनी, हसरूपी विशालाक्षी विद्यादे परमेश्वरी॥ इति सपूर्णस् । ७६९, सरस्वती स्तोत्र
Colphons ,
Opening! inea
**
ॐ ह्री श्री अहवाग्वादिनी नन.! ह्रां ह्री रुक्षकवीक्षेशपशाचिकमले कल्पविस्पष्ट शोभे--
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२६२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing i Colophon :
अनृपलब्ध। अनुपलब्ध ।
७७०: सिद्धभक्ति
।
.
Opening i Closing 1
सिद्धानुह तकर्मप्रकृति ... ... यथा हेमभावोगन्धि ।
" वोहिलाहो इसुगइगमण समाहिमरण जिणगुण संपत्ति होउमुवक ।। इति मिद्धमक्ति ।
Colophon:
,७७१. सिद्धप्रिय स्तोत्र टीका
Opening!
सिद्धिप्रिय प्रतिदिन .... भूपीक्षणेन । । Closing
__ तुष्टि देशनया • सतोमीशितम् ।।२।। Colophon: इति श्री सिद्धिप्रिय स्तोत्र टीका सपूर्णम् । विशेष-२४ श्लोको की सस्कृत टीका है, '२५ वे श्लोक की टीका नहीं है।
देखे-(१) दि० जि. न० २०, पृ० १५१ ।
(२) जि० र० कों, पृ० ४३८ । (३) रा. सू. II, पृ० ४६, ५३, ११२, ३३२ आदि
।४) रा. सू. III, पृ० १०६, १४१, १५६, २४४ ॥ ।. .. (५) प्र. जै० सा०, पृ० २४६ ।
७७२. सिद्ध परमेष्ठी स्तवन
Opening :
अनन्तवीरयोगिन्द्रः सप्रणस्यपुण्मुना ।
एवषोनात्मनो मृत्यु परिपृष्टः समादिशत् ॥१॥ Closing:
परिवार्यमहावीर्य रामलक्ष्मणसंगतम् ।
किष्किधनगरं प्रापु विविश्वस्त्रेमहर्द्ध या ॥३शा Golophon : इति श्री रविषणाचार्यकृत पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ लक्ष्मणजी
कृत मिद्वपरमेष्ठी स्तवन समाप्तम् ।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
Opening
Closing :
Colophon :
Opening:
Closing :
Opening
Closing
Colophon
७७३. श्रुतभक्ति
दुखओ कम्मओ वोहिलाहो सुगइगमण समाहिमरण जिणगुणसपत्ति होउमुक्त ।
इति श्रुतज्ञानभक्ति नम्पूर्णम् ।
Opening
Closing
Colophon :
स्तोप्ये सज्ञानानि परोक्षप्रत्यक्षभेदभिन्नानि । लोकालोक विलोकन- लोलितसल्लोकलोचनानि सदा ||१||
७७४. स्तोत्र संग्रह
स्यानुग्रहतो दूराग्राहपरित्यक्तात्मरूपात्मन. सद्रव्य चिदचित्रिकाल विषय स्वं स्वरभिक्ष गुणै. ॥ ॥ सार्थ व्यजन पर्ययं स्मममवयज्जानातिबोधस्सम तत्सम्यत्कमशेषकर्म भिदुर मिद्धा पर नौमि वः ||१||
1
तुभ्य नमो बेलगुलाधिपपावनाय ।
तुम्म नमोस्तु विभवे जिनगुमटाय
७७५ स्तोत्रावली
नही है ।
...
२६२
हि सकलमन आस्या फली 1
सुप्रमन्नचित्तनी चिताटली श्री सार जीनगुणगावता
इति श्री रोहिणी स्तवन सपूर्णः ।
७७६. स्तोत्रावली :
देखें, क्र० ६०७ |
जहए एवं भावाओ, कम्माण विजाण तह भावा ॥ " अपूर्ण ।
10060
नही है ।
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२६४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhavan, Arrab
७७७. स्तोत्र संग्रह गुटका
Opening : Closing
देखें, ऋ० ६०७।
दरसन की देवको आदिमध्यअवसान ।। सुरगन के सुखभुगत के पावं पद निर्वाण ॥२०॥ इति विन सपूर्ण ॥
Colophon
७७८. स्तोत्र संग्रह
Opening : देखें-क्र० ७८५ । Closing __ भाषा भक्तामर कियो हेमराज हित हैत ।
जे नर पढे सुभावसो ते पावै शिवखेत ।। Colophon इति भक्तामर स्तवन सम्पूर्णम् ।
विशेष-लगभग एक सौ स्तोत्र, पाठ, पूजा आदि का मग्रह इस गुटका है ।
७७६, स्तोत्र संग्रह
Opening : प्रणम्य परयाभक्त्या देव्या पादाम्बुज विधा।
नामान्यष्टसहस्राणि वक्षे तद्भक्ति सिद्धये ॥१॥ Closing . - इति पुन मत्र ॐ ह्रीं क्ली क्ल श्रीं ह्रीं नम.। लक्ष
जापत सिद्ध होय। Colophon ! इति शारदा स्तुति सम्पूर्णम् ।।
विशेष—इस ग्रन्थ मे ३७ स्तोत्र मत्रादि का संग्रह है।
७८०, स्तोत्र
:
Opening :
श्री नाभिराजतनुजः सदयाविहारी, देवोजितो जयतु कोसदयाविहारः। श्री शभवो हतभवोदितसारसार , श्री शोभिनदनजिनोदितसारसार. ॥१॥
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२६५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrathaha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
Closing:
विख्यातक विदितवघरसावतारम् । ससारवासविरल इतकाण्डभूतम् । वंदे नव वदनक जधुताकसाधम्, भिन्न जिनमिदजिर भवहारभावम् ।।
Colophon.
अस्पष्ट ।
७-१. सुप्रभात स्तोत्र
Opening |
Closing: :
विद्याधरामर नरोरगयातुधानसिद्धानुरादिपति मस्तुत पापघ्नम् । हेमद्य ते वृषभनाय युगादिदेवश्रीमज्जिनेन्द्र विमल तव सुप्रभातम् ।। दिव्या प्रभातमणिका वलिका स्वरूप-, फठेन शुद्धगुणसग्रथिता क्रमेण । ये धारयन्ति मनुजा जिननाथभक्त्या, निर्वाणपादपफल खलु ते लभते ।। इति सुप्रभातम्तोत्र समाप्नम् । ७८२. स्वयंभू स्तोत्र
Colophon i
Opening! देखें-ऋ० ७८५ ।
Closing: - इह प्रार्थना हमारी सफल करो। Colophon: ___ इति श्री स्वामीसमन्तभद्राचार्य विरचित वृहत्स्वयम्भूस्तो
घसम्पूर्णम् ।
७८३. स्वयंभू स्तोत्र Opening : येन स्वयवोधमयेन लोका,
। मास्वासिता केपन वित्तकार्य। प्रवोधता केचने मोक्षमार्ग, तमादिनाथ प्रणमामि नित्यम् ||१॥
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२६६
बी जैन सिद्धान्त भवन प्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain. Siddhant Bhavan, Arrab
Closing: यो धर्म दसधा करोति ... • स्वर्गापवर्गास्थितम् ॥२५॥ Colophon: इति स्वयम्भूस्तोत्र समाप्तम् ।
७८४. वृहत्स्वयंभू स्तोत्र Opening : मानस्तभा सरासि : पीठिकाने स्वयभूः ।।१।। Closing : तथ्याख्यानमदो यथावगमत किंचित्कृत लेशत
स्थेयाच्चद्रदिवाकरावधिबुधप्रह्लादिचेतस्यलम् ।। Colophon . इति श्री पडित प्रभाचद्रविरचिताया क्रियाकलापटीकाया मम
तभद्रकृतबृहल्स्वयभू स्तोत्रस्यटीका समाप्ता। सवत्सरे आषाढशुक्लपूर्णिमाया स० १९१६ लिपिकृतम् । .
देखें-(१) दि० जि०म० र०, पृ० १५३ ।
(2) Catg. of Skt. & Pkt Ms., P. 714. ७८५ विषापहार स्तोत्र
Opening :
Closing
Colophon :
स्वात्मस्थितः सर्वगत समस्त
___ व्यापारवेदी विनिवृत्तसग । प्रवृद्धकालोप्यजरोवरेण्य.,
पायादपायात्पुरुषः पुराण ॥ वितिरति विहिता यथाकचिद्जिनविनतायमनीषितानि भक्ति । त्वयि नुति विषया पुनर्विशेषा
दिशतु सुखनियसो धनजय च ॥ । इति युगादिजिन विषापहारस्तोत्रम् । देखें-(१) दि० जि. ग्र० २०, पृ० १५४। ,
(२) जि. र० को०, पृ० ३६१।। (३) प्र. जै० सा०, पृ० २१७ । । (४) आ० सू०, पृ० १२७ । (५) रा० सू० II, पृ० ५१,६६, १०७, ११२, ३०२। ) (६) रा० सू० III, पृ० १०६, १०७, १५७, २३४, २७८ ।
(7) Catg. of Skt. & Pkt. Ms, P. 693. ७९६. विषापहार स्तोत्र
देखें, ऋ० ७-५॥
Opening ,
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२६७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Stotra)
Closing Colophoni
देखे, ऋ० ७५५। इति श्री विषापहारस्तोत्रसमाप्तः ।
७८७. विषापहार स्तोत्र
Opening |
Closing' Colophon:
देखे, ऋ० ७८५। देखे, ऋ० ७८५ । इति विषापहारस्तोत्र समाप्तम् । ७८८. विषापहार स्तोत्र'
Opening :
Closing : Colophoni
देखें, ३० ७५५।
देखे, क्र० ७८५ । इति धनञ्जयकृत विषापहारस्तोत्र समाप्तम् ।
७८६. विषापहार स्तोत्र
Opening । देखे, क्र० ७५५ ।
Closing' देखें, क्र० ७५५। Colophon: इति विषापहारस्तवनसमाप्तम् ।
७६०. विशापहार स्तोत्र (टीका) Opening : देखें, ऋ० ७८५ । Closing I .. विष निर्विषीकृत्य पुनरनतसौख्यरूप लक्ष्मी घशीक
रोति इति तात्पर्यर्थम् । Colophon: इति श्री नागचन्द्रकवि विरचिताया श्री श्रेष्ठी धनजय प्रणीत
जिनेन्द्रस्तोत्रपजिकाया विषापहारनामातिराय दिव्य मत्र समाप्ता।
७६१. विषापहार स्तोत्र
Opening 1 Closing .
देखें, क० ७८५ ॥ देखें, ऋ0 ७८५।
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२६८
थी जन,सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Irrbrary, Jain Siddhant Bhavan, Arrab
Colophon |
इति श्री धनजय कृत विषापहार स्तोत्र सपूर्णम् ।
७९२. विषापहार स्तोत्र
Opening : देखे, क्र0 ७८५ । Closing : स्तोत्र जु विपापहार, भूलचूक कछ वाक्य ही।
ज्ञाता लेहु सँवार, अखैराज अरजत हम ॥ Colophon: इति श्री विषापहार स्तोत्रमूल कर्ता श्री धनञ्जय तस्य उपरि
भाषा वचनिका करी शाह अखैराज श्रीमालन अपनी बुद्धिअनुसारे ।
७९३. विषापहार स्तोत्र Opening : देखें, ऋ० ७८५ ।
Closing : देखे, ऋ0 ७५५ ।। Colophon : इति विषापहार स्तवन, समाप्त । सवत् १६७२ वर्षे
जेष्ट (ज्येष्ठ) वदी ७ शुभदिने भट्टारक श्री हेमचद तत्पट्ट' भ० श्री पदमनद तत्प?' भट्टारक जसकीर्ति तत्पट्ट भ० श्री गुणचद्र तत्पढेंभट्टारक श्री सकलचद्र तशिष्य पडित मानसिंघ (ह)लिखापित आत्मपठनार्थम् । लिखित कायस्थ मायुरमेवरिया दयालदास तत्पुत्र सुदर्शनेन शुभ भवतु लेखक पाठकयो ।
, ७६४. विषापहार स्तोत्र मूल Opening : देखें, * ०.७८५ । Closing : देखें, क० ७८५। Colophon: इति विषापहारस्तोत्र सम्पूर्णम् ।
Opening :
७६५. विनती संग्रह मत्र जप्यो भवसागर तिरियो, पाई मुकति पियारी।
ज्याका० ।। देवा ब्रह्ममुकुत्या पद पावं, तो दरसण ग्यान.पटाव होने हैं। वाणी बोल केवल ग्यानी 150 इति सम्पूर्णम् ।
Closing !
Colophon :
Page #469
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२६६ Coralogue of Snnskrit, Prokril. Apabhramghn & Hindi Manuscripta
(Stotra)
७९६. बिननी Oponing
मी श्री जिनराय गनयन का गेजी।
गम माना मुम तान गुमही परमधनी जी। Closing :
मशनरी विभाग पोजिण गति रची जी।
पर मुनिनानि गंगु को जी। Colophon :
निविनती माग। सयन १५२ वर्षे मागीमनियार।
७६७. वोन राग स्तोत्र Opening :
म्यांमामो ..... नामस्यायनो॥॥ Cloning?
मो जय गणगो विपनयोगोमणाणा ।। विरोप-गामा पत्र भी बनाया गया है।
से --Catg of Sht & pht. Ms., P.693
Opening '
७६८. वृतन गहननाम
प्रमोम्यागभोगेा निपिन्नोभीरमा । एप विजापयामि यो पप फरणाम् ।। निमारियोमा ।
Closing :
Opening
७६६ यमकाप्टक स्तोत्र
विधाग्यशान्त्य पद पद पदम्, प्रत्यग्रमन्यत्नपर पर परम् । यंतगकारवुध बुध बुधम् , फरस्तुये विश्वहित हित हितम् ॥१॥ भट्टाररू. मृत स्तोत्र य. पठेघमकाप्टकम् ।
सवंदा म मयन्यो भारतीमुखदर्पण ॥१०॥ इति भट्टारक श्री अमरकीति कृत यमकाप्टकस्तोत्र समाप्तम् । ८०० योगभक्ति
थोस्सामि गणधराण अणयाराण गुणेहिं तच्चेहि । अलि मउलिय इच्छो अभिवदतरे सविभषेण ||१||
Colophon .
Opening :
Page #470
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२७०
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Closing . Colophon
. जिणगुणसपत्ति होउ मज्झ । इति योगभक्ति सम्पूर्ण ।
८०१. अभिषेक पाठ
Opening Closing :
श्री मन्मन्दिरसुन्दरे ... ... नाभिषेकोत्सवे ।। पुष्प जयकर भगवान के ऊपर चढावने गधोदक कीये
पश्चात् । इति शान्तिधारा समाप्त। भाद्रपदमासे कृष्णपक्षे तिर्थों ४ रविवासरे सवत् १९६५ ।
Colophon:
८०२. अभिषक समय का पद
Opening
Closing Colophon
प्रभुवर इन्द्रकलश कर लायो, शैलराज पर सजिसमाज सब जनम समय नहवायो ।
प्रभु केवय प्रमान - .... जनकल्याणक गायो । इति पद पूर्णम् ।
८०३. आकृत्रिभचेत्यालय पूजा
Opening |
Closing : Colophong:
ॐ ह्रीं असुरकुभारार्चितपकमार्गेषु दक्षिणदिगचतु त्रिसतलक्षाकृत्रिम जिनालय जिनेभ्यो ॥१॥ अस्पप्ट। नही है।
८०४. अनन्तव्रत विधि
Opening:
एकादशी के दिन पूरतन कर भगवान की तब व्रत स्थापन है। एक कर तथा आचाम्ल पाणी भात करें तथा द्वादशी को भी असे ही कर . -
Page #471
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२७१ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratisha & Hindi Manuscripts
( Puja-Parha-Vidhana)
Closing t
अनन्त व्रत के मादक करन के कारने वाधे अनत वनायसो नोके धारने स्वर्णरजत पटसूत्र भर्दव नवाई जी
पुजिभक्ति वहुत ठानि पुण्य उपजाय जी। Colophon. चतुर्दश पदार्थ चितवन की व्यौरा जीव समास १४ अजीव १४ गुणस्थान १४ मार्गाणा १४ । भूत । १५ ।
इति अनन्तव्रत विधि सम्पूर्णम् ।
Opening:
Closing :
८०५. अनन्तव्रतोद्यापन पूजा
श्री सर्वश नमस्कृत्य सिद्ध साधू स्त्रिधा पुन. । अनतव्रतमुख्यस्य पूजा कुर्वे यथाक्रमम् ।।१।। ताय॑श्योगुणचन्द्रसूरिरभवच्चारित्रचेतो हर, स्तेनेद वरपूजन जिनवरानतस्य युक्त्यारचि । येत्रज्ञथानविकारिणो यतिवरास्तः सोध्यमेतदवुधम्, गधादारविचद्रमक्षयतर सघस्य मागल्यकृत् ।।५।।
इत्याचार्य श्री गुणचन्द्रविरचिता श्री अनतनाथ पूजन व्रतपूजा उद्यापन सहिता समाप्ता ।।
ली० वा० गगाष्टकसपु - ?॥ देखें-(१) दि० जि० अ० र०, पृ. १६०।
(२) जि० २० को०, पृ०७। (३) आ० सू०, पृ० १६६ । (४) रा० सू० III, पृ० २०५। (५) जै० म०प्र० स० I, पृ० ३४ ।
Colophon:
८०६. अंकुर रोपणविधि एव' वास्तुपूजा
Opening:
Closing:
अथ जवारा विधिलिख्यते । जवारा किइदिन दातारपरि देव गुरु शास्त्र पूजा ' ।
कोट प्रवेशादपि वास्तुदेवः, -
चैत्यालय रक्षतु सर्वकालम् ।। इति वास्तु पूजा विधि ।
Colophon:
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२७२
धी जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Join Siddhant Bhavan, Art :}}
८०७. अहंववृहद शान्तिविधान
Opening i
Closing : Colophon
जय जय जय नमोस्तु नमोस्तु ... .-। __... - - लोर सठपसाहूण ।
एतद्देशीया महाभिषेक नवर्वन्ति तस्मान्मया न लिखितम् । इत्यहदेववृहदशान्ति विधि ममाप्त ।
८०८. अर्हदेव शातिकाभिषेक विधि
Opening i देखें क्र. ७५७। Closing ! ___ अनेन विधिना यथा विभवमर्हत स्नापन विधाय महमन्वह
सृजति य शिवाशाधर स चक्रिरितीर्थकृताभिक सूरै. समचितपद'
सदासुखसुधा बुधौ मज्जति । इति पूजाफलम् । ColophonI एव समुदायाक. ३६० इत्यदेव शातिकाभिषक बाधा
समाप्ता । विशेष—यह ग्रन्य करीव १८०० वि० स० का है।
८०९. अथ प्रकारीपूजा विधान
Opening :
Closing
जलधारा चदन पहया, अक्षत अरू नैवेद । दीपधूप फल अर्घजुत, जिन पूजा वसुभेद ॥ यह जिनपूजा अष्टविधि, कीर्ण कर सुचि अग।
प्रति पूजा जलधारसू, दीजै अरघ अभग । इत्यष्टकारी पूजा विधानम् ।
Colophon:
८१०. अतीतचतुर्विशति पूजा
Opening :
प्रभ जी Closing .
१-श्री निर्वाण जी, २-मागर जी, ३-महासाधुजी, ४-विमल " + । मागर जन्माभिषेकामये गर्भावतारे भने,
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२७३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramgha & Hindi Manuscripts
( Puja-Patha-Vidhāna)
मागच्य य. तपश्रेचण चरता ज्ञान च निर्वाणकैः। 'मागल्य य. सदा भवति भवता श्री नाभिराजो गहे,
मागल्य यत्सदा भवतु भवता श्री आदिनाः॥ इति जन्मपूजा सपूर्णम् । स० १९६६ का।
Colophon
८११. वारसीचौबीसी पूजा वा उद्यापन Opening
बारसि चुत्रीसातुवेरू। चतुर्दश जीवसमासा। Closing कोतिस्फूर्ति -- सेवाफलात् ॥ Colophon: इति श्री भट्टारक श्री शुभचन्द्र विरचित बारसि चुत्रीसा
न उद्यापन मत्रपाठ सम्पूर्णम् । श्री सूरतिबिंदिरे लिखापितम्। '
... - लालचन्द गुणवत सपरैमनकर वाचिये भल भाव भगवत । स० १९४६ ।
८१२. भावना बत्तीसी
Opening .
अतुलसुखनिधान सर्वकल्याणवीज, जननजलधिपोत भव्यसत्वंकपात्रम् । दुरिततरूकुट्ठार पुण्यतीर्थप्रधान, पिवतु जितविपक्ष दर्शनाक्ष सुधावू ॥१॥ इति द्वात्रिंशतावृत्तः परमात्मातमोक्षये।
योनन्यगतचेतस्कयात्पसो परमव्यम् ॥३३॥ इति भावना वतीसी समाप्तम् ।
Closing
Colopont
८१३. बीस भगवान पूजा
Opening
Closing!
श्रीमज्जबूधातकी - - नित्य यजामि ।। तुमको पूजा चन्दना कर धन्य नर जोय ।
सरदा हिरदै जोधर सो भी धरमी होय ॥ इति श्री वीसविहरमानपूजा जी समाप्तम् ।
।
Colopong
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२७४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली shr'e Devakumar Jain Oriental Librory Jain. Siddhant Bhavan, Arrab
८१४. वृहत्सिद्धचक्र पाट
Opening:
Closing :
प्रणम्य श्री जिनाधीश लब्धिसामस्त्यसयुतम् । • श्री सिद्धचक्रयत्रस्याच सहस्त्रगुण स्तुवे ॥ श्री. काष्ठासधे ललितादिकीतिना भट्टारकेणैव विनिर्मित विरा
नामावलीपद्यनिवद्धरूपिका भूयात्सता मुक्तिपदाप्तिकारणम ॥
इति श्री बृहत्सिद्धचत्रपाठ समाप्तम् । सवत् १९६१ चद्रनाङ्क चद्रेदे माधवे सितगेमुनो स्वनिमित्त लिखेत्सीतारामनामकरेणश ।
Colopon:
। ८१५. वृहत्सिद्धचक्रविधान
Opening
Closing :
उधिोरयुत सविंदुसपरं ब्रहमस्वरावैष्ठितम् । वर्गाः पूरितदिग्गावुजदस मृतत्वधितत्त्वान्वितम् । अन्त पत्र तटवनाहतयुल होकार सवैष्टितम् देव ध्यायति यः स्वमुक्ति शुभगो वैरिभकठण्ठे ख ॥ निरवशेपनिरसनाय दिव्यमहाय॑म् निर्वपामि
स्वाहा पूर्णाध्यम् । एव शातिधारादि । पुष्पाञ्जलिः ॥ इति मर्वदोषयरिरहार पूजा । १६. वृहत्क्रान्ति पाठ
Colophon !
Opening ! भो भो भव्या श्रुणुत वचन प्रस्त्रत सर्वमेतत् ।
'' ये यात्राया त्रिभुवनगुरोराहता भक्तिभाज॥ " Closing : अह तित्थयरमाया देशिवावी तुह्न नयरनिवासिनी अह्न
शिब तुह्नशिव अशिवोपाम शिवभवतु स्वाहा. ..' Colophon. इति वृहद् शाति समाप्तम् । सकल पडित शिरोमणि पडित
श्री दानकुशलमणि गणिराज कुशल शिप्य गुमानकुशल लिखितम् ।
। ८१७. चन्मशतक । Opening. . अनुभव अभ्यास मे निवास शुद्ध चेतन को,
अनुशव सरूप शुद्धबोध को प्रकाश है। ,
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२७५ Catalogue of Sanskrit, Prakeit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Puja-Patha-Vidhāna) .
अनुभव अनूप ऊपरड्त अनत (ज्ञान) ग्यान,
अनुभव अतीत त्याग ग्यान सुखराम है। Closing : सपत सेप गुनयान थे छुटे एक गत देवकी।
यौं कही अरय गुरु ग्रन्थ में सति वचन जिनसेवकी ॥ Colophon . इति श्री चंद्रशतक सपूर्णम् । मितीमाघशुक्ल द्वितीया
सोमवासरे मम्बत् १८६० साल मध्ये । लिखापित श्री धर्ममूरति बाबू अच्छेलाल जी जातिअग्रवाल.वसया माराके । लिपिकृतं नदलाल पाडे छपरा के दौलतगंज मध्ये। श्रीजिन भजेत् ।
८१८. चैत्यालय प्रतिष्टाविधि
Opening :
Closing |
सुकनासस्य पर्यन्त वेदिकास्तरत्तरे । गर्ने प्रनरक कृत्वा वेदिका तत्र विन्यसेत् ।। शातिकौष्टिक इति पटकर्मविधि - "। ... .. ... मुक्तिकातापिवश्या । इति यत्रार्चन विधि समाप्ताः ।
Colophone
८१६. चतुर्विशति पूजा
Opening । ऋषभ अजित ... -पुष्प चढाय ।।
Closing | भुक्ति मुक्ति दातार ... ... सिव लहै ।। Colophon: . इति श्री समुच्चय चौवीसी पूजा सपूर्णम् ।
इह पूजन जी की पोथी चढाया व्रत के उद्यापन मे बाबू परमेसरी सहाय की भार्या वनसीकुवर ने। गोप गागिल । मिती फागुन वदी २२ । सन २२८३ साल ।
विशेष-इसको १४ प्रतियां है।
Opening : '
६२०. चतुर्विशतितीर्थङ्कर पूजा
प्रणम्य श्री जिनाधीशे लब्धिसामस्तिसयुतम् । चतुर्विशति तीर्येश वक्ष्क्षे पूजा क्रमागताम् ।।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab
Closing I - - पश्चात् चतुर्विशति जिनमातृकास्थापनम् । Colophon: मिति भाद्रवा कृष्णपक्षे तिथौ च आज १३ तेरस शनि
चरवासरे सवत् १२६२ का । शाके १७५७ का प्रवर्त्तमाने लिप्यकृत मथेन राधा की सनवासरूपनगममध्ये पोथी लिखी । श्रीरस्तु मगल क्रियात् । श्री गुरुभ्यो नमः ॥ पोथी चोइम महाराज की पूजा सपूर्ण समाप्ता।
देखे-Catg. of Skt. & Pkt. MS , P 640.
८२१. चतुर्विशति जिन पूजा
Opening ।
Closing: Colophons
देखे, ऋ० ८१९ । देखें, ऋ० ८१६॥
इति श्री चतुर्विशतिजिनपूजा सम्पूर्णम् ।
८२२. चौबीसी पूजा
Opening : अलख लखत सब जगत के, रखवारे ऋषिनाथ ।
नाभिनद पदपन छवि, तिनहिं नवाऊँ माथ ।। Closing: • :- भव रूज में ठन वैद्यराज शिवतिय के भर्ती,
तिनचरण त्रिकाल त्रिशुद्ध है, नमिनमिनित आनद धरत ।
जिन वर्तमान, पूजन शुभगमनरग संपूरन करत ॥ - Colophon: सवत् विक्रम द्विक सहस, तामे अडतीस ऊन ।
पांच कृष्ण वैशाख की, चद्रवार रिषम्लून ॥१॥ . नगर सहारनपुर विर्ष, सीताराम लिखत ।
भविजन वाचे भावसो, पाठक पाठ,पढंत ॥२॥ सवत् १९६२ शक १८२७ वैशाख कृष्णा ५ सोमदिने शुभम् ।
८२३. चौबीसी पूजा
Opening ·
वदी पार्टी परमगुरु, सुरगुरु वंदित जास। विधनहरम मेगलकरन, पूरन परम प्रकास ॥
,
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२५७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhrathsha & Hindi Manuscripte
(Puja Patha-Vidhana)
Closing 1
फामीजीनी फासीनाथ नऊवी अनंतरान ' मूलगद आठत
सुराम आदि जानियो। सजन अनेफ तिहा धर्मचद जी को नद वृदावन अग्रवाल
___ गोलगोती वानियो॥ तान रच्यो पाय मनालाल को सहाय वालबुद्धि अनुसार
सुनी सरहानियो । साम भूलचूक होय ताहि सोधि सुद्धकोज्यौ मोहि
अल्पबुद्धि जानि क्षमा उर आनियो । नही है।
Colophon:
८२४. चौबीस तीर्थङ्करपूजा
Opening : Closing :
देखे ऋ० ८२३ ।
जय विमलानदन हरि कृत वदन जगदानदन गद वर ।
भवताप निकन्दन तनकन मदन रहित सवदन नयन धर ।। नहीं हैं।
Colophon :
६२५. चौवीसी पूजा
Opening : देखें, क्र० ०२३ । । Closing
चौवीसो जिनराज को जजो अकसुनाय ।
इच्छा पूरन कर प्रभू, हे त्रिभुवन के राय ।। Colophonr इति श्री वर्तमान चौवीसी पाठ सम्पूर्णम् । कार्तिक कृष्ण |
स. १९६५वार शनि ।
८२६. चिन्तामणि पार्श्वनाथपूजा
Opening :
इन्द्रः चैत्यालय गत्वा वीक्ष्य यज्ञागसज्जिनान् । यागमडलपूजार्थ कर्माचरेदिद ॥१॥ धूपत्रीखण्डदेवदारोय गुग्गुल रगरंसिला। धृतरालश्च भाषाज्य व्यूलधपसग्रहादिकम् ॥
Closing .
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१६
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Bhre Devakumar Jain Oriental Library, Jarn, Siddhant Bhavan, Arman
Colophon:
इति चिंतामणिपार्श्वनाथ पूजा समाप्ता। '
देखें-Catg. of Skt & Pkt. Ms. P 641,
८२७ चिन्तामणि पार्श्वनाथपूजा
Opening -
जगद्गुरूजगद्देक जगदानन्ददायकम् । जगद्वद्य जगन्नाथ श्रीपार्श्व सस्तुवे जिनम् । जित्वा दाराति भवातरश्रेष्ठ
कर्मापर्वत ॥
Closing ;
Colophon::
Opening :
Closing
८२८. चितामणि पार्श्वनाथ पूजा , शान्त - ... ।
· जायते पुजयेद्यः १७ आपद विधिहारी सपदा सौख्यकारी, .. त्रिभुवन पदधारी सिद्धलोकानसूरी। जल वहुविध पूरै गधमाल्यादि साहे, जिनवर मुख विम्व पूजित भावभक्त्या ।। इति पूर्ण। '' ८२६, चिन्तामणि पार्श्वनाथ पूजा'
Colophon
Opening
Closing :
देखे, ऋ० ८२७ । । । दीर्घायु शुभगोत्रपुत्रवनिता -... "
• मागल्यमोक्षोद्यता." इति श्री चितामणिपार्श्वनाथवृहत्पूजा समाप्ता।
Colophon:
८३०, दसलाक्षण उद्यापन
Opening !
विमल गुणसमृद्ध भान विज्ञान शुद्धम्, अभयवन प्रचड चिन्मयूख प्रबडम् । बन दमविधमार मजते श्री विपार,
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratisha & Hindi Manuscripts
(Puja-Patha-Vidhana)
Closing i
Colophon:
प्रथम जिन विदक्ष श्रीधृताद्य जिनेशम् ।। दशधर्म प्रजा पूजा सुमतिसागरोदितम् । स्वर्गमोक्षप्रदा लोके, विश्वजीवहितप्रदाम् ।। इति दसलाक्षणोद्यापन समाप्तम् । देखे--(१) दि जि. अ. र., पृ. १२६ ।
(२) जि. र को., पृ. १६८ । (३) रा० सू० II, पृ० ६०॥ (४) रा० सू० III, पृ. ५४ (५) रा. सू० IV, पृ. ७६५ । (६) भ० स०, पृ० १६३, २००। (७) जै० म०प्र० स० I, पृ० ८७। '
८३१/१. दशलक्षण उद्यापन
Opening : Closing | Colophone
देखें, ऋ० ८३० । देखे, ऋ० ८३० ।
इति भोदशलक्षणोद्यापनपाठ सम्पूर्णम् । ८३१।२. दश लाक्षणीक व्रतोद्यापन ।
Opening :
Closing • Colophon 1
देखें, ऋ० ८३०। ।
उपवासपरोजातो ..' • 'विश्वजीवहितप्रदम् ।
इति श्री. दसलाक्षणी उद्यापन, जी सपूर्ण जेष्ठ कृष्ण ११ एकादश्या भोमवार १ वजे दोपहर को सवत् १९५५ आरामपुर निजगह मे बाबू हरीदास पूज्यदादा वृवावन जी के पोते वो पुज वाबू अजितदास के पुत्र ने लिखा।
८३२. दसलक्षण पूजा
उत्तम छिमा मारदव आर्जव भाव है, सत्य शौच सजम तप त्याग उपाव हैं। .
Opening 1
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*२८०
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Artob
Closing
Colophon
Opening :
Closing :
Colophon
Opening I
Closing
Colophon
Opening
Closing t
Colophon
Opening
after ब्रह्मचर्यं धर्मदस सार हैं, चहुगति दु:ख तं काढि मुकति करतार है ॥ करें कर्म की निर्जरा, भवपीजरा विनाश । अजर अमर पद कू लहे, द्यानत सुख की राश || इति दशलाक्षणी पूजा सपूर्णम् ।
८३३. दसलक्षण पूजा
उत्तमादि क्षमाद्यते ब्रह्मचर्य सुलक्षणम् । स्थापयद्दशधा धर्ममुत्तम जिनभाषितम् ॥
कोहानल चक्कर होइ गुरुक्कउ, जाइरिसिंद सिद्धः । जगताइ सुहरू धम्ममहातरू देइ फलाइ सुमिहुइ || इति दशलाक्षणी पूजा आरती सपूर्णम् ।
देखे - ( १ ) दि० जि० प्र० २०, पृ० १६५ ।
८३४. दसलक्षण पूजा
देखे - ० ८३३ ॥
देखें - क्र० ८३२ ।
1
इति श्री दशलाक्षणी पूजा सम्पूर्णम् ।
श्री सवत् १९५१ मिती वैशाखकृष्ण परिवा को सितल
प्रसादके पुत्र विमलदास ने चढ़ाया ।
८३५. दशलक्षण पूजा
देखें, क्र० ८३३ |
देखें, क्र० ८३२ ।
इति श्री दशलाक्षणी पूजा जी समाप्तम् ।
८३६. दर्शन सामायिक पाठ संग्रह
चतुविशति तीर्थङ्करेभ्यो नमः श्रीसरस्वतिभ्यो नमः ... !!
विशेष—अनेक पाठो का संग्रह किया गया है।
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२८१
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts (Puja Patha-Vidhāna )
f
Opening
Closing
Golophon :
Opening :
Closing
Colophon
Opening:
Closing
Colophon :
Opening :
Closing.
Colophon
८३७. देवपूजा
सुरपति
पूजा रचो ॥
की सकत समान विन सकते सरधा धरो । स्वागत मरधावान अजर-अमर सुख भोगवे ॥
इति ।
dab
६३६. देवपूजा
brood
ॐ अपवित्र पवित्रो वा सुस्थितो दुस्थितोपि वा । ध्यायेत् पचनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥
त्रीसंधान विवित्रकाव्यरचनामुच्चारयतो नरा
"
पुन्याढ्या मुनिराजको तिसहिता भूतातपो भूषणा. -
भण्या कला विवोधरूचिर सिद्धि लभते पराम्।। ।
$
इतिदेवपूजा समाप्तम् ।
विशेष - नेमिनाथ का वारहमासा भी इसके बाद मे दिया हुआ है ।
८३६. देवपूजा
DOO
जय जय जय नमोस्तु
३
सव्वसरहूण ॥१॥
हरीवशममुद्भूतो गरिष्टनेमिजिनेश्वर । ध्वन्तोपस दैत्यारिपामर्व नागेन्द्रपूजित ॥४॥ अनुपलब्ध
...
४०. देवपूजन
देखे – ०८१६ 1
दुःख को छै हो । कर्म का छय होहु ।
भली गतिविषै गमन होहु ।
1
इति शातिधास सम्पूर्णम् ।
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- २६२
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library Join. Siddhant Bhavan, Arrab
८४१. देवशास्त्रगुरु पूजा Opening :
देखें, ऋ० ८३६। Closing i जे तपसूरा संयमधीरा सिद्धिवभूअणुराइया ।
रयनत्तयरजिय कम्महगजिय ते रिसिवर मम झाइया । Colophon: इति देवशास्त्रगुरुपूजा जी समाप्तम् ।
जि० ग्र०र०, पृ० १९९१ ८४२. देवपूजा Opening : ___ॐ ह्रीं क्ष्वी स्नान स्थान भू भुदयतु स्वाहा। Closing | तुष्टि पुष्टिमनाकुलत्वममिल सौख्यत्रिय सपदो।
दद्यात्पुत्रकलित्रमित्रसहितेभ्यः श्रावकेभ्यः सदा ।। Colophon : इति न्हवण विधि सपूर्णम् ।।
देखे (१) दि. जि० प्र० २०, पृ० १६७ ।
८४३. धर्मचक्रपाठ Opening: आपदागम परारधो के, स्वामी सर्वज्ञ आप हौं ।
सुरिंद वृद सेव है, आपही को इसलोक मे ॥१॥ Colsing | वर्षत्वानद मोघा प्रशरतु सतत भद्रमाला विशाला,
... ... भोजयुग्मप्रसुते ॥ Colophoni इत्याचार्यवयं धर्मभूपणपदाभोजदिवाकरायमान श्री यशोनं.
दीसुरिभि• प्रणीत धर्मचक्रपाठ आश्विन शुक्ल प्रतिपदा वुद्धवार सवत् १९६२ आरामपुर में हरिदास ने लिखकर पूर्ण किया।
८४४. धर्मचक्रपाठ Opening : ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शना नम स्वाहा, ॐ ह्री सम्यग्ज्ञानाय
नमः । Closings ॐ ह्रीं मिश्रमिथ्यात प्रकृत श्री सिद्धदेवेभ्यो नमः स्वाहा । Colophoni अनुपलब्ध
५४५, धर्मचक्र पूजा Opening : ह्रींकारेणदृतोहन त्रिदलरसदल तद्वहित,
वीजजुग्म तद्वच्चवातराले सकलशशि मिव सेपयेत्परमेष्ठीन ।
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२८३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratasha & Hindi Manuscripts
( Puja-Patha-Vidhana)
Closing | Colophon:
पूर्वरत्नत्रया त्रिगुणवरयुता धर्मपंचद्विकेन तहत्यिधाष्टक यद्वधिकगुणयुत पूजयेद्भक्तिनम्रः ॥१॥
ॐ ह्री श्री वीरनाथाय नमः ॥२४॥ इति धर्मचक्रपूजा विधि समाप्ता। शुभ भवतु ।
Opening :
८४६. गणधरवलय पूजा जिनान् जितारातिगणान् गरिष्टान,
देशावधीन् सर्वपरावधीश्च । सत्कोष्ठवीजादिपदानुसारीन्,
स्तुवेमनेसानपि सद्गुणादौ ॥१॥ वरिगणिदसमर तह फिट्टइवाहि असेसलऊ ।
व पावय पासई होइ लगि महामुण सविसदजणण ।। इति।
Closing |
Clophon
Opening
८४७, गणधरवलय पूजा
प्रणम्य शिरसाहत पवित्रिस्तीर्थवारिभिः । गणीन्द्रवलयस्याने पूर्णकुंभ न्यासाम्यहम् ।।
" संपूजकाना इत्यादि शातिधारा । इति श्री गणधरबलम पूजा समाप्तः
Closing | Colophon :
Opening :
१४८. ग्रहशान्तिपूजा
जन्मलगन गोचर समै, रवि सुत पीडा देई । तव मुनिसुव्रत पूजये, पातक नास करेय ।। सगुन अधिकारी दुख हरभारी रोमादिक हरनस् ।
भूगु सुत दष जाई पाप मिटा (ई) पुष्पदत पूजत चरनम् ।। इति शुक्रारिष्ट निवारक पुष्पदत पूजा सम्पूर्णम् ।
Closing :
Colophon:
Opening
६४६. होमविधान
श्री शांनिनाथ ममरासुर मर्यनाथः, भाष्वति रीढमणि दीधित पादपह्वम ।
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२६४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Libraru. Jain Siddhant Bhavan, Arran
त्रैलोक्य शातिकरण प्रणव प्रणम्यः
होमोत्सवाय कुसुमाजलिमुक्षपामी ॥ Closing | निनने लिखदिनो होम को विधान जान,
पडित सु लक्ष्मीचाद नाम जु वखान है। भूल चूक होय जो भाई तुव सुधारि लिज्यो,
हमपर छिमाभाव मेरी यह आन है ॥ Colophon: इति सम्वत १९३० मिती चैत्रवदी १० राति आधी गई
रोज सोमवार ।
Opening :
८५०. होमविधान
शातिनाथ जिनाधीश वदिन त्रिदशेश्वरे । नत्वा शातिकमावक्ष्ये सर्वविघ्नोपशातये ॥१॥ ॐ ह्रीं क्रो प्रशस्ततर. सर्वदेवा ममाभिलषित सिद्धिं कृत्वा निज-निज स्थान गन्छतु ॐ स्वाहा । इत्याशाधर विरचित शात्यर्थ होम विधान सम्पूर्णम् ।
Closing :
Colophon
Closing
८५१. इन्द्रध्वजपूजा Opening | सकलकेवलज्ञानप्रकाशक, सकलकर्मविपाटन सद्भवम् ।
सकलचिन्मय ज्योतिनिवासक, सकलधर्मध्वजाकित सद्रथम् ।
पद्मपुरुषपद्मसमानमति, पद्मालयासजमुक्तिभागी। तन्मगल भव्यजनाय कुर्यात् सुरोजचिन्ताक्तिविश्व
दृष्टि . ।। Colophoni इति रुचिकगिरिउत्तरदिक, चैत्यालयपूजा समाप्ता। इति
श्रीविशान कीतित्यात्मज विश्वभूषणभट्टारक विरचिताया इन्द्रध्वजपूजा समाप्ता। मिति माघ कृष्णपक्षे ६ म्या शुक्रवासरे सवत् १९१० ।
देखें-(१) दि० जि० ग्र० र० पृ० १७३ ।
(२) जि. र०, को, पृ० ४० ।
(३) रा० सू० II, पृ० ५७, ३०६ } (४) रा० सू० HI, पृ० ५., १६८ ॥
(५) आ० मृ०, पृ० १७१।
८५२. इन्द्रध्वजपूजा Opening . देखें, १० ८.१ ।
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२८५ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Adabhrath sha & Hind Manuscripts
( Puja-Patha-Vidhana)
Closing : देखे, ऋ० ८५१ । । Colophone देखे, का ८५१ ।
श्रीसवत् १९५१ मी. वैशाख कृष्ण परिवा को सितलप्रसाद के पुत्र विमलदास ने चडाया पचायती मदिर जी मे १९५३ ।
८५३ इन्द्रध्वजपूजा
Opening : सकलमेत्र कथामृततर्पक, सकलचारूचरित्रप्रभासतम् ।
सकलमोहमहातमघातक सकलकलासप्रवासकम् ॥ Closing : देखें, क० ८५१ । Colophon : इति श्री विशालकीात्मज विश्वभूषगभट्टारक विरचिताया
इन्द्रध्वज पूजा समाप्ता। सम्वत् १८७० ज्येष्ठ शुक्ल एकादस्या बुधवासरे पुस्तकमिद रघुनाय शर्मने लेखि पट्टनपुर मध्ये। शुभमस्तु । पुस्तक सख्या ३६००। लाला शकर लाल रतन चद के माथे के ।
८५४. जन्मकल्याणक अभिषेक जयमाला Opening ! श्रीमत श्री जिनराज "पूजा च मेरौ कृतम् ॥ Closing ! जिनवर, वरमाता " लभते विमुक्ति ॥ Colophon! - इति श्री जन्मकल्याणक अभिषेक की जयमाला सम्पूर्णम् ।
८५५. जापविधि Openings ____ॐक्षा क्षी ऑक्षौ क्ष स्वाहा । Closing ! दर्शन दे चाहै तो एक लाक्ष जाप करै दिन तौनि उपवास के
पारने चरमोवाह लाल वस्त्र लाल माला कनर के फूल करणा तेज
प्रताप अपि करें। Colophon: इति जाप विधि सम्पूर्णम् ।
८५६. जिनपचकल्याणक जयमाला Opening! जिनेन्द्रपदाब्जयुग प्रणम्य स्वर्गावर्गार्थ कर कराणा।
सुरासुरेद्रादिमिरचनीय तस्यवभक्त्यास्तवन करिष्ये ।।
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२९६
थी जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jizin Siddhant Bhavan, Arcob
Glosing
विद्याभूषणसूरिपादयुगल नत्वाकृत सार्थक, स्तोत्र श्री सुषदायक मुनिनुतः सगर्भित सुदरम् । चच्चारुचरित्रपचकयुत श्री भूषण भूषण, तीर्थंशैर्गुणगु फित कृतकर प्रण्य सदाशकरमं ।। इति जिन पंचकल्याणक जयमाला सम्पूर्णम् । ८५७. जिनेन्द्रकल्याणाम्युदय (विद्यानुवादाग)
Colophon :
Opening :
लक्ष्मी दिशतु वो यस्य ज्ञानादर्श जगत्रयम् । न्यदीपि स जिन श्रीमान्नाभेयो नौरिवाम्बुधौ ॥१॥ माङ्गल्यमुत्तम जीयाच्छरण्य यद्र जोहरम् । निरहस्यमरिध्न तत्पञ्चब्रह्मत्क मह ॥२॥ तिथिरेकगुणा प्रोक्ता नक्षत्र द्विगुण भवेत् । लग्नन्तु त्रिगुण तेषा शुभाशुभफल भवेत् ।। अनुपत्नब्ध।
Closing,
Colophon :
८५८. जिनयशफलोदय Opening :
सर्वज्ञ' सर्वविद्यानां विधातार जिनाधिपम् । हिरण्यगर्भ नाभेय वन्देऽहं विवुधाचितम् ॥१॥
अन्यानपि जिनान्नत्वा तथागणधरादिकान् ।
कथ्यते मुक्तिसम्प्राप्त्यं जिनयज्ञफलोदय, ॥२॥ Closing :
द्विसहस्रमिद प्रोक्त शास्त्र ग्रन्थप्रमाणत:। पञ्चाशदुत्तर सप्तशतश्लोकश्च सगतम् ।।४२७।। पञ्चाशत्तिशतीयुक्तसहनशकवत्सरे।।
ल्पवंगे श्रुतपञ्चम्याज्येण्ढेमासि प्रतिष्ठितम् ।।४२६॥ Colophon:
इत्याचे श्रीमत्कल्याणकीतिमुनीन्द्रविरचिते जिनयज्ञफलोदय विप्रभट्ट हेमप्रभादिकृत जिन यज्ञाष्टविधानाख्यवर्णन नाम नवमो लम्ब समाप्तः। अस्मिन् ग्रथे स्थितानि श्लोकानि २७५०॥ करकृतमपराध क्षतुमर्हति सत इति प्रार्थयामि ।
अय जिनयज्ञफलौदयो नाम ग्रथ. वैगुपुर (जैन मूडविन्द्री) निवासिना नेमिराजाख्येत लिखित । रक्ताक्षिसवत्सरे फाल्गुनशुद्धा ष्टम्या समाप्नश्याभूत ।
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२८७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
( Pūjā Pasha-Vidhana )
८५६. जिनप्रतिमा स्थापन प्रवन्ध
Opening : श्रीजिन वदउ चौवीस, सविगणघर नइ नामु मीस ।
श्री सदगुरुना चरण नमेषि, मनि समारु शारद देवि ॥ Closing
सबत् सोलसतोतर कार्तिक शुदि तेरसि वारइ गुरइ । भणता गुणता अणद करप, नदउजा जिन धर्म
विस्तरइ ।।६१॥ Colophon :
इति श्रीमहाविरचिते गिनप्रतिमास्थापनप्रवधै सम्पूर्णम् ।
८६०. जिनपुरदरवृतोद्यापन Opening : श्री मदादिजिनं नौमि पचफरयाणनायक ।
इंसादिभिर्देवगणे पूजित्त अप्टधाश्च ते ।। Closing: धर्मवृद्धि जयमगलमान राज ऋद्धिप्रददाति समाज जपापताप
दुःखरोगविनाप कुर्वते जिनपुरदरखासः । इत्याशीर्वाद, । Colophone इति श्रीजिनपुरदरपूजा उद्यापन समाप्तम् । मिति मार्ग
शिर (गोर्ष वदो । भौमवासरे सम्वत् १९३२ लिखत रामगोपाल ब्राह्मण।
८६१. फलिकुड पार्षनाथ पूजा Opening : __ हूँफार ब्रह्मरुद्र - - ।
... विद्याविनासे प्रयुक्तम् ॥१॥ Closing : तरलतरो - . .
राजहसोवाताह ।। olophon:
इति कलिकुछ स्वामी पूजन सम्पूर्णम् । ८६२. कलिकुडल पुजा
Opening |
कार ब्रह्मरुद्र स्वरपरिकलित वजरेवाष्टभिन्न, चजस्यानातराले प्रणवमनुपमानाहत ससृणि च । वर्ना ताद्यानसपिंडान् --
दुष्टविद्याविनासी ॥१॥
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२८८
धीर्जन सिद्धान्त भवन अन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab
Closing :
इति परमजिनेन्द्र विनुतमहिंद यहः कलिकुडमरवड खडद्वय । पूजयति सजयति स्तुतिकृतिमयति प्रतिसिव मुक्तभुदयं ।। इति कलिकु डल पूजा समाप्तम् ।
Colophon:
८६३. कलिण्डाराधना विधान
Opening : सत्पुष्पधाम्ना प्रविराजितेन पुष्पेण पूर्णन सुपल्लवेम ।
सम्मगलार्थ कलिकुंडदेवम् उपानभूमौ समलकरोमि ।। शुद्ध न शुद्धह्रदकूपवापीगगातटाकादिनामावृतेन ।
शीतेन तोयेन सुगधिनाहं भक्त्याभिषिञ्चे कलिकुण्डयन्त्रम् । Closing: कलिलदहनदक्ष योगियोगोपलक्षम्
ह्याविकुलकलिकुडो दडपार्श्वप्रचडम् शिवसुखमभवद्धा वासवल्ली वसन्तम्
प्रतिदिनमहमीडे वर्द्ध मानल्य सिद्धयै ।। विशेष-प्रशस्ति सरह ( श्री जैनसिद्धान्तभवन ) द्वारा प्रकाशित पृ०६६
मे संपादकभूजवली शास्त्री ने ग्रन्थ के बारे लिखा है-इम कलिकूण्डाराधना' के आदि मे कलिकुण्डयन्त एवं श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा का अभिषेक, भूमिशुद्धि, पञ्चगुरुपूजा और चत्तारि अर्घ्य निर्दिष्ट हैं। वाद पार्श्वनाथ पजा एव इन्ही की मन्त्रस्तुति धरयोन्द्र यक्ष और पद्मावती यक्षी की पूजा तथा इनके मन्त्र स्तोत्र दिये गये हैं। इसके उपरान्त मत्र लिखने की विधि और फल इत्यादि का निर्देश करते हुए प्रस्तुत मन्त्र की पूजा बतलाई गयी हैं। अन्तमै यन्त्रीय मंत्र की स्तुति, मंत्रस्थ पिश्डाक्षरोका अर्ध्य, अष्टमातृका की पूजा, मन्त्रपुष्प और जयमाला लिखी गयी है। इसके कर्ता भी अभी तक आज्ञात ही है।
९६४. कर्मदहन पाठ भाषा
Openings
लोक शिखर तन छाडि अमूरति हो रहैं । चेतन ज्ञान सुभाव गेहत भिन्न भये ।। लोकालोक सुकाल तीन सव विधिधनी । . जाने सो सिद्धदेव जजो बहु भुति उनी।
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Closing.
Colophon :
Catalogue of Sanekr Prakrit. Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Puja Patha-Vidhāna )
Opening Closing!
Colophon :
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Colophon
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Openmg * 1, Closing !
भयकर्म ताकी होय उद सुनि भाई रे । तत्र जिय उरकपाय चेत मन भा
नही है ।
८६५. कर्मडन पूजा
देखें क्र० ८ ६४ ।
इति श्री कर्मदहन पूजा पाठ ममाप्तम् । मिती वैशाख कृष्ण परिवा ( प्रतिपदा ) को विमलदास ने चढाया ।
'
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प्रमो सिद्ध सिद्ध कार, भक्तिं महा मनलाय | पूजो सो शिवसुख लहैं, और कहा अधिकाय ॥
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८६६. कर्मदहन पुजा
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सकलकर्म विमुक्ताय सिद्धाय परमेष्ठिने । नमोनेकातरूपाय सिद्धाय शिवसणे ॥
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८६७. कर्मदहन- पूज
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आनदाद्भुतधन्यधामनगरी मा पद्मपद्माकरी | चर्चा मा भवता शिवभवतु श्रेयस्करी शकरी ॥ इति श्री कर्मदहनपूजा समाप्ता ॥
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देखें—(१) दि० जि० ग्रं० २०, पृ० १७६, १७७ ।
ין
९८६
श्री सम्वत् १६५१
शीतलप्रसाद के पुत्र intel'
(२) जि० २० को०, पृ० ७१
1
(२) आ० सू० पृ० २२ ।
५०
~ (४) Cafg.:' of 'Skt. & Pkt. Ms.; P25 631,
के
ॐ उर्द्धा षोरयूत "-" ॥ विशेष-अपूर्ण
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२९...
बी जैन सिद्धान्त भवन प्रन्यावली Shri Devakumar Jain Orrental Library, Jain Siddhant Fhayan, Arroh .
६६८. कर्मदहन पूजा .
.
Opening I देखें-क० ८१५ ।
Closing . देखे-क्र. ८६६ । Colophoni इति कर्मदहनपूजा सपूर्णम् ।
इदं कर्मदहनपूजाव्रजपालदासक्यात्मज जिनणरदासन लिखपिता ।।
स्वय पठनाय ।।
.. ८६६ कर्मदहन पूजा Opening । देखे ऋ० १५। Closing | देखे, ऋ० ८६६ । Colophone आशीर्वाद । इति कर्मदहनपूजा ममाप्ता। अथ स.या
३३५ । शुभ भवतु।
८७०. कमदहन पूजा Opening: । देखें-०१५ - Closing: देखें-०६६। ।
इति कम दहन पूजा सपूर्णम् । -
- Colophon's "शुभमस्तु ।
ni:: . .. १७१. कर्मदहन पूजा OPenings देखें-०.८१५!... Closing:: .. या धमकनिबन्धन - यमानन्दवा ॥ Colophon: इति सूरि श्री वादिचन्द्रकृता श्री कर्मदहनपूजा समाप्ता।
६७२. क्षेत्रपाल पूजा,
17
८७२
Opening:
श्री काष्ठासंघ वरपूर्णचन्द सर्वज्ञवयं प्रणिपस्य
श्री क्षेत्रपालोत्तमपूजनस्य, विचिपृवक्ये विधि ननिमतः ॥
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Catalorints Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Adabhramsha & Hindi Manuscripts
..... ... ....९९१ (Paja.Patha-Vidhana)
Closing :
पुत्राश्च मित्राणि कलत्रवधून, सच्चद्रकीतिरमणी सरूपाः ।
श्री क्षेत्रपालोग्रतरप्रभावा दायांतु ते सर्व समी हितानि ।। colophon: इति क्षेत्रपालपूजा समाप्तम् । शुभ सवत् १९३६ पौषशुक्ल
पौषचंद्रवासरे लि० अनसुखेन । शुभ भूयात् । । विशेष-सबसे अन्त मे एक स्तुति भी लिखी गई है।
८७३. लघु सामायिक पाठ Opening • पडिकमामि भतेइरियाए विराहणाए अण्णगुत्ते अगमणे
निगमणे चक्कमणे पाणगमणे ... ... . । Closing : .. गुरव यातु वो नित्य, ज्ञानदर्शननायका ।
पारित्रार्णव भीराः मोक्षमार्गोपदेशकाः ।। Colophon! इति सामामिक स्तवन समाप्तम् ।
८७४. महाभिषेक विधान
Opening I . . .. भीमद्भिनिराजजन्मसमये स्नानक्रमप्रक्रिया,
मेरो निपषः पयोविनियः पूणे. सुवर्णात्मक. । .. काम याममितत्रिपाषरशतः शक्रादयश्चक्रिरे,
स्वामत्रार्यजनानुरागजननी जातोत्सवप्रस्तुचे ।। Closing पायोभिपातयामस्तदनुतजगता शतिये शातिधाराम् । Colophon - एव चाह क्रमेणपरिसमापित महाभिषवण कल्याणमहामह
विधानः समाप्तः।
८७५, महावीर जयमाल
. :
Opening I
,
अमृतसरसिहमो सुकृतांतहसो, भयकदनुजहसो मुक्तिमागंणहंस । करणविजयहसो भावदस्यहसो, जयतु वीसुवासे भग्येलेखासुखाय ॥२॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रन्यावली
२१२
Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain, Siddhant Bhavan, Arrah
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1
। इति श्री महावीर जयमाल समाप्तम् ।
अखिल सुरामती पचकल्याणकर्त्ता, त्रिदशचरणद्यर्ता दुःखसंदोहहर्त्ता । भवजलनिधितर्त्ता सिद्धिकाताविवर्त्ता, भवतु जगतिवीरो मेनीश मगलाय ॥१॥
८७६. मंदिरप्रतिष्ठा विधान
11
श्री मद्वीर जिनेशानं प्रणिपत्य महोदयम् । अह॑न्न॑व्य॑विधामस्य शुद्ध वक्ष्ये य॒थाग॒मम् । तिर्यग्प्रचारादशनिप्रयाता, द्वीज प्ररोहा 'चमखात्तयातात् कोटप्रवेशादपि वास्तुदेवा., चैत्यालय रक्षतु सर्वकालम् || अथाग्रे शांतिधारा कुर्यात् ।
नही है।
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८७७. मृत्यृजमयाराधना विधान
चंद्रपुराधिचंद्र चंद्राकं चद्रकातसंकाशम् । चद्रप्रभजिनमचे कुळदेंदुस्वारकी र्तिकाताशातम् || 1 अंत्यत भक्यानत देवचद्रसूर्याभिवद्याग्रजिनेन्द्र भक्ता - ब्रह्मणिकाद्या उंररीकृतार्थ्यां सर्वोवमृत्यु' विनिवरियतेम् । अणिमादिगुणैश्यर्थशालिभ्येत्यष्टमांतर ।
याजकानां सुशात्यर्थं सुप्रसन्ना भवंतु ते ॥
नही है।
23
८७८ मूल संघकाष्ठा संधी
श्रीमनु मन्दिरं मस्तके
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जैनाभिषेकोत्सवे ॥
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२६३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apadhramsha & Hindi 'Manuscripts
( Puja-Patha-Vidhāna )
Closing I Colophon :
... ". वितरनिल्पाय पटुपटह वज्जिय कहत .... .. ।
Missing ८७६. नन्दीश्वर विधान
ग
. Opening I. नदीश्वर पूरव दिशा, तेरह श्री जिनगेह ।
""आह्वानन सिनको करौं, मन वच तनधरिनेह ॥' Closing ... मध्यलोक जिनभवन, अकीतिम ताको पाठ पढे मन लाइ ।
... - जाके पुष तनी अति महिमा वरनन को कति सकै बनाई ।। . . . , , , ... साके पुत्र पौष अरू. सपति वाढ अधिक सरस सुखदाइ ।
" इह भव पशं परभव सुखदाई, सुरनर पदलहिं शिवपुर जाई ।। Colophon, इति श्री नंदीश्वर दीप की उत्तर दिशि सम्बन्धी एक अजन
गिरि चार दधिमुख गिरि आठ रतिझर गिरि पर त्रयोदश सिद्धकूट विव विराजमान' तिनकी पूजा सम्पूर्ण '
८० नन्दीश्वर विधान
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Closing :
Colopohn:
:
अष्टमदीप नदीश्वर बहु विस्तार है। - ताके च (ह) दिसि बावन गिरि मनिधारि है।
सामान ( सामान्य ) भाव असे जानि लेना और विशेष भाव अन्य शास्त्र से जानि लेना। इस मडल की नकल शुभा-आकारकारणी।
इति समुच्चय जयमाल,श्री नदीश्वर पूजा चार दिस सबधी वयपचासजिनालय टेक चद कृत सपूर्णम् ।। . . . पोष सुदी आठ विमल वोरभृगौ पहिचान ।
। सवत्सर ('उन्नीस) से अधिक इक्यावन मान ॥ संवत् १९५१ लिखत ५० चौधे चतुरभुज पदैरी वारन की। (वालेकी)
९९१. नवग्रह अरिष्ट निवारणक पूजा
Opening!
अर्कश्चद्रकुज सौम्यगुरुशुक्रशनीश्वर । राहुकेतुग्रहारिष्टनाशनं जिनपूजमात् ॥१॥ -
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बी जैन सिद्धान्त भवनमावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, drrah
Closing |
चौबीसी जिनदेव प्रभु ग्रह बधो विचार । फुनि पूजौं प्रत्येक तुम जो पायो सुखसार ॥ इति नवग्रह पूजा सम्पूर्णम् ।
Colophon
८५२. नवकार पच्चीसी . मुषकू ढके बोलइ या परधम के हरइ यो करूनान माके
Opening! .
हिये है।
' Closing:
.
यह नवकार सु पर्व पद नपो सुमनवचकाय । सकलकर्मनासकरि पचमगति को जाय ॥२६॥
वकारपचीसी समाप्त.। मिति ज्येष्ठ शुक्ल उदश्या सर्वत् १९९३ साल ।
Opening
Closing. Colophone
1. ना दी मंगल विधान सनदरीनिर्मितमगलादिक नादीविधान क्रियतेत्रशोभनम् । पृथग्विनि त्वयि जिनाचनततो जलादिभिर्ग विशेष.
कमुदा॥ ॐ कपिल घटुकपिगलाय क्ली ब्ली स्वा लो' ही पुष्पवत इति नादीविधान सपूर्ण । ४ नान्दीमंगवविधान -
सौपट
Opening: -
। Closing: Golophon:
. यांतु श्रीपादपध्नानि पचानापरमेष्ठिना।
ललितानि.सुराधीश घडामणि मरीचिभिः ।। यों ह्रीं भद्रासनप्रिय स्वाहा पट्टस्थापनम् । इति नादी मगलविधान समाप्तम् । शुभभूयादिति च ।
Opening : .. Closing i
१५. नित्यनियम पूजा
सौनन्ध्यसातमधुवत . . . जिनौतमानाम् ।। सुखदेवो दुखमेटिवो .. .. पार्वपद निर्वाण
:
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripta
( Puja-Patha-Vidhāna ) Colophone इति विनय सपूर्ण। .. -
विशेष-नित्य करने वाली पूजाएं इसमे सकलित हैं ।
६८६. नित्यनियम पूजा । विशेष--प्रारम्भ के पत्र जीर्ण है तथा अन्तिम पत्र अनुपलब्ध है ।
१७. नित्यनियम पूजा संग्रह Opening! जय जय जय णमोऽस्तु णमोऽस्तु --- ।
Closing : कीजे सकत समान।. ...... सुख भोगवं ।। Colophon इति भाषा आरती सम्पूर्णम् ।
८८८. निर्वाण पूजा Opening:
ॐ नम सिद्ध भ्यः इत्यादि स्थापना । Glosing : से पठतियाल णिन्युईकट भावसुद्धीये ।
भुजीवि परसुरसुक्ख वाच्छा सो लहई णिव्वाण ॥ Colophon: इति श्री निर्वाणकार सम्पूर्णम् । कार्तिकशुक्ल २ सवत्
१९३५ भोम-शुभम् । . . .
__८८६. पंचमंगल Opening : . . पनविविपच परमगुरु गुरु जिन शासन । . ... - । सकल सिद्धिदातार सुविधनविनाशन ।।
. . सारद अरुगुरु गोतम सुमति प्रकाशन ।
i... मगल करि च सगहि पाप प्रनासन ।। Closing : ' . पाये तो आठो सिद्धि : :. सिनमये ।। Colophont , इति पंचमगल सम्पूर्णम् । . . .
२०. पंचमीवतोद्यापन Opening
श्रीमन्छनाघ्ररसनाच्चितपाद पद्म, पपासनं हरि निधाय पद स्वभावाम् ।
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बीजन सिद्धान्त भवन अन्थावली Shri Devakumar Jarð Oriental Librari, Jan'siddkänt Bhavan, Arrab
Closing:
यस्तावान् शिवपदे ऋशमाकृतोय, - सस्थापयविविधिवर्णयुतेच्युततम् 1. . जगति विदति कीर्तेरामकीर्तसुमप्पी, जिनपतिपदभवतो हर्षनामासुधीर क्वचिन उदयसुनुनेन कल्लाणभूमी' .. 'विधिरयमेवनीमाम.क्षसानसौख्य ददातु ।।" • इति श्री आशीर्वाद । । इति पचमी व्रत उधापन समाप्ता । देखे-(१) दि० जि० न० २०, पृ० १८६ । .' (२)जि. र० को०, पृ० २२७ । : ' (३) रा. सू II, पृ. ६४।।
Colophon:
. 1,
" !
८६१. पंचमेठ पूजा Opening: मोपडाय - ... प्रतिमा समस्ता ॥
Closing . पचमेरू की औरती ... ... सुख होई ॥ Colophon!.. इति श्री पचमेरू की पूजा जी सम्पूर्ण । '
विशेष-साथ मे नदीश्वर पूजा भी हैं !.:
८९२. पचपरमेष्ठा पूजा
inita +
Opening I कल्याणकीत्तिकमला - "" प्रवक्ष्ये ।।१।। Closing : सिद्धि वृद्धि समृद्धि प्रथयंतु तरणिस्फूर्यदुच्च प्रताप' -
कांति शाति समधि वितरंतु भवतामुत्तमासाधु भक्तिः॥१६॥ Colophon | पचपरमेष्टि पूजाविधान संपूर्णम् ॥६॥ (१८७५ ) अब्देवाण
नगाहिशीत किरण संख्या मिते कात्तिकस्थेतोर्वीधराकन्यका सुततियो " शीतापुत्राहनि । पूर्णाकारि जिनेन्द्र भूषणपते शिष्येण संषालिपिगौपक्ष्माभृतिरन्नसागर इति ख्याति : गतेनाच्यया ॥१॥ MAP देखें-(१) दि जि०म०.२०, पृ० १८७ . (२) जि. र० को०, पृ० २२५ ।"
(३) रा. सू०,६ ३१४ । samme . . (४) रा. सू० ॥1, पृ०"५७१।
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२९७ Catalogue of Sa iskrit. Prakeit Apabhraidsha & Hindi Manuscripts
(Puja-Parha-Vidhana)
५) प्र. जै० सा०, पृ० १७२। (६) भा० म०, पृ० १३२ । (7) Catg of Skt. & Pkt Ms, P.662.
Opening! Closing:
८६३. पंचपरमेष्ठी पूजा देखे, ऋ० ८७२ । स्फूर्यन मनापतपनःप्रकटीकृतार्यान् धीधर्मभूषणपदावुज
चु विताले कर्तव्यमित्युदयता सुयशोभिनदि सूर सदतरूदयी करणक-।
हेतु ॥४॥ इति श्री गोदिता पवारमेष्ठि पूजाविधि समाप्ता ।।
Colophon
८६४. पंचपरमेष्ठी पूजा Opening
भगलमय मंगलकरन, पच परम पद सार ।
। असरन को एही सरन, उत्तम लोक मशार ।। Closing:
मार्गशीर्ष वदि षष्टमी, कुज दिन पूरण भाय ।
सवत्सर सत अष्टदश, साठ दोय अधिकाय ।। Colophon i इति श्री पचपरमेष्ठि भाषा पूजा सम्पूर्णम् । लिखत सुगनचद
श्रावक पाल्मग्राम मध्ये जेष्ठ शुक्ल २ बुधवार सवत् १९२७ ।
८६५. पंचपरमेष्ठी विधान
Opening! मन रजन भजन करम, पंच परमगुरु सार ।
पूजित पद सुरनर खगा, पवित है भवपार ।। Closing :
चौबीसो जिनदेव के, कल्यानक हितदाय ।
पृज सो मगल लह परभव शिवपुर पाय ॥ Colophon इति पच कल्यानक पूजा पाठ सपूर्ण सवत् १९९३ - पौष
मासे कृष्ण पक्षे गुरुवामरे पुस्तक लिख्यत आरामपुर मध्ये पडित हीरालाल जी.। लिखापित श्राविका वुटो बीी ने । शुभमस्तु ।
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२९.
पार्जन सिद्धान्त भवन अन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arroh
८६६. पंचपरमेष्ठी पाठ Opening ! देखें, ३० ६६२ । Closing ! देखें, ऋ० ८९३ । Colophon! इति,श्री, पचपरमेष्ठी पाठ संस्कृत श्री यशोमंदि आचार्य
कृत संपूर्ण ॥श्री शुभ सवत् १९३५ शाके १८००॥ चैत्रशुक्ल
गतुउपरि पचम्या रविवासरे भवरात्र शुभ दिन ।। सात वजे - दिन को लिखकरे तैयार भया ॥
सन्दर्भ के लिए देखें, 6 |
८६७. पंचकल्याणक पूजा
Opening
सिद्ध कल्याणवीज कलमलहरण पंचकल्याणयुक्तम् । स्फूर्जदेवेन्द्रवीज्यमुकुटमणिगणदिप्रियादारविदम् ॥ भक्ता नत्वा जिनेन्द्र सकलसुखकर कर्मवरलीकुठारम् ।
सर्वह पूजन व प्रवलभवभय शान्तिये श्री जिनानाम् ।। Cloving
त्रैलोक्येषु महोपरोद्भवसुख संसारकवाद्भुतम् ॥
मोक्षचापिदिशेतु 4 जिनवरा सर्वा त्मना सर्वदा ॥१॥ Colophone इति श्री पंचकल्याणकपूजा संपूर्णम् ॥
वारमा शुभस्थानेगगातटनिवासित लिखितत्वाशिवप्रसादेन , विप्रवशेन • धीमता ॥
देखें-(१) दि० जि० ० २०, पृ० ११४ ।
(a) Catg of Skt. & Pkt, Ms., P. 662.
.९८. पंचकल्याणक पूजा
Opening ! - ८९७ Closing देखें, 20 ६९७ ॥
इति श्री पंचकल्याणक पूजा जी 'सम्पूर्णम् । श्रावणमास अप तियो १३। मंवत् १६५३ ।।
Colophon
Page #499
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Opening 1
Closing :
Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhratasha & Hindi Manuscripts ( Puja Patha-Vidhāna )
८६. पंचकल्याणक - उधापन
Opening
Closing
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Opening 1
Closing:
Colophong
Opening Closing
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श्री श्री वीरनाथप्रणवत्यमुद्धविक्ष्ये जिनाना भुविपचकच । कल्याणकाना खलु कर्महान्यं गर्भावतारादिदिनादिर्कश्च ॥ Missing.
९००. पंचकल्याणक पूजा
श्री वरमातम कू नमू, नम्र शारदा माय । श्री गुरु कू परणाम करि, रचू पाठसुखदाय ॥
पढे मुन जे नर अरू नारी,
पाठ लिखावे जे परवीन ।
तिनके घर नित मंगल व्यापै,
मष्ट करम दुख होवे छोन ||
इति पंचकल्याणक भाषा पूजा सम्पूर्णम् ।
९०१. पंचकल्याणक पूजा
1
T
विश्वाशमय विश्वं चिदादददर्शय । भुवनt भोजभास्वत त जिनन्तोष्टुवीम्यह ॥१॥
गच्छे सारस्वतेयो भवददमयशा
1
कृंतमिदमपर पूज्यनतेनमव्यम् ॥
देखें क्र० ८६७१
609
इति श्री पंचकल्याणकपूजन समाप्तम् । -- १७४४ का० ० ११ मनीवार ।
९०२. पंचकल्याणक पाठ
२६६
सवत् १८७६
अनेकतर्क संकर्ष हर्षातितचुधोत्तमा, ॥
स्व नीचवयस्फूर्ति जीवात्श्री प्रतिवरधनम् ॥१३॥
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श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रत्यासी ३०० Shri Devakumar Jain Oriental Library Jain. Siddhant Bhavan, Arrab
Colophon:
इति श्री पंचकरयाणपाठसंस्कृत सपूर्णम् ॥ चैत्र कृष्ण अप्टमी शुक्रवासरे मवत् १९३६ दोपहर एक || शुभ ।।
१.३. पंचकल्याणक पाठ
Opening I ध्यानस्थित मोहविकारदर श्रीवीतरागम्
शिव मौग्यहेतु कठोरकग्धनहिरुपम् ।।५।। (पृष्ठ ४६) जय जय विलग्यानसंतपंण ॥ Closing I जयनय मुक्तिबधमवतर्पण III
९.४. पंचकल्याणक पाठ
Opening
Closing! Colopon:
देखें, क० ६७ | देखें, क० ८६७ । इति श्री पंचकल्याणकपाठ सम्पूर्णम् ।
Opening Closing
६०५. पचकल्याणकादि मंडल
श्रुतस्कन्ध मडलचित्र।
सोलहकारण मेंडला विशेष-- ३० मडलचित्र संग्रहीत हैं।
९०६. पद्मावती पूजा
Opening :
श्रीमत्पावैशमानस्य मोक्षसौख्यप्रदायकम् ।
वक्ष्ये पावती पूजां हस्तायूधानपूर्विका ।। Closing: , लक्ष्मीसौम्पकरा... • पावती पातुः व ॥ Colophoni इति श्री पावतीपूजा सम्पूर्णम् । ज्येष्ठं कृष्ण ११ बुध
वार सं० १९५५ बारह बजे दिन को लिखकर आम्पुर ( आरामपुर) निजगृह जन्मभूमि का पर हरिदास ने पूर्ण करी। सो जयवतहो? निशेष- इममे पार्श्वनाथ पूजा भी सगृहीत है ।।
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Catalogue of Sanokr Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Puja Patha-Vidhāna )
Opening
Closing Colophon
Opening:
Closing
Colophon
Opening
Closing
Colophon:
Opening
Closing :
Colophon :
,
०७. पद्मावती देवी पूजा
•
जगकुसुम कुस्कुम्म
गंभीरमधुरमनोहर :
इतिपद्यावती देवी पूजा सम्पूर्णम् ।
10.
पद्मावती ॥
९०. पद्मावतीदेवी पूजन
देखें, त्र० १०७ ।
सनोरगद्य सालिपुज
श्री
500 ...
1
वृद्धि क्षेत्रपाल अर्धनम् ॥
०६. पल्य, विधान पूजा
कुर्वन्तु मगलम् ॥
३०१
चत्वा संगौतम वीरं वांच्छिता प्रदायकम् ।
अवे पत्मविधानस्य यथा सूत्र हि पूजनम् ॥ हिएस्ति पाप भविना कृतार पूजेयमाप्तागमगोपरा च । धत्तं सुसौभाग्यपद सलील तनोषि सर्वत्र यशोभिरामम् ॥ नही है ।
१०. प्रतिष्ठा फल्प
विज्ञान विमल यस्य विशद विश्वगोचरम १ समस्तस्मै जिनेंद्राय सुरेन्द्रायचितात्रये ॥
इति प्रतिष्ठाद्वतीय कार्तीय दिवसक्रियास्,
य. करोति हि भव्यात्मा स. स्यात्कल्याणभाजनम् ।
इत्यार्षे श्रीमद्भट्टकिलकदेव सङ्गृहीते प्रतिष्ठाकल्प नाम्नि प्रये सूत्रस्थाने प्रतिष्ठा द्वितीय तृतीय दिवस विधि निरूपणीयो नामंकोनविंश परिच्छेद इत्यये ग्रयो भाद्रपद शुक्लदेशम्या तिथौ रात नेम जाहबयेन समालिख्य परिसमाप्तोऽभूद्द भद्ध भूयदिति । महावीर साक २४५२, १९२६ ईस्की ।
J
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३०२
श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Altub
Closing :
९११. प्रतिष्ठाकल्प टिप्पण (जिनसंहिता) Opening : . . श्रीमाघनन्दिसिद्धान्तचक्रवत्तितनूभव ।
कुमुदेन्दुरह वच्मि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणम् ॥१॥ - इति नियमिद यद्देवता अर्चन ये खलु विदति तेषो
'। भूतरो गापशाति । जगदखिलमदीप मित्रभाव प्रयातिस्वयममित गुणाढ्या ।
मुक्तिकाताविवश्या । Colophon: इति श्रीमाघनन्दिसिद्धातच कत्तिसुनचतुर्विधपाण्डत्यचकत्ति
श्रीवादिकुमुद वन्द्र पण्डितदवविरचिते प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणो यन्त्रार्चनविधिः समाप्त.।
अय च श्रावणशुद्धाष्टम्या लिखित्वा समाप्तोऽभूत् ॥ रान। नेमिराजठय ।। महावीर शक २४५१ कोधन सवत्सरः ।।
१ . ६१२. प्रतिष्ठा पाठ ...
Opening स्फूर्जकेवलिबोध सिन्ध विमरेयविन्दवद्भासते,
- यस्य श्रीपरमेष्ठिनो जिनपतेनिमेयसूनोस्त्रयम् ।
लोकाना सकलासुभृतकरूणया धर्मो द्वियोद्योतिन
स्तमै श्री मदनतचिनमय कलासवितेस्तानमः ।। Closing :
वसुविदुरिति - ... " तन्नमोस्तुहितषिणाम् ।। Clolophon. __ इति श्रीमत् कुदायोदय अधरविवामणि श्री जयसेनाचार्य
विरचित: प्रतिष्ठासार सम्पूर्णम् ।
देखें-(१) दि, जि. प र,पृ. १६६ ।
(२) जि. र. को,,पृ. २६१।।
() प्र० ० सा०, पृ० १७६ ॥ "९१३, प्रतिष्ठा पाठ' :
Opening 1
प्रणम्य स्वस्ति ऋद्धि'श्रीजानकातिप्रदायिने ... -1 निहाँ प्रथम मुहुर्तकामा सलिषीये ने - .
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Puja-Patha-Vidhana)
Closing:
.. वस्त्रापनयन ॐ श्री वः व वः स्वाहा .........।
तीष्ठ २ स्वाहाः॥ इति प्रतिष्ठाविधि सम्पूर्णम् ।
Colophon 1
६१३. प्रतिष्ठान मारोद्धार
Opening |
Closing |
जिनाधीशमह वरे विध्वस्ताशेषदोषकम् । ।। सर्वज्ञ सर्वशास्त्रस्य कर्तार त्रिजगत्प्रभुम् ।।
इति प्रतिष्ठातिलकोदिनक्रमात्करोति यो भव्यजनप्रमोदताम्। जिनप्रतिष्ठा परमार्थनिष्ठा सद्ब्रह्मय स्यत्यचिरात्
सुसौख्यम् । समाप्तोऽय ग्रन्थ । अषाढ शुक्ल द्वितीयाया तिथी रानू मेमिराजनामधेयेन सलिख्य समाप्त.। महावीरशक २४५२ ।
Colophon |
९१५. प्रतिष्ठासार संग्रह (६ परिच्छेद)
Opening ) , सिद्ध सिदात्म सद्भाव, विशुशानदर्शनम् ।
सिद्धशुद्धप्रमाणास्त्र, निरस्त परदर्शनम् ॥ Closing: छद्मथत्वात्प्रमाक्षाद्वा, यदत्र स्खलित मम ।
-समोध्य तरसुशास्त्रज्ञा कथयन्तु महर्षय ॥ Colophon :
इति श्री वसुनदि सैद्धान्तिक विरचिते प्रतिष्ठासग्रहे षष्ठः परिच्छेद। स्वस्ति श्री काष्ठासघं माथुग्गच्छे पुष्करगणे लोहापार्योम्नाये भट्टारक दित्त्रीपट्टाधीशा श्री १०८ राजेन्द्रकीर्तिदेवा स्तेषा 'शिष्य पंडित परमानन्देन रचितमिद शुभसवत्सरे १९४७ मिति फाल्गुण कृष्ण तृतीवायां गुरुवासरे पूर्वदिशायर्या सारनदेशे छपरा नगरे पार्वजिन स्यालये सध्याया गतसरतपटता रात्रौ । स्व शानावर्णीकर्मक्षयार्थम् ।
शुभमस्तु लेखकपाठकयो: कल्याणमस्तु विजयमस्तु सिद्धिरस्तु कीतिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु शान्तिररतु ।
देखें-(१) दि० 'जि० प्र० २०, पृ० १७० ।
(२) जि० २० को०, पृ० २६१ । (३) रा. सू० II, पृ० २०१, ३८६ ।
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३०४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
Opening
Closing i
Opening
Closing
(४) रा० सू० III, पृ० ५७ । ( ५ ) अ० सू० पृ० १९३ |
१६. प्रतिष्ठा विधान
नमो सदा भूयदरिघातार्धजोऽहंते । रहस्यभावतो लोकत्रयपूजाभावत ॥
नम्र ेन्द्रनन्दिमुकुटोरुस र प्रतिष्ठाप्राग्भाविकृत्यमजितजिन दिव्यमूर्ते । तोर्भुव शुभतमेरभितो विशोध्य पात्राणि तत्र सलिलाद्यपि
शोधयित्वा ॥ स्वस्तिश्री सुख सिद्धिऋद्धिविभव प्रख्यातय. पूज्यता, कीर्ति क्षेममगण्य पुण्यमहिमा दीर्घायुरारोग्यवत् । सौभाग्य धनधान्यमम्वदमय भद्र शुभ मंगलम्, भ्यान्द्रव्यजनस्य भास्वति जिनांधीशे प्रतिष्ठापिते ॥ विशेष - प्रशस्ति संग्रह ( श्री जैन सिद्धान्त भवन द्वारा प्रकासित ) पृ० १०४ में सम्पादक भुजबलीशास्त्री ने ग्रन्थ के बारे मे लिखा है - यह हस्तिमल्ल प्रतिष्ठा विधान मूडविद्री से प्रतिलिपि कराकर आया है। इसमे कर्ताका परिचय नही मिलता । परन्तु और अन्त में हस्तिमल्ल लिखा मिलता अवश्य है । से इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ का कर्त्ता हस्तिमल्ल माना गया है। "वीराचार्य सुपूज्यपाद जिनसेनाचार्य सभाषितो, यः पूर्वं गुणभद्रसूरिवसुनन्दन्द्रादिनन्द्य ज्जित |
कही भी ग्रन्थ
ग्रन्थ के आदि
इसी
चार हस्तिमल्लकथितो यमयेकसन्धीरितस्तेभ्यस्त्वाहृतसारमार्यरचित स्याज्जैनपूजाक्रम. । इस श्लोक से यह बात सिद्ध हो जाती है कि हस्तिमल्ल ने भी एक प्रतिष्ठा पाठ रचा है ।
९१७. प्रतिष्ठा विधि
T
T
प्रणम्य स्वस्ति ऋद्धि श्री ज्ञानकाति प्रदायिने । महावीरस्य विवस्य प्रवेश विधि लिस्यते ॥ इन्द्रावत्येश्वतर २ तिष्ठ २ स्वाहा ।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrite Apabhratisha & Hindi Manuscripts
Colophon : इति प्रतिष्ठाविधि सपूर्णम् । सवत् १९०९ का मि० चैत
२०६ शनि । श्री।
६१६. प्रकृतन्हवण
..
Opening
।
Closing
जो इह गगा पाणी ण, सुछेण वि विमलेण। - - जिण न्हावेह आनन्द जु, सुह पावेइ अचिरेण ॥
hor मायगतुरगहण सरह रहधरचामरिपरि चेयालियद्यकलमैयल महिलोल रहिणराहि उणीयरयो । ..पत्तोसि, समवसरणे असुइ हरण वियकालवारणम्, "" मयराण ण विणत्ते मुक्ताहल मालालुलेय तोरणम् ॥
।
.
.
Colophoni
६१९. पुण्याहवाचन . -Opening, . . . श्री शातिनाथममरासुरमूत्तिनाथ, . . . . . .भास्वकिरीटमणिदीधति पादपद्मम् । ..
प्रैलोक्यशातिकरण प्रणम्य, ".
होमोत्सवाय कुममांजलिमुक्षिपामि ॥ . Closing : ' ' श्री शातिरस्तु शिवमस्तु जयोस्तु नित्यमारोग्यमस्तु तवपुष्टि
'समृद्धिरस्तु कल्याणमस्तु सुखमस्तु सतानाभिवृद्धिरस्तु दीर्घायुरस्तु
कुल गोत्र धन तथास्तु । . Colophon ' ' इति पुण्याहवाचन सम्पूर्णम् FF THI
६२०..पुण्याहवाचन Opening ! . देखें, ०९१९ । Closngi : मुलगोत्र घन तथास्तु । ..., Colophone . इति पुण्याहवाचन सपूर्णम् । समाप्ताः ॥ श्री संवत्
१८६६ शकि १७३२ प्रमोद नमिसध्वरे श्रावणमासे शुफ्लपक्षेषष्टम्या
'लिखित- करिजान- गरे द
देवमनः रोय
स्वपठेनार्य
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Levokumar Jain Oriental Libruty, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
शामावणि कर्म, क्षयार्थम् ।
Closing i
Closing I
९२१. पुष्पाञ्जलि पूजा
जिन सस्थापयाम्यवाहवनादिविधानतः । सुदर्शन पुष्पांजलिवतविशुद्धये ॥ पुत्रपौत्रादिकविधनधान्यादिक ... ।
... " प्रान्पुयान्तरः ।। . इति मेघमाला व्रतपूजा जयमाला सम्पूर्णम् ।
देखें, (१) दि० जि० अ० २०, पृ. १६१ ॥
(२) जि. २० को०, पृ० १५४ ।
Coloption:
Opening:
१२२. पूजा संग्रह
ॐ जय जय जय नमोऽस्तु, ममोऽस्त, मोऽस्तु । मी अरिहताणं, पमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं नमो उवझायाण, णमो
लोए सम्वसाहूण। . closing : . आरतिय जोवइ कम्मइ धौवइ सग्गापवरगह लहुलईइ ।
• मंज मण भावइ सुह यावई, दीण वि कासु ण भासुई ॥ Colophon: अष्टान्हिकाया पूजा समाप्तम्। संवत् १९४७ मिति
भाषाढ़ शुक्ल नद्रवासरे लिखतं धनीराम पूज इंद्रप्रस्थ नगरे । शुभ भूयाद ।
Opening :
११३. रत्नत्रय पूजा
श्रीमंत सन्मति नरवा, श्रीमत: सुगुरुन्नपि।। श्रीमदागमतः श्रीमान्, वक्ष्ये रलत्रयविनम् ॥ विरमविरमसंगाग्मु च मुच प्रपंच, विसृज 'विसृज मोह-विद्धि विद्धि स्वतत्वम् । काम कलय वृत्त पश्य पश्य स्वरूपम्।
Closing ·
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१०७ Catalogue of Sanuket Prokril, Apobhromiho & Hindi Manuscripte
( Paja-Plpha-Vidhann )
कुरु कुरु पुरुषार्थ निवृतानंदहेतो। Colophone ति धी परिताचार्य श्री नरेन्द्रसेनविरपिते पारित पूजा
देखें-(१) दि. जि० प्र० २०, पृ० १६२ । ६२४. रत्नत्रय पूगा
Opening! देखें ३० ६२
Closing ! देने, *. १२. Colophon: पति श्री पदितापाय पोजिनमेन पिररित रत्नभय पूजा
भी समाप्तम् । श्री श्री।
६२६. रत्नत्रय पूजा
Opening : Closing :
देखें, प्रा० ६२३ ॥
पार्म मणि माणिका भार, पद-पद मगल जयकार । श्रीभूषण गुस्सद पाधार, ब्रह्ममान बोल सुविचार ॥ पति रत्नत्रय वन कया समाप्ता।
colophon
६२६. रत्नत्रय पूजा
Opening: Closing
देखें, ०६२।। एक सरूपप्रकाश निज वचन कहो नहि जाय । तीन भेद व्योहार सब, पानत को सुखदाम ॥ इति रत्नत्रयपूजा समाप्तम् ।
Colophon it
६२७. रत्नत्रय पूजा
Opening: ।
Closing Colophon:-
बहुगति फनि विषहरनमन, दुख पावक जलधार । शिवसुख सुधा सरोवरी, सम्यक या मिहार ।।
देखें, ०६२९ । इति श्री रत्नत्रयपूजा सम्पूर्णम् ।
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३०८
श्री जैन द्विान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumor Jain Oriental Library Jain Siddhant Bhuvan, Atrah
" ९२८ नत्रयं पूजा उदै यापन Opening I श्रीवर्द्धमानमानम्य गौतमादीश्च सद्गुरूम ।
• रत्नत्रयविधि-वक्ष्ये यथाम्नाय विमुक्तये । Closing : इत्य चारित्रमाला वैः कठे यो.विदधाति च।
शोभाविनितरा नूनं शीघ्र मुक्तिारमापतिः ।। Colophon:
इति विशालकीर्यात्मजो-भष्ट्रारक श्री विश्वभूषण विरचिते रत्नत्रयपाठोद्यापन पूजा समाप्ता। शुभम् । देखें-(१) दि० जि० अ० र०, पृ० १६३ ।
(३) जि०,२० को०, पृ. ३२७ । (३) आ. सू०, पृ० १२१॥
(४) रा०-सू० 111, पृ० १५६, ३०६, ३०६ ।
९२९. रत्नत्रय, पूजा Opening.,'. Cloning
यणद सुरगिरि संसि रविहिं जावतारणरकतर।
रयणत्तय जतसघ सयल' विरु सगल होऊ पवतइ.' Colophon: इति श्री रलत्रयपूजा जयमाल सपूणम् । विशेष -सवत् १९४० में पंचायती मदिर आरा में बढाया गया।
६३०. रत्नत्रय पूजा, Opening I ., .देखे, क्र.६७ Closing:
तद्विसर्जनद्वार प्रक्षालनात. पुष्पादिक मनुष्ठातृभ्यः तदनुमोदकेभ्यश्च वितीय शातीमामधीयान्' ' '
समतात्पुष्पाक्षत विकरेत् ॥ Colephon: इति श्री चरित्र पूजा संपूर्णम् समाप्ता। .:. १३१. रत्नत्रय जनमोल
___c.. Openings पाणवे प्पिण भाव विमलसहावे वीर जिणि दुगुणीह णिहि । मुरु गणेहर भाषिउँ विवह पयासिउ रगत्तय .. -
सुविहीण विहि ॥
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३०६ Catalople of Sanskrit. Prakrit. Apablirashi & Hindi Manuscripts
(Pilyi-Patha-Vidhina)
भदामामिनेय वामि दिगिएहाद विसेयपहरे वितणि । सरि निहरि जाएप्पिण पोगह सत्तिपमाण लए
पिण॥ पण मार गिउसारउवउपयटर जो आयर। मोगुर पर पुनर हा मंद्रसिदि विलासिणि अणु
Cloxing
Colophon .
९३२. रत्नत्रय जयमाल
Opening:
Clong ।
जय जय सदपर्णन पग मग निग्गन मोहमहातम तम्वारण । उपमग गगनदिवाकर मानगुणकर पग्ममुक्ति सुखकारण । पद पारिनल य गमायोगिय पवित्रधी ।
अभिप्रेतापमिद का ग प्राप्नोति पिर नर ।। इति नचाचारमनयगान मपूर्णम् । ६३३. ऋषिमंडल पूजा
Coleplica
Opening
Closing :
कर जुग जोरी गारदा, प्रनाम देवगुरुचर्न । ऋपिमल पूजा रची, श्री जिनयर पद सने । भवत् मम तप फ भू, मागिर वाव असेत । अद्धराम पूरन कियो, पद्रनाथ सकेत ॥ इति श्री ऋषिमडल पूजा सम्पूर्णम् । शुभ संवत् १९०१ मिति सावन सुदी मप्तमी पुस्तक लिखी गोरखपुर मंगर श्री पाश्यनाथ जिन त्यालये पठन हेतु भव्य जीवन के लिखायो लरला मानिकपद ।
Colophon :
६३४. ऋषिमंडल पूजा
Orening :
Closing: Colophon
देखें, ऋ० ८३३॥
देखें, ० ८३३ । इति श्री रिपमडल जत्र मबन्धी पूज'मम्पूर्णस् ।, शुभ सम्वत्
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बीजेन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Lrbrary, Jain Siddhant Bhavan, Arrab
१६६० मिती जेष्ठ कृष्ण ६ वार रविवार । सुत श्रीवीरनलाल के लेखक दुरगालाल ।
जैनी आरा मे रहे, काशीलगोत्र अग्रवाल ॥ अग्रेजी सरकार बहादुर ११ मई सन् १६०३ ।
Opening:
Closing
६३५. ऋषिमंडल पूजा
आद्य ताक्षरसलक्षमक्षर वाप्पयस्थितम् । अग्निज्वालासमानाद् विदुरेखासमन्वितम् ।।१।। यावन्मेरुमहीराशांक . .. "।
-- ऋषिमडलस्य तु महापूजा विधिनदतु ॥ ति श्री ऋषिमडल पूजाविधि समापिता.। देखे-Catg. of Skt & Pkt. Ma.,P. 629.
Clophon
Opening :
Closing
६३६. रूपचंद्र शतक
अपनी पद न विचारहु, अहो जगत के राय । भव वन क्षायक हार है, शिवपुर सुधि बिसराय ।। रूपचद सद् गुरुनिकी जनु बलिहारी जाइ।
आपुन व शिवपुरि गए, भव्यनु पथ दिखाइ ॥१०॥ इति श्री पाडे रूपचद कृत शतक सपूर्णम् । ६३७. सकलीकरण विधान
Colophons
Openings Closing .
Colophon
देखें, क्र. ०२६ । श्रीमद्रमस्तुमलवजितशामनाय,
निर्वासितासमवसाषकुशामनाय । धर्मावृष्टिपरिषिक्त य गत्रयाय,
देवादिदेववपरमेश्वरमोजिनाय ॥en इति स्तवनम्। -
देखे, (१) दि. जि० अ० २०, पृ. ११४ ॥ १३८. सकलौकरण विधान
देखें, २६ ।
Opening :
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhransha & Hindi Manuscripts
(Puję. Påtha-Vidhana )
Glosing । अनेन सिद्धार्थानभिम असर्वविघ्नोपशमनार्म सर्वदिक् क्षिपेत् । Colophon i इति श्री सकलीकरण विधानम् । शिशेष-अन्त में दिग्पाल एवं क्षेत्रपाल की अर्चना तेल, चंदन, गुण आदि से
करना लिखा है। अन्त मे छह यत्र-चित्र भी अकित है।
६३६, समवसरण पूजा
Opening :
Closing 1
प्रणमामि महावीर, पंचकल्याणनायकम् । केवलज्ञानसाम्राज्य लोकालोकप्रकाशकम् ॥१॥ श्रीमत्सर्वश
" । .. .. विवुधारस्नरचितम् ॥५॥ इति श्री समवसरण पूजा वृहत्पाठ सम्पूर्णम् । देखें-दि० जि प्र. र., पृ. १९५।
पृ.४१६
Colophon:
हातमा
Opening:
Closing:
९४०. समवश्रुति पूजा देखें • ६६६।
श्रीमत्सर्वशसेवा सन्दिसति मत ॥ १:-मृदुश्चर्य सुधाराशिः विवुधारनरजितम् ॥५॥
इति श्री समवश्रुतपूनावृहस्पीठ सपूर्णम् ॥ ९४१. सम्मेदशिखर माहात्म्य
Colophon:
Opening | पंच परमगुरु को नमो, दो कर शीश नवाया .
। श्री जिन भाषित भारती, ताको लागो पाय॥ Closing | - रेवाशहर मनोग, वसे-श्रावक भव्य सब।
• आदित्य आश्चर्ष-योग तृतीय पहर पूरणभयो । Colophon इति सम्मेद शिखर महात्म्ये लोहाचार्यानुसारेण भट्टारक श्री
जगत्कोति लालचद विरचिते सूवर कूट वर्णनो नाम एकविशमो सः । इति श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य जी सपूर्णम् । मिति चैत्र शुवल - रवीवार दस्तखत दुरगादास सवत् १९३७ साल । शुभमस्तु ।
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३१२
श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रत्यावली Shri Devulumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arlid
..६४२. सम्मेदशिखर पूजा Opening
सिद्धक्षेत्र तीरथ परम, है उत्कृष्ट सुथान । ..
सिखसम्मेद सदा नमो, होय पाप की हानि ।। Closing : सिविर सु पूजे-सदा जो मनवचतन चिनलाइ ।
दास जवाहिर यो कहीं, जो शिवपुर को जाइ । Colophon: इति श्री सम्मेदशिखरपूजा भाषा सपूर्णम् ।
..६४३, सम्मेद शिखर पूजा
Opening :
__ Closing :
परमपूज्य जिन वीस जहां ने शिव लये। . . . औरह वहुन मुनीश शिवाले सुखमये ।। " " , इत्यादि धनी महिमा अपार ।
प्रणमो: सीसधार।। । इति । ६४४. सरस्वती पूजा
Colophon:
Opening: मायातीत मयक मम, हरन ताप ममार ।
__ ऐसे जिन पद कमलप्रति, नमूटरन भवभार । Closing :... देखें, ऋ० ६४५ Colophon: .. इति सरस्वती पूजन समाप्तम् ।
१४५, सरस्वती पूजा Opening : देखें, ऋ० ६४४ । Closing, मंगलकारक.श्रीअरहत । सिद्ध चिदातम सूरिभर्नत ..
। पाठक सर्व साधागुणवत । सुमरि भव्य शिव सौख्य'लहत ।। Colophon . "इति सरस्वती पूजा समाप्तम्। संवत् . १९६२ शक ११२७
लि.५० सीताराम स्वकरण। . ६४६, सप्तषि पूजा ... Opening. विंशतीर्थकर वदे जिनेश मुनिसुव्रतम् ।
* सप्तचापिमुनीन्द्राणा पूजवः सुशातये ॥
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१३१३ Catalogue of Sanskrt Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
Puja-Patha-Vidhana)
Closing 1
श्री गच्छे मूलसघे जतियतितिलको जो भवत् कुदकुदा-, तस्पट्ट ज्ञानभूयाश्रुतजलधिरिव श्री जगत्भूषनाख्यः । • तत्पट्ट भूरिभागी कविरसरसिक विश्वभूषणकवेन्द्रः,
तेनेद पाठपूर्व रचित सुललित भव्यकल्याणकारी ।। इति सप्तऋषिको पाठ विश्वभूषणकृतममाप्त ९४७. सप्तर्षि पूजा .
Colophon :
Opening!
देखें, ऋ० १४६ । Closing ! देखें, क्र० ६४६ । . Colophon:
____ इति श्री भट्टारकविश्वभूषणकृत सप्तर्षि पूजाविधान समाप्तम् ।
सवत् १६५१ मिति वैशाख कृष्ण परिवा को शीतलप्रसाद के पुत्र विमलदास ने चढाया।
९४८. सप्तर्षि पूजा
Opening ! देखे, ऋ० ९४६ । ।
Closing | देखें ऋ० ६४६ । Colophone इति श्री भट्टारक विश्वभूषण कृत सप्तर्षिविपूजन विधान
समाप्तम् । चैत्रमासे कृष्णपक्षे तिथौ १४, सवत् १९५६ । श्रीरस्तु ।
९४९. षट्चतुर्थ जिनार्चन Opening ! नमोनेकातरचनाविधायिनो जिनेद्राय नमः । अथ षट्चतुर्थ
___ वर्तमानजिनार्चन समुदीरयामः यश. समानदति विष्टयत्रय " । Closing | शिवाभिरामायशिवाभिराम, शिवाभिरामाशिवाभि- रामः ।
शिवाभिरामप्रदक भजत्व, मुहुमुहुः भेविद किं वदामि ॥ Golophon: ____ इति श्री षट्चतुर्थवर्तमानाचर्चाशिवाभिरामावनिपसुनुकृता, भूततरेय समाप्त । सवत् १९३८ साल मिति कार्तिक वदी ११ वुध
वार के दिन समाप्त हुआ।
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३१४
श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली ilire Ierakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhunt Bhavan, Arrah
Opening :
Closing |
६५०. षण्णवतिक्षत्रपाल पूजा
वंदेह सन्मति देवं सन्मति मतिदायकम् ।। 'क्षेत्रपाला विधि वक्ष्ये भव्याना विघ्नहानये ॥१॥ 'श्रीमच्छीकाष्ठमधे यतिपतितिलके रामसेनस्य मधे गच्छेनदीतटाख्येतादिनिहभुखे तुच्छकर्मामुनीन्द्र ॥ ख्यातोसो विश्वसेनोविमलतरमतिये नगज्ञ चकार्षीत् सोऽय सुग्रामवासे भविजनकलिते क्षेत्रपाना शिवाय ॥२७॥
इति श्री विश्वसेनकृतापण्णवतिक्षेत्रपाल पूजा संपूर्ण ।। १५१. साद्वंद्वयदीप पूजा
Colophon
Opening: देखे, ऋ० ६५२ । Closing __ देखे, क्र० ६५२। Colophon ; इति श्री साई द्वयदीपस्थजिनाना पूजा सपूर्ण ॥
मगलम् लेखकाना च पाठकाना च मगलम् ।। मगल सर्वलोकाना भूमिभूपति मगलम् ।।
अग्रवालवशोद्भवेन लाला वृजपालदास तस्य पुत्र जिनवर सतु रविचक्षण गुण वानतस्य पुत्रः स्वाध्यायहेतवे लिखापितम् ।
'६५२. साद्वय द्वीपस्थजिन पूजा । ।
Opening : ऋषभावद्ध मानां, तान जिनान् नत्वा स्वभक्तित. ।
सार्टद्वयद्वीपजिनपूजा विरचयाम्यहम् ।। Closing : पष्टिर्णद्योविभगा विषयविरचिताश्चाद्विवक्षारनामा,
धाशीतिशमितास्युः कुनरजलधिगोद्वीपभूषन्नवश्च । क्षाराब्धिकालकाधिवयमपि जलधिलक्षपकतुर्य,
सद्यासयोजनानामिति नरधरनीस दिश् त्वद्ध काना । Colophon :! इति साद्धद्वयहीपस्थजिनाना पूजा सम्पूर्णम् । सवत् १८६०
माघमासे कृष्णपक्षे १३ रविवासरे समाप्तम् । लेखकपाठकयौश्चिर. जीवती। लिस्यत श्रीकाशीमध्ये राजमदिर शीतलाघाट ब्राह्मणशिवलाल जाति गौड । लीखाईत लाला शकरलाल लाला मनुलाल पठनार्थ परोपकारार्थम् ।
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३१५ Catal-gue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Puja.Patha-Vidhana)
९५३. सामयिक पाठ
Opening ।
Closing । Colophon:
देखें-० ८७३ । देखें-०८७३ ।
नही है। ६५४. शान्त्यष्टक
Opening | स्नेहाच्चरणं प्रयान्ति भगवम्पादद्वयन्ते प्रजा
हेतुस्तत्रविचित्रदुख निलय मसारघोराम्बुधिः । अत्यन्तस्फुग्दुप्ररश्मिनिकरव्याकीर्ण भूमडलो
प्रेम काल इतिन्दुपादसलिच्छायानुलाग रवि: ॥१॥ Closing. उत्तम नवमागल्य मध्यम सप्तमगल ।
जघन्या पचमागल्य यत्र मगल लक्षणम् ।। विषेश-यह प्रथ वीर निर्वाण सवत् २४४० मे लिखा।
९५५. शान्तिमंत्राभिषेक
Opening: ॐ नमो अहंते भगवते श्रीमते पावतीर्थकरायाः द्वादशागोपर
मेष्ठितायाः - - ... पवित्राय सर्वज्ञानाय स्वयभुवेः
सिद्धाय परमात्मने ... . Closing ! एकमत्रस्थित सिद्ध ... ... एकग्रहपरीक्षा । Colophon नहीं है।
Opening:
, ६५६, शान्तिपाठ ..
शातिजिन शशिनिर्मल वस्त्रां शीलगुणवतसंयमपात्रम् । अष्टसताचितलक्षणगात्रं । नौमिजिनोत्तममम्वुजनेत्र ॥१॥ मत्रहीनो क्रियाहीनो द्रव्यहीनो तथव च । त्वद्भक्ति न जानामि ला क्षमस्वपरमेश्वर ॥ वीर सबर २४३८ या पुस्तक आरावाने जगमोहन बा(भा)इ
Closing |
Colophon:
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श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrab
मैं पालीटाणा जैन दिगम्बर कार्यालय का मुनीम घरमबद
हस्तक लिखवाया। ९५७. शान्ति विधान
Opening : सारासारविचार करि तजि सशृति को भार ।
धाराधर निजध्यान की, भये मिन्धु भवपार | Closing : सम्बत् शन उगणीस दश श्रावण मप्तमि सेत ।
सरूपचद मुनि भक्ति वसि रची स्वपर दिए हेत ।। Colophon : इति वृहत गुरानी पूजा शातिक विधान सम्पूर्णम् ।
६५८: शान्ति विधान Opening : देखें, ०६१९ / - Closing :
. चैत्यादि भक्तित्रय चतुविशतिजिनेन्द्रस्तवन पठित्वा पनांग प्रणम्य न स्नेहाच्चरणमित्यादि शान्त्यष्टक पद स्वीकार च गोकगे.
गबुध । Golophon : इति हवन विधानमासीत्। शुभमस्तु ।
९५९. शांति धागा . • Opening. : उ ह्रीं श्रीं क्ली "
Closing . , . सर्वशांति तन्ति पुप्ति कुरु-कुरु स्वाहा ।। Colophon • इति लघु शांतिमत्र चाय १०८ निज संवत् १९४७ ॥ . भास वैशाख शुक्लपक्षे तेरस्याम् ॥१॥
९६०. सिद्धपूजा .. Opening: देखें, ऋ० ८१५॥ Closings असमसमयसारं ... मोभ्येति मुकि। Colophons . इति श्री सिद्धपूजा जी सपूर्णम् ।।
देखे, (१) दि. जि, प्र. र.,३००।
१६१. सिद्ध पूजा ...
Opening :
सिद्ध अनन्त सगुणमयी शुद्ध सरूपी देव। सुरनर नृपं नित ध्यान धरि प्रणमो करि बहु सेक ।।
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३१७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Puja-Patha-Vidhana)
Closing
Colophop :
काल भनत एफ समराजे । सुरनर नृप प्रणमे निज काजे ॥
नही हैं। ९६२. सिद्धचक्रवताख्यान
Opening
सिद्धार्य सिद्धये नत्वा मिसिद्धार्थनदनम् । सिद्धचक्रपताख्यान, ब्रुवे सूत्रानुसारत ॥ परवादी भविदारण के मरिहरि तीवनस्ततो ।
Closing :
Colophoni
नहीं है।
९६३. शिखर माहात्म्य
Opening :
Closing : Colophon:
देखे ऋ० १४१ । देखें, *. ६४१ । । देखें, ३० ६४१॥
बैशाखमाने कृष्ण पक्षे तियो : भौमवासरे मवत् १९३५ । ६६४. सिहासन प्रतिष्ठा
Opening :
श्री मीरजिनेशान प्रणिपत्य महोदयम् ।
मध्यज्ञानस्य सूत्रेण शुद्धि वक्ष्ये यथागमम् ॥ Closing : मलक्षय लुनिकोष्टिरोगविषमग्रहक्षयं कुर्वते ।
श्री मस्पार्वजिनेद्रपादयुगल ध्यानस्य गोदकम् ॥ colophon: इति शांतिधारा मपूर्णम् । इति मिहाननप्रतिष्ठा सम्पूर्णम् ।
शुभमस्तु । परितपरमानन्देन रचितमिदम् । श्री
भय पुण्याह कलश स्थापनम् ।
भवतेन पोतेन प लोहितेन, धर्मानुगगात् प्रविम्पिनेम । जिनस्य मत्रेण पवित्रनेन, मूषण कुभ मतिवेप्टयामि ।।
* नमो भगवते अमिलाना ही ह्रा ही समोपट निरर्प सूत्रेप माति म नेप्टयामि ।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रत्यावसी
bhri Devakumar Jain Oriental Library Jain. Siddhant Bhavan, Arri
Opening :
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६५. सोनह कारण जानाला
जम्मवुहितारण कुगद निवारण सोलहकारण शिवकरण पण विवि थुई भास मिसत्तिपयासमितिच्छ्यरतुलद्धिधरण ॥
सोलहमउम गुणइ य धुणविग्धु तारइ । जो जिण पाइ विदसणु आयरवि, तवहो इयुणुविशोतिथयरू ॥
इति श्री सोलाकारण जीकी सोला जयमालसपूर्णम् । मिती कार (कात्तिक) शुक्ला ३ सवत् १६५२ हस्ताक्षर गोविंद सिंह वर्मा | शुभ भूयात् ।
९६६. सो कारण उद्यापन
अनन्तसौख्य पदद विशाल पर गुणोध जिनदेव्यमेव्यम् । अनादिकाल प्रभव व्रतेश त्रिधाह्वाये षोडषकारण वै ॥
कते पिरोधपूजायामूलसघविदाग्रणी । सुमतिसागरदेवश्रद्धाषोडशकारणे ।
इति श्री षोडशकारणोद्यापनपाठः ।
ε६७. सुदर्शन पूजा
जबूदीप मझार राजत भरतराज अपार है । देशपाटलिपुत्र प्रणमी पुण्य पूजागार है ॥ मोक्ष मालागरहि डारला सेठ सुर्दशन है बली, ममहृदयसरिता समनमागर दुःखदारन को चली ॥
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छन्दशास्त्र जानी नहीं, क्षमं सुकविवर जान । भावभक्ति पूजन रच्यो आरा शुभ स्थान ॥ शुभ सम्वत् रचना रची, शत उन्नीस पचाल । मलमास तिथि पचमी अषाढ कृष्ण सुखरास ॥ इति श्री सेठ सुदर्शन पूजा सम्पूर्णम् ।
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramaha & Hindi Manuscripts (Puja-Patha-Vidhāna )
९६८ सुदर्शन पूजा
Opening
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देखें क्र० ६६७।
देखें, क्र० ६६७ ।
इति श्री मेठ दर्शन पूजा गम्पूर्णम् ।
९६२. थुकंध विधान
प्रथम नगन वनिक अनुष्टुभ एद जाति । ॐ नमो योगाय गुग्वे च नमो नमः । पुनमामि भारत्यैः यम्मा पनि मंगलम् ||१|| स्वेति बहुधातोर्वहुभक्तिपरायण: । नाना मनमानधं चाहि ममुद्धरेत् ||१० ll
ति श्री
ज्ञान श्रमम्यान पूजा जयमाल संपूर्ण । ॥श्रो ॥
६७
स्कंध पूजा
ॐ हो वद वद वाग्वादिनि भगवतिसरस्वति ही नमः । मम्यक्तसुरत्न सद्वतयत्न सफलजन्नुकणाकरणम् ।
सागरमेत भजतममेत निखिलजने परितः शरणम । इति श्री श्रुतस्कध पूजाविधिः समाप्तम् ।
७१. स्वस्ति विधान
सोख्यालयाश्चाष्टगुर्ण रिष्टा,
feat प्रणष्टाखिलकर्मवध,
महापुडरीक
नही है !
युषना स्ववोधेन विनिर्भ न ।
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स्वस्तिप्रदा केवलिनो भवतु ॥ परिपूरतम् ।।
...
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१२०
श्री जैन सिद्धान्त भवन मन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, 'Jain Siddhant Bhavan, Arinb
१७२. स्वाध्याय, पाठ
.
Opening |
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शुद्धज्ञानप्रकाशाय लोकालोकभावने । नम श्री वर्द्ध मानाय वर्द्धमान जिनेशिने ।। - उज्जोवणमृज्जवण णिव्वण साहण च णिटुवण ।' दसणणाणचरित्त तवाणमाराहणा भणिया ।। इतिस्वाध्यायपाठ सम्पूर्णम् । १७३. तेरह द्वीप विधान
Colophone
Opening I
" - Closing : Colophone
दश जनमत पूरन भइ, अब केवलदशमार। तिनको मुनि समुझ सुधी, परम शुद्धता धारि । उत्तरदिशि, सुविशाल, रुचिक नाम गिरिवर ॥ अनुपलब्ध। .
६७४. तीस चोबीसी पाठ
Opening !
Closing | Colophon !
श्रीमत सर्वविद्यशं नत्वा नयविशारदम् । .. कुर्वेह श्रेयमा. नित्य कारण दु खवारणम् ॥१॥
जयकारवि जिणवर ., .... भोरकहो ढाण गुणट्ठहर ॥ - इति श्री तीस चौबीमी:पाठ सम्पूर्णम् । .
६७५. तीस चतुर्विशति पूजा Opening · . मसारतापतप्तोह स्वामिन् शरणमागतः। -
विज्ञापया भोगेष निस्पृहो भगवद्वतः ।। Closing · देखे, ऋ० ८११। Colophony इति आचार्य श्री शुभचन्द्र विरचिता त्रिंशत्वतुविशतिका पूजा सम्पूर्णम् ।
देखें-(१) दि जि न र, पृ. २०३ ।
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Catalogue of Sanskrt Pral tit, Apabhramaha & Hindi Manuscripts ( Puja-Patha-Vidhāna )
६७३. तीस चांबीसी पूजा
Opening :
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Colophon 1
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Colophon
......
इति श्री तोमी का पाठ सम्पूर्णम् । मासे उत्तममासे मागमा कृष्ण शुक्रवारे मयत् १६१३ मे लिपी जुगी मल्ल, transcarrint कारम गोत्री पत्नीवार नवायगज के वामी ने लिखी नेमिनाथ चैत्यालये परिपूर्ण करी लनापुरी मे |
७७. त्रिकाल चतुविनि पूना
तान्
श्री निर्ममत सुमिद्ध व सिवत सदाही, तूरकरे जिनसामन उपत जागो मिय्यानम दूरी नसाही । द्वापरं श्रुत केयसि माघ सर्व प्रयरत्न धराही, पइतं परमेष्ठि महामवि जीवनको नित मगल दाही || छ र गत अगन की, भेद न जानो सार । पति गुनी सुपारियो, हिमा भाव उरधार ॥
मूर्तादिका लोहित भव्यपुण्यदाराधितायेत्रसुरेन्द्र वृ दैः ॥ पचकल्याणविभूतिभाजनीयं करान् मप्रितमचयामि ॥१॥ . अंतिसमाहि दिशति पहुजिणधम्मरत६ ॥ गुरुपडिमत्तइ भाविय हसति करेहु लहु ॥ ॥ इति त्रिकाल पूजाविधि समाप्ता ॥६०॥
७८. त्रिलोकसार पूजा
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वर्दी पांचो परमगुरु नमि जिनवाणी पायतोनलोक जिनवन को पूज रचों सुखदाय ॥
जो यह पाठ विचारि अकृत्रिम कृत्रिम गेहन को सुखदाई ।
तीन लोकजिनेन्द्र जर्ज अतिप्रीति करं बहु भक्ति बढ़ाई ॥
सो नर-लोकहि देव सुलोक-महीसुख भोगि अनुक्रम थाई ।
F मुक्तितिया पति जानि इर्म निति पूज करो जिन राजसु भाई ॥ इत्याशीर्वाद । इति श्री त्रिलोकसारपूजा पडित महाचद्र विरचिता समाप्तः ॥ फाल्गुन मासे । शुक्लपक्षे तिथों १२ भृगुवासरे संवत् १९५४ | श्री ।
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थी जैन सिद्धान्त भवन प्रन्थावली Shri Devakumar' Jain Oriental•Library, Jain Siddhant Bhavan, Arena
१७९, त्रिलोकसार विधान ,
Opening । । । करजुग जोरो जिन प्रथम और मुनीन्द्र मनाय। । ।
द्वादशागमय जिनवधन नमो सीस निजनाय ॥ Closing
___ एक शहस्त्र अरु नव शतक ऊपर सार सवत्सर कहा ।
शुभमास फाल्गुण शुक्ल तेरस दीप नदीश्वर लहा ।। ___ अष्टम सुदीप सुरेशपूजा नृत्यधुनि जे जे करथी।' सो हरष सहि वह दिक्स पावन पूर्ण करि निज हिय
धरयो ।। Colophon: । इति श्री लोकसार पाठ भाषा पूजन जवाहिरलाल विर.
चितम समाप्तम् । शुभम् सवत् १९६४ माघ शुक्ल ५ लिखितमिदम् । । ।
६८०. वज्रपंजराधना विधान . चद्रनाथस्याभिषेक भूमिशुद्धि पचगुरुपूजा पत्ताया
Opening:
. . चद्रपुरावुधि चद्र चद्रार्क चद्रकांतमकाशम् ।
चद्रप्रभाजिनमचे कुदेदुस्फार कीर्तिकाताशारा ॥ . . . .
Closing : यस्यायं क्रियते पूजा सुप्रीतो नित्यमास्तुते। औ ह्रीं रर
र र ज्वालामालिनि हो आ को क्षी ही क्ली ब्लू वा वी हलवग्यूं ह्रीं ह्रीं ह्र" ह्रीं ह्रज्वल ज्वल प्रज्वल =धग = धू "धूमधि
कारिणि शीघ्र यंत्राधिपतये देवदत्तस्या स्वग्रहोच्चाटन कुरू हूँ फटनमः . स्वाहा । - - - - - -" or , . . rain' Colophon; • इति वजपंजराराधना समाप्तीभूत। प्रशस्ति संग्रह (श्री
' जन सिदान्त भवन) द्वारा प्रकाशित पृ० ८ मैं सपादक भूजवली .. शास्त्री में ग्रंथों के बारे में लिखा है-इस में ग्रथ कर्ता का कोई - -- -म्पष्ठ उल्लेख नहीं है। किन्तु मध्यभागं गत लोक से ज्ञात' होता।
" कि इसके रचयिता श्री पद्मनदी है । मगर पता नहीं कि यहपपनदी
कौन है। क्योकि इस नाम के अनेक 'अन्धकार हुए हैं। दिनम्बर
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,३२३ Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramasha & Hindi Manuscripts
( Puja-Parha-Vidhāna)
जैन अन्यकर्ता और उनके ग्रन्थ नामक ग्रन्य तालिका में एक पमनदी (भट्टारक) वि० सवत् १३६२ का उल्लेख मिलता है, साथ ही साथ उनकी कृतियो मे आराधनापग्रह नामक एक आराधना ग्रथ का जिक्र भी उपलब्ध होता है। बहुत कुछ सभव है कि यही पद्मनदी भट्टारक इमा वज्रपजर राधनाविधान के रचयिता हो। मल्लिषेण और इन्द्रनन्दि के नाम से भी 'वज्रपञ्जराराधना पूजा' प्राप्त होती है ।
९८१. वासुपूज्य पूजा
Opening ! ,
Closing!
वासुपूज्य जिन नौ रत्नत्रय शेषर धारयो। ' द्वादश तप में गार वधूशिव दृष्टि निहारौ ॥ चगापुर थान पचकल्यान सुरनरखग वदते सवही ।
हैं पूजू ध्यावू' गुणगण गाबू वासुपूज्य दे शिव अबही ।। इति वासुपूज्य पूजा सम्पूर्णम् ।
Colophon
९८२. वास्तुपूजा विधान Opening।
अहिदीशप्रतिमाप्रतिष्ठा-घ्निधाननिर्विबयसमाप्तिसिध्य । -- ततोकुरा दिक्षसार्वपूर्व दिने वपाया विदधीत नांदी ।
" . तत्रापि पूर्व विददीत वास्तु दिवौकसा मेकपदे स्थिताना । । ' . - 1, ततः परे वा विधिवत्सपयाँ क्रमेण सामान्य विशेष कल्पाम् ॥१॥ Closing: - सस्थात्य मध्येसुदिशासु बाह्य जलप्रपूर्णसहिरण्यभागत् ।
-- - सुवस्त्रमाल्याध्वजयंणार्प कुमं यते वास्तु समृद्धिसिध्य.॥ Colophon | - इति वास्तुपूजा विधा समाप्तम् ।। (मगलमस्तु । एन० - ।. .. एन. राजा० । ..• ....
देखे-Catg. of Skt &apkt: Ms., P.691.
९८३. विद्यं नानचतुर्विशतिजिनपूजा Opening - पोते समाख्य, ससाराणवपारगा।
'. - स्युस्तेषां 'तुलमानने, सुलभाः सुखप्राणयः ।।
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrib
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Opening Closing:
Colophon :
विशतितीर्थं पाराः कर्मारिविध्वसकाः, सनारार्णवतारणक चतुरा इद्रादिदेव मिता । अतातीतगुणाकरा सुखकरा मोहाधकारापहा,
. मुक्ति श्री ललना विलास ललिता रक्ष तु वो भक्तिकान् ॥ इति विशति विद्यमान तीर्थंक- पूजा सम्पूर्णम् ।
विशेष - - चतुविशति के बाद विशति विद्यमान तीर्थङ्कर पूजा
( समच्चय ) भी लिखी गई है ।
८४. विंशतिविद्यमानजिनपूजा
·
Opening;
opening :
Closing :
Colophon :
,
देखें, क्र० ८१३ |
इह जिणवाणि विसुद्धमइ जो भीयण नियम धरई । सो सुविद सपपतह विकेवारणाण विनुत्तरई ॥ इति सम्पूर्णम् ।
९८५. विंशतिविद्यमान जिनपूजा
व
श्रीजिन बीसौं वरतमान सुखखान । द्वीप अढाई खेत में श्री विदेह सुमथान ॥
•मतमर विक्रमविगतः वसु जुग ग्रह ससिकद । जेठ शुद्ध प्रतिपद सुदिन पूरन भयो सुछद ।
; इति श्री सीमधरादि वीसा विहरमान जिन पूजा सिखिर चन्द्र-अग्रवाल गोईल गोत्री काशी वासी कृत समाप्त । सवत् १६२८ जेष्ठ शुद्ध ( सदी) प्रतिपदा को समाप्तम् । लिखा सिखिर दि यह प्रति लिखि स्तिी यंत्राशुक्ल प्रतिपदा शुक्रवार सम्वत् १६४१ को सो जयवत प्रवर्ती राजा प्रजा सर्व, आनद होठ । श्रीरस्तु कल्याणमस्तु / शुभस्तु "
१६६ विमानशुद्धि विधान
ar नव्य विमान चेतस्य संप्रोक्षण क्रिया । कार्यापतिना मान यथा भवेत् ॥
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Catalogue of Sanskrit, Prakrit, Apabhramsha & Hindi Manuscripts
(Půjā Pågha-Vidhana )
Closing :
'अष्टदिक्ष विमानस्य न्योन घटान् पृथक् । ततः पुष्पाजलि कुर्यात् वाद्यघोषे समुद्यति । सपोधनान मपिचार्यकाणा सघन पुण्येन निरीक्षणीय. । देवाधिदेषो भुवन कसोय. सकीर्तनीयश्च तथा प्रणम्य ॥ -
सयता दिदर्शनम् ॥ उपासकश्चापि तत समरतरभ्यचनीयो भुवनाधिनाथः । तथा महेन्द्रो विददीत शेषा पुण्याक्षतक्षेपण माशिप च ॥
सर्वभव्यजनोपदर्शनं ॥ इति समाप्तोम प्रन्य।
Colophon:
९८७. वनोद्योनन
Opening प्रणम्य परमब्रह्मातीन्द्रियज्ञानगोचरम् ।
वक्ष्येऽह सर्वसामान्य प्रतोद्योतनमुत्तमम् ॥१॥ Closing. कारापित प्रवरसे नमुनीश्वरेण अन्य चकार जिनभक्तवुद्धा
प्रदेवः यस्ते शृणोति स्वहितप्रतिमकवुद्धया प्राप्नोति सोऽजयपद
परम पवित्रम् ॥ Colophon: इति श्री प्रतोद्योतन सागारधानिरूपण अभ्रदेवकृत समाप्तम्
मिति आषाढ शुक्ले १० शुक्रवासरे सम्वत् १६७ विक्रमाव्दे समाप्तमिदम् ।
९८८. वृहद्न्हवण
Opening ।
. . . . Closing'
श्रीमजिनेन्द्रमभिवद्यजगत्रयेश'
स्याद्वादनायकमनंतचतुष्टयाह। " श्रीमूलसंघसुदशों सुकृत कहेत,
. जैनन्द्रयविधिषमयाभ्यधायि' । ... प्रध्वस्तपातिकर्माण केंवर्लज्ञानभास्करी । कुर्वन्तु जगतमणाति ऋषभाचानिनोत्तामा .
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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Bhri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
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इनि वृहदन्हवण विधि समाप्तम् ।
९८६ - वृहत् शान्तिपाठ
समाप्तम् ।
पुष्कर्ण ॥
f
प्रनित्य जिनान् सिद्धान् आचार्यान्पाठकान् यतीन् । सर्वशात्यमानाय पूर्वक शाति कि ब्रुवे ॥
1,
यावन्नेरू महिमात्रन्, यावच्च्चद्रा कतारका' | तावद्भद्राणिरश्यन्तु शतिक स्नानमुक्तमा ॥
इति श्री पडिताचार्य विरचिते श्री धर्मदेवकृत शांतिक पाठ माघकृष्णपक्ष १० मवत् लिपिकृत ब्राह्मणगगाव रुसश्री ॥
६०. बिम्बनिर्माण विधि
प्रथम नमो अरहन्त को नम सिद्ध अरु साध । कथन केवली वृष नमो हरो सकल भवव्याध ॥
*** अथवा जे कृत्रिम होन ते अरहत प्रतिमा अकृत्रि होय ते सिद्ध प्रतिमा कहिये । इति !
६६१. चौबीस दण्डक
..
".. In शुक्ल २ शुक्रवार वीर स० २४६२ विक्रम संवत् १६६२ । जैन सिद्धान्त भवन बारा के लिए लिखा ।
श्री शुभ मिति पौष
ह० रोशनलाल जैन |
~*^*
Opening
ताका अर्थ
: अथ चौबीसडक चौपाई यंत्र दोनतरामकृत अनेक ग्रन्थनिका आशय य. विशेषरूप लिखिए है
Coleing 1419 ऐसें चौबीस दण्डकन का ear feart at त्रिलोकसारमूलाधार आदि ग्रन्थनितें सोधि शुद्ध करिलेवे । - नही है ।
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३२७ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsha & Hindi Manuscripte
( Puja-Patha-Vidhāna)
६६२. द्विजवदनचपेट
Opening |
वेदा प्रमाण स्मृतय प्रमाण धमार्थयुक्त वचन प्रमाणम् । नैतत्त्रय यस्य भवेत्प्रमाण कस्तस्यकुर्याद्वचन प्रमाणम् ॥
स्नान च वेदेव गृहाश्रिताना.सर्गा । नही है।
Closing | Colophon:
, ९९३. लोकानुयोग Opening : नमस्कृत्य महावीर सर्ववस्तूपदेशम् ।
अधोमध्योर्ध्वलोकाना स्वरूप किंचिदुच्यते ॥ Closing: - धर्मभ्यान धवलमुदित मोक्षहेतुजिनेन्द्र
आज्ञापायप्रभृतिविचयश्चिवृत्तनिरोध । यत्कार्यानितकरणलॊकसस्थानचिता,
मदाबान्ता स्वहृदयमहेमेंद्रयाश्चाविधेयाः ।। Colophon: इति लाकानुयोगे जिनसेनाचार्यकृत हरिवसपुराणातहिनि
कामिते उर्ध्वलोकवर्णनो नाम तृतीय सगं समाप्त:।
सम्वत् १९८६ ज्येष्ठ शुक्ल श्रुत ५ गुरुवासरे श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा के लिए प० भुजवली शास्त्री की अध्यक्षता में श्री काशी निवासी वटुक प्रसाद लेखक ने लिखा। विशेष-प्रशस्ति के अनुसार यह ग्रन्थ हरिवंश पुराण का बग है।
देखें-(१)Catg. cf Skt. & Pkt. Ms., P.688.
९६४. मडल चिन्तामणि '
मडल का चित्र।
९९५. मुनिवंशाम्युदर्थ
Opening.
श्रीमुनिवद्य दिव्यध्वनिगधिप महामहिमाकरनिरष। प्रेमदोन-तरगदोलिह महास्वामि परज्योतिरूप ॥
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बी जैन सिद्धान्त भवन अन्यावती Shri. Derakumar Jain Oriental Librury Jain Siddhant Bhuvan, Arti
Closing
परमजिनेन्द्रपदाम्बुजमधुकरवरचिदानद विरचित । सुरुचिरमुनिवशाभ्युदयदोलित फरमेसद्सधि रोदु ।
अतु सधि ५ क्क पद ६२५ क्कं मगलमहा। रोदनेय सघि मुगिदुंदु ।
Colophont
९९६ त्रैलोक्य प्रदीप
Opening! व देवेन्द्र वृन्दाज़ नाभेय जिन भास्करम् ।
येन ज्ञानाशुभिनित्य लोकालोको प्रकाशिती॥ Closing I यावन्मेरुसुधासिन्धुर्यावच्चन्द्रार्कमडलम् । ।
__ तावन्नित्यमहोद्योते वद्धता जनशासननम् ।। Colophone ,, इतीन्द्रवामदेव विरचिने पुरवाडवशविशेषकश्री न.
यशः प्रकाशत्रैलोक्यदीपके उर्वलोकव्यावर्णनो नाम तृतीयोधि । समाप्त । मिती वैशाखवदी नौमि ६ गुरुवारे सवत् १८०७ साल पडित खुस्यालचद मालपुरा मे लिखि। तस्मादिद पुस्तक सवत्सरे १९६० विक्रमाब्दे ज्येष्ठकृष्णपक्षे पचम्या, रविवासरे भार नगरे - ...प्रतिलिपि कृतम् ।
देखें-(१) जि० र० को॰, पृ० १६५। ६७., यंत्रद्वारा विविधचर्चा. विशेष-यत्रो ( विवरणात्मक चार्टस ) द्वारा.४१ विषयो पर चर्चाकी गई
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