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________________ १०० श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रन्यावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jair Siddhant Bhavan, Arrak पूर्ण। सवत् १९८० वर्षे माघमासे कृष्णपने पचमी तिथी गुरुवासरे। श्री ज्ञानार्णवम् सपूर्णकृता। लिखित श्री पट्टणानगरमध्ये । लेपक-पाठकयो चिर जीयात् । श्रीरस्तु शुभ भवतु ॥ २६८. ज्ञानार्णव Opening : देखे-० २६६ । Closing : देखें-० २६६ । Colophon .. इत्याचार्य श्री शुभचंद्रविरचिते ज्ञानार्णवे योगप्रदीपा. __धिकारे मोक्षप्रकरण समाप्तम् । सवत् १८७० । २६६. ज्ञानार्णव भाषा Opening : ललितचिन्ह पद कलित निरखत निजसपति । हरषित मुनिजन होइ धोइ कलिमलगुन जपति ।। Closing : ताके जिनवानी को श्रद्धान है प्रमान ज्ञान, दरसन दान दयावान अवधान है। ज्ञान ही के कारणतै भाषा भयो ज्ञान सिंधु, आगम को अग यामे ध्यान को विधान है ।। Colophon. इति श्री शुभचन्द्राचार्यविरचिते ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकार श्री श्रीमालान्वये बदलियागोत्रे परमपवित्र भईआ श्रीवस्तुपाल सुत श्री ताराचन्द्रस्याभ्यर्थनया पडित श्रीलक्ष्मीचन्द्रेण विहिताभापय सुखबोधनार्थम् । सवत् १८६६ शाके १७३४ वैशाखमासे तिथी ११ बुधवासरे समाप्तम् भवत, लिखत काशि मध्ये राजमदिर लिखायित लाला वगसुलाल जी पठनार्थ परोपकरणार्थम । श्रीभगवानार्पणमस्तु । लिखत ब्राह्मण शिवलाल जाति गौड ब्राह्मण ।शुभ भूयात् । २७०. ज्ञानार्णव टीका Opening : शिवोय वैनतेयश्च स्मरश्चात्मव कीर्तितः । आणिमादिगुणन_रत्नवादिq धर्मतः॥ Closing: " ." शुभ कारित गद्याना. गुणवत्त्रिय विनयतों ज्ञानावर्णवस्यातरे विद्यानदि गुरुप्रसादजनितदयादमेय सुखम् ।
SR No.010506
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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