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________________ १२० श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah ३२७: रत्नकरण्ड श्रावकाचार वचनिका Opening: वृपभ आदि जिन सन्मति सार । शारद गुरुकू नमि सुखकार ॥ मूल समन्तभद्र मुनिराज । वृत्ति करी प्रभेन्दु यतिराज । Closing टीका रमणी देखिकरि, सस्कृत करि अभिराम । कल्पित किंचित् नही लिखी, रची तासकी दाम ।। Colophon: इति रत्नकरड वचनिका सम्पूर्णम् । ३२८. रत्नकरण्ड विषम पद Opening : रत्नकरडक विषमपदव्याख्यान कथ्यते । श्री वर्धमानाय ।। अतिम तीर्थङ्कराय ॥ जिनोक्तपदपदार्थप्रेक्षमशेलेति ।। Colophon. इति रत्नकरडक घिषमपदव्याख्यान समाप्तम् । विशेष--समत भद्राचार्य के रत्नकरडक के विषम पदो का व्याख्यान है। आचार विषयक होने पर भी पुस्तक की प्रकृति कोशात्मक है। ३२९ रत्नमाला Closing' Openitig. Co'sing Colophon सर्वज्ञ सर्ववागीश वीर मारमदायकम् । प्रणमामि महामोह-शातये मुक्तिताप्तये ॥ यो नित्य पठति श्रीमान रत्नमालामिमा परा। ससुद्धचरणो नन शिवकोटित्वमाप्नुयात् ।। इति रत्नमाला सपूर्णम् । विशेष-छपी पुस्तक मे ६७ श्लोक है, जबकि उक्त प्रति मे ६८ हैं। देखे--जि०र० को०, पृ० ३२७ । Catg. of Skt & Pkt. Ms , P 686. ३३०. रत्नमाला Opening: सर्वज्ञ सर्ववागीश वीर मारमदापह । प्रणमामि गहामोह शन्तयेम मुक्ततापये ॥१॥
SR No.010506
Book TitleJain Siddhant Bhavan Granthavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhchand Jain
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1987
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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