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________________ ૬૭ Catalogue of Sanskrit, Prakrit. Apabhramsha & Hindi Manuscripts ( Dharma, Darsna, Ācārt ) Closing ! केई अन्धनिकी वणी वनिका भापामई देश की। पनालाल जु चौधरी विरचिजो कारक दुलीचदजी ॥ इति व नका वनने का सम्बन्ध सपूर्ण । Colophon: १६७. आराधनासार Opening: सम्यग्दर्शनबोधन चरिनस्पान् प्रणम्य पचगुरून् । आराधनासमुच्चयमागमतार प्रवक्ष्याम ॥ Closing : रामस्थतया यस्मिन्नतिबद्ध किंचिदागमविरुद्धम् । गोध्य तद्रीमद्धीमद्धिविशुद्धनुध्या विचार्यपदम् ॥ श्री रविचन्द्रमुनी. पनसोगे ग्रामवामिभि अन्य । रचितोऽयमखिलशास्त्रप्रवीणविद्वन्मनोहारी ॥ Colophon: इत्याराधनामार । यह ग्रन्य जैन ज्ञानपीठ मूडविद्री के वर्तमान एव जैनसिद्वान्त भवन आग के भूतपूर्व अध्यक्ष विद्याभूषण प के भुजवली शास्त्री के तत्वावधान में उक्त भवन के लिए जंन मठ मूडयित्री के ग्रन्थागार से एन चन्द्रराजेन्द्र विशारद-द्वारा लिखवाया गया । नवयर १९४४ ई । द्रप्टव्य-जि र को, ३३ । १६८. आपाढभूति चौपाई Opening , सकल ऋद्धि ममृद्धि करि, त्रिभुवन तिलक समान । प्रणमु पासजिणेसरू, निरूपम ज्ञान निधान ।। Closing . निस होज्यो प म कल्याण रे । Colophon इति श्री पिंड विशुद्धि विषये आमाढभूति चौपाई सपूर्णम् । सवन् १७६७ वर्षे मिती ज्येष्ठ सुदी ४ शुक्रदारे श्रावकासदा कुवर लिखायत । श्री आगस नगरे । १६६. आत्मबोध नाममाल Opening सिद्धसरन चितधारके, प्रणमू शारद पाय । मुझ ऊपर कीजै कृपा, मेधा दीजे माय ।।
SR No.010506
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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