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श्री जैन सिद्धान्त भवन प्रम्यावली.
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Artah
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चक्रेश्वरी प्रसन्न भवति तत्काल सिद्धि चतुष्कोण करे मध्ये ही पचदण द्वितीये तृतीयेाकपालचर्ये नवग्रहा पत्रमे ॥ अदन कमलवत् गोलाकार कृत्वा मध्ये 1 अही लक्ष्मी प्राप्त्यै नम: लिखेत् पुन पोडश श्री कारेण वेष्टि तनष्मिण सवत् १९६७ फाल्गुन शुक्ला १२ प० मोताराम शास्त्री ||
६२२. भूक्तानर ऋद्धि मंत्र
य. संस्तुतः
प्रथम जिनेन्द्र ||२||
अष्टदल कमल कृत्वा तन्मध्ये ही लक्ष्मी प्राप्ति नम. लिखित्वाय श्रवादसोडश श्रीकारेण वेष्टित तदुपरिमृद्धि मत्र वेष्टित अयत्र पूजावाथ की एकाव्यनृद्धि मत्रवार १०८ नित्य जपवाथी दिन ४८ सर्वसिद्धि मनोवाहित काय सिद्धि होय जिह नैव मिकणो होयतिको नाम चितिज मनोवाहित सिद्धि होय ॥ इति काव्य सपूर्णम् । इद पुस्तक लिखित नीलकठदासेन ऋषभदास नामधेय अस्य अर्थ लेखनीकृत ।। सवत् १९३० मिति आश्विन शुक्ल अष्टम्या
वात्सर शुभ भूयात् ।
६२३. भक्तामर स्तोत्र मंत्र
देखें ऋ० ६२२ ।
देखें ऋ० ६२२ ।
देखें ऋ० ६२२ |
६२४. भक्तामर स्तोत्र
देखें क्र० ६०७ ।
देखे
० ६०७ ।
नही है ।
विशेष --- इसमे सभी काव्यो के मत्रचित्र (मंडल) बने हुए हैं।
चतुस्र कृत्वा । वेष्टयेत् ॥
रविवासरे लिपिकृत