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श्री जैन सिद्धान्त भवन ग्रन्थावली
Shri Devakumar Jain Oriental Library, Jain Siddhant Bhavan, Arrah
३२७: रत्नकरण्ड श्रावकाचार वचनिका
Opening:
वृपभ आदि जिन सन्मति सार । शारद गुरुकू नमि सुखकार ॥ मूल समन्तभद्र मुनिराज ।
वृत्ति करी प्रभेन्दु यतिराज । Closing
टीका रमणी देखिकरि, सस्कृत करि अभिराम ।
कल्पित किंचित् नही लिखी, रची तासकी दाम ।। Colophon: इति रत्नकरड वचनिका सम्पूर्णम् ।
३२८. रत्नकरण्ड विषम पद Opening :
रत्नकरडक विषमपदव्याख्यान कथ्यते । श्री वर्धमानाय ।। अतिम तीर्थङ्कराय ॥
जिनोक्तपदपदार्थप्रेक्षमशेलेति ।। Colophon. इति रत्नकरडक घिषमपदव्याख्यान समाप्तम् ।
विशेष--समत भद्राचार्य के रत्नकरडक के विषम पदो का व्याख्यान
है। आचार विषयक होने पर भी पुस्तक की प्रकृति कोशात्मक है। ३२९ रत्नमाला
Closing'
Openitig.
Co'sing
Colophon
सर्वज्ञ सर्ववागीश वीर मारमदायकम् । प्रणमामि महामोह-शातये मुक्तिताप्तये ॥ यो नित्य पठति श्रीमान रत्नमालामिमा परा। ससुद्धचरणो नन शिवकोटित्वमाप्नुयात् ।।
इति रत्नमाला सपूर्णम् । विशेष-छपी पुस्तक मे ६७ श्लोक है, जबकि उक्त प्रति मे ६८ हैं। देखे--जि०र० को०, पृ० ३२७ ।
Catg. of Skt & Pkt. Ms , P 686. ३३०. रत्नमाला
Opening:
सर्वज्ञ सर्ववागीश वीर मारमदापह । प्रणमामि गहामोह शन्तयेम मुक्ततापये ॥१॥