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गोलेच्छा जैन ग्रंथमाला ..
पुष्प. १
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सजनसंग्रह-धामृत
REP
विधारसिकश्रीमानशंकरलालजीगोलेहात
संरक्षक शंकरलालजी मानमलजी गोलेच्छा
खीचन (जोधपुर)
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गोलेच्छा जैन ग्रंथमाला
. पुप्प १
प्राचीन भक्तकवि निर्मित भजनसंग्रह-धमामृत [शब्दों को व्युत्पत्ति और समजूती सहित ]
संपादक वेचरदास जीवराज पंडित
'सर्वाधिकार संरक्षित विक्रम संवत् १९९५]
[ इस्वीसन् १९३९ :
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प्रकाशक :
शेठ शंकरलालजी मानमलजी गोलेच्छा गोलेच्छा प्रकाशन मन्दिर, खीचन ( जोधपुर )
गोलेच्छा जैन ग्रंथमाला में जैनधर्म व जैनधर्म के पोषक और समाज, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि से संबंध रखनेवाले विविध प्रकार के पुस्तकों का प्रकाशन होगा |
..:
मुद्रक :
जीवनजी डाह्याभाई देसाई नवजीवन मुद्रणालय,
अहमदाबाद
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NEPAL
श्र
। धारसिक श्रीमानशंकरलालजी गोलेछात
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njantuistiane
RRIAGRAM MARMANASANAMAHARAMDHANEE
गोलेच्छा जैन ग्रंथमाला संरक्षक स्मृति మనం అం న న న న న న ం అం anja prayojana సం కారు
इतिहासप्रसिद्ध मारवाड देश, मारवाड में जोधपुर के पास पोकरण फलोधी से निकटतम और गोलेच्छावंश से सुशोभित खीचन नामक ग्राम, वहां
. अगरचंदजी सेठ-भार्या 'चूनीबाई
जेठमलजी-भार्या राजकुंवरवाई शंकरलालजी-भार्या संपतकुंवरवाई मानमलजी-भार्या अनसूयाकुंवरबाई मल्लिकुमारी, कस्तूरकुमारी, विमला (पुत्री) मूलराज (पुत्र) मानकुमारी (पुनीत्रय) भाई मानमलजी ने अपने पिता, काका व पितामह की पुण्यस्मृतिनिमित्त गोलेच्छा जैन ग्रंथमाला को प्रकाशित कराने का संकल्प किया और उसी ग्रंथमाला के प्रस्तुत प्रथम पुस्तक के प्रकाशन के लिए अर्थप्रदान किया ।
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REETERESERSEEEEEEEEEEEER गोलेच्छाजैन ग्रंथमालासंरक्षकस्मृतिः । TRESSISTANER NISATTA जन्मभूमेर्जनन्या व सेवायां प्राणयागिनाम् । -क्षत्रियाणां विशां ब्रह्म-वेदिनां धैर्यशालिनाम् ॥ १॥ योधानां जैनधर्मिणां शौर्य-वीर्यपूजायुजाम् । इतिहासप्रसिद्ध वै मारवाडे सुनीवृति ॥ २ ॥ ख्यातश्च खीचनग्रामो गोलेच्छावंशशोभनः । अग्रचन्द्रश्च तत्रासोत् श्रेष्ठी श्रेष्ठिशिरोमणिः ॥ ३ ॥ तद्गार्या चूनिबाई-ति सरला वत्सलाऽमला। . अग्रचन्द्रात्मजौ चूनि-जनूजौ नरपुंगवौ ।। ४ ।। ज्येष्ठमल्लस्तयोर्येष्ठः शंकरः शंकरऽपरः । तावेतौ स्नेहिनौ बन्धू राम-लक्ष्मणलक्षणौ ॥ ५ ॥ तेजस्विनौ वदान्यौ च विद्याभक्तौ विवेकिनौ । जैनधर्मपरौ मान्यौ मातापित्रोचं पूजको ॥ ६ ॥ कलिभीरू इवाऽज्पेन वयसा प्राप्तपञ्चतौ । तदेतेषां सपितॄणां पुण्यस्मरणहेतवे ॥ ७ ॥ ज्येष्ठमल्लात्मजो मान-सल्लो नम्रशिरोमणिः । -सत्साहित्यप्रकाशाय संकल्पमकरोद् वरम् ॥ ८ ॥ तत्साहाय्यं च संप्राप्य विविधग्रन्थसत्सुमा । गोलेच्छाग्रन्थमालेयं संपाद्यते प्रकाश्यते ॥ ९ ॥
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प्राप्तिस्थान
(१) गोलेच्छा प्रकाशन मन्दिर मु. खीचन (जोधपुर): (२) श्रीनाथजी मोदी ज्ञान भण्डार, (३] गूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय
जोधपुर
गांधी रस्ता, अहमदाबाद (गुजरात )
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संपादकीय प्रस्तुत भजनसंग्रह में जैन और सनातनी दोनों कवियों के मिलकर १.१ भजन का संग्रह है। संग्राहक की दृष्टि में सर्वधर्मसमभाव का उदार सिद्धान्त प्रधानतम है इससे ही इसमें अनेक संत भक्तों की वाणी का सुमेल किया गया है और संग्रह का नाम धर्मामृत रक्खा गया है ।
भजनकर्ता जैन वा सनातनी होने पर भी उन सब का एक ही आशय भजनो में झलक रहा है। किसी संप्रदाय का अनुयायी - चाहे जैन हो, वैष्णव हो, शैव हो वा अन्य कोई :भी हो ---- अपनी अपनी धर्मभावना को सुरक्षित रख कर भी प्रस्तुत संग्रह के भजन को संतोषपूर्वक गा सकता है। धर्मों के संप्रदायों में क्रियाकांड के अनेक प्रभेद होने पर भी आध्यात्मिक मार्ग में - धर्म के सच्चे व्यवहारु मार्ग में - सव' धर्म - सव संप्रदाय, एक समान भूमिका पर ही रहते हैं। इसका साक्ष्य प्रस्तुत भजनसंग्रह दे रहा है ।
प्रस्तुत संग्रह से एक भी स्तोता को अंतर्मुख होने में: कुछ थोडी वहुत सहायता मिली तो उनका सर्व श्रेय उन संत पुरुषों को है जिन के ये भजन हैं।
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संग्रह करने में आश्रमभजनावलि' से सहायता मिली है इससे भजनावलि के संपादक, साभार स्मरणीय है और ‘विनयविलास' वा 'जसविलास' नामक एक मुद्रित जैनसंग्रह से भी सहायता प्राप्त हुई है । उक्त विलासद्वय की पुस्तक हमारे पास न थी परंतु भावनगरवाले धर्मनिष्ठ सुप्रसिद्ध शेठ कुंवरजीभाई आनंदजीभाई से हम को वह पुस्तक मिली थी इससे हम शेठजी कुंवरजीभाई के भी अनुगृहीत हैं ।
भजन के एक भी राग को हम नहीं जानते किन्तु आश्रमवासी सुप्रसिद्ध संगीताचार्य पंडित नारायण मोरेश्वर खरे महोदय ने भजनों के सव राग निश्चित कर : दिये हैं एतदर्थ उनकी भी अनुगृहीति उल्लेखनीय है । खेद है कि जव प्रस्तुत संग्रह प्रकट हो रहा है तब श्रीमान् खरेजी इस. लोक में नहीं है।
प्रस्तुत सग्रहमें भजनों के उपरांत भजनो में आए हुए कितनेक प्राचीन शब्दों की व्युत्पत्तियां, और समझ भी दी गई है । इससे जो भाई व्युत्पत्तिशास्त्र का रसिक होगा उनको व्युत्पत्तिशास्त्रविषयक रसवृद्धि होने की संभावना है। - शब्दों की व्युत्पत्ति को प्रामाणिक बनाने के लिए मुख्य आधार है दो--
(१) व्युत्पाद्य शब्दमूल रूप से लेकर आधुनिक रूप -तक के तमाम रूपों की संवादी आधार के साथ --- संग्रह ।
(२) अर्थसाम्य को आधार भूत रख कर और उच्चारणजन्य विविध वर्णपरिवर्तन के नियमों से मर्यादित रह कर व्युत्पाद्य शब्द के मूल रूप से लेकर आधुनिक रूप तक का संग्रह ।
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११
प्रस्तुत संग्रह में दूसरे ही आधार का विशेष उपयोग किया है तो भी साथ साथ में यथाप्राप्त संवादी प्रमाण भी दिये गए हैं । केवल अक्षरसाम्य का आधार नहीं लिया है । केवल अक्षरसाम्य का आधार व्युत्पत्ति को भ्रांत बनाता है इससे इसको हेच समझ कर प्रस्तुत में अनुपयुक्त समझा गया है । केवल प्रथम आधार से काम करने में अधिकाधिक समय अपेक्षित है इतना समय सुलभ न था इससे प्रथमाधार को छोडना पडा ।
अधिक सावधानी रखने पर भी व्युत्पत्ति की योजना में असंगतता रहने का संभव अवश्य है । इससे विद्वज्जन इस विषय में हमें सूचना करके अवश्य अनुगृहीत करें ।
संपादक गूजराती है। प्रस्तुत पुस्तक के व्युत्पत्तिप्रकरण में आई हुई हिंदी भाषा भी उनकी गूजराती हिंदी होने से सर्वथा शुद्ध न हो तो हिन्दी भाषाभाषी साक्षरगण उदारता से क्षमा -करेंगे ।
१२ व भारतीनिवास सोसायटी
बेचरदास ।
एलिसव्रिज
अमदावाद
—
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पृ०
अशुद्धि
"११७
११८
११९
संपादक प्रयुक्त-हिंदी भाषा की अशुद्धियों का शोधन
शुद्धि **समजने
समझने रात्री
रात्रि लोक
लोग 'प्रहर' की
'प्रहर' के के उपर से xनहि
नहीं है नहि
है; यह नहीं अब तो यह निश्चित हुआ कि 'कुक्कुर' 'कुक्कुर' जो जो . जिन जिन - णम जा
-शत हो जा
१२३
१२४
१२४ १२५
* 'समज' धातु के स्थान में सव जगह 'समझ' धातु
जानना ।
x 'नहि' के स्थान में सर्वत्र 'नहीं' समझना ।
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सूतां
+सुतां रात्री
१२६ १२७ १३४
उनके
रात्रि रजनी-उस के उपर से रजनी-से उनकी मेरी पस्ताना
पछताना कारण गड्डरिकाप्रवाहानुसारी उनके कारण उनके
मेरे
:
१३६ ' १३८
१४३
लुट
१४९
हि
. + 'सुतां' के स्थान में सर्वत्र 'सूतां'
: 'रात्री' के स्थान में 'रात्रि' ।
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विशेष स्मरण
आज से प्रायः सात आठ वर्ष पहले जब कि श्रीमान् पुरुषोत्तमदास टंडनजी गुजरात विद्यापीठ में आए थे तब मुझको उनका परिचय प्राप्त करने का अवसर मिला था। यों तो श्रीमान् टंडनजी प्रखर राष्ट्रपुरुष है और यू० पी० के राष्ट्रस्तंभो में उनकी अग्रगणना है, तो भी राष्ट्रभक्ति के साथ साथ उन्होंने साहित्यभक्ति को भी अच्छा स्थान अपने हृदय में दिया है यह वात मुझको उनके प्रथम परिचय से ही अवगत हो गई थी। हमारी वातचीत का विषय प्राकृत साहित्य और जैन आगम था, मात्र पंद्रह-बीस मिनिट तक की वातचीत से उनके साहित्यभक्ति, अभ्यासगांभीर्य और असाधारण साधुता आदि कई सद्गुणों का है प्रभाव आजतक मेरे मन में अंकित है । जव प्रस्तुत संग्रह छप कर तैयार हुआ तब मेरा विचार हुआ कि इसके लिए दो शब्द भी श्रीटंडनजी से अवश्य लिखवाना। मैं जानता था कि आप आजकल राष्ट्रीय महासभा की ओर से लखनऊ की राजसभा के संचालक-स्पीकर-के वडे पद पर कार्य करते हैं इससे अनेक तरह के कार्यभार से दवे हुए होंगे तव भी मैंने तो धृष्ट होकर
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'दिल्लीवाले मेरे स्नेही भाई गुलावचन्दजी जैन को प्रस्तुत संग्रह की प्रस्तावना के लिए श्री टंडनजी का निर्देश कर के एक पत्र दिया। 'उन्होंने इस बात की चर्चा हिंदी हरिजन के संपादक और हिंदी साहित्य के गौरवरूप श्रीमान् वियोगी हरिजीसे की, (जब मैं दिल्ली में रहा था तब मुझको श्रीमान् हरिजी का भी परिचय प्राप्त करने का सुअवसर मिला था) उन दोनों महाशयों की प्रेरणा से
और मेरे पत्रव्यवहार से श्रीटंडनजीने प्रस्तुत संग्रह के लिए कुछ लिखने का स्वीकार कर लिया और अधिक कार्यभार की व्यग्रता के कारण वे शीघ्र तो न लिख सकतें परंतु मेरी तरफसे शीघ्रता करने के लिए भाई गुलावचंद उनके पास लखनऊ के स्पीकरभवन में जा बैठा और इसी कारण आज पाठकों के समक्ष श्रीटंडनर्जी के गांभीर्यपूर्ण दो शब्दों को भी मैं प्रस्तुत संग्रह में दे सका हूँ।
एतदर्थ प्रस्तुत गोलेच्छा ग्रंथमाला के संचालक, श्रीमान् टंडनजी के, भाई हरिजी के और भाई गुलाबचन्दजी जैन के सविशेष ऋणी हैं और मैं भी ।।
___ मेरी लिखी हुई 'शब्दों की व्युत्पत्तियां और समझ' में हिंदी भाषा की जिनजिन गलतीयों का श्रीमान् टंडनजीने निर्देश ६ किया है उनको मैं सादर स्वीकार करता हूँ और भविष्य में हिंदी लिखने में अधिक सावधान रहने का संकल्प करता हूँ. और श्रीमान् टंडनजी निर्दिष्ट सब गलतीयों का शुद्धिपत्रक भी प्रस्तुत संग्रह के साथ ही दे देता हूँ । मेरी अशुद्धियों के लिए मैं फिर भी हिंदी साक्षरों से क्षमा मांगता हूँ ।
. वचनदास
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प्रस्तावना
बेचरदासजी ने
किया है ।
यह ' धर्मामृत' संग्रह पंडित इसमें वैराग्य रस से भरे हिन्दी और गुजराती के
१०१ गीत
हैं । इसमें विशेषता यह है कि कबीर, नानक, नरसी महेता, सूरदास के साथ साथ ऐसे महात्माओं के गीत हैं जो जैन सम्प्रदाय के समझे जाते हैं और जिन में से अधिकांश गुजरात के रहने वाले थे । मुझे इससे पहले इन जैन कवि महात्माओं का ज्ञान न था और उनकी कृतियों का संग्रह देखने को नहीं मिला था ।
इस संग्रह को देख कर मेरे हृदय में दो विचार शैली उठीं - एक तो यह कि हिन्दी भाषा सदियों से हमारे देश में बहुत व्यापक रही है और दूसरे यह कि शुद्ध भाव के मौलिक विचार करने वाले सदा आन्तरिक अनुभव के बाद सीमित साम्प्रदायिकता के बन्धनों से ऊपर उठते हैं ।
हिन्दी में संत साहित्य जिस ऊंची श्रेणी का है वह न संस्कृत में है और न किसी अन्य भाषा में है । उसकी जड ही हिन्दी में पड़ी है । कबीर इस साहित्य के सिरमौर हैं । गुरु नानक, दादू, पलट्, रैदास, सुन्दरदास, मीरांबाई, सहजोवाई आदि प्रसिद्ध महात्माओं में कबीर की वानी की छाप स्पष्ट दिखायी
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पड़ती है। उन्हीं का विस्तृत प्रभाव मुझे गुजरात औरे महाराष्ट्र के संतो पर दिखायी पड़ता है । इस संग्रह में जो जैन कवि बताये गये हैं -- ज्ञानानन्द, विनयविजय, यशोविजय, आनन्दघन, आदि -- उनकी भी कृतियों में, हिन्दी और गुजराती दोनों प्रकार की माणिक-मालाओं में, गूथने वाला तार मुझे वही कबीरदास की बानी से निकला हुआ रहस्य-संवाद दिखायी देता है । जैन सम्प्रदाय में उत्पन्न इन महात्माओं में, जिनकी कविता का संग्रह इस पुस्तिका में दिया गया है, मुझे ज्ञानानन्द की वानी विशेष रीति से गहरी, मार्मिक और प्यारी लगी । इनकी बानी उसी रंग में रंगी है और उन्हीं सिद्धान्तों को पुष्ट करने वाली है जिनका परिचय कबीर और मीरा ने कराया है - आन्तरिक प्रेम की वही मस्ती, संसार की चीज़ों से वही खिंचाव, धर्म के नाम पर चलायी गयी रूढियों के प्रति वही ताड़ना, बाह्य रूपान्तरों में उसी एक मालिक की खोज और बाहर से अपनी शक्तियों को खींच कर उसे अन्तर्मुखी करने में ही ईश्वर के समीप पहुंचने का उपाय ।
शब्दों और अलंकारों का प्रयोग भी उसी प्रकार का है । राम-नाम, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नगरी, तस्कर, मन्दिर के दस दरवाजे, चार वेद, भस्म, सुन्नत, अल्ला, जोगी, प्वाला, मतवाला, पिया, महल, ज्ञानी, गुरु, सद्गुरु, अंतरजामी, अलख, अजर, निरंजन, पंखिया, पंजर-ये शब्द उसी ध्वनि, उपमा और उप्रेक्षा के बीच आय हैं जो संत-साहित्य की विशेष सम्पत्ति है। उस साहित्य से परिचय रखने वाले तुरत इसका अनुभव करेंगे । संग्रह के कुछ गीतों में कवि का जैन सम्प्रदाय से सम्बन्ध प्रगट . होता है किन्तु यह केवल कुछ शब्दों के प्रयोग में; कर्तव्यशिक्षा
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और सिद्धान्तों में वही भारत-व्यपिनी संस्कृति . की उच्च भावनायें हैं।
इस संग्रह के भजनों को पंडित वेचरदासजी ने किन प्रतिलिपियों से लिया है सो मैं नहीं जानता; किन्तु जो छपी पुस्तिका मेरे सामने है उसमें शब्दों के प्रयोग में अशुद्धियाँ बहुत हैं । मुझे जान पड़ता है कि प्रतिलिपियाँ ठीक नहीं लिखी गयीं। यह सच है कि ज्ञानानन्द, विनयविजय, यशोविजय आदि कविगण गुजराती थे और सम्भव है कि उनके शब्दों के प्रयोग में हिन्दीभाषा-भाषी कवियों के प्रयोग से कहीं कहीं भिन्नता रही हो, किन्तु बहुत से शब्दों की लिखावट से छंद की चाल का इतना नाश हो जाता है कि मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि ये अशुद्धियां वास्तव में कवियों की हैं। मुझे यह सब अशुद्धियां प्रतिलिपिकारों की ही मालूम होती हैं।
इस संग्रह से मुझे हिन्दी के कुछ संत कवियों का परिचय मिला । मेरे लिये इस संग्रह का विशेष मूल्य इसी दृष्टि से है। संग्रह में पंडित बेचरदासजी ने कवि-महात्माओं का कुछ थोड़ा सा परिचय दिया है । इससे उसका मूल्य बढ़ जाता है; किन्तु कवियों के सम्बन्ध में जितनी जानकारी पंडितजी ने दी है उससे मेरा संतोष नहीं हुआ । मैं तो चाहता हूं कि पंडितजी जय उन्हें समय मिले इन सब कवियों और उनके रचित ग्रन्थों के सम्बन्ध में खोज कर अधिक पता लगावें । हिन्दी और गुजराती के प्राचीन पारस्परिक सम्बन्ध और उनके आधुनिक विकास के अध्ययन की दृष्टि से इस प्रकार की खोज विशेष महत्त्व रखेगी ।
जिस शैली पर पंडित बेचरदासजी ने इस संग्रह का सम्पादन किया है वह अद्भुत पांडित्यपूर्ण है । हिन्दी में मैंने
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इस शैली से सम्पादित कोई पुस्तक नहीं देखी ।। पंडितजी ने इसके गीतों में प्रयुक्त २६७ शब्दों की व्युत्पत्तियां दी हैं । भाषाविज्ञान की दृष्टि से ये बहुत रोचक और. महत्त्वपूर्ण हैं । पंडित वेचरदासजी प्राकृत के विशेषज्ञ और अनोखे जानकार हैं। उनका पांडिल्य इन शब्दों के अर्थ और उनकी व्युत्पत्ति के बताने · में दिखायी पड़ता है । जिन शब्दों की व्युत्पत्ति . पर पंडितजीने प्रकाश डाला है उनमें से बहुतों के परम्परागत स्वरूपों का हमें नया परिचय मिलता है । पहले ही शब्द 'भोर' की पंडितजीने जो व्याख्या लगभग साढे चार पन्नों में की है उसे पढ़ कर मुझे 'भोर' शब्द एक नये रंग और स्वरूप में दिखलायी पड़ने लगा।
पंडित वेचरदासजी गुजराती हैं । हिन्दी उनकी मातृभाषा नहीं है । इससे उनकी भाषा में हिन्दी लिखने के क्रमसे पृथकता. दिखायी देती है । उनका अक्षर-विन्यास भी कई स्थानों पर हम को खटकता है। 'रात्रि' का 'रात्री', 'समझना' का 'समजना' 'नहीं' का 'नहिं' 'लोग' का 'लोक'-चे प्रयोग हिन्दी पढ़ने लिखने वालों को खटकेंगे । परन्तु हमारे लिये तो इन खटकने वाली वस्तुओं के कारण, जो पंडितजी के हिन्दी भाषाभाषी न होने की साक्षी हैं, इस संग्रह और उसके सम्पादन का मूल्य और अधिक हो जाता है । पंडित बेचरदासजी ऐसे पंडित हिन्दी के साहिल की पूर्ति में लगे हुए हैं यह हिन्दी साहित्यं के व्यापक और राष्ट्रीय स्वरूप का द्योतक है । मैं इस संग्रह का कृतज्ञता और प्रेम से स्वागत करता हूं।
लखनऊ १०, मार्गशीर्ष ९५
पुरुषोत्तमदास टंडन ता. २६-११-३८
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भजनकार कवि परिचय प्रस्तुत संग्रह में जैन कवि और सनातनी कवि - दोनों के भजन लिए गये हैं । प्रस्तुत पुस्तक का मुख्य उद्देश इतिहास 'नहीं है तो भी संतसमागम की अपेक्षा से उक्त दोनों प्रकार के भजनकारों का संक्षिप्त परिचय क्रमशः दिया जाता है : जैन कविज्ञानानंद - भजनकार ज्ञानानंद का समय प्रायः सत्तरहवीं
शताब्दी है । उनके भजनों में उनका नाम तो आता है साथ में निधिचारित शब्द भी वारंवार आता है । इससे ऐसी कल्पना होती है कि निधिचारित नाम उनके गुरु का हो । भजनकार की दृष्टि अन्तर्मुख है । दूसरा भजन बनाया है तो ज्ञानानन्द ने परन्तु “ मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई " भजन का उक्त भजन में पूर्ण प्रतिबिंब है
और “ मेरे तो गिरधर " भजन श्री मीरांबाई का है। ज्ञानानंद के विषय में दूसरी कोई हकीकत उपलब्ध नहीं जान पड़ती । संभव है कि कवि गुजरात के वा मारवाड़ के हों ।
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ર
विनयविजय - समय सत्तरहवीं शताब्दी । माता का नाम
राजश्री और पिता का नाम तेजपाल | गुरु का नाम कीर्तिविजय उपाध्याय । प्रस्तुत कवि गुजरात के हैं । इनके चनाये हुए ग्रंथों से इनका संस्कृत भाषा विषयक और जैन आगम विषयक सांप्रदायिक पांडित्य प्रतीत होता है । ' हैमलघुप्रक्रिया ' नामक छोटासा संस्कृत व्याकरण भी इन्होंने बनाया है और उस पर एक वृहद्वृत्ति का भी निर्माण किया है । भाषा में भी इनके स्वाध्याय-स्तुति अधिक मिलते हैं । पंडित जयदेव का बनाया हुआ संस्कृत य ग्रंथ गीतगोविंद - इसमें शृङ्गार अधिक होने से अधिक प्रसिद्ध है । इसी प्रकार का एक गेय ग्रंथ. प्रस्तुत कवि विनयविजयजी ने बनाया है । परन्तु उसमें शृङ्गार के स्थान में शांतसुधारस है । जयदेव का ग्रंथ प्रसिद्ध प्रसिद्ध हिन्दी रागों में है और विनयविजयजी का शांतसुधारस प्रसिद्ध प्रसिद्ध गुजराती देशी के रागों में है । देशी के राग. होने पर भी वे गेय काफी, टोडी, रामगिरि, केदारो इत्यादि. प्राचीन रागों में भी गीत के रूप में चल सकते हैं । नमूना के तौर पर
•
कलय् संसारमतिदारुणं
"
जन्ममरणादिभयभीत ! रे ।
मोहरिपुणेह सगलग्रहं
प्रतिपदं विपदमुपनीत ! रे ॥ कलय०
उक्त शांतसुधारस से कवि का संस्कृत भाषा विषयक पांडित्या
अनोखा ही प्रतीत होता है । कवि में सांप्रदायिक होते हुए भी
अपने
उनके अन्यान्य ग्रन्थों भजनों में तो वे
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विशालदृष्टि और अन्तर्मुख मालूम होते हैं। प्रतीत होता है कि शुरू शुरू में वे सांप्रदायिक रहे होंगे पर सम्प्रदाय के संकीर्ण और कलहमय स्वरूप का अनुभव होने पर वे समदर्शी, सर्वधर्मसमभावी, व्यापकदृष्टि और अंतर्मुख बन
गए हैं। यशोविजय - समय सत्तरहवीं शताब्दी। पिता का नाम नारायण
व्यवहारी-वणिक । माता का नाम सौभाग्य देवी । वतन का नाम कनहेई गाम (पाटण के आसपास)-गुजरात । दो भाई थे -~~-जशवंत और पद्मसिंह । गुरु का नाम नयविजय वाचक । दीक्षित अवस्था का नाम यशोविजय । ये बड़े विद्वान् थे । इन्होंने काशी में और आग्रा में रहकर न्यायशास्त्र अलंकारशास्त्र और व्याकरणशास्त्र का गंभीर तलस्पर्शी अध्ययन किया था। काशी में ही विद्वत्सभा में जय प्राप्ति करके 'न्याय विशारद' की पदवी पाई थी । जैन समाज में ये दूसरे हेमचन्द्राचार्य हुए हैं ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं । इनने अनेक ग्रंथ लिखे हैं जिनमें अधिकतर तर्कप्रधानदर्शनशास्त्र संबन्धी है और अन्य ग्रन्थ अध्यात्म विषय के हैं । भाषा में भी इन्होंने अपनी लेखनी चलाई है और बड़े बड़े मार्मिक स्वाध्याय, भजन व रास लिखे हैं । तर्क के गहन विषय को भी इन्होंने भाषा में उतार कर अधिक सरल रीति से दर्शाया है । न्यायखंडनखाद्य, न्यायालोक, गुरुतत्त्वविनिश्चय अध्यात्ममतपरीक्षा पातंजलयोग सूत्र के चतुर्थपादकी-कैवल्यपादकी-वृत्ति प्रभृति इनके ३७ ग्रन्थ तो मुद्रित हो चुके हैं और दूसरे ऐसे अनेक ग्रंथ आज तक अमुद्रित पड़े हैं और कितनेक तो उपलब्ध
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न होने के कारण दुष्प्राप्य से हो गये हैं। प्रस्तुत कवि जब काशी से लौटकर अहमदावाद आए तब गुजरात के उस समय के बादशाह महोवतखान ने इनका बड़ा स्वागत किया था । यशोविजयजी अवधान भी करते थे । ये बडे तार्किक थे, प्रतिभासंपन्न कविराज थे और सर्वधर्मसमभावी . आध्यात्मिक पुरुष थे । इनका स्वर्गवास डभोई (वडोदा स्टेट)
में हुआ जहां उनकी समाधि बनी हुई है। आनंदघन - दूसरा नाम लाभानंद । समय सत्तरहवीं शताब्दी ।
ये बडे आध्यात्मिक पुरुष थे। सुना जाता है कि इन्होंने मेडता-मारवाड में समाधि ली थी । इनके विषय में कोई निश्चित इतिवृत्त नहीं मिलता। ये शुद्धक्रियापक्षी, · अंतर्मुख
और जैनआगम के गहरे अभ्यासी थे। इनके रचे हुए अनेक पद और स्तवन मिलते हैं जिनका समुच्चित नाम 'आनंदघनवहोंतरी' और 'आनंदघनचोवीशी' है। आनंदघनजी
के साथ यशोविजयजी का उत्कट आध्यात्मिक प्रेम रहा था । . उदयरत्न - अठारवी शताब्दी । ये खेडा (गूजरात). के
रहनेवाले बडे नामी कवि हुए हैं । वडे तपस्वी, त्यागी
और आध्यात्मिक मुनि थे । 'रत्ना' नामक भावसार के ये गुरु थे । इनका देहांत मिआंगाम (गूजरात) में हुआ है। इनकी सब कृतियां भाषा में ही हुई हैं । भजन, भास, रास, शलोका, स्वाध्याय, स्तवन, स्तुति, वगेरे इन्होंने
अधिक वनाए हैं । इनको ‘उपाध्याय' की पदवी थी । आनंदवर्धन - अठारहवीं शताब्दी । ये महात्मा खरतरगच्छ के
थे । इन्होंने चोवीश तीर्थकर के स्तवन बनाए हैं जो .. 'चोवीशी' ने नाम से ख्यात है। .
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वीरविजय - ये बडे प्रसिद्ध कवि हुए हैं । भाषा में ही इनकी रचना पाई जाती है । गूजरात के थे । समय उन्नीसवीं शताब्दी । कवित्व में ये कविराज 'दयाराम' के समान थे ।
. खोडाजी ये लोंकागच्छ के थे । समय बीसवीं शताब्दी । ये गृहस्थ कवि मालूम होते हैं ।
. सांकळचंदजी समय वीसवीं शताब्दी । ये भी गृहस्थ कवि जान पड़ते हैं ।
सनातनी कवि
सूरदास
――
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समय सोळवीं शताब्दी |
इनका
बनाया हुआ
उस में एक
लाख पद्य हैं ।
।
सूरदास के भजन
सूरसागर ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं, इनका वृत्तांत तो अधिक प्रसिद्ध है उनकी अन्तर्मुखता और ईश्वरपरायणता के ठीक सूचक है । कबीर जन्मसमय : वि. स. १४९६ निर्वाण समय १५७४ । सुप्रसिद्ध है । इनके जीवन में नहीं, गुरु का नामः रामानंद |
ये महात्मा का वृत्तांत चमत्कृतियां भी कम स्त्री के नाम लोई ? 1 रैदास - ये वडे भक्त मालूम होते हैं । इनके भजन के प्रत्येक वचन से ईश्वरभक्ति टपक रही है । समय और वृत्तात अवगत नहीं ।
• नरसैंयो – प्रसिद्ध नाम नरसिंह महेता । समय वि. स. सोळवीं
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शताब्दी | जन्मस्थान जुनागढ — काठियावाड का एक मुख्य नगर । ज्ञाति वडनगरा नागर | अपनी भावज के टोणसे ये घरसे नीकल पडे और भगवद्भक्तिपरायण हुए । हारमाला वगेरे अनेक संग्रह इनके बनाये हुए है । इनके
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२६
प
समय में सौराष्ट्र का राजा मांडलिक था । इनके विषय में अनेक चमत्कार सुने जाते है । काठियावाड में तलाजा के पास गोपनाथ-~-समुद्रतटवर्ती स्थान-नामक महादेव के स्थान में इनकी प्रतिमा है । संत तुकाराम के समान ये भक्त कवि ने अस्पृश्यों का भी उद्धार करने के लिए अधिक प्रयास किया था । इनका भजन ---- "वैष्णव जन तो तेने कहीए जे पीर पराई जाणे रे"
राष्ट्र के प्राणसमान महात्मा गांधीजी को भी अधिक
प्रिय है। दयाराम-समय उन्नीसवीं शताब्दी । ज्ञाति साठोदरा
ब्राह्मण । स्थान चाणोद-गूजरात । दयाराम कवि वल्लभसंप्रदाय का था । इनके गुरु का नाम इच्छाराम भट्ट । 'रसिकवल्लभ' 'पुष्टिपदरहस्य' और 'भक्तिपोषण' इत्यादि
अनेक ग्रंथ इनके बनाए हुए है । निष्कुलानंद-समय उन्नीसवीं शताब्दी । संप्रदाय स्वामीनारायण ।
'भक्तिनिधि ' 'वचननिधि' और 'धीरजआख्यान' वगेरे
अनेक ग्रंथ इनके रचे हुए हैं। मुक्तानंद - समय उन्नीसवीं शताब्दी । संप्रदाय स्वामीनारायण ।
वतन धांगध्रा-काठियावाड । 'सतीगीता' 'उद्धवगीता'
इत्यादि ग्रंथ इनकी रचना है। भोजो भगत- समय उन्नीसवीं शताब्दी । ये काठियावाड . के ज्ञाति से कुणवी होने पर भी वडे नामी और मर्मवेधक .
कवि थे । गलिया घोडा चावुक लगाने पर ही चलता है इस न्याय से विलासपतित समाजरूप गलिये घोडे को इन्होंने अपने भजन रूप चाबुक द्वारा खूब फटकारा है ।
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इसीसे उनके भजनों का नाम 'चावखा' प्रसिद्ध हो गया है । य वडे निर्भीक और निस्पृह थे । 'चेलैयाआख्यान' इनकी कृति है।
रायचन्दभाई - जन्मस्थान ववाणीआ-काठीयावाड-मोरबी के
पास । पिता का नाम स्वजीभाई । माता का नाम देववाई । छोटे भाई का नाम मनसुखलाल । जन्म समय संवत् १९२४ कार्तिक शुदि १५ रविवार । जैन संप्रदाय के होने पर भी ये महापुरुष विशाल दृष्टिवाले थे, सर्वधर्मसमभावी थे । महात्मा गांधीजी को भी इनके साथ पत्र व्यवहार करने से व इनके साक्षात् परिचय से बडा लाभ हुआ है। निर्वाण समय संवत् १९५७ चैत्र व. वि. ५ मंगलवार दोपहर के दो बजने पर । 'श्रीमदराजचन्द्र' नामक एक वडे ग्रंथ में इनका सव पत्रव्यवहार, मोक्षमाला, आत्मसिद्धिशास्त्र इत्यादि प्रकट हो गये हैं । जैनधर्म के मर्म को समझने के लिए उनका उक्त 'श्रीमद्राजचन्द्र ' अतिउपयोगी ग्रन्थ है ।
नरसिंहरावभाई - दीवेटिया कुटुम्ब के ये गुजराती विद्वान्
प्रखर भाषाशास्त्री थे। गुजरात के वर्तमान कवियों में इनका असाधारण स्थान है । प्रतिभा, गांभीर्यपूर्णसाक्षरता, पृथक्करण
और निरीक्षण का कौशल ये सव इनके प्रधान गुण हैं । 'कुसुममाला,' 'हृदयवीणा,' 'नुपूरझंकार,' 'स्मरणसंहिता' और 'गुजराती भाषा और साहित्य' इत्यादि इनकी अनेक कृतियां प्रतीत हैं । इनका अवसान गत वर्ष ही हुआ । ये बडे ईश्वरभक्त ब्राह्मोपासक थे । ईश्वर पर. इनका विश्वास असाधारण था ।
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ऋतुं
क्युं
चारित्र
मांहे
छाण
चित्त
सहु
'परमाद
कागल
मगरुरी
नहीं
गाफील
रहे
मांहे
आखर
इग
हेगा
इग
हेगा.
(२)
(३)
(४)
तू
क्यूं
चारित
मांहिं
छानि
चित
चवदह
सव नाहि
प्रमाद
कागद हे
इग
मगरूरी
नहिं
गाफिल
रहो
मांहिं
आखिर
भाइ
लाख
चौराशी
योनि
माहे
रूपें
इक
होगा
इक
हैगा
अवधू
सुता
हे
भरोसा
ए
अजहु
बांधी
सुनी
चारित्र
(५)
(६)
(७)
*प्रस्तुत संग्रह में 'तुं' के स्थान में 'तू' समझना । x मुद्रित 'क्युं' के स्थान में 'क्यूं' समझना ।
भाई
लख
चौरासी
योनी
मह
रूपे
चौदह
नाहीं
he
इक
अवधू,
सूता'
है
भरोसा
या
अजहुँ
वांधी
सुनि
चारित
T
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चिनजारा
तम
- उपर
संपत्त
भइ
खवारी
पहेले
पद
महनत
नहीं
एहने
दरव
भसम भुत
ज्यं
62. 4.
त्युं
एह
करी
भाइ
ल्युं
*हमकुं
ईसर
(८)
(९)
(१०)
बनजारा
तुम
ऊपर
संपत
भई
ख्वारी
पहले
तू पद
मिहनत
नहिं
इहने
दरव
भसमभूत
ज्यूं
त्यूं
इह
करि
३१
हम
(भाइ)
खातर
ताहां
करूं
जूली
देखें
इग
साहेबका
जिहां
होय के
होय
बहेरा
बाजे
केइ
भाई पहरे
यूं वैसे
कुं
हेरा
सबकुं
समजो
ईस्वर
* 'हमकुं' के स्थान में 'हमकूं' ।
(११)
(१२)
e
(भाई)
खातिर
तहँ
करूं
झूली
देखूं
इक
साहवका
जाँ
है
हूबै क
वहरा
वाजै
गहरा
क
पहरि
बेसे
कुं
सबकूं
समझो
.....
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लोभायो
जाउ
चहुं
कार्य नहि नाहि
लुभायो जिउ
चिहुं नाहीं कार्य वुजावन नाहीं पायो
यौहि लाउ
बुझावन
पाई यौही लावो
नव
.
नव
छांडी
छांडि
दोन
दोनों
जिम.
जैसी छोहि
छाहि
को
कोई
याहि
जाहि .
समजों
समझौ
रुख ।
मुलकने आगल पूकारे निरखं
मुलककू
आगे • पुकारे निरखू
रूख . . काहि
काहीं साइ
साई
कीए
छोरं
छोडूं
कीन्हें जा को
इ
या को पाहार
पहार
कामसु
कामसूं
किये
कीए फीरे काहु
फिर
आधीन
कहुं
नाभि .
नाभी
अधीन
चेन
जीया . काहेकू जिने फेरि सांइ
+
काहेकुं फीरे
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________________
हांसल
हांसिल
(४०)
'अकिला सवारथ अंगिठी
अकेला स्वारथ अंगीठी
तुंहि
ताकुं
एसा
(४१)
फीराउ
ऐसा
माहा
ठगणी फिराऊं लेइ कर जलावू ___घर भवानी हूंणी तीरथीयाकुं वासू जाने
निहालो मतवालो लरे .
महा
ठगिनि निसिदिन (पाठांतर)
घर होइ भवानी तीरथ में होइ
(पाठांतर)
जला हुंणी
निहारो मतवारो
जीउ
.
फिरे
मोहिं उजियारो पखारो
मुझकुं अजुआलो पखालो
छोडि इक
.
मयल
भौ सांचे अल्फा खूब
मयल ऊनमें घेहेलो ऊदासे
मैल उनमें घहिलो उदासे
खुब
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शीख उंची
सीख जाये ऊंची ऊंच
जाइ नाउमें ऊपगृह समयों
ऊनकी
जाया . ऊंचा जावे : उपग्रह उनकी
नाऊमें समरयो
तुज
.
69. GI.
म.
RE
तुरंग
· तरंग जहाज.
जुठी
झहाज
. .
दोउन
दोनु
ओर एकेलो
अरु अकेलो
होसे मारी मिरा
मीरा
अध्यात्म
अध्यातम
विन
विनु
चिने
चीने
अचुत
अच्युत
कहां
कहं
जाई
ऊंधे
उंधे अग्नि .
.
सूको
सुको तुज
__ तुझ
दिना .
दीना दीवानी
. दिवानी
दुर्जन
दुर्जन
ओर न
और न
सुमरे
सुरें
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________________
३७.
.
पर्या
धर्यो (
कान
(७६)
रहिम
रहम निकम
_आसिक
आशिक
निकर्म
विचमों
विच में
शहेर नाटिक भांत के
शहर नाटक भाँति के
(७८)
जैसी
जैसे मुवे पीछे
मुए पिछे
प्यारशुं भुख आनंदशं
प्यारसूं
भूख आनंदसू
चबीना
चबैना
नाहिं
मिल करके एक मिल कैं दोउ
एक (पाठांतर)
नहिं किन्हीं
कीन्ही
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भजनों का अनुक्रम
भजन
or
१. भोर भयो उठ जागो मनुवा २. मेरे तो मुनि वीतराग ३. अब ही प्यारे चेत ले ४. या नगरी में क्युं कर रहना ५. साधो भाइ देखो नायक माया ६. प्यारे चेतन विचार ले ७. अवधू सुता क्यां इस मठ में ८. बिनजारा खेप भरी भारी ९. योगी तेरा सूना मन्दिर १०. अवधू वह जोगी हम माने ११. साधो नहिं मिलिया हम मीता १२. कुण जाणे साहेव का वासा १३. वालो माहरो क्यों भटके परवासा १४. दूर रहो तम दूर रहो तम दूर रहो १५. राम राम सब जगही माने १६. मन्दिर एक बनाया हमने १७. इतना काम करे जे जोगी
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१८. वा दिनकुं नहि जाना अब तक १९. ऐसो योग रमावो साधो २०. मैं कैसे रहुं सखी २१. मेरे पिया की निशानी २२. क्यों कर महिल बनावे २३. क्या मगरूरी बतावे पियारे २४. कोई योगी हमकुं जाने री २५. बडि दगावाज रे तूं २६. प्यारे साहेब सुं चित्त लावो २५. देखो पिया आगम जहवेरी आयो २८. ज्ञान की दृष्टि निहालो वालम २९. अनुभव ज्ञान संभारो ३०. जगगुरु निरपख को न दिखाय ३१. सजन सलूने लाल ३२. प्यारे काहेकुं ललचाय ३३. थिर नाहि रे थिर नाहि ३४. मन न काहु के वश ३५. किसके चेले किसके पूत ३६. जोगी एसा होय फलं ३७. तोलों बेर बेर फिर आगे ३८. अव क्युं न होत उदासी ३९. वावा हम विचार कर लगे ४०. परम पुरुष तुं हि ४१. माया माहा ठगणी में जानी ४२. चेतन ज्ञान की दृष्टि निहालो
.
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३
१
०
०
०
३
.४४
.४५
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४१
४३. परम गुरु जैन क्यों होवे ४४. परम प्रभु सब जन' शब्द ध्यावे ४५. चेतन जो तुं ज्ञान अभ्यासी ४६. जिऊ लाग रह्यो परभाव में ४७. देखो माइ अजव रूप जिनजी को
४८. जव लग आवे नहिं मन ठाम ४९. चेतन अब मोहि दर्शन दीजे ५०. चिदानन्द अविनासी हो ५१. में कीनो नहीं तो बिन ५२. सज्जन राखत रोति भलि
५३. आज आनंद भयो
५४. बाद बादीसर ताजे ५५. जो जो देखे वीतराग ५६. भजन बिनुं जीवित जैसे प्रेत
५७. ए परम ब्रह्म परमेश्वर ५८. माया कारमी रे
५९. कब घर चेतन आवेंगे मेरे
-६०. धार तरवारनी सोहिली
६१. कुंथु जिन ! मनडुं किमही न वाझे
६२. अब हम अमर भये न मरेंगे
६३. राम कहो रहमान कहो ६४. शहेर वडा संसारका -६५. परमेसर शुं प्रीतढी रे ६६. सुणि पंजर के पंखियां रे
६७. शीतल शीतलनाथ सेवो
x
४६
४८
४९
५१
५२
५३
५४
५५
५६
५७
५८
५९
६०
६१
६२
६३
६५
६६
૬૮
७०
७१
७२
७३
७४
७५
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.
.
. .
- ४२
७६
.
न
.४२ ६८. सुविधि जिनेसर साहिवा रे ६९. आळस अंगथी परिहरो ७०. शाणा श्रावक थइने डोले । ७१. कफनीए केर मचाव्यो राज ७२. जैसे राखहु वैसेहि रहौं । ७३. प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो ७४. रे मन ! मूरख जनम गँवायो ७५. तुम मेरी राखो लाज हरी ७६. समझ देख मन मीत पियारे . ७७. गुरु विन कौन बतावे वाट ७८. इस तन धन की कौन वडाई ७९. शूर संग्राम को देख भागे नहीं ८०. निंदक बावा वीर हमारा ८१. प्रभुजी तुम चंदन हम पानी ८२. संत परम हितकारी जगमाही ८३. ज्यां लगी आतमा तत्त्व चीन्यो नहि ८४. वैष्णव नथी थयो तुं रे . ८५. हरिनो मारग छे शूरानो ८६. त्याग न टके वैराग विना ८७, जंगल वसाव्यु रे जोगीए ८८, धीर धुरंधरा शूर साचा खरा ८९. टेक न मेले रे ते मरद ९०. भक्ति शूरवीरनी साची रे .. ९१. जीभलडी रे तने हरि गुण गातां ९२. भगवत भजजो राम नाम रणुंकार .
d
माहा
९७
'९८
१००.
१०१
१०२.
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९३. दिलमां दीवो करो रे
९४. अपूर्व अवसर ९५. प्रेमळ ज्योति तारो
४३
९६. मंगल मंदिर खोलो ९७. वाह वाह रे मौज फकीरांदी
९८. काहे रे वन खोजन जाई
९९. जो नर दुःख में दुःख नहीं माने १००. धर्मपथ ढूंढा नहीं
१०१. भक्ति भगवत में नहीं
शब्दों की व्युत्पत्तियां और समजूती शब्दों की व्युत्पत्तियां और समजूती में आए हुए शब्दों की सूचि
१०४
१०५
१०९..
१११
१५२
११३
११४
११५
११६
११७–२१९
२२०–२२४०
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:
भजन का अंक
अकारादि क्रम से भजनों की सूचि
भजन का
अग्रपद
२९ अनुभव ज्ञान
९४ अपूर्व अवसर
३८ अब क्युं न
६२ अब हम अमर
३ अव ही प्यारे
१० अवधू वह जोगी
७ अवधू सुता क्यां ५३ आज आनंद भयो
६९ आळस अंगथी
१७ इतना काम
७८ इस तन धन
५७ ए परम ब्रह्म १९ ऐसो योग रमावो.
७१ कफनीए केर ५९ कब घर चेतन.
भजन का
अंक
भजन का
अग्रपद
९८ काहे. रेवन
३५ किसके चेले
१२ कुण जाणे साहेव का
६.१ कुंथु जिन ! मनहुँ
२४ कोई योगी हमकुं
२३ क्या मगरूरी
२२ क्यों कर महिल
७७ गुरु विन कोन
५० चिदानन्द अविनासीः
४९ चेतन अब मोहि
४५ चेतन जो तुं
४२ चेतन ज्ञान की दृष्टि
३० जगगुरु निरपख
४८ जब लग आवे
४६ जिक लाग रह्यो
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९१ जीभलडी रे तने ७२ जैसे राखहु वैसे ३६ जोगी एसा होय ५५ जो जो देखे वीतरागने ९९ जो नर दुःखमें ८७ जंगल वसाव्युं रे ८३ ज्यां लगी आतमा २८ ज्ञानकी दृष्टि निहालो ८९ टेक न ले रे ७५ तुम मेरी राखो ३७ तोलों बेर बेर ८६ त्याग न टके ३३ थिर नाहि रे थिर ९३ दिलमां दीवो करो १४ दूर रहो तम दूर २७ देखो पिया आगम ४७ देखो माइ अजब १०० धर्म पथ ढूंढा ६० धार तरवारनी ८८ धीर धुरंधरा ८० निंदक वावा वीर हमारा ४३ परमगुरु जैन कहो क्यों होवे ४० परमपुरुष तुं हि ६५ परमेसर शुं प्रीतडी ४४ परमप्रभु सब जन
३२ प्यारे काहेकुं ललचाय ..
६ प्यारे चित्त विचारले २६ प्यारे साहेब सुं चित्त ८१ प्रभुजी तुम चंदन हम पानी ७३ प्रभु मोरे अवगुण चित्त ९५ प्रेमळ ज्योति तारो २५ बडि दगाबाज ५४ बाद बादीसर ३९ बावा हम विचार
८ बिनजारा खेप भरी भारी ९० भक्ति शूरवीरनी साची १०१ भक्ति भगवतमें ९२ भगवत भजजो रामनाम ५६ भजन विनुं जीवित जेसे प्रेत
१ भोर भयो उठ जागो ३४ मन न काहु के वश ५८ माया कारमी रे ४९ माया माहा उगणी
२ मेरे तो मुनि वीतराग २१ मेरे पियाकी निशानी ५१ में कीनो नहि २० मैं कैसे रहुं सखी ९६ मंगल मंदिर खोलो १६ मंदिर एक बनाया हमने . ५ या नगरी में क्युं कर
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१७
९ योगी तेरा सूना मंदिर ६३ राम कहो रहमान कहो १५ राम राम सब जगही ७४ रे मन मूरख १८ वा दिनकुं नहि जाना १३ वालो माहरो क्यों ९७ वाह वाह रे मौज फकीरांदी ८४ वैष्णव नथी थयो तुं रे ६४ शहेर वडा संसारका ७० शाणा श्रावक थइने डोले ६७ शीतल शीतलनाथ
७९ शूर संग्रामको देख ३१ सजन सलूने ५२ सज्जन राखत रीति ७६ समझ देख मन ११ साधो नहीं मिलिया
५ साधो भाइ देखो ६६ सुणि पंजर के ६८ सुविधि जिनेसर ८२ सत परम हितकारी ८५ हरिनो मारग छे शूरानो
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धर्मास [ भजनसंग्रह ]
C
4
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ज्ञानानन्द
राग भैरव-तीन ताल
भोर भयो उठ जागो मनुवा,
साहेब नाम संभारो । भो० ॥ टेक ॥
सुतां सुतां रयन विहानी,
अब तुम नींद निवारो ॥
मंगलकारि अमृतवेला,
थिर चित्त काज सुधारो ॥१॥
खिनभर जो तुं याद करेगो,
सुख निपजेगो सारो ॥ वेला वीत्या हे पछतावो,
क्यु कर काज सुधारो ॥२॥
घरब्यापारे दिवस वितायो,
राते नींद गमायो ।
इन वेला निधि चारित्र आदर,
ज्ञानानंद रमायो ॥ ३ ॥
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धर्मामृत .
राग झिंझोटी-ताल दादरा मेरे तो मुनि वीतराग,
चित्त माहे जोई। मे० ॥ टेक ॥ ' और देव नाम रूप,
दूसरो न कोई ॥१॥ साधन संग खेल खेल, - जाति पात खोई । अब तो वात फैल गई, ___ जाने सब कोई ॥२॥ घाति करम भसम छाण,
देह में लगाई। परम योग शुद्ध भाव,
खायक चित्त लाई ॥३॥ तंबू तो गगन भाव,
भूमि शयन भाई । चारित नव निधि सरूप,
ज्ञानानंद भाई ॥४॥
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________________
ज्ञानानन्द
(३)
दोहा
अब ही प्यारे चेत ले, घर पूंजी संभारो ।
सहु परमाद तुं छांड दे,
निरखो कागल सारो ॥ टेक ॥
मगरुरी तुम मत करो,
नहीं परगल तुझ माया |
पूंजी तो ओछी घणी,
व्यापार वधार्या
गाफील होकर मत रहे, पग देख फिलावो ।
घटमें निधि चारित हो,
ज्ञानानंद रमावो
॥ १
॥२॥
[4]
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________________
धर्मामृत
() राग कौशिया-तीन ताल
या नगरी में क्युं कर रहना।
राजा लूट करे सो सहना ॥ या० ॥ टेक ॥
नहि व्यापार इहां कोइ चाले। . नहि कोइ घरमाहे गहना ॥ या० १॥
तसकर पण निज दाव विचारे । __ भेद निहाले फिर फिर रहना । २
नारी पंच सिपाई साथे।
रमण करे नित कुणसें कहना ॥ या० ३॥ अंजलि जल जिम खरची खूटे ।
आखर इग दिन हेगा परना । ४ यातें नवनिधि चारित संयुत ।
इंग ज्ञानानंद हेगा सरना ॥ या० ५॥ .
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I
अपनानन्द
ڈیا
(4)
राग बिलावल, अथवा मल्हार - तीन ताल
[७]
साधो भाइ देखो नायक माया | सा० ॥ टेक ॥
पांच जातका वेस पहिराया, बहुविध नाटक खेल मचाया ॥ सा० १ ॥
· लाख चौराशी योनि मांहे, नाना रूपें नाच नचाया । चवदह राजलोक गत कुलमें, विविध भांति कर भाव दिखाया ॥ सा०२ ॥
अब तक नायक धायो नाहिं, हार गयो कहुं कुनसें भाया । यातें निधि चारित्र सहायें, अनुपम ज्ञानानंद पद भाया ॥ सा०३ ॥
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[2]
(६)
सोरठा
प्यारे चित्त विचार ले, तुं कहांसें आया । वेटा बेटी कवन हे, किसकी यह माया
आवनो जावनो एकलो, कुण संग रहाया ।
धर्मामृत
नीसर जावो फंदसें, इग छिनमें भाया ।
11 2.11
पंथक हो कर जालमें, कैसें लपट्यो भाया ॥ २॥
जो निधि चारित आदरे, ज्ञानानंद रमाया ॥ ३ ॥
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ज्ञानानन्द
(19)
राग आशावरी-तीन ताल
[९]
अवधू सुता क्या इस मठ ॥ अ० ॥ टेक ॥
इस मठका हे कवन भरोसा, पड जावे चटपटमें ॥ अ० ॥ छिनमें ताता, छिनमें शीतल, रोग शोग बहु मठमें ॥ अ० १ ॥
पानी किनारे मठका वासा, कवन विश्वास ए तटमें । अ० । सूता सूता काल गमायो, अज हुं न जाग्यो तुं घटमें ॥ अ० २ ॥
घरटी फेरी आटो खायो, खरची न बांधी वटमें । अ० । इतनी सुनी निधि चारित्र मिलकर, ज्ञानानंद आए घटमें || अ०३ ||
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{१०]
hurt
धमामृत
राग आशावरी-तीन ताल
बिनजारा खेप भरी भारो || बि० ॥ टेक ॥
चार देसावर खेप करी तम, लाभ लह्यो बहु भारी । बि० ॥ फिरता फिरतां भयो तुं नायक, लाखी नाम संभारी । बि० १॥ सहस लाख करोडां उपर, नाम फलायो सारी । बि०। बेटा पोतरा बहु घर कीना, जगमें संपत्त सारी ॥ बि० २ ॥ खूटी खरची लद गयो डेरो, पड गयो टांडो भारी । बि०। विन खरची तें कवन संभारे, टांडे की भइ खवारी ॥ बि० ३ ॥
पहेले देखी पग जो राखे, निधि चारित तुं धारी । वि०। मानानंद पद आदरतो, खरची होती सारी |बि०४॥
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ज्ञानानन्द
[११]
राग आशावरी-तीन ताल
· योगी तेरा सूना मंदिर क्युं । योगी० ॥ टेक ॥
बहु महनत कर मंदिर चुनियो, अब नहीं बसता क्यु ॥ यो०१॥
तीरथ जल कर एहने धोया, भोग सुरभि दरव क्युं । योगी० । भसम भूत ए मंदिर उपर, घास लगाया क्युं ॥ योगी० २ ॥
राम नाम एक ध्यान में योगी, धूनी ज्यु की त्युं । योगी० । एह विचार करी भाइ साधो, नवनिधि चारित ल्युं योगी० ॥ ३ ॥
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________________
[१४]
धर्मामृत
(१२)
राग कौशिया-तीन ताल
कुण जाणे साहेबका वासा, जिहां रहता हे साहिब साचा ।
कु० ॥ टेक ॥ साधु होय केइ जलमें बूडे, जिम मछली का है जलवासा ।कुं० १॥ बामण होय कर गाल बजावे, फेरे काठ की माल तमासा । ' गौमुखि हाथे होठ हलावे, तिणका साहिब जोवे तमासा ।कु० २॥ मुल्ला होय कर बांग पुकारे क्या कोइ जाणे साहिब बहेरा। कीडी के पग नेउर वाजे, सो बी साहिव सुनता गहेरा ॥ कु०३॥ कंठ काठ केइ मुहडो बांधे, काला चीवर पहरे तमासा । छोत अछोत का पानी पीवे, भक्ष अभक्ष भोजनको आसा कुं०४॥ साधु भए असवारी बेसे, नृप पर नीति करे सुख खासा । पंचाग्नि केइ ताप तपत हे, देह खाख रासभ पर जासा॥ कु० ५॥ आठ दरव आगल केइ राखे, देव नाम परसाद लगाता। घंट बजाडो आपहिं खावे, नितनित साहिब कुं दिखलाता |कु०६॥ सरवंगी जे सबकुं माने, अपनी अपनी मतिमें बहुरा । साहेब सब नटवाजी देखे, जग जन कारज वस भयावहुरा ।।कु०७॥ इमकर नहिं कोइ साहेब मिलता, जगमें पाखंड सर्व ही कीता। चारित्र ज्ञानानंद विना नहीं, समजो जगमें तन कोई मीता कु०८||
स खासा ।
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ज्ञानानन्द
(१३)
राग धनाश्री –तीन ताल
( वालो माहरो ) कयौं भटके परवासा, तुज मठ निरखो साहेब वासा | वा० ॥ टेक ॥
बिनु अनुभव ताकुं नहिं जाने,
देखे कैसें उजासा ॥ वा० १ ॥
नहिं मानस नहिं नारी साहिब, नहिं नपुंसक आगम भासा ।
पांचो रंग जाके नहिं दिसे,
तामे नहिं गंधरस का वास| || वा० २ ॥
नहिं भारी नहिं हलका साहेब, नहिं रूखा नहिं चिकनासा |
शीता ताता जाके न पावे,
कोइ संघयण जाके नहिं पावे,
[१५]
F
अप्रतिबंध आगति गति जासा ॥ वा० ३ ॥
नहिं कोइ संठाण निवासा |
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१६] .
• धर्मामृत
जां देखे तो एक ही साहिब,
जग नभ परमित हे जसु वासा ।। वा० ४॥
सो साहब तुं अपना मठ में,
निरखो थिर चित्त ध्यान सुवासा । चारित ज्ञानानंद निधि आदर,
ज्योतिरूप निज भाव विकासा॥ वा०५॥
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ज्ञानानन्द
(१४)
राग टोडी - तीन ताल
दूर रहो तम दूर रहो तम दूर रहो, मोसुं तो तम दूर रहो री ॥ दू० टेक ॥
इतने दिन अमने दुःख दीघुं,
थारे संग कर सुख न लहो री ॥ दू० १ ॥
तीन लोक की ठगनी तूं ही,
तुज सम नहीं कोई एहवो करे री ।
मीठो बोली हिरिदय पैसे,
लाड करे बहु भांत परे री ॥ दू० २ ॥
था हवे तावे सागर में तुं, पाछे गोतो देय टरेरी ।
तुज कुटिला का कवन भरोसा,
बोलत ही तुं घात करे री ॥ दू० ३ ॥
इहां सेती तुं दूर परी जा,
इहां' थारी मति नांह लहेरी ।
!
चारित ज्ञानानंद रखवालो,
अम प्यारी मोरे पास रहे री ॥ दू० ४ ॥
[१७]
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[१८]
धर्मामृत
राग कौशिया-तीन ताल राम राम सब जगही माने,
राम राम को रूपं न जाने || रा०॥टेक॥ कवण राम कुण नगरी वासो
कहांसे आयो किहां भयो वासो॥रा० ॥ राम राम सहु जगमें व्यापी,
राम विना है कैसे आलोपी । २ ॥
राम विना हे जंगलवासा, · पाछे कोइ जाकीन करे आसा॥रा०३ ॥
राम हि राजा राम हि राणी, __ राम राम हि हैरो तानि । ४ ॥ रटन करत हे कवन रामको,
कैसो रूप बतावो वाको ॥ रा० ५ ॥ जे केइ वाको रूप बतावे,
ते हि ज साचो मुज मन भावे । ६ ॥ • सो निधि चारित ज्ञानानंदे,
जाने आपनो राम आनंदे ॥रा० ७॥
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ज्ञानानन्द
(१६)
राग बीभास-तीन ताल
मंदिर एक बनाया हमने मंदिर एक बनाया रे ॥ टेक ॥
[१९]
जिस मंदिर के दश दरवाजे एक बुंदकी माया रे | नानो पंखी जाके अंतर, राज करे चित्त राजा रे ॥ मं० ॥ १ ॥
हाड मांस जाके नहिं दीसे, रूप रंग नहिं जाया रे । पंख न दीसे कह से पिछानुं, षट रस भोगे भाया रे ॥ मं० ॥ २ ॥
जातो आतो नहिं कोइ देखे, नहिं कोई रूप बतावे रे | सब जग खायो तो पण भूखो, तृप्ति कबहिं न पावे रे ॥ मं० ॥ ३ ॥
जालम पंखी तालम मंदिर, पाछे कोन बतावे रे । चह पंखोको जो कोइ जाने, सो ज्ञानानंद निधि पावेरे ॥ मं० ॥ ४ ॥
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२०
: धर्मामृत
(१७)
: राग खमाज-तीन ताल इतना काम करे जे जोगी, सोइ योगने जाने रे ॥३० टेक ॥
मूंड मूंडाया भस्म लगाया, जोगी ना हम जाने रे । बकतर पहेरी रणकुं जीते, सो योगी हम जाने रे ।। इ० ॥१॥ राजा वशकर पांचों जीते, दुर्धर दोयने मारे रे । .. चार काटके सोल पिछाडे, सोइ योग सुधारे रे ।। इ० ॥२॥ जागृत भावे सरव समय रहे, परम चारित्र कहावे रे । ज्ञानानंद लहेर मतवाला, सो योगी मन भावे रे ॥ इ० ॥ ३ ॥
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ज्ञानानन्द
[२१]
(१८)
राग आसा (मांड ) - तीन ताल
वा दिनकुं नहिं जाना अवतक, कैसा ध्यान लगाया रे ॥ वा० टेक !!
जटा वधारी भस्म लगाइ, गंगा तीर रहाया रे ।
ऊर्ध बाह आतापना लेई, योगी नाम धराया रे ॥ वा० ॥ १ ॥
चार वेद, ध्वनि सूत धार कर, बामण नाम धराया रे शासतर पढके झगडे जीते, पंडित नाम रहाया रे ॥ वा० ॥ २ ॥
सुन्नत करके अल्ला बंदे, सीया सुन्नी कहाया रे । चाको रूप न जाने कोइ नवि केइ बतलाया रे ॥ वा० ॥ ३ ॥
जे केइ बाको रूप पहिचाने, तेहि ज साच जनाया रे । ज्ञानानंद निधि अनुभव योगें, ज्ञानी नाम सुहाया रे ॥ वा० ॥ ४ ॥
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[२२]
घामृतः
-
-
राग धनाश्री-तीन ताल
ऐसो योग रमावो साधो, ऐसो योग रमावो रे ।। ऐ० ॥ टेक ।। बरम विभूति अंग रमावो, दयातीर मन भावो रे । ज्ञान शोचतां अंतर घटमें, आतम ध्यान लगावो रे ॥ ऐ० ॥१॥
धरम शुकल दोय मुंदरा धारो, कनदोरो सम सारो रे । सुभ संयम कोपीन बिचारो, भोजन निरजरा धारो रे॥ऐ० ॥२॥
अनुभव प्याला प्रेम मसाला, चाख रहे मतवाला रे । पानानद लहरम जूल, सा यागा मदनाला
रमें जूले, सो योगी मदवाला रे ॥ ऐ० ॥३॥
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मानानन्द
____[२३] (२०)
राग पसंत-तीन ताल मैं कैसे रहुं सखी, पिया गयो परदेशो ॥ मैं० ॥ टेक ॥ रितु वसंत फूली वनराइ, रंग सुरंगीत देशो ॥ १ ॥ दूर देश गये लालची वालम, कागळ एको न आयो । निर्मोही निस्नेही पिया मुझ, कुण नारी लपटायो |॥ २ ॥
वसंत मासनी रात अंधारी, कैसे विरह बुझाया । इतने निधि चारित्र पुत वल्लभ, ज्ञानानंद घर आयो ॥ ३ ॥
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[२४]
(२१)
राग वसंत-तीन ताल
धर्मामृत
मेरे पिया की निशानी मोरे हाथ न आवे || मे० टेक ॥ रूपी कहुं तो रूप न दीसे, कैसे करो बतलावे ॥ मे० ॥ १ ॥
जोती सरूपी तेह विचारुं, करम बंध कैसें भावे । सिद्ध सनातन उपजन बिनसन, कैसे विचार सुहावे ॥ मे० ॥ २ ॥
वेद पुरान में नहि कहि दीसे, किण. परभाव रमावे । .. यातें चारित ज्ञानानंदी, एकहिं रूप कहावे ॥ मे० ॥ ३ ॥
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ज्ञानानन्द
(२२)
राग सारंग - तीन ताल
[२५]
क्यों कर महिल बनावे पियारे || क्यों० ॥ टेक ॥ पांच भूमिका महल बनाया, चित्रित रंग रंगावे पियारे ॥ क्यों ० १ ॥
गोखें बेठो नाटिक निरखे, तरुणी रस ललचावे । एक दिन जंगल होगा डेरा, नहिं तुज संग कछु जावे पियारे ॥ क्यों० ॥ २ ॥
तीर्थंकर गणधर बल चक्रि, जंगल वास रहावे । तेहना पण मंदिर नहिं दीसे, थारी कवन चलावे पियारे ॥ क्यों ० ३ ||
हरि हर नारद परमुख चल गए, तूं क्यों काल बितावे । तिनतें नवनिधि चारित आदर, ज्ञानानंद रमावे पियारे || क्यों ० ४ ॥
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[२६]
(२३)
राग गौड सारंग-तीन ताल
धर्मामृत
क्या मगरूरी बतावे पियारे ॥ टेक ॥
अपनी कहा चलावे ॥ पि० टेक ॥
कवन देश कुण नगरी से आया, कहां तुज वास रहावे ॥ प० ॥ १ ॥
कहा जिनस तुम लाए मगरू, किस बिध काल बितावे ॥ २ ॥
कहा जाने का मकसद होगा, कैसो विचार रहावे ॥ पि० ॥ ३ ॥
चार दिनांकी चांदनी हेगी, पाछे अंधार बतावे ॥ ४ ॥
1
घर घर फिरतां थारा हिं मानस, अंगुलीयां दिखलावे ॥ ५ ॥
तिनतें तुं मगरूरी छांडी, जग सम समता लावे ॥ ६॥
तो नवनिध चारित्र सहाये, ज्ञानानंद पद पावे ॥ पि० ॥ ७ ॥
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ज्ञानानन्द
[२७]
(२४)
राग सोरठ
कोइ योगी हमकुं. जाने री, मेरो कोइ नामकुं जान || को० टेक ॥ मानस नहि हम नारि नहि, नाहि नपुंसक जान || को० १ ॥
1
दादा बाबा नहि हम काका, ना हम कुण के बाप | को० । नाना मामा हम नहि मासा, कोइसें नहि आलाप || को० २ ॥
बेटा पोतरा गोलक नहि, नाती दुहिता न जान | को० । दादी चाची बेटी पोती, ना हम नारी मान || को० ३ ॥
गुरु चेला नहि हम काहूके, योगी भोगी नांह | को० । पांच जामें नहि हम कोइ, नहिं कोइ कुल छांह || को० ४ ॥
दरशन ज्ञानी चिद्घन नामी, शिव वासी हम जान | को० । चारित्र नवनिघ. अनुपम मूरती, ज्ञानानंद सुजान || को० ५ ॥
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[२८]
धर्मामृत
(२५)
राग सोरठ
बड़ि दगाबाज रे, तूं बडि दगाबाज प्यारी, तूं बढ़ि दगाबाज | टेक
1
तेरे खातर डूंगर दरी बिच, रही दुःख सह्यो में अपार । हांसी खूसी बहु नातरां कीधां, तूं कांइ भूलि गवार ॥ तूं ० १ ॥
1.
1
कवडी साटे तेर खातर, माहरो कीधो मोल |
धूंढक योगी यति संन्यासी, मुंडित कियो ते रोल ॥ तूं० २ ॥
मुडो बांधी का ते फाडी, बहुविध वेस कराय | दान करी सहु पाखंड कीघां, जन लुंट्यो मन भाय रे ॥ तुं० ३ ॥
घर घर भटक्यो तेरे साये, पोते पाप भराय | अब तूं काह न बोले मोसुं, तुं कपटीनी दिखलाय ॥ तूं० ४ ॥
ऐसो देखी भयो हुं ऊदासी; निधि चारित्र लहाय । ज्ञानानंद चेतनमय मूरति ध्यान समाधि गहाय ॥ तूं० ५ ॥
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ज्ञानानन्द
[२९] (२६) राग गौड मल्हार-तीन ताल प्यारे साहेब सुं चित्त लावो रे, साहेब दूर कह लावो रे ।। प्या० टेक साहेब एक ही हे जग व्यापी, नहि कहे भेद लहावे रे । प्या० १॥
जे केइ साहेब भेद बतावे, ते बहुरा जग पावे ।। पारसनाथ कहे कोइ बरमा, विष्णु शिव कहेलावे रे ॥ प्या० २॥
व्यान. ध्येय इग पारस रूप, ज्योति रूप बरम भावे । । केवलान्वयी ज्ञानी ते विष्णु, शिववासी शिव भावे रे ॥ प्या० ३॥
जोति रूप साहेब तो इग ही, तिनसुं ध्यान लगावो । निधि चारित्र ज्ञानानंद मूरति, ध्यान समाधि समावो रे।। प्या० ४॥
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[३०]
धर्मामृत
(२७)
राग मल्हार-तीन ताल
देखो पिया आगम जहवेरी आयो, नाना भूखन लायो ।।दे० टेक ।।
विनय कनकनो घाट बनायो, संयम रतन लगायो। निरमल ज्ञान को हीरक बिच में, दरशन मानक भायो । दे०१॥ खायक वैडूर्यनी पंगति, मौक्तिक ध्यान लगायो । समिति गुपति लीलम विद्रुम जिहां, शेष तत्व कहलायो । दे०२॥ ए सह भूषण मोल अमोला, निरखत चित्त लोभायो । हरखें निधि चारित निहालो, ज्ञानानंद रमायो, ॥ दे० ३ ।।
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ज्ञानानन्द
[३१]
-
(२८)
राग गौड सारंग-तीन ताल ज्ञान की दृष्टि निहालो, वालम, तुम अंतर दृष्टि निहालो । वा० टेक॥
बाह्य दृष्टि देखे सो मूढा, कार्य नहि निहालो । धरम धरम कर घर घर भटके, नाहि धरम दिखालो ।। वा० १॥ बाहिर दृष्टि योगवियोगे, होत महामतवालो । कायर नरे जिम मदमतवालो, सुख विभाव निहालो ॥ वा० २ ॥
बाहिर दृष्टि योगें भवि जन, संसृति वास रहानो। तिनतें नबनिधि चारित आदर, ज्ञानानंद प्रमानो ॥ वा० ३॥
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:
(३१) राग जयजयवंती - एक ताल मात्रा ६ सजन सलूने लाल, चरन न छोरुं ताल । मेरे तो अजब माल, तेरो इ भजन हे ॥ १ ॥
दोलत न चाहुं दाम, कामसुं न मेरे काम । - नाम तेरो आठो जाम, जिउ को रंजन हे ॥ २ ॥
तेरो हुं आधीन लीन, जल ज्युं मगन मीन । तीन जग केरो प्रभु, दुःख को भंजन हे ॥ ३ ॥
नाभि मरुदेवानंद, नयन आनंद चंद | चरन विनय तेरो, अमिय को अंजन हे ॥ ४ ॥
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विनयविजय
[३५] (३२) राग भूपाल तथा गोडी-तीन ताल
प्यारे काहेकुं ललचाय ॥ टेक ॥. या दुनियां का देख तमासा, देखत ही सकुचाय ॥ प्या० १॥ मेरी मेरी करत हे बाउरे, फीरे जिउ अकुलाय । पलक एक में बहुरि न देखे, जल बुंद को न्याय ॥ प्या०२॥ कोटि विकल्प व्याधि की वेदन, लही शुद्ध लपटाय । ज्ञान कुसुम की सेज न पाइ, रहे अघाय अघाय ॥ प्या० ३॥ किया दोर चिहुं ओर जोरसे, मृगतृष्णा चित्त लाय । प्यास बुजावन बुंद न पायो, यौहि जनम गुमाय ॥ प्या० ४॥ सुधा सरोवर हे या घटमें, जिसने सब दुःख जाय । विनय कहे गुरुदेव दिखावे, जो लाउ दिल ठाय ॥ प्या० ५॥
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[ ३६ ]
धर्मामृत
(३३)
राग छाया नट-तीन ताल
थिर नांहि रे थिर नाहि, यावत धन यौवन थिर नांहि । पलक एकमें छेह दिखावत, जैसी बादल की छांहि ॥ थिर० ॥ १
मेरे मेरे कर मरत बिचारे, दुनियां अपनी करी चाही । कुलटा स्त्री ज्यों उलटा होवे, या साथ किसीके ना याहि ॥ थिर० २ ॥
कहे दुनियां कहा हसे बाउरे, मेरी गति समजों नांहि । केते ही छोरे में प्यासे, केते ओर गहे बांहि ॥ थिर० ३ ॥
सयन सनेह सकल हे चंचल, किस के सुत किसकी माइ । रितु बसंत शिर रुग्व पात ज्यौं, जाय परोगे को कांही ॥ थिर० ४ ॥
अजरामर अकलंक अरूपी, सब लोगनकु सुखदाइ । विनय कहे भय दुःख बंधन ते, छोडनहार वे सांइ ॥ थिर०५ ॥
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विनयविजय
(३४)
राग बिहागडो
मन न काहु के वश मन कीए सब वश, मन की सो गति जाने या को मन वश हे ॥ १ ॥
पढो हो बहुत पाठ तप करो जैने पाहार, मन वश कीए बिनु तप जप बश हे ॥ २ ॥
काहेकुं फीरे हे मन काहु न पावेगो चेन, विषय के उमंग रंग कछु न दुरस हे ॥ ३ ॥ सोऊ ज्ञानी सोऊ ध्यानी सोउ मेरे जीया प्रानी, जिने मन वश कियो वाहिको सुजा हे ॥ ४ ॥ विनय कहे सौ धनु याको मनु छिन् छिन्, सांइसाइ सांसां सांइसें तिरस हे ॥ ५ ॥
[३७]
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[३८]
धर्मामृत
राग काफी
किसके चेले किसके पूत, आतमराम अकिला अबधूत ।
जिऊ जान ले ॥ अहो मेरे ज्ञानी का घर सुत, जिऊ जान ले, दिल मान ले ॥१॥ आप सवारथ मिलिया अनेक, आए इकेला जावेगा एक ॥
जि० दि० ॥२॥
मढी गिरंदकी झूठे गुमान, आजके काल गिरेंगी निदान
जि० दि० ॥३॥ तीसना पावडली बर जोर, बाबु काहेकुं साचो गोर ॥ .
जि० दि० ॥ ४॥ गि अंगिठी नावेगी साथ, नाथ रमोगे खाली हाथ ॥
जि० दि० ॥५॥ माशा झोली पत्तर लोभ, विषय भिक्षा भरी नायो थोभ ॥
जि० दि० ॥ ६ ॥ करमकी कथा डारो दूर, विनय विराजो सुख भरपूर ॥
जि० दि० ॥ ७॥
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विनयविजय
__
_[३९]
राग आशावरी-तीन ताल नोगी एसा होय फलं, परम पुरुष शुं प्रीत करं ओरसें
प्रीत हरु ॥१॥ निर्विषय की मुद्रा पहेरुं, माला फोराउं मेरा मनकी । म्यान ध्यान की लाठी पकरुं, भभूत चढाउं प्रभु गुनको ॥२॥ शील संतोष की कथा पहेलं, विषय जलावु धूणी । पांचुं चोर पेरें करी पकरुं, तो दिलमें न होय चोरी हुणी ॥३॥ खबर लेउं में खिजमत तेरी, शब्द सींगी बजाउं । घट अंतर निरंजन बेठे, वासुं लय लगाउं ॥४॥ मेरे सुगुरुने उपदेश दिया है, निरमल जोग बतायो । विनय कहे में उनकुं ध्याऊं, जिने शुद्ध मारग दिखायो ।।५।।
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[ [ 80 ]
(३७)
राग गोडी-तीन ताल
धर्मामृत
तोले वेर बेर फिर आयेंगे, जीउ जीवन मेरे प्यारे पियुकी, जो जो सोज न पावेंगे ॥ तो० १ ॥
बिरह दिवानी फिरुं हुं ढूंढती, सेज न साज सुहावेंगे । रूप रंग जोबन मेरी सहियो, पियु बिन कैसे देह दिखावेंगे ॥ तो ० २ ॥
नाथ निरंजन के रंजन कु, बोत सिणगार बनायेंगे | कर ले बीना नाद नगीना, मोहन के गुन गावेंगे ॥ तो ० ३ ॥ देखत पियुकुं मणि मुगताफल, भरी भरी थाल बघावेंगे । प्रेम के प्याले ज्ञाननी चाले, विरह की प्यास बुझावेंगे ॥ तो ० ४ ॥
सदा रही मेरे जिउ में पिउजी, पिउमें जिउ मिलावेंगे । विनय ज्योतिसें ज्योत मिलेगी, तब इहां वेह न आवेंगे || तो ० ५ ॥
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विनयविजय
_[४१ (३८) ' राग रामकली-तीन ताल अब क्युं न होत उदासी, हो आतम । अब क्युं नए आंकणी उलट पलट घट घेरी रही है, क्युं तुम आशा दासी हो० ॥१॥ निसि बासर उनसुं तुम खेलो, होत खलकमां हांसी । छोरो विषम विषय की आशा, ज्यु निकसें भव फांसी ॥ हो० ॥२॥ 'पूरण भई न कवहीं किसकी, दुरमति देत विसासी। जो छोरी नहीं सोबत इनकी, तो कहा भये संन्यासी हो०॥३॥ रूठ रही सुमति पटराणी, देखो हृदय विमासी । मुंझ रहे हो क्या माया में, अंते छोरी तुम जासी ॥ हो० ॥४॥ भाश करो एक विनय विचारी, अविचल पद अविनासी । आशा पूरण एक परमेसर, सेवो शिवपुरवासी ॥ हो० ॥ ५ ॥
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तोलों वेर बेर फिर
बिरह दिवानी फिरु : रूप रंग जोबन मेरी स
नाथ निरंजन के रंज कर ले बीना नाद न देखत पियुकुं मणि प्रेम के प्याले ज्ञानन सदा रहो मेरे जिउ विनय ज्योतिसे ज्य
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विनयविजय
[४३]
(४०)
परम पुरुष तुहि अकल अमूरति युही, अकल अगोचर भूप, बरन्यो न जात हे ॥ परम० ॥ १ ॥टेक॥ तिन जगत भूप, परम वल्लभ रूप, एक अनेक तुंही गिन्यो न गिनात हे ॥ परम० ॥२॥ अंग अनंग नाहिं, त्रिभुवन को तुं सांइ, सब जीवन को सुखदाइ, सुख में सोहात हे ॥ परम० ॥ ३ ॥ सख अनंत तेरो. ग्रह्यो ह न आवे घेरो. इन्द्र इन्द्रादिक हेरो, तो हुँ नहिं पात हे ॥ परम० ॥ ४ ॥ तुंही अविनाशी कहायो, लखेमें न का नहीं आयो । विनय करी जो चायो, ताकुं प्रभु पायो हे ॥ परम० ॥ ५ ॥
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[४६]
।
धर्मामृत
(४३)
राग धन्याश्री-तीन ताल थरमगुरु जैन कहो क्यों होवे, गुरु उपदेश विना जन मूढा, दर्शन जैन विगोवे । परमगुरु जैन कहां क्यों होवे ॥ टेक ॥१॥ कहत कृपानिधि समजल झीले, कर्म मयल जो धोवें । बहुल पाप मल अंग न धारे, शुद्ध रूप निज जोवे ॥ प० २॥ स्यादवाद पूरन जो जाने, नयगर्भित जस वाचा । गुन पर्याय द्रव्य जो बूझे, सोइ जैन हे साचा ॥ ५० ॥ ३ ॥
क्रिया मूढमति जो अज्ञानी, चालत चाल अपूठी। जैन दशा ऊनमें ही नाही, कहे सो सब ही जूठी ।।१०४॥
पर परनति अपनी कर माने, किरिया गर्वे घेहेलो। उनकुं जैन कहो क्युं कहिये, सो मूरखमें पहिलो ।। ५० ॥ ५ ॥
ज्ञानभाव ज्ञान सब मांही, शिव साधन सईहिए। नाम मेखसें काम न सोझे, भाव ऊदासे रहिए ॥ १०॥६॥
ज्ञान सकल नय साधन साधो, क्रिया ज्ञानको दासी । क्रिया करत घरतु हे ममता, याहि गले में फांसी ॥ ५० ७॥
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यशोविजय
[ ४७ ]
क्रिया बिना ज्ञान नहिं कबहुँ, क्रिया ज्ञान बिनु नांही । क्रिया ज्ञान दोऊ मिलत रहतु हे, ज्यों जल रस जल मांही ॥ प० ८ ॥
क्रिया मगनता बाहिर दीसत, ज्ञानशक्ति जस भांजे । सदगुरु शीख सुने नहीं कब हुं, सो जन जनतें लाजे ॥ १०९ ॥
तत्वबुद्धि जिनकी परनति है, सकल सूत्र की कुंची । जग जसवाद वदे उनहा को, दशा जस उंची ॥ प० १० ॥
जैन
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[४८]
(४४)
राग धन्याश्री- तीन ताल
धर्मामृत
परम प्रभु सब जन शब्दें ध्यावे ॥
जब लग अंतर भरम न भांजे, तब लग कोउ न पावे ॥ प०१ ॥ सकल अंस देखे जग जोगी, जो खिनु समता आवे । ममता अंघ न देखे याको, चित्त चिहुं उरे ध्यावे ॥ १०२ ॥
सहज शक्ति अरु भक्ति सुगुरु की, जो चित्त जोग जगावे । गुन पर्याय द्रव्यसुं अपने, तो लय कोउ लगावे ॥ ५०३ ॥
पढत पूरान वेद अरु गीता, मूरख अर्थ न भावे । इत उत फरत ग्रहत रस नाही, ज्यों पशु चर्वित चावे ॥ ५०४ ॥
पुद्गल से न्यारो प्रभु मेरो, पुद्गल आप छिपावे | उनसें अंतर नहीं हमारे, अब कहां भागो जावे ॥ १०५ ॥
अकल अलख अज अजर निरंजन, सो प्रभु सहज सुहावे । अंतरजामी पूरन प्रगट्यो, सेवक जस गुन गावे ॥ प० ॥ ६ ॥
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यशोविजय
[४९
राग विहाग-तीन ताल
चेतन जो तुं ज्ञान अभ्यासी । आपहि बांधे आपहि छोडे, निज मति शक्ति विकासी ॥ चे० ॥
१॥ टेक ॥
जो तुं आप स्वभावे खेले, आशा छोरी उदासी। . सुर नर किन्नर नायक संपति, तो तुझ घरको दासी ॥ चे० ॥ २ ॥
मोह चोर जन गुन धन लुसे, देत आस गल फांसी । आशा छोर उदास रहेजो; सो उत्तम संन्यासी ॥ चे० ॥ ३ ॥
जोग लइ पर आस धरत हे, याही जगमें हांसी। तुं जाने में गुन कुं संचु, गुन तो जावे नासी ॥ चे० ॥ ४ ॥
पुद्गल की तुं आस धरत हे, सो तो सबहिं विनासो । तुं तो भिन्न रूप हे उनतें, चिदानन्द अविनासी ॥ चे० ॥ ५॥
धन खरचे नर बहुत गुमाने, करवत लेवे कासी । तो भी दुःख को अन्त न आवे, जो आसा नहीं घासी॥ चे०६॥
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[५०]
धर्मामृत
सुख जल विषम विषय मृगतृष्णा, होत मूढमति प्यासी । विभ्रम भूमि भइ पर आसी, तुं तो सहज विलासी ॥ चे०७ ।। याको पिता मोह दुःख भ्राता, होत विषय रति मासी । भवसुत भरता अविरति प्रानी, मिथ्या मति ए हांसी ॥ चे०८॥
आसा छोर रहेजो जोगी, सो होवे सिव वासी। उनको सुजस बखाने ज्ञाता, अंतर दृष्टि प्रकासी ॥ चे० ९॥
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यशोविजय
(४६)
राग सारंग-तीन ताल
[५१]
जिऊ लाग रह्यो परभाव में, टेक ॥
सहज स्वभाव लखे नहिं अपनो, परियो मोह जंजाल में | जि०१ ॥
बंछें मोक्ष करे नहि करनी, दोलत ममता बाउ में । चहे अंध ज्युं जलनिधि तरवो, वेठो कांणे नाऊ में || जि० ॥२॥
परति पिशाची परवश रहेतो, खिन हुं न समरयो आउ में । आप बचाय सकत नहि मूरख, धोर विषय के धाउ में || जि०३ ||
पूर्व पुण्य धन सबहि ग्रसत हे, रहत न मूल बढाऊ में । तामें तुज केसे बनी आवे, नय व्यवहार के दाउ में ॥ जि०४ ॥
जस कहे अब मेरो मन लीनो, श्री जिनवर के पाउ में । चाहि कल्यान सिद्धि को कारन, ज्युं वेधक रस खाउ में || जि०५
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[५२]
(४७)
राग देवगंधार - तीन ताल
धर्मामृत
देखो माइ अजब रूप जिनजी को || देखो० ॥ टेक ॥
· उनके आगे और सबन को,
रूप लगे मोहि फीको | देखो० ॥ १ ॥
लोचन करुना अमृत कचोले, मुख सोहे अति नीको । कवि जसविजय कहे यों साहिब,
नेमजी त्रिभुवन टीको || देखो० ॥ २ ॥
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यशोविजय
(४८)
राग धन्याश्री- तीन ताल
[ ५३ ]
जब लग आवे नहिं मन ठामं ॥ टेक ॥
तब लग कष्ट क्रिया सवि निष्फल, ज्यों गगने चित्राम ॥ ज० १ ॥
करनी बिन तुं करेर मोटाइ, ब्रह्मवती तुझ नाम । आखर फल न लहेगो ज्यों जग, व्यापारी बिनु दाम ॥ ज० २ ॥
मुंड मुंडावत सबहि गडरिया, हरिण रोझ बन धाम । जटाधार वट भस्म लगावत, रासभ सहतु हे घाम ॥ ज० ३ ॥
ते पर नहीं योगको रचना, जो नहि मन विश्राम | चित अंतर पट छलवेकुं चिंतवत, कहा जपत मुख राम ॥ ज० ४ ॥
वचन काय गोपें दृढ़ न घरे, चित्त तुरंग लगाम | तामेतुं न लहे शिव साधन, जिउ कण सुने गाम ॥ ज०५ ॥
पढो ज्ञान धरो संजम किरिया, न फिरायो मन ठाम | चिदानंदघन सुजस विलासी, प्रगटे आतमराम ॥ ज० ६ ॥
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[ ५४ ]
(४९)
राग बिहाग - तीन ताल
चेतन अब मोहि दर्शन दीजे ॥ टेक ॥ तुम दर्शन शिव सुख पामीजे,
?
तुम दर्शन भव छीजे ॥ चेतन० ॥ १ ॥
धर्मामृत
तुम कारन तप संयम किरिया, कहो कहांलां कीजे । तुम दर्शन बिनु सब या जुठी, अन्तर चित्त न भीजे ॥ चेतन० ॥२॥
क्रिया मूढमति कहे जन केइ, ज्ञान और कुं प्यारो । मिलत भाव रस दोउ न भाखे, तुं दोनु तें न्यारो ॥ चेतन ० ॥३॥
सब में है ओर सब में नांही, पूरन रूप एकेो । आप स्वभावे वे क्रिम रमतो, तुं गुरु अरु तुं चेलो | चेतन० ||४||
अकल अलख प्रभु तुं सच रूपी, तुं अपनी गति जाने । अगम रूप आगम अनुसारे, सेवक सुजस बखाने ||चेतन० ||५||
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यशोविजय
राग सोहनी-तीन ताल
चिदानन्द अविनासा हो, मेरो चिदानन्द अविनासी हो ॥ टेक॥ कोर मरोर करम की मेटे, सहज स्वभाव विलासी हो।चिदानन्द०॥१॥
पुद्गल मेल खेल जो जगको, सो तो सबहि विनासी हो। पूरन गुन अध्यात्म प्रगटें, जागे जोग उदासी हो ॥ चिदा०॥२॥
नाम भेख किरियाकुं सब हो, देखे लोक तमासी हो । चिन मूरत चेतन गुन चिने, साचो सोउ संन्यासी हो॥चिदा०॥३॥
दोरो देवारकी किति दोरे, मत व्यवहार प्रकासी हो । अगम अगोचर निश्चय नय की, दोरी अनंत अगासी हो॥चिदा०॥४॥
नाना घट में एक पिछाने, आतमराम उपासी हो । भेद कल्पना में जड मूल्यो, लुब्ध्यां तृष्णा दासी हो ॥चिदा०॥५॥ धर्मसिद्धि नव निधि हे घट में, कहां ढुंढत जइ काशी हो । . जस कहे शान्त सुधारस चाख्यो,पूरन ब्रह्म अभ्यासी हो।चिदा०॥६॥
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[ ५६ ]
धर्मामृत
(५१)
राग केदारो-तीन ताल
में कोनो नही तो बिन ओरसुं राग ॥ टेक ॥
दिन दिन वान चढे गुन तेरो, ज्युं कंचन पर भाग । ओरन में हे कषायकी कलिका, सो क्युं सेवा लाग ॥ में० १ ॥
राजहंस तुं मानसरोवर, ओर अशुचि रुचि काग | विषय भुजंगम गरुड तुं कहियें, ओर विषय विषनाग ॥ में० २ ॥
ओर देव जल छीलर सरिखे, तुं तो समुद्र अथाग | तुं सुरतरु जगवंछित पूरन, ओर तो सुको साग ॥ में कीनो ० ३ ॥
तुं पुरुषोत्तम तुहि निरंजन, तुं शंकर वढ भाग । तुं ब्रह्मातुं बुद्धि महाचल, तुं हि देव वीतराग ॥ में कौनो ० ४ ॥
सुविधिनाथ तुज गुन फूलन को, मेरो दिल हे बाग | जस कहे भमर रसिक होइ तामें लीजें भक्ति पराग ॥ में० ५ ॥
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यशोविजय
[ ५७ ]
(५२)
सज्जन राखत रीति भली, बिनु कारण उपकारी उत्तम | - जाइ सहज मिलि, दुर्जन की मन परिनति काली, जैसी होय
गली ॥ स० १ ॥
'ओरन को देखत गुन जगमें, दुर्जन जाये जली | फल पावे गुन गुनको ज्ञाता, सज्जन हेज हली ॥ स० २ ॥
ऊंच इति पद बेठो दुर्जन, जाइ नाहिं बली । ऊपगृह ऊपर बेठी मीनी होत नहीं उजली ॥ स० ३ ॥
विनय विवेक विचारत सज्जन, भद्रक भाव भली । दोष लेश जो देखे कब हूं, चाले चतुर टली ॥ स० ४ ॥
अव में ऐसो सज्जन पायो, ऊनको रीत भली । श्री नयविजय सुगुरु सेवातें, सुजस रंग रली ॥ स० ५ ॥
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धर्मामृत
(५३)
छन्द (सवैया) 'आज आनन्द भयो, प्रभु को दर्शन लह्यो। . रोम रोम सीतल भयो, प्रभु चित्त आयो हे ॥ आ० ।।
मन हुं ते धारया तो हे, चल के आयो मन मोहे,
चरण कमल तेरो मन में ठहरायो हे ॥ आ० १ ॥ अकल अरूपी तुही, अकल अमूरति योहीं। निरख निरख तेरो, सुमति शुं मिलायो हे ॥ आ० ॥
सुमति स्वरूप तेरो, रंग भयो एक अनेरो, वाइ रंग आत्मप्रदेशे, सुजस रंगायो हे ॥ आ० २।।
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यशोविजय
[ ५९ ]
(५४)
बाद बादीसर ताजे, गुरु मेरो गच्छ राजे । पंच महाव्रत जहाज, सुधर्मा ज्युं सवायो हे || बा० १ ॥
विद्या को बडो प्रताप संग, जल ज्युं उठत तुरंग । निरमल जेसो संग समुद्र कहायो हे ॥ बा० २ ॥
सत्त समुद्र भरयो, धरम पोत तामें तरयो । शील सुखान वालम, क्षमा लंगर डारचो हे ॥ वा०३॥
सहड संतोष करी, तपतो तपी ह्या भरी । ध्यान रंजक धरी, देत मोला ग्यान चलायो हे ॥ वा० ४ ॥
एसो झहाज क्रिया काज, मुनिराज साज सजो । दया मया मणि माणिक, ताहि में भरायेो हे ॥ चा० ५ ॥
पुण्य पवन आयो, सुजस झहाज चलायो । प्राणजीवन एसो माल, घर बेठे पायो हे ॥ चा० ६ ॥
:
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· धर्मामृत
. (५५), जो जो देखे वीतरागने, सो सो होशे वीरा रे। ' विन देखे होसे नहीं कोइ, काइ होय अधीरा रे ॥ जो० १ ॥
समय एक नहीं घटसी जो, सुख दुःख की पीडा रे । तुं क्युं सोच करे मन कूडा, होवे वन जो हीरा रे ॥ जो०२॥
लगे न तीर कमान वान, क्युं मारी सके नहीं मिरा रे । तुं संभारे पुरुष बल अपनो, सुख अनंत तो पीरा रे ॥ जो०३ ॥
नयन ध्यान धरो वा प्रभु को, जो टारे भव भीरा रे। जस सचेतन धरम निज अपनो, जो तारे भव तीरा रे ॥ जो०४॥
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यशोविजय
......... _____[६१॥
राग देस-तीन ताल भजन बिनुं जीवित जेसे प्रेत, मलिन मंद मति डोलत घर घर,..
उदर भरन के हेत ॥ भ० १ !! दुर्मुख वचन बकत नित निंदा, सज्जन सकल दुःख देत । कब हुँ पाप को पावत पैसो, गाढे धुरिमें देत ।। भ० २।।
गुरु ब्रह्मन अचुत जन सज्जन, जात न कवण निवेत । सेवो नहीं प्रभु तेरी कब हु, भुवन नील को खेत ।। भ० ३ ॥
कथे नहीं गुन गीत सुजस प्रभु, साधन देव अनेत । रसना रस विगारो कहां लां, बुडत कुटुंब समेत ॥ भ० ४ !!
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६२]
धर्मामृत
(५७) राग-कानडो
'ए परम ब्रह्म परमेश्वर, परम आनंद मयि सोहायो । ए परताप की सुख संपती बरनी न जात मोपें,
ता सुख अलख कहायो । ए० १॥
ताः सुख ग्रहवे कुं मुनि मन खोजत, मन मंजन कर ध्यायो । सन मंजरी भइ, प्रफुल्लित दसा भइ, तापर भमर लोभायो ।ए०२॥
ममर अनुभव भयो, प्रभु गुण वास लह्यो । चरन करन तेरो अलख लखायो । एसी दशा होत जब, परम पुरुष तब, पकरत पास पठायो ।ए० ३॥
तब सुजस भयो, अंतरंग आनंद लह्यो । रोम रोम सीतल भयो, परमात्म पायो । अकल स्वरूप भूप, कोऊन परखत कूप, सुजस प्रभु चित आयो।एक
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यशोविजय
(५८) राग कालिंगडो-तीन ताल
माया कारमी रे, माया म करो चतुर सुजाण ।
माया वायो जगत वलुधो, दुःखियो थाय अजान ॥ जे नर मायायें मोहि रह्यो, तेने सुप्नें नहो सुख ठाम ॥ माया० १ ॥
न्हाना मोटा नरने माया, नारी ने अधकेरी । चली विशेष अधकी माया, गरढाने जाजेरो ॥ माया० २ ॥
माया कामण माया मोहन, माया जग धूतारी । मायाथी मन सहुनुं चलीयुं, लोभीने बहु प्यारी ॥ माया० ३ ॥
माया कारन देश देशान्तर, अटवी वनमा जाय । जहाज बेसीने द्वीप द्वीपान्तरे, जइ सायर जंगलाय ॥ माया० ४॥
माया मेली करी बहु भेली, लोभे लक्षण जाय । भयथी धन धरतीमा गाडे, उपर विसहर थाय ॥ माया० ५ ।।
योगी जति तपसी संन्यासी, नग्न थइ परवरिया । उंचे मस्तक अग्नि तापें, मायाथी न उगरिया ।। माया०६॥
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[ ६४ ]
शिवभूति सरिखो सत्यवादी, सत्यघोष कहेवाय । रत्न देखी तेनुं मन चलियुं, मरीने दुर्गति जाय || माया० ७ ॥
धर्मामृत
लब्धिदत्त मायायें नदियो, पडियो समुद्र मोझार । मुख माखनीयो थईने मरियो, पोतो नरक मोझार ॥ माया० ८ ॥
मन वचन कायायें माया, मूकी वनमां जाय । धन धन ते मुनीश्वर राया, देव गांधर्व जस गाय ॥ माया ०९ ॥
.
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यशोविजय.
(५९)
कब घर चेतन आगे मेरे, कब घर चेतन आगे ॥ टेक ॥
सखिरि लेवें बलैया बार बार ॥ मेरे कब० ॥ रेन दीना मानु ध्यान तुसाढा, कबहुं के दरस देखावेंगे।मेरे कव०॥१॥
विरह दीवानी फिरूं ढूंढती, पोउ पोउ करके पोकारेंगे। पिउ जाय मले ममता से, काल अनंत गमावेंगे। मेरे कब० ॥२॥
करुं एक उपाय में उधम, अनुभव मित्र बोलावेंगे। आय उपाय करके अनुभव, नाथ मेरा समझायेंगे ॥ मेरे कव०॥३॥
अनुभव मित्र कहे सुन साहेब, अरज एक अवधारेंगे । ममता त्याग समता घर अपनो, वेगे जाय अपनायेंगे।मेरे कव०॥४॥
अनुभव चेतन मित्र मले दोउ, सुमति निशान घुरावेंगे। विलसत सुख जस लीला में, अनुभव प्रीति जगावेंगे। मेरे कव०॥५॥
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[६६]
(६०)
राग रामगिरि - कडखो - प्रभातीनी ढाळ
धार तरवारनो सोहिलो दोहिली, चौदमा जिनतणी चरणसेवा;
धार पर नाचता देख बाजीगरा, सेवना धार पर रहे न देवा ।
एक कहे सेवीए विविध किरिया करी, फळ अनेकान्त लोचन न देखे; फळ अनेकान्त किरिया करी बापडा, रडवडे चार गतिमांहि लेखे.
गच्छना भेद बहु नयण निहाळतां, तत्त्वनी वात करतां न लाजे; उदरभरणादि निज काज करतां थकां, मोह नडिया कळिकाळ राजे ।
धर्मामृत
वचन निरपेक्ष व्यवहार जूठो कह्यो, वचन सापेक्ष व्यवहार साचो;
वचन निरपेक्ष व्यवहार संसारफळ,
सांभळी आदरी कांई राची ।
धा० १
धा० २
धा० ३
धा० ४
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आनंदघन
देव, गुरु, धर्मनी शुद्धि कहो किम रहे,
किम रहे शुद्ध श्रद्धा न आणे; शुद्ध श्रद्धान विण सर्व किरिया कही,
छारपरि लीपणो सरस जाणो।
धा० ५
पाप नहिं कोई उत्सूत्र भाषण जिसो, - धर्म नहिं कोई जग सूत्र सरिखो; सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे,
तेहनो शुद्ध चारित्र परीखो। धा० ६०
एह उपदेशनो सार संक्षेपथी,
जे नरो चित्तमें नित्य ध्यावे; ते नरो दिव्य बहु काळ सुख अनुभवी,
नियत आनंदघन राज पावे।
धा० ७
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[६८
धर्मामृत (६१) राग रामकली-अंवर दे हो मुरारी-ए देशी .. कुंथु जिन ! मनडु किमही न बाझे, जिम जिम जतन करीने राखं, तिम तिम अलगुं भाजे हो । कुं० १ रजनी वासर वसती ऊजड, गयण पायाले जाये; 'साप खायने मोहड्डं थोथु,' एह उखाणो न्याये हो । कुं० २
मुगतितणा अभिलाषी तपीया, ज्ञान ने ध्यान अभ्यासे; वयरी९ कांइ एहवं चिंते, नांखे अवळे पासे हो । कुं० ३
आगम आगमधरने हाये, नावे किण विधि आंकुं: किहां किण जो हठ करी हटकुं, तो व्याळतणी परे वांकुं हो । कुं० ४ नो ठग कहुं तो ठगतुं न देखें, साहुकार पिण नांहि; सर्व माहे ने सहुथी अलगुं, ए अचरिज मनमांहि हो। कुं० ५ जे जे कहुं ते कान न धारे, आप मते रहे कालो; सुर नर पंडित जन समजावे, समजे न माहरो साला हो । कुं० ६
में जाण्यु ए लिंग नपुंसक, सकळ मरदने ठेले; बीजी वाते समरथ छे नर, एहने कोइ न झेले हो। कुं० ७
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आनन्दघन
मन साध्यु तिणे सघळु साध्यु, एह वात नहि खोटी; 'इम कहे साप्यु ते नवि मानु, ए कही वात छे मोटी हो । कुं०८
मन दुराराध्य तें वसि आण्यु, ते आगमथी मति आणुं; आनंदघन प्रभु माहरु आणो, तो साचुं करी जाणुं हो. कुं० ९
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[७०]]
धर्मामृत
(६२) राग धनाश्री-तीन ताल
अब हम अमर भये, न मरेंगे। या कारन मिथ्यात दियो तज, क्योंकर देह धरेंगे ?
॥ अब० ॥१॥
राग दोष जग बंध करत है, इनको नाश करेंगे । मर्यो अनंत काल ते प्रानी, सो हम काल हरेंगे।
॥ अब० ॥ २ ॥ देह विनाशी, हुं अविनाशी, अपनी गति पकरेंगे। नासी नासी हम थिरवासी, चोखे है निखरेंगे।
॥ अब० ॥ ३ ॥ मर्यो अनंत वार बिन समज्यो, अब सुख दुःख बिसरेंगे। आनन्दघन निपट निकट अक्षर दो, नहीं सुमरे सो मरेंगे।
। अब० ॥४॥
।
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भानन्दघन
(६३)
राग केदार-तीन ताल
राम कहो रहमान कहो कोउ, कान कहो महादेव री पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री
॥ राम० ॥ १ ॥
भाजनभेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री तैसे खंड कल्पनारोपित, आप अखंड सरूप री
[७१]
॥ राम० ॥ २ ॥
निजपद रमे राम सो कहिये, रहिम करे रहिमान री कर्षे करम कान सो कहिये, महादेव निर्वाण री
॥ राम० ॥ ३ ॥
परसे रूप पारस सो कहिये, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री इह विधि साधा आप आनन्दघन, चेतनमय निकर्म री ॥ राम० ॥
४ ॥
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[७२]
धर्मामृत
(६४) राग केदारो-कुमर पुरंद साहसी-ए देशी शहेर बडा संसारका, दरवाजे जसु चार; रंगीले आतमा, चौराशी लक्ष घर वसे अति मोटो विस्तार। रं० १ घर घरमें नाटिक बने, मोह नचावनहार; वेस बने केइ भांतके, देखत देखनहार. २० २ . . चौद राजके चौकमें, नाटिक विविध प्रकार; भमरी देइ करत तत्थेइ, फिरी फिरी ए अधिकार । रं० ३ नाचत नाच अनादिको, हुं हार्यो निराधार; श्रीश्रेयांस कृपा कगे, आनंद के आधार । २०४
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1
आनंदवर्धन
(६५)
राग मेवाडो, देशी-माना दरजणनी
परमेसरशुं प्रीतडी रे, किम कीजे किरतार; प्रीत करंता दहिलि रे, मन न रहे खिण एकतार रे, मनडानी वातो जोज्यो रे, जुजुईधातो रंगबिरंगी रे; मनहुं रंगबिरंगी । रेम० १
[७३]
खिण घोडे खिण हाथीए रे, ए चित्त चंचल हेत; चुंप विना चाहे घणुं, मन खिण रातुं खिण स्वेत रे । म० २
टेक घरीने जो करे, लागी रहे एकान्त
प्रीति परंतर तो लहे, भाजे भवनी भ्रांत रे ।
धर्मनाथ प्रभुशुं रमे रे, न मळे बीजे ठाम; आनंदवर्धन वीनवे, सो साधे वंछित काम रे ।
म० ३
म० ४
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________________
[७४]
-
- धर्मामृत
राग जेतसिरि-देशी पारधीयानी सुणि पंजर के पंखीया रे, करी मीठे परिणाम रे; तुं है तोर रंगका रे, जपहु जिनेश्वर नाम रे। पं० मेरे जीउका सूडा, नीके रंगका रूडा एतो बोलो रे बोलो; । प्रभु के प्यारशं रे, खेलो करी एकतार रे । पं० १ उठत फिरत अनादिका रे, न मिटे भुख ने प्यास रे चार दिनका खेलना रे, या पंजर के वास रे । पं० २ इत उत चंच न लाईयें रे, रहीयें सहज सुभाय रे; मुनिसुव्रत प्रभु ध्याइयें रे, आनंदशुं चित्त लाय रे। पं० ३
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F
उदयरत्न
(६७)
शीतल शीतलनाथ सेबो, गर्व गाळी रे; भवदावानल भंजवाने, मेघमाळी रे ।
आश्रव रुंधी एक बुद्धि, आसन वाळी रे; ध्यान एहनुं मनमां धरा, लेई ताळी रे ।
कामने बाळी, क्रोधने टाळी, रागने राळी रे; उदय प्रभुनुं ध्यान घरतां, नित दीवाळी रे.
[ ७५ ]
शी० १
शी० २
शी०
02
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[७६]
.
धर्मामृत
(६८) मनमोहनारे लाल-ए देशी सुविधिजिनेसर साहिबा रे, मनमोहना रे लाल;
सेवो थइ थिर थोभरे, जगसोहना रे लाल; सेवा नवि होये अन्यथा रे, म० होये अथिरतायें क्षोभ रे ज० प्रभु सेवा अवुदधटा रे, म० चढि आवी चित्तमांहि रे ज० अस्थिर पवन जब उलटे रे, म० तब जाये विलई त्यांहि रे ज० पुंश्चला श्रेयकरी नहीं रे, म० जिम सिद्धांत मझार रे ज० अथिरता तिम चित्तथी रे म० चित्तवचन आकार रे . ज० अंतःकरणे अथिरपणुं रे, म० जो न ऊर्यु महाशल्य रे ज० तो श्यो दोष सेवा तणो रे, म० नवि आपे गुण दिल्लरे ज० तिणे सिद्धमां पण वांछीओ रे, म० थिरतारूप चरित्त रे ज० ज्ञान दर्शन अभेदथी रे, म० रत्नत्रयि इम उत्त रे. ज० सुविधिजिन सिद्ध वश्या रे, म० उत्तम गुण अनूप रे. ज. पद्मविजय तस सेवथी रे. म० थायें निज गुण भूप रे. ज.
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वीरविजय
(६९)
आळस
देशी- हमीरियानी
आळस अंगथी परिहरो, आळस छे दुःखदाय अलच्छि आळसु घर वसे, लच्छी ते दूर जाय
आळसु अळगो धरमथी, आळमुने संदेह क्षण क्षण नित नव ऊपजे, हैडे ते विश्वावीश पुण्ये नरभव पामीयो, चिहुं गति भमतां जोय आरज देश उत्तम कुळे, भाग्ये जन्म ज होय
आळस परिहरो प्राणीया, धर्मे उद्यम मांड सामग्र सूधी लही, आळस काठीयो छांड इंद्रिय पूरी पामीने, सांभळ सूत्र सिद्धांत देव गुरु धर्मने ओळखी, सेवो मन एकांत
सऌणे ०
स० आळस० १
ए आंकणी ०
सणे ०
आळस ० २
सढणे ०
आळस ० ३
[७७]
आळसे बांध्या प्राणीया, न करे धर्मव्यापार, पाम्यो चिन्तामणि परिहरी, ते ग्रहे काच गमार उद्यमथी सुख ऊरजे, उद्यमे दारिद्र जाय विद्या लक्ष्मी चाकरी, उद्यमे सफळी धाय
सट्टणे ०
आळस ० ४
सट्टणे ०
आळस ० ५
सणे ०
आळस ० ६
सहगे ०
साळर० ७
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सलणे०
[७८]
धर्मामृत आळस ऊंघे पीडिया, इह लोके सीदाय परलोकन शुं पूछवू, भवोभव दुःखीया थाय आळस० ८ नारी निभ्रंछे तेहने, आळसु माहे इन
सलूणे० सज्जनमां शोभा नहिं, आळसु दुःखीयो हीन . आळस० ९ पापी नर आळसुभला, धरमी उधमवंत
सलूणे० पंचम अंगे भाखीयो, भावे ते भगवंत . आळस० १० धर्मे दीसे बहु आळसु, पापे उद्यमवंत
सणे० पापे परभव दुःख लहे, धर्मे सुख अनंत आळस० ११ आई अरणिक अर्जुन मुनि, दढप्रहारी धीर आळस गोदडं नाखीने, उद्यमे थया वडवीर आळस० १२ एहq जाणीने उद्यमे, धरम करो नरनार . सलुणे० वीर कहे आळस विरमीये, विशुद्ध करी विचार आळस० १३
सदणे०
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- खोडाजी
. (७०)
नरसो श्रावक-चावखो - शाणा श्रावक थइने डोले, मुखेथी सत्य वचन नवी बोले, मम्मा चच्चानी गाळ दीये, ने आळ अनाहुत बोले; निंदा करतां नवरा न थाये, ए तो वेठां गपोडां फोले । शा० १ छिद्रग्राही छळ ताकतो होंडे ने मर्म पराया बोले, दगलबाजी करे राजी थइ, पाजी त्राजुए ओछु तोले । शाणा०२ अवगुणरूपी आळे देखी, तिहां कागडो थईने डोले, अगड लेइ एके पाळे नहि, ए तो चलावे पाने पोले । शा० ३ मुखे बांधी मुहपत्ति लजावी, ने धर्म लजाव्यो ढोले, खोडाजी कहे मात तातने लजायां, ने गुरुने लजाव्या गोले | शा०४
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[८०]
धर्मामृत
(७१),
.
कफनी
महाश्वेता-शुं कहुं कथनी मारी राज-ए राग कफनीए केर मचाव्या राज, कफनीए केर मचाल्यो; मने भवनाटक नचायो राज,
कफनीए० टेक संन्यासी हुं नगरनिवासी जनपरिचयथी उदासी; घ्याननो भंग थवाथी त्रासी पहाड उपर गयो नासी। क० १ एक गुफानो आश्रय लीधो, फळ पत्र फुल खाउं भावे; . एकांते घरं ध्यान प्रभुनु, त्यां विधि वांको थावे । राज क० २ एक दिन मारी कफनी कापी, उंदरडीए वेर वान्युः तस रोधे तन रक्षण अर्थ, बिल्लीनुं बच्चु में पाळ्युं । राज० क० ३ मंजारीनी गंधे उंदरडी, भय भाळीने भागी; एक उपाधि मटी तन पाछळ, बीजी उपाधि जागी। राज० क०४
काखमां घाली सांज सवारे, जउं हुं नित्य दूध पावा; तलेटीए भरवाड वसे ते, दे दूध जागी बावा । राज० क० ५ जातां वळतां काळक्षेपथी, आहेरने दया आवी; गाय उपाधिमय एक आपी, थाय न मिथ्या भावी । राज० क०६
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सांकळचंद
____[८१]
गायने खावा चारो जोइए, खेतर पंचे आप्यु: हळ कोदाळी साधन जाच्यां, दाटयु में बापर्नु दापुं । राज०० ७
रात दिवस महायत्न करीने, खेड खातर करी वाव्यु: कणबीज बोयां ध्यान भूल्यो हुं ध्यान खेतरतुं में ध्याव्युं । राजक०८
भीष्म दुकाळ पडयो आ वरसे, पाशेर जार न पाकी; चार थई ते गाये खाधी, महेसुल रही गयुं वाकी। राज०० ९
गाय ने विल्ली नाशी गयां बे, कफनी ने हुं पकडायां: वांक नथी कांई मारो साहेब, हुं निर्दोष छु राया । राज०० १०
कफ़नीनी कूडी मायामां, मार में खाधो भारी; योग ध्यान ने भान भूल्यो हुं धिक माया गोझारी । राज०० ११
'जा, कफनी हवे काम न तारु, हवे दिगम्बर थईशं; तजी संसारनी कूडी माया, प्रभुने शरणे जईशुं । राजक० १२
संन्यासीनी वात सुणीने, हाकम विस्मय पाम्यो खेडुत संन्यासीने छोड्या, चिन्तास्वरूप विरान्यो । राज००० १३
छोडी कफनीनी मोटी उपाधि, बगडी बारानी वाजी; सांकळचंद संसार उपाधि, क्रोड गमे रही गाजी। राजक० १४
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[८२]
धर्मामृत (७२)
राग जयतिश्री-तीन ताल जैसे राखहु वैसेहि रहौं । जानत दुख सुख सब जनके तुम मुखतें कहा कहौं । कबहुंक भोजन लहौं कृपानिधि, कब हूँ भूख सहौं कबहुँक चढौं तुरंग महागज, कबहुँक भार बहौं । कमलनयन घनश्याम मनोहर, अनुचर भयो रहौं । मुरदास प्रभु भक्त कृपानिधि, तुम्हरे चरन गहौं ।
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सूरदास
__
_८३)
(७३)
राग सिंध-काफी
प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो। समदरशी है नाम तिहारो, चाहे तो पार करो ।
इक नदिया इक नार कहावत, मैलो हि नीर भरो । जब मिल करके एक बरन भये सुरसरि नाम पर्या ॥ इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक पर्यो । पारस गुण अवगुण नहिं चितवत, कंचन करत खरा ॥
यह माया भ्रमजाल कहावत सूरदास सगरो । अबकी बेर मोहिं पार उतारो नहिं प्रन जात टरो ॥
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[८४ ]
(७४)
राग काफी-तीन ताल
धर्मामृत
रे मन ! मूरख जनम गँवायो ।
करि अभिभान विषय रस राच्यो स्याम सरन नहिं आयो ||
।
यह संसार फूल सेमर को सुन्दर देखि भुलायो । चाखन लाग्यों रुई गई उडि, हाथ कछू नहीं आयो ||
कहा भयो अब के मन सोचे, पहिले नाहिं कमायो । कहत सुर भगवंत भजन बिनु सिर धुनि धुनि पछितायो ||
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सूरदास
(७३)
राग आला-मांड, तीन ताल, या दीपचंदी
तुम मेरी राखो लाज हरी ।
तुम जानत सब अन्तरजामी । करनी कछु न करी ॥ १ ॥
औगुन मोसे बिसरत नाहीं, पल छिन घरी घरी ।
सब प्रपंच की पोट बांध करि अपने सीस धरी
दारा सुत धन मोह लिये हों सुधि बुधि सब बिसरी ।
सूर पतित को बेग उधारो,
॥ २ ॥
अब मेरी नाव भरी ॥ ३ ॥
[८५ ]
1
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________________
- [८६] ।
धर्मामृत
राग गजल-पहाडी धुन समझ देख मन मीत पियारे आसिक होकर सोना क्या रे । रूखा सूखा गम का टुकडा फीका और सलोना क्या रे ॥ पाया हो तो दे ले प्यारे पाय पाय फिर खोना क्या रे। जिन आंखिन में नींद घनेरी तकिया और विछौना क्या रे ॥ कहे कबीर सुनो भाई साधो सीस दिया तब रोना क्या रे ॥
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कवीर
..[८७]
(७७)
राग हमीर-तीन ताल गुरु बिन कौन बतावे बाट ? बडा विकट यमघाट ॥ध्रु०॥ भ्रांति की पहाडी नदिया बिचमों अहंकार की लाट ॥ १ ॥ काम क्रोध दो पर्वत ठाढे लोभ चोर संघात ॥ २ ॥ मदमत्सर का मेह बरसत माया पवन वहे दाट ॥ ३ ॥
कहत कबीर सुनो भई साधो क्यों तरना यह घाट ? ॥ ४ ॥
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[८८]
(७८)
राग पीलू - दीपचंदी
इस तन धन की कौन बढाई । देखत नैनों में मिट्टी मिलाई ॥ ध्रु० ॥
अपने खातर महल बनाया |
आपहि जा कर जंगल सोया ॥ १ ॥
हाड जले जैसे लकडी की मोली
धर्मामृत
बाल जले जैसी घास की पोली ॥ २ ॥
कहत कबीरा सुन मेरे गुनिया ।
आप मुवे पिछे डुब गई दुनिया ॥ ३ ॥
:
1
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कबीर
(७९)
राग मालकंस -- झपताल
शूर संग्राम को देख भागे नहीं, देख भागै सोई शूर नाहीं ।
काम औ क्रोध मद लोभ से जूझना मँडा घमसान तहँ खेत माह ॥
शील औ सौच संतोष साही भये, नाम समसेर तहँ खूब वाजै ।
कहै कबीर कोई जूझिहै शूरमा कायरा भीड़ तहँ तुरत भाजै ॥
[८९]
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[९०]
धर्मामृत
(८०)
राग कौशिया-तीन ताल निंदक बाबा बीर हमारा ।
बिन ही कौडी बहै बिचारा ॥
कोटि कर्म के कल्मष काटै।
काज संवारै बिन ही साटै ।। आपन डूबै और को तारै ।
ऐसा प्रीतम पार उतारै ।। जुग जुग जीवौ निंदक मोरा ।
रामदेव ! तुम करौ निहोरा || निंदक मेरा पर उपकारी ।
दाद निंदा करै हमारी ॥
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रैदास
राग कौशिया-तीन ताल प्रभुजी ! तुम चंदन, हम पानी । जाकी अंग अंग बास समानी ॥
प्रभुजी, तुम घन वन हम मोरा । जैसे चितवत चंद चकोरा ॥
प्रभुजी, तुम दीपक हम बाती । जाकी जोति बरै दिन राती ॥
प्रभुजी, तुम मोती हम धागा । जैसे सोनहिं मिलत सुहागा ॥
प्रभुजी, तुम स्वामी हम दासा । ऐसी भक्ति करै रैदासा ॥
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{९२] .
धर्मामृत (८२)
राग भैरवी-तीन ताल संत परम हितकारी, जगत माँही ।। ध्रु० ॥ प्रभुपद प्रगट करावत प्रोति, भरम मिटावत भारी ॥ १॥
परम कृपालु सकल जीवन पर, हरि सम सब दुखहारी ॥२॥
त्रिगुणातीत फिरत तन त्यागी, रोत जगत से न्यारी ।। ३ ॥
ब्रह्मानंद संतन की सोबत, मिलत है प्रकट मुरारी ॥ ४ ॥
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नरसैंयो
___[९३)
(८३) राग आसा मांड-सपताल ज्यां लगी आतमा तत्त्व चीन्यो नहि
त्यां लगी साधना सर्व जूठी मानुषादेह तारो एम एळे गयो
मावठानी जेम वृष्टि वूठी |
शुं थयुं स्नान पूजा ने सेवा थकी
शुं थयुं घेर रही दान दीधे शुं थयुं धरी जटा भस्म लेपन कर्ये ?
शुं थयुं वाळ लोचन कीधे ? शुं थयुं तप ने तीरथ कीधा थकी . शुं थयुं माळ ग्रही नाम लीधे ? शुं थयुं तिलक ने दुलसी धार्या थकी
शुं थयुं गंगजल पान कीधे ? शुं थयुं वेद व्याकरण वाणी वये
शुं थयुं राग ने रंग जाये ! शुं थयुं खट दरशन सेव्या थकी
शुं थयु वरणना भेद लाग्य :
३
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धर्मामृत
'ए छे परपंच सहु पेट भरवा तणा
आतमाराम परिब्रह्म न जोयो भणे नरसैंयो के तत्त्वदर्शन विना
रत्नचिंतामणि जन्म खोयो
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दयाराम
(८४)
राग आसावरी -तीन ताल
वैष्णव नथी थयो तुं रे, शीद गुमानमां घुमे हरिजन नथी थयो तुंरे टेक
C
[4]
हरिजन जोइ हैडुं नव हरखे द्रवे न हरिगुण गातां कामधाम चटकी नथी फटकी, क्रोधे लोचन रातां तुज संगे कोइ वैष्णव थाए तो तुं वैष्णव साचो तारा संगनो रंग न लागे, तांहां लगी तुं काचो परदुःख देखी हृदे न दाझे, परनिंदा नथो डरतो वहाल नथी विट्ठलशुं साचुं, हठे न हुं हुं करतो परोपकारे प्रीत न तुजने, स्वारथ छूट्यो छे नहि 'कहेणी तेहेवी रहेणी न मळे, कांहां लख्युं एम कहेनी
भजवानी रुचि नथी मन निश्चे, नथी हरिनो विश्वास जगत तणी आशा छे जांहां लगी, जगत गुरु तुं दास मन तणो गुरु मन करेश तो, साची वस्तु जडशे दया दुःख के लुख मान पण, साचुं कहेवुं पडशे
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[९६ ]
(८५)
राग छाया खमाज —-तीन ताल
हरिनो मारग छे शूरानो, नहि कायरनुं काम जोने परथम पहेलुं मस्तक मूकी, चळती लेवुं नाम जोने ध्रु०
सुत वित दारा शीश समरपे, ते पामे रस पीवा जोने सिंधु मध्ये मोती लेवा मांही पड्या मरजीवा जोने १
धर्मामृत
मरण आंगमे ते भरे मूठी, दिलनी दुग्धा वामे जोने तीरे उभा जुए तमाशो, ते कोडी नव पामे जोने २
प्रेमपंथ पावकनी =वाळा, भाळी पाछा भागे जोने मांही पड्या ते महासुख माणे, देखनारा दाझे जोने ३
माथा साठे मांघी वस्तु, सांपडवी नहि रहेल जोने महापद पाम्या ते मरजीवा, मूकी मननो मेल जोने ४
राम अमलमां राता माता पूरा प्रेमी परखे जोने मीतमना स्वामीनी लोला ते रजनीदंन नरखे जोने ५
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निष्कुळानन्द
(८६)
राग सारंग — दीपचंदी ताल
त्याग न टके रे वैराग बिना, करीए कोटि उपाय जी अंतर उंडी इच्छा रहे, ते केम करीने तजाय जी ध्रुव ० वेष लीधो वैरागनो, देश रही गयो दूर जी उपर वेष अच्छो बन्यो, मांही मोह भरपूर जी काम क्रोध लोभ मोहनुं ज्यां लगी मूळ न जाय जी संग प्रसंगे पांगरे, जोग भोगनो थाय जी
[९७]
१
उष्ण रते अवनी विषे, बीज नव दीसे बहार जी घन वरसे वन पांगरे, इंद्रिय विषय आकार जी चमक देखीने लोह चळे, इंद्रिय विषय संजोग जी अणभेटे रे अभाव छे, भेटे भोगवशे भोग जी उपर तजे ने अंतर भजे, एम न सरे अरथ जी वणइयो र वर्णाश्रम थकी, अंते करशे अनरथ जो भ्रष्ट भयो जोगभोगथी, जेम बगड्युं दूध जी युं घृत मही माखण थकी, आपे धयुं रे अशुद्ध जी पळमां जोगी ने भोगी पळमां, पळमां गृहो ने त्यागी जी निष्कुलानंद ए नरनो, वणसमज्यो वैराग जी
६
३
५
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________________
[९८
धर्मामृत
(८७) . राग सारंग-दीपचंदी ताल . जंगल वसाव्यु रे जोगीए, तजी तनडानी आश जी बात न गमे आ विश्वनी, आठे पहोर उदास जी ६० सेज पलंग पर पोढता, मंदिर झरुखा मांय जी तेने नहि तृण साथरो, रहेता तरुतळ छांय जी शाल दुशाला ओढता, झीणा जरकशी जाम जी तेणे रे राखी कंथागोदडी, सहे शिर शीत घाम जी भावतां भोजन जमता, अनेक विधिनां अन्न जी ते रे मागण लाग्या टुकडा, मिक्षा भवन भवन जी ३. हाजी कहेतां हजारूं ऊठता, चालतां लश्कर लाव जी। ते नर चाल्या रे एकला, नहिं पेंजार पाव जी ४ रहो तो राजा रसोई करुं, जमता जाओ जोगीराज जो खीर नीपजावू क्षणुं एकमां, ते तो भिक्षाने काज जी ५ आहार कारण उभो रहे, एकनी करी आश जी ते जोगी नहि, भोगी जाणवो, अंते थाय विनाश जी. ६ राजसाज सुख परहरी, जे जन लेशे जोग जी ते धनदारामां नहि धसे, रोग सम जाणे भोग जी ७ धन्य ते त्याग वैरागने, तजी तनहानी आश जो कुळ रे तजी निकुळ थ्या, तेनुं कुळ अविनाश जी ८
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________________
मुक्तानन्द
(८८)
राग आला-झपताल
धीर धुरन्धरा शूर साचा खरा मरणनो भय ते तो मंन नाणे
खर्व निखर्व दळ एकसामां फरे तरणने तुल्य तेने ज जाणे
मोहनुं सेन महा विकट लडवा समे मरे पण मोरचो नहि ज त्यागे
कवि गुणी पंडित बुद्धे बहु आगळा ए दळ देखतां सर्व भागे
काम ने क्रोध मद लोभ दळमां मुखी लडवा तणो नव लाग लागे
जोगिया जंगम तपी त्यागी घणा मोरचे गये धर्मद्वार मागे
एवा ए सेनशुं अडिखम आखडे गुरुमुखी जोगिया जुक्ति जाणे
मुक्त आनंद मोह फोज मार्या पछी
अखंड सुख अटळ पद राज माणे
१
३
४
९९]
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________________
[800]
(८९)
गरवी
( शीख सासुजी दे छे रे ए ढाळ )
टेक न मेले रे, ते मरद खरा जग मांही त्रिविध तापे रे, कदी अंतर डोले नाहीं
निधडक वरते रे, दृढ धीरज मन घरी काळ कर्मनी रे, शंका देवे विसारी
अंतर पाडी रे, समजीने सवळी आंटी मायुं जातां रे, मैले नहि ते नर माटी
धर्मामृत
मोडुं वलुं रे, निचे करी एक दिन मवुं जगसुख सारू रे, केदी कायर मन नव कर ३
कोईनी शंका रे, केदी मनमां नव धर ब्रह्मानंदना रे, वहालाने पळ न विसारे
२
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________________
भोजो भगत
_ [१०१] ..
-
भक्ति शूरवीरनी साची रे, लीधा पछी केम मेले पाछी
मन तणो निश्चय मोरचो करीने, वधिया विश्वासी काम क्रोध मद लोभ तणे जेणे गळे दीधी फांसी भक्ति०
शब्दना गोळा ज्यारे छुटवा लाग्या, ने मामलो रह्यो सौ मची; कायर हता ते तो कंपवा लाग्या, ए तो निश्च गया नासी भक्ति०
साचा हता ते सन्मुख रह्या, ने हरि संगाथे रह्या राची: पांच पचीसने अळगा मेल्या, पछी ब्रह्म रह्यो भासी भक्ति०
करमना पासला कापी नाख्या, भाई ओळख्या अविनाशी; अष्टसिद्धिनी इच्छा न करे, एनी मुक्ति थाय दासी भक्ति०
तन मन धन जेणे तुच्छ करी जाण्यां, अहर्निश रह्या उदासी; भोजो भगत कहे भक्त थया, ए तो वैकुंठना वासी भक्ति०
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________________
[१०२]
____धर्मामृत
(९१) राग खमाज-ताल धुमाळो ।
जीमलडी रे तने हरिगुण गातां, आवडं आळस क्याथी रे लवरी करतां नवराई न मळे, बोली उठे मुखमांथी रे परनिंदा करवाने पूरी, शूरी खटरस खावा रे झगडो करवा झूझे वहेली, कायर हरिगुण गाया रे अंतकाल कोई काम न आवे, वहाला वेरीनी टोळी रे वजन धारीने सर्वस्व लेशे, रहेशो आंखो चोळी रे तल मंगावो ने तुलसी मंगावो, रामनाम संभळावो रे प्रथम तो मस्तक नहि नमतुं, पछी शुं नाम मुणावो रे घर लाग्या पछी कूप खोदावे, आग ए केम होलवाशेरे चोरो तो धन हरी गया पछी, दीपकी शुं थाशे रे मायाघेनमां ऊंघी रहे छे जागीने जो तुं तपासी रे अंत समे रोवाने बेटी, पड़ी काळनी फांसी र हरिगुण गातां दाम न वेसे, एके वाळ न खरशे रे . म्हेजे पंथनो पार न आवे, भजन थकी भव ताशेरे
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________________
गवरी
(९२)
भगवत भजजो, रामनाम रणुंकार आ तन होडी, सतधर्म रुदामां धार-टेक
भवसागर तो भर्यो भयंकर तृष्णानीर अपार कायाबेडी छे कादवनी, आडाझुड अहंकार सद्गुरु संगे, तरी उतरो भवपार
नरदेह तो दुर्लभ देवने, ते पाम्यो तुं पिंड सत्संग करजो साधु पुरुषनो, लेजो लाभ अखंड पछे पस्ताशो, वखत जाय आ वार
कीट ब्रह्मादिक सकळ देहने जमरायनो त्रास, क्षणभंग काया जाणजो निश्वे एक काळनो ग्रास अल्पनी बाजी, तेमां शुं करवो अहंकार
कैक जन्म तो मनुष्यजातमां धर्या देह अपार मद माया ने मोह जाळतो धर्यो शिर पर भार प्रभु नव जाण्या, तेथी अंते थयो छे खुवार
कहे गवरी तुं सद्गुरु केरो राख विश्वास भजन करो दृढ भावथी तो मळे सुख अविनाश मान कह्युं मारुं, नहीं तो खाशे जमनो मार
[१०३] .
भग०
भग०
भग०
भग०
भग०
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________________
[१०२]
· धर्मामृत
राग खमाज-ताल धुमाळो . . . जीभल्डी रे तने हरिगुण गातां, आवडुं आळस क्याथी रे ।
लवरी करतां नवराई न मळे, बोली उठे मुखमाथी रे परनिंदा करवाने पूरी, शूरी खटरस खावा रे झगडो करवा झूझे वहेली, कायर हरिगुण गावा रे अंतकाल कोई काम न आवे, वहाला वेरीनी टोळी रे वजन धारीने सर्वस्व लेशे, रहेशो आंखो चोळी रे तल मंगावो ने तुलसी मंगावो, रामनाम संभळावो रे प्रथम तो मत्तक नहि नमतुं, पछी शुं नाम सुणावो रे घर लाग्या पछी कूप खोदावे, आग ए केम होलबाशे रे चोरो तो धन हरी गया पछी, दीपकथी शुं था रे मायाघेनमां ऊंघी रहे छे जागीने जो तुं तपासी रे अंत समे रोवाने बेठी, पडी काळनी फांसी रे : हरिगुण गातां दाम न वेसे, एके वाळ न खरशे रे स्हेजे पंथनो पार न आवे, भजन थकी भव तशे रे
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नरसिंहरावभाई
___[१११]
(९६) राग भैरवी-तीन ताल मंगल मंदिर खोलो
दयामय ! मंगल मंदिर खोलो ध्रुव० । जीवनवन अति वेगे वटाव्यु,
द्वार उभो शिशु भोळो .. तिमिर गयुं ने ज्योति प्रकाश्यो
शिशुने उरमा ल्यो ल्यो
नाम मधुर तम रटयो निरंतर
शिशु सह प्रेमे बोलो दिव्यतृषातुर आयो बाळक
प्रेम अमीरस ढोको
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-
.
[११०]
धर्मामृत भभकभर्या तेजश्री हुं लोभायो ने भय छतां धर्यो गर्व वीत्यां वर्षोंने लोप स्मरणथी स्खलन थयां जे सर्व
मारे आज थकी नवु पर्व १ तारा प्रभावे निभाव्यो मने प्रभु आज लगी प्रेमभेर । निश्चे मने ते स्थिर पगलेथी चलवी पहांचाडशे घेर ..
दाखवी प्रेमळ ज्योतिनी सेर ५ कर्दमभूमि कळणभरेली ने गिरिवर केरी कराड धसमसता जळकेरा प्रवाहो सर्व वटावी कृपाळ
मने पहेांचाडशे निज द्वार . ६
रजनी जशे ने प्रभात उजळशे ने स्मित करशे प्रेमाळ . दिव्यगणोनां वदन मनोहर मारे हृदय वस्यां चिरकाळ .
जे में खोयां हतां क्षणवार ७
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________________
नरसिंहरावभाई
राग भैरवी-तीन ताल मंगल मंदिर खोलो
___ दयामय ! मंगल मंदिर खोलो ध्रुव० 'जीवनवन अति वेगे वटाव्यु,
द्वार उभो शिशु भोळो . . . तिमिर गयुं ने ज्योति प्रकाश्यो
शिशुने उरमा ल्यो ल्यो
.
नाम मधुर तम रटयो निरंतर
शिशु सह प्रेमे बोलो दिव्यतृषातुर आव्यो बाळक
प्रेम अमीरस ढोळो
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________________
धर्मामृत
(९७)
राग धनासरी-ताल धुमाली वाह वाह रे मौज फकीरां दी (टेक). . .. कभी चबावें चना चबीना, कभी लपट लैं खोरां दी।
... वाह वाह रे० ' . १ . कभी तो ओढें शाल दुशाला, कभी गुदडियां हीरां दी। ...
वाह वाह रे० . २ . .. कभी तो सोवें रंग महलमें, कभी गली अहीरां दी।
वाह वाह रे० ३ . . . मंग तंग के टुकडे खान्दे, चाल चलें अमीरां दी
., वाह वाह रे०४ :
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________________
नानक
[११३]
काहेरे बन खोजन जाई। सरव निवासी सदा अलेपा,
तो ही संग समाई पुष्पमध्य ज्यों बास बसत है,
__मुकर माहिं जस छाई तैसे हो हरि बसै निरंतर,
___ घट ही खोजो भाई
॥२॥
'बाहर भीतर एकै जानों,
यह गुरु ज्ञान बताई जन नानक विन आपा चीन्हे,
मिटै न भ्रम की काई
॥३॥
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________________
[११४]
(९९)
1
जो नर दुःखमें दुःख नहीं माने सुख सनेह अरु भय नहीं जाके, कंचन माटी जाने .
नहिं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना |
हरष सोकतैं रहै नियारी, नहिं मान-अपमाना
आसा मनसा सकल त्यागि कै, जगतें रहै निरासा |
काम क्रोध जेहि परसै नाहिन, तेहिं घट ब्रह्म निवासा
गुरु किरपा जेहिं नरपै किन्हीं तिन यह जुगति पिछानी ।
नानक लीन भयो गोविंद सां,
ज्यों पानी संग पानी
धर्मामृत
11 3 11
॥ २ ॥
॥ ३ ॥
|| 8 ||
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कवि अमरचन्दजी
५
(१००)
राग परज
धर्मपथ ढूंढा नहीं धार्मिक हुआ तो क्या हुआ; आत्महित चर्या नहीं आस्तिक हुआ तो क्या हुआ । सप्तभंगी रट-रटा कर स्याद्वादी बन गया; धर्म-द्वेष मिटा नहीं आहत हुआ तो क्या हुआ । मान कर भी पश्यतः प्रविनष्ट क्षणभंगुर जगत् ; 'मैं' का विष उतरा नहीं सौगत हुआ तो क्या हुआ।
'विश्व का प्रत्येक प्राणी विष्णु ही का रूप है।' कार्य से झलका नहीं वैष्णव हुआ तो क्या हुआ। पांच वक्त नमाज पढता डर खुदा की मार से; जुल्म से डरता नहीं मुस्लिम हुआ तो क्या हुआ ।
बन्धुता के भाव से निःस्वार्थ दुःखियों का अमर दुःख दूर किया नहीं क्रिश्चियन हुआ तो क्या हुआ।
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[११८]
धर्मामृत साधारण रात्रि के लिए भी हो गया । 'वि+भा' को 'वन्' प्रत्यय लगने पर 'वन् ' के 'न' का स्त्रीलिंगी रूपमें 'र' होने पर 'विभावरी' शब्द बनता है। इसी प्रकार से 'भावर' शब्द को निष्पन्न कर 'भोर' शब्द की व्युत्पत्ति बतानी है । 'भोर' के समान एक दूसरा 'विभोर' शब्द भी है जो 'भोर' का ठीक पर्याय है उसकी व्युत्पत्ति भी 'भोर' के समान समजनी चाहिए । 'विभावरी' से 'विभावर' को बनाकर उस पर से विभोर' की और 'वि' को निकाल देनेसे 'भोर' की सिद्धि हो जाती है । " मन्-वन्-श्वनिप्-विच् क्वचित् " ५-१-१४७ । हेमचंद्र के संस्कृत व्याकरण के इस नियमानुसार धातुमात्र को लक्ष्यानुसार 'वन्' प्रत्यय लगता है। उक्त 'वन्' प्रत्यय के लिए पाणिनीय का "अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते" सूत्र है । उक्त कल्पना के अनुसार 'विभोर' और 'भोर' का क्रमविकास इस तरह है:
विभावर-विभाउर-विभोर अथवा विभोर । भावर-भाउर-भोर । 'विभोर' और 'भोर' ये दोनेां शब्द स्त्रीलिंगी है यह ख्याल. में रहे। .
'भोर' के संबन्ध में दूसरी कल्पना इस प्रकार है:जिस समय चरवाहे लोक पशुओं को चराने के लिए
।
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भोर
[११९]
"
बन्धनमुक्त करते हैं उस समय के लिए हमारी काठियावाडी भाषा में ' पहर' शब्द का व्यवहार प्रचलित है- सूर्योदय के पूर्व का समय - बडी फजर का समय पहर' शब्द से धोतित होता है । काठियावाडी प्रयोग 'प्रहर छूटी' के देखने से प्रतीत होता है कि ' पहर' शब्द 'भोर' की तरह स्त्रीलिंगी है। संभव है कि उक्त 'भोर' और प्रस्तुत 'पहर' का सम्बन्ध संस्कृत शब्द 'प्रहर' की साथ हो । 'भोर' के समान प्रस्तुत ' पहर' शब्द भी प्रातःकाल का वाची है और संस्कृत ' प्रहर 'प्रा. 'पहर के उपरसे ‘ भोर ' और ' पहर' की व्युत्पत्ति बन सकती है । गुजराती के 'पहेलो पोर' ' बीजो पोर' ' बपोर' शब्दो में जो 'पोर' अंश है वह ' प्रहर '-' पहर' का ही रूपान्तर है । जिस प्रकार ' प्रहर' - 'पहर ' से 'पोर ' का उद्भव है उसी का भी उद्भव हो
"
6
"
प्रकार प्रहर
पहर ' से 'भोर'
सकता | अर्थदृष्टि से भी ' पहर' और 'भोर' में खास अंतर नहि दीखता । 'भोर' का 'भ' 'पहर' के 'प' और 'ह' के मिश्रण का परिणाम है । प्राकृत उच्चारणो में 'फ' के स्थान में 'भ' और 'ह' का प्रचार प्रसिद्ध है (देखो - " फो भ-हौ " ८-१-१३६ हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण ) :
सं० प्रहर - प्रा० पहर पहुर-पहार - पोर सं. प्रहर - प्रा. पहर पहोर होर भोर |
,,
-
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[१२०]
धर्मामृत
'
' पोर' का 'ओ' विवृत है और 'भोर का ओ'
संवृत है ।
काठियावाडी ' पोरो खावो '' विश्राम लेना ' प्रयोगका
' पोरो' और होता है कि
' पोर' शब्द भी ' प्रहर' का रूपांतर है । ' प्रहर' के पारस्परिक संबन्ध से ऐसा सूचित एक प्रहर तक प्रवृत्ति करने बाद विश्राम लेने की वा विश्राम देने की प्रथा लोकव्यवहार में प्रचलित थी । क्या ही अच्छा हो कि ' पोगे' का यह भाव आज भी लोगों के ध्यान में आवे विशेषतः श्रीमानों के ।
' प्रहर' में 'प्र' उपसर्ग है ओर 'हर' 'हृ' धातु का प्रयोग है । 'प्र' के साथ 'हृ' धातु का अर्थ ' प्रहार करना ' प्रसिद्ध है । आचार्य हेमचन्द्र ने ' प्रहर' की व्युत्पत्ति के संबन्ध में लिखा है कि – “ प्रहियते अस्मिन् कालसूचकं वायम् इति प्रहरः " अर्थात् समयदर्शक घंटा के उपर जिस समय पर प्रहार हो वह समय ' प्रहर' समजना - ( अभिधानचिन्तामणि टीका द्वितीय काण्ड श्लो. ५९ ) इस प्रकार कालदर्शक ' प्रहर' शब्द के साथ 'प्रहार' क्रिया का भी संबन्ध ठीक बैठता है । 'प्राह' शब्द भी प्रातः काल का वाचक है । 'महर' और 'प्राण' में जो अक्षरसाम्य और अर्थसाम्य है वह प्रतीत है ।
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-
भयो .
[१२१] - 'घास के पूलेां से भरा हुआ गाडा' का नाम भी "भोर' है। इस अर्थ में 'भोर' की व्युत्पत्ति भिन्न प्रकार की है। संस्कृत भाषा में 'अतिशय' और 'भार' अर्थ में 'भर' शब्द व्यवहृत है ॥ अथ अतिशयो भरः"- ( अमरकोष स्वर्गवर्ग श्लो०.६९) “ भर-एकान्त-अतिवेल-अतिशयाः " -(अभिधानचिन्तामणि ६ वा कांड श्लो० १४२) "भरः अतिशयभारयोः" ---- (हेमचन्द्र अनेकार्थ संग्रह द्वितीय कांड श्लो० ४३३) 'भर' शब्द के 'भ' गत 'अ' का बंगालियों की तरह विवृत उच्चारण करने से 'भोर' बोला जाता है और उसका अर्थ 'घास के पूल से लदा हुआ गाडा' होता है। काठियावाड में तो प्रस्तुत अर्थ में सोधा 'भर' शब्द प्रसिद्ध है
और उसका पर्याय 'भरोटुं' शब्द भी प्रचलित है। • २. भयो-हुआ। .
गूजराती 'थयो' और हिंदी 'हुआ' शब्द से जो भाव सूचित होता है वही भाव प्रस्तुत ‘भयो' का है.। संस्कृत * भूत ' शब्द से हिंदी 'हुआ' नोपजता है और वही 'भूत' . शब्द, 'भयो' का भी जनक है :
भूत-भूअ-भया । भूत-भूअ-हुआ अथवा हुवा । गूजराती का 'होय छे' क्रियापद भी सं. 'भू' धातु से आया है। प्राकृत में 'भू' के स्थान में 'हो' 'हुव' और 'हव'
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[१२२]
धर्मामृत
.
( भुवेर्हो - हुव- हवाः ८ -४ - ६० हेमचंद्र प्राकृत व्याकरण ) ऐसे तीन धातु का व्यवहार है । उक्त ' होय छे' का मूल, इन प्राकृत धातुओं में है :
होअइ
-होय छे ।
होइ
प्रस्तुत पढ़ो में कई जगह 'हे' अथवा 'है' क्रियापद का प्रयोग पाया जाता है उसका मूल भी प्राकृत का 'हुव' अथवा 'हब' धातु है :
हुवइ - इ - - अथवा है । हवइ-इ-ह्वे अथवा है ।
३. उठ उठ खडा हो ।
,
सं० उत्+स्था - प्रा० उत्था । प्रस्तुत ' उत्था' उपर से . ' उठना ' और गूजराती 'ऊठवुं ' क्रियापद आया है । ' उठ क्रियापद ' उठना ' का आज्ञार्थ वा विध्यर्थ रूप है। आचार्य हेमचंद्र "उद : ठ - कुक्कुरौ " – ( ८-४- १७ प्राकृतव्याकरण) सूत्रमें कहते हैं कि 'स्था' धातु जब 'उत्' के साथ हो तब उस के 'ठ' और 'कुक्कुर' ऐसे दा आदेश होते है । इसमें 'ठ' आदेश तो वाग्व्यापार के अनुसार है अर्थात् प्रस्तुत सूत्रमें आचार्य ने केवल वाग्व्यापार का ही अनुवाद किया है
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[१२३]
परंतु 'स्था' के दूसरे आदेश ' कुक्कुर' के संबंध में ऐसा कैसे कहा जाय ? खुद हेमचंद्र ने बताया है कि 'आदेश' और 'स्थानी' में साम्य की अपेक्षा आवश्यक है। सब व्याकरणों का वचन है कि " आदेश : स्थानीव " । 'इ' के स्थान में 'य' होता है वहां 'इ' स्थानी है और 'य' आदेश है । 'इ' और 'य' यह दोनों परस्पर समान : स्थान के होने से उन दोनों में पर्याप्त समानता है इसी से उसका परस्पर आदेश–स्थानिका संबंध भी समुचित है परंतु इधर 'स्था' और 'कुक्कुर' में ऐसा कोई भी मेल नहि बैठता है और वाग्व्यापार के अनुसार 'स्था' का 'कुक्कुर' हो भी कैसे ? जब 'स्था' और ' कुक्कुर' परस्पर सर्वथा विरुद्ध से है तब 'स्था' के स्थान में 'कुक्कुर' का कहना कैसे संगत होगा ? यद्यपि 'स्था' और ' कुक्कुर' में अक्षरसाम्य तो जरा सा भी नहि दीखता किंतु अर्थसाम्य तो है परंतु अर्थसाम्य मात्र से कोई किसी का आदेश व स्थानी नहि बन सकता, वाग्व्यापार की प्रक्रिया में अर्थात् शब्द के क्रमिक परिवर्तन की प्रक्रिया में अर्थसाम्य का उपयोग नहि के बराबर है इससे हेमचंद्र के उक्त विधान का ' 'कुक्कुर' और 'स्था' धातु परस्पर समानार्थक है' इतना ही अर्थ जानना उचित है नहि कि ' उन दोनों को बीच में वाख्यापार की दृष्टि से कुछ भी
उठ
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[१२४]
धर्मामृत
साम्य है ' अब तो यह निश्चित हुआ कि 'कुक्कुर' और
1
" स्था' के बीच में आदेश - स्थानिका संबंध ही नहि बनता । हेमचंद्र ने अपने व्याकरण के आठवें अध्याय में धात्वादेशों के प्रकरण में जो जो आदेशों का विधान बताया है उनमें वाग्व्यापार सापेक्ष आदेश तो बहुत कम है परंतु अधिक भाग उक्त रीत्या अर्थ समानतावाला है । इस संबंध में सविस्तर विवेचन अन्य प्रसंग पर ठीक होगा ।
४. जागो - जाग्रत हो ।
सं० जागर्तु प्रा० जग्गड - जागर - जागो । 'जागना ' क्रिया का आज्ञार्थ व विध्यर्थ का रूप 'जागो' | गूजराती में जागवुं ' धातु है उसका भी प्रस्तुत के समान ' जागो' रूप होता है ।
."
५. मनुवा - हे मानवो !
सं० मनुजाः प्रा० मनुआ - मनुवा ।
፡ मनुआ ' के अन्त्यस्वर 'आ' के पूर्व ओष्टस्थानीय 'उ' 'आने से उस 'उ' के बाद ओष्टस्थानीय अर्धस्वर ' व ' अधिक आ गया है । संस्कृत में भी इसी प्रकार का उच्चारण का नियम है : 'उ' वर्ण के बाद कोई विजातीय स्वर हो तो विद्यमान 'उ' के बाद ' व ' आ जाता है अथवा विद्यमान 'उ' के स्थान में ' व' हो जाता है- 'उ' ही 'व' में
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संभारो
[१२५]
परिणम जाता है । इस परिवर्तन का द्योतक " इको य अचि " यह पाणिनीय सूत्र है और " इवर्णादे : अस्वे स्वरे य-व-र-लम् ” यह सूत्र आचार्य हेमचंद्र का है । दोनों सूत्रमें ' इकः ' और ' इवर्णादे: 'पद पंचम्यंत है और षष्ठयंत भी है । जब पंचम्यंत हो तब ' व ' आगमवत् होता है और षष्टयंत की विवक्षा हो तब 'उ', 'व' में बदल जाता है । दोनों प्रकार के अर्थ वैयाकरणों को संमत है और ये दोनों अर्थ है भी वाख्यापारानुसार ।
६. संभारो-ठीक स्मरण में लाओ - बराबर याद करो । सं० संस्मरतु प्रा० संम्हरतु - संभरउ - संभारउ - संभारो । ' संम्हर' का स्वरभार को सुरक्षित रखने के लिए उसके उपर से 'संभार' हुआ दीखता है | हिन्दी 'संभारना' और गुजराती 'संभारखं ' क्रियापद का मूल प्रस्तुत ' संम्हर' में है ।
७. स्रुतां - सोते सोते ।
सं० सुप्त - प्रा० सुत्त । 'सुत्त' गुजराती 'सूतुं' की निष्पत्ति है ।
उपर से 'सुतां' और
,
'सूतुं
का बहुवचन
"
सुतां ' है । अथवा सं० स्वपताम् रूप 'स्वप्' धातु का वर्तमान कृदन्त ‘स्वपत्' का षष्ठी बहुवचनांत है उस पर से भी प्रस्तुत 'सुतां' आ सकता है ! स्वपताम्- सुपताम्सुअताम् - सुतां । 'सुत्त' से 'सुतां' बनाने की अपेक्षा
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{१२६]
धर्मामृत * स्वपताम् ' से 'सुतां' बनाना अधिक संगत जान पड़ता है क्योंकि 'सुतां' में चालु क्रिया का भाव है वह 'स्वपताम् ' में
अनायास सिद्ध है और विभक्त्यर्थ भी ठीक वही है। 'अस्माकं स्वपतां स्वपतां चौ रेण धनं हृतम् ' वाक्य में 'स्वपतां स्वपता' का जो भाव है ठीक वही भाव ‘सुतां सुतां रयन विहानी' के "सुतां सुतां' पद का है । अर्थसाधक ऐसा पुष्ट प्रमाण होने से “सुतां' पद ' स्वपताम् ' से लाना अच्छा है।
गुजराती 'सुतेलं' और हिन्दी 'सोएला' पद प्रा. 'सुत्त' के स्वार्थ 'इल्ल' प्रत्यययुक्त ‘सुत्तेल्ल' पद का विपरिणाम है।
गुजराती 'करेलु' 'गएलुं' इत्यादि में और मराठी ‘केले' - 'गेले' प्रभृति में स्वार्थिक 'इल्ल' प्रत्यय का उपयोग सुस्पष्ट है।
८. रयन-रात्री।
सं० रजनी-प्रा० रयणी-रयन । रंगराग और गाना नाचना वगेरे विलास संवन्धी क्रियाओं के लिए दिन की अपेक्षा रात्रि विशेष अनुकूल होती है। इसी कारण को लेकर शब्दों को गढनेवाले प्रचीन लोगों ने 'रात्रि' के अर्थ में 'रजनी' शब्द को संकेतित किया जान पड़ता है, उस प्राचीन संकेत के अनुसार कोषकारों ने भी 'रजनी' शब्द की व्युत्पत्ति :राग' अर्थवाले 'रञ्' धातु से बताई है: "रजन्ति अस्याम् इति रजनी"(हैम अभिधानचिंतामणि टीका कां. २ श्लो० ५६) रात्रि
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विहानी
[१२७]] में होनेवाले रंगराग इत्यादि देखने से 'रजनी' शब्द रूढ नहि · किन्तु यौगिक-व्युत्पन्न-जान पड़ता है।
सं० रजनी-उसके उपर से प्रा० रयनी अथवा रयणीउसका परिणाम रयण, रयन अथवा रेण, रेन ।।
९. विहानी-प्रकाशयुक्त हुई-प्रातःकाल के रूप में हुई। संस्कृत-विभान प्रा० विहाण अथवा विहान-विहानी।।
'विभातायां विभावर्याम् ' वा 'प्रभातायां शर्वर्याम्' के संस्कृत वाक्यो में 'विभात' वा 'प्रभात' शब्द का जो अर्थ । है वही अर्थ प्रस्तुत 'विहानी' का है। विहानी माने प्रकाशित । ‘रयन विहानी' अर्थात् प्रकाशित रात्रि-प्रातःकाल के रूप में परिणत रात्रि ।
आचार्य हेमचंद्र अपनी देशीनाममाला में लिखते हैं कि-" विहि-गोसेसु विहाणो "-(वर्ग ७, गा० ९० ) अर्थात् 'विहाण' शब्द 'विधि' के और गोस-प्रातःकाल के अर्थ में व्यवहृत है । विचार करने से प्रतीत होता है कि 'विधि' अर्थ के 'विहाग' की और 'प्रातःकाल' अर्थ के 'विहाग' की व्युत्पत्ति सर्वथा भिन्न भिन्न है। 'विधि' अर्थवाला 'विहाण' संस्कृत 'विधान' शब्द से आया हुआ है। 'विधि' और 'विधान' में धातु भी एक ही है और उन दोनों का अर्थ प्रायः समान होता है : सं. विधान प्रा० विहाण-विधि ।
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११२८]
धर्मामृत ' . 'प्रभात' अर्थवाची ‘विहाण' शब्द तो 'वि+भा' धातु से बनता है । 'भा' धातु का अर्थ है दीपना-प्रकाशना । वि+मा+न-विभान प्रा० विहाण। यह 'विहाण' शब्द 'प्रभात' का पर्याय है। जो धातु 'प्रभात' और 'विभात' में है वही धातु प्रस्तुत 'विहाण' में है। प्रचलित हिंदी में 'बिहान' शब्द का ठीक प्रचार है। हिंदीमें 'व' और 'ब' में ' विशेष भेद नहि है। उक्त व्युत्पत्ति देखने से प्रतीत होता है कि 'विहाण' शब्द व्युत्पन्न है परन्तु संस्कृत साहित्य में 'प्रभात' अर्थ में 'विभान' शब्द का प्रचार विरल होने से आचार्य हेमचन्द्र ने प्रस्तुत व्युत्पन्न 'विहाण' शब्द को भी देश्य में परिगणित किया है। संस्कृत कोशो में 'प्रभात' अर्थवाला — विभात' शब्द तो पाया जाता है: "प्रभातं स्याद् अहर्मुखम् । व्युष्टं विभातं प्रत्यूषम् "-इत्यादि । (हैम अभिधान चिंतामणि कांड २, श्लो० ५२-५३ )।
'प्रहाणम्' 'विहीनम्' इत्यादि प्रयोगो में भूतकृदन्त के 'त' का 'न' होता है इसी प्रकार 'विभात' में भी 'त' का 'न' होकर 'विहाण' शब्द वनता है। संस्कृत प्रयोगो में 'त' का 'न' सार्वत्रिक नहि है परन्तु छांदस प्रयोगों में किसी प्रकार का नियत विधान प्रायः कम चलता है इस हेतु से संस्कृत का 'त' के 'न' का नियत विधान
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विहानी
[१२९] छांदस में अनियत हो कर उक्तादन्यत्र भी हो जाता है और इसी नियम को लेकर 'विहाण' शब्द में 'त' का 'न' हुआ है, इस प्रकार 'विहाण' प्रयोग बाहुलिक होने से कोश ग्रंथों में अदृश्यसा होगया है फिर भी 'वि+मा+त' इस प्रकार उसका पृथकरण देखने से मान होता है कि किसी प्राचीन समय में 'विहाण' शब्द 'प्रभात' अर्थ में होना चाहिए। उक्त व्युत्पत्ति से 'विहाण' का 'प्रभात' अर्थ तो सुस्पष्ट है। 'विभा+ अन' ऐसा विभाग करने से भी विभान'-'विहाण' शब्द बन सकता है, परन्तु उक्त 'अन' प्रत्यय से भूतकाल का द्योतन नहीं हा सकता; इससे 'अन' प्रत्यय की अपेक्षा 'त' प्रत्यय. कर
और उसके 'त' का 'न' कर 'विहाण' बनाना उचिततर है। प्रस्तुत प्रभावार्थक 'विहाण' शब्द से हिन्दी का 'विहाना और गूजराती का 'विहाणवू क्रियापद नीकलता है। 'विहाणी' प्रयोग, उक्त क्रियापद के भूतकाल का रूप है । 'विहाना' और 'विहाणवू का अर्थ दीपना-प्रकाशना । 'रयन विहानी' का अर्थ रात्री प्रभातरूप हुई-प्रभात के रूप में परिणत हुई-उद्द्योत हुआ । गूजराती कोशों में "विहाणवू-गाळवं; गुजार" लिखकर 'विहाण' का जो अर्थ दिया है, वह उसका व्युत्पत्यर्थधातुमूलक अर्थ नहीं है मात्र उपचरित भावार्थ मात्र है, यह ख्याल में रहे।
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धर्मामृत
[१३०
१०. निवारो-निवारण करो-रोको । सं० निवारयतु । प्रा० निवारउ-निवारो। ११. नींद-निद्रा-प्रमाद ।
सं० निद्रा । प्रा० निदा-नीद-ऊंघ । 'निंदा' अर्थवाला 'निन्दा' शब्द और प्रस्तुत 'नींद' शब्द में शाब्दिक और । आर्थिक दोनों प्रकार से जमीन आसमान का अन्तर है।
१२. काज-कार्य-काम-कर्तव्य ।
सं० कार्य । प्रा० कन्ज-काज | 'कज' शब्द से जो भाव धोतित होता है उसी भाव में गुजराती में 'कारज'* शब्द का भी प्रचार है। यह 'कारज' का मूल 'कन्ज' नहीं परन्तु सीधा 'कार्य' है : कार्य-कारय-कारज । 'सूर्य' शब्द से जिस तरह 'सूरज' बनता है उसी तरह 'कार्य' शब्द से 'कारज' शब्द
आता है । उच्चारण को मृदु करने के लिए 'य' के 'र' और 'य' के बीच में 'अ' बढ़ जाता है ऐसा प्राकृत भाषा का
* काठीयावाड में भावनगर के आसपास के प्रदेश में 'मृतभोजन' के लिए 'कारज' शब्द का व्यवहार है। कोई कालमें नामशेष स्वजनों के पीछे भोजन कराने की पद्धति अवश्य कर्तव्य जैसी होगी उसी कारण से वह पद्धति 'कारज' शब्द से संबोधित हुई होगी ऐसा अनुमान है । 'मृतभाजन' के अर्थ में 'कारज' शब्द का लाक्षणिक उपयोग है यह ख्याल में रहे।
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सुधारो
बंधारण है । इस तरह जहां जहां कोई भी स्वर जाता है उसको व्याकरणशास्त्र में 'अंतःस्वरवृद्धि' 'अंतःस्वरवृद्धि' माने बीच में स्वर का बढ़ जाना । 'कारज' की तरह और भी ऐसे अनेक शब्द हैं जिनके संयुक्ताक्षर के उच्चारण को मृदु बनाने के लिए उस संयुक्त के बीच में वाख्यापार सापेक्ष 'अ' 'इ' '३' भी लक्ष्यानुसार बढ जाते हैं : दर्शनदरिसण, पद्म-पदुम, इत्यादि । उक्त अंतः स्वग्वृद्धियुक्त प्रयोगों को समजने के लिए हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण - आठवां अध्याय, द्वितीय पाद सूत्र १०० से ११५ देखने चाहिए | १३. सुधारो - शुद्ध करो - अच्छा बनाओ ।
'सुधारो' शब्द में दो पद हैं : शुद्ध और कार । 'शुद्धकार' का अर्थ 'शोधना' - 'साफ करना' है । 'शुद्धकार' शब्द से संस्कृत क्रियापद 'शुद्धकारयति' का प्राकृत 'सुद्धकार' होता
| 'सुद्धकारइ' से अपभ्रष्ट होकर सुद्धआरई - सुद्धारइ हुआ । प्रस्तुत 'सुद्धार' में हिन्दी 'सुधारना' गुजराती 'सुधार' का मूल रहा हुआ है । अथवा गुजराती 'रमा' 'भमाडवु' 'जमाडवं' वगैरे क्रियावाचक शब्दों में प्रेरणादर्शक 'आड' (रम्-आड-अरमाडवुं ) प्रत्यय लगा हुआ है, उसी तरह सं० 'शुध' - प्रा० 'सुधः धातु को भी प्रेरणा सूचक 'आर' प्रत्यय लगाकर सुध्+आर्सुधा र् + अना - सुधारना क्रियापद बनाना अधिक उचित जान पड़ता
[१३१]
अधिक बढ
कहते हैं ।
|
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[१३२]
धर्मामृत
| प्रस्तुत 'आर' वाली कल्पना योग्य हो तो 'वधारना' गुजराती 'वधारकुं' क्रियापद भी ' वृद्धि + कार' शब्द से न लाकर संस्कृत वृध् प्रा० वधूं धातु को उक्त रीति से 'आर' प्रत्यय लगा कर 'वधारना' बनाने से अधिक सरलता दीखती है । हिन्दी 'वरना' के स्थान में गुजराती में 'वधार' शब्द प्रसिद्ध है । प्राकृत व्याकरण में मात्र एक 'भ्रम' धातु से प्रेरणासूचक 'ओढ' प्रत्यय लगाने का विधान हैं । "भ्रमेः आडो वा " - (८-३-१५१ हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण ) तो भी 'उंबाडवु' 'सुझाडवु' 'दझाढवु ' वगेरे गुजराती क्रियावाचक पढ़ों को देखने से उक्त 'आड' प्रत्यय की व्यापकता माननी पडती है । प्रस्तुत 'आड' को देख कर ही उपर्युक्त 'आर' प्रत्यय की कल्पना खडी हुई है और 'आड' तथा 'आर' में विशेष भेद भी नहीं है किन्तु विशेष साम्य है । अत्य 'ड' और '२' दोनों मूर्धन्य है ।
I
१४. खिन - क्षण - समय का एक लघुतम नाप | सं० क्षण - प्रा० खण | 'ख' उपर से 'खण' और 'खिन' । 'क्षण' का दूसरा उच्चारण 'छण' वा 'छिण' भी होता 'छिण' उपर से 'छिन' रूप आता है । प्राकृत भाषा में 'क्ष' का 'ख' उच्चारण अधिक व्यापक है और 'क्ष' के बदले में '' तथा 'झ' का उच्चारण भी पाया जाता है फिर भी जितना 'ख' उच्चारण व्यापक है उतना इतर नहि । एक ही वर्ण के ऐसे
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वेला वीत्यां
[१३३]
भिन्न भिन्न उच्चारण कहीं कहीं अर्थ भेद को भी बताते हैं और कहीं कहीं प्रांतिकता को भी ऐसा जान पडता है । 'क्षण' का 'खण' उच्चारण कालदर्शक 'क्षण' को ज्ञापित करता
तब 'क्षण' का 'छण' उच्चारण उत्सववाची 'क्षण' शब्द का द्योतक है । मराठी भाषा में उत्सव के अर्थ में 'सण' शब्द का व्यवहार प्रचलित है । उत्सव वाचक 'सण' शब्द से 'काल' का भान तो होता है परन्तु 'क्षण' की तरह सामान्य काल का नहि, वह 'सण' शब्द काल विशेष को द्योतित करना है यह ख्याल में रहे ।
मक्षिका - माखी, माछी (गुजराती)
अक्षि- आंख, आंछ (,, ) इत्यादिक शब्दों में 'क्ष' के 'ख' और 'छ' दोनों उच्चारण प्रतीत है । 'क्षीण' - 'झीण' जैसे प्रयोग में 'क्ष' का 'झ' उच्चारण है परन्तु अतिविरल | 'क्ष' के भिन्न भिन्न उच्चारणों को जानने के लिए देखो - ( हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण, द्वितीयपाद सूत्र ३, १७, १८, १९, २० ) १५. वेला वीत्यां - वेला वीतने पर - प्राप्त समय जा
चुकने पर |
सं० 'व्यतीत' शब्द में हिंदी 'वीतना' गूजराती 'चीतवुं ' क्रियापद का मूल है। 'व्यतीत' के 'व्य' गत 'य' का संप्रसारण होने से 'वितीत' | 'दितीत' के 'ती' का 'त' लुप्त होने पर ''
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[१३४]
. धर्मामृत और 'विईत' से 'वीत' । 'वीत' है तो भूतकृदन्तमूलक शब्द। 'मुक्त-मुक्क-मूकना' प्रयोग के समान 'व्यतीत-विईत-बीत -बीतना' होना चाहिए । 'व्यतीत' से 'वितीत', 'वितीत' से 'वितीअ' और 'वितीअ' से हिंदी का भूतकृदंत 'वीता' और गूजराती का 'वीत्यु' आता है । और स्वार्थिक 'इल्ल' प्रत्यययुक्त 'वितीएल्ल' पद से गुजराती का 'वीतेलं' होता है। व्यतीत-वितीत-वितीअ-वितीरं-वीत्यु (गूजराती)
वितीअ-वितीएल्लड-बीतेलं (,)। प्रस्तुत पद का 'वीत्या' रूप 'वीत्यु' का सप्तमी विभक्तिवाला स्त्रीलिंगी रूप है । 'वेलायां व्यतीतायाम् ' वाक्य का ठीक भाव 'वेला वीत्यां' से धोतित होता है अर्थात् 'वीत्यां' पद सतिसप्तमी का सूचक है।
सद्गत रा. रा. नरसिंहरावभाई,* गूजराती 'वीत क्रियापद को 'वि+इ' के भूतकृदंत 'वीत' उपर से निप्पन्न करते हैं और
* रा. रा. नरसिंहरावभाई के 'गुजराती भाषा अने साहित्य' नामक पुस्तक में 'वीत्यु' संबंधे जो उल्लेख किया गया है उसकी ओर मेरा लक्ष्य प्रस्तुत टिप्पणी लिखते लिखते गया । पहेले की उस तरफ मेरा लक्ष्य हुआ होता तो उनकी साथ एतद्विषयक विचारविनिमय अवश्य शाक्य था । क्यों कि उनकी और मेरी बीच में विचारविनिमय का प्रसादमय पत्रव्यवहार तो था हो ।
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वेला वीत्यां
[१३५]
'वीत' में 'वीतने' का लोकप्रसिद्ध भाव को लाने के लिए लक्षणा का आश्रय करने को भी सूचित करते है ऐसा जान पडता है । वे लिखते हैं कि
" सं० धातु
गुज ० धातु ०
क्तांतरूप. प्रा. गुज ० वि+इ ९१ वीतकम् वीतरं वीत्युं वीत् 'वोतकम्' नो अर्थ "गत, अतिक्रान्त" हेवो छे (जेम के वीतराग ) पण वत्युं (गुज.) एटले " अनुभव्युं " कारण के जे गयुं छे, जे ( मनुष्य ने ) वीत्युं छे ते ए मनुष्ये अनुभवेलुं छे" "म्हने शुं शुं वत्युं ते कहुं" तेम ज आपवीती ( जातनो अनुभव ) परवीती (अन्यनो अनुभव ) साधारणतः 'वीतवुं' अनिष्ट अनुभवमां वपराय छे।" ( गूजराती भाषा अने साहित्य पृ० २३६ टि०९१)
'वीत' शब्द, संस्कृत साहित्य में कहीं भी 'बीतने' के भाव में आया ऐसा ज्ञात नहि और 'व्यतीत' शब्द तो 'वीतने' के भाव में सुप्रतीत है । तदुपरांत 'व्यतीत' से 'वीतने' को व्युत्पन्न करने में थोडी भी खींचातानी नहि करनी पडती है तब 'वीत' से 'वीतने' को लाने में उसके प्रसिद्ध अर्थ की संगति बताने के लिए खींचातानी आवश्यकसी हो जाती है । सगत श्री नरसिंहरावभाई ने 'वीतवुं' के मूल रूप के लिए जो कुछ लिखा है उसके संबंध में हमारा इतना ही उपर्युक्त नम्र कथन है । अत्र व्युत्पत्तिविदः प्रमाणम् ।
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]
धर्मामृत
१६. पछतावो-पश्चात्ताप-पस्ताना। . सं० पश्चात्+ताप-पश्चात्तापः प्रा. पच्छत्तावो । प्रस्तुत 'पच्छत्तावो' का मृदु उच्चारण 'पछतावो' होता है और उसका अतित्वरित उच्चारण 'पछतावो'-'पस्तावो'। 'पछतावो' में 'छ' के बाद का 'त्' दंत्य होने से 'त्' के पूर्व का तालव्य 'छ' भी वाग्व्यापार की प्रक्रिया के अनुसार दंत्य 'स' के रूप में परिणत हो गया है ! बलिष्ठ परवर्ण का योग होने पर पूर्व के दुर्बल वर्ण को परवर्ण की जातिमें आना पड़ता है ऐसा उच्चारणक्रिया का अदभुत महिमा व्याकरण शास्त्र में स्थल स्थल पर अंकित हुआ हैं : क:+तरति-कस्तरति । कास्टीकते कष्टीकते । कः+ चरति-कश्चरति इत्यादि । काठियावाड के कितनेक ग्रामीण लोक उच्चारण को अतिमृदु करने के लिए 'पत्तावी के स्थान में . 'पहटावी' भी बोलते हैं।
प्रस्तुत प्रथम भजन प्रातःकाल में गाने योग्य है। और विशेष गंभीरता के साथ मननीय भी है। भजन में 'अमृतवेला' शब्द से 'ब्राह्ममुहर्त' का सूचन किया गया है।
भजन २ रा १७ पांत-समान जाति वाले के साथ एक पंक्ति में बैठकर खानेकी योग्यता रखना।
सं० पङ्क्ति । प्रा० पति । 'पति' उपर से पांत ।
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पांत
[१३७]
'पङ्क्ति' उपरसे सोधा 'पंगत' (गुजराती) पद
आता है । दिवशात्
'पांत' और 'पंगत' दोनोंका समान अर्थ है तो भी 'पांत' और 'पंगत' का उपयोग भिन्न भिन्न प्रसंग में होता है ।
श्रीमीरांबाइके -'
"मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई" इस भजन के साथ प्रस्तुत द्वितीय भजनकी तुलना करनी चाहिए ।
प्रस्तुत भजनमें भजनकार अपने खुद के लिए " जाति पांत खोई" ऐसा कथन करता है उसका भावार्थ इस प्रकार होना चाहिए ।
श्री मीरांबाईने भी अपने भजनमें अपने खुद के लिये ऐसा ही कहा है। श्री मीरांबाईने अपनी कल्पित जातपांत क्यों खोई और किस प्रकार खोई ? इसका उत्तर सुप्रतीत है | परंतु भजन कार ज्ञानानंदजी ने अपनी स्वजातिके लिए जो उपर्युक्त प्रयोग किया है उसके संबंध में उनके जीवनकी खास कोई घटना ज्ञात नहि है तो भी उनके उपर्युक्त उल्लेख के लिए एक कल्पना हो सकती है:
सम्यग्ज्ञानस्पर्शित विवेकी मानवका विकास होता रहता है अर्थात् उनके जीवन में रूढाचरण अन्तर्हित होकर जीवनशुद्धि को करने वाले सदाचरण प्रतिदिन प्रकटते रहते हैं और पलटते भी रहते हैं । जब ऐसा होता है तब वह विवेकी, गडरिका
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[१३८]
धर्मामृत
प्रवाह में कभी नहि चलता, इस कारण गड्डरिकाप्रवाहानुसारी उनके सहचर उस विवेकी को अपनेसे पृथक् समजते हैं और जब वह विवेकी, गड्डरिकाप्रवाह की मूलभूत अविद्या व रूढिको सर्वथा - छोडकर उसका प्रतिवाद करता है तब उसको जातिसे बहार भी घोषित करते हैं । इस दृष्टिको लेकर भजनकारके उक्त शब्द समज में आ जाते हैं और उनके जीवन में ऐसी कोई घटना भी घटी होगी ऐसी कल्पना असंगत नहीं दीखती ।
गडरिकाप्रवाह के अगुआने आनंदघन जैसे पवित्र पुरुषको भी जातबहार घोषित किया था यह हकीकत जैनसमाज में सुप्रतीत है | सत्संस्कारसंपन्न श्रीमान् रायचंद भाई के संबंध में भी ऐसा ही व्यवहार किया गया था । वैदिक परंपरामें भी भक्तराज नरसिंह महेता, संत तुकाराम और पूज्य गांधीजी के लिए भी गडरिकाप्रवाहगामी सनातनी लोग ऐसा ही व्यवहार कर रहे हैं।
१८. फैल - फैलना - प्रसरना - प्रचार होना ।
गु० 'फेलवं' और हिन्दी 'फैलना' दोनों समानार्थक क्रियापद हैं । 'फैलता है' अर्थ में 'पयल' क्रियापद का प्रचार प्राकृत भाषा में प्रतीत है । 'प्र' + 'सर' के आदेश को बताते हुए आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि "प्रसरेः पय- उखेल्लो”( ८-४-७७) अर्थात् 'प्र+सर' के अर्थ में 'पयल' और 'उवेल ' यह दो धातुओं का उपयोग करना चाहिए ।
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फैल
[१३९] . विशेष विचार करने से प्रतीत होता है कि 'असर' और 'पयल्ल' के बीच में अर्थसाम्य उपरांत शब्दसाम्य भी है। कोई भी वक्ता कैसा भी अपभ्रष्ट उच्चारण करे तो भी कंठ वगैरे स्थान, आस्य प्रयत्न, करण और बाह्य प्रयत्न इन सब का ऐसा व्यापार बनता है कि अपभ्रष्ट वक्ता भी मूल अक्षरों के स्थान में प्रायः ऐसा ही दूसरा वर्ण बोलता है कि मूल अक्षरे और उच्चारणायात दूसरा वर्ण ये दोनों के बीच में कंठस्थानादि की अपेक्षा अवश्य समानता होती है। संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश वा प्रचलित कोई भी भाषा हो वे सब उच्चारण की उक्त मर्यादा को नहि लांघती। इस मर्यादा को लेकर 'पयल्ल' और 'प्रसर' की भी परीक्षा करनी चाहिए । वाग्व्यापार की प्रक्रिया देखने से ता 'प्रसर' की अपेक्षा 'प्रचर' से 'पयल्ल' आना ठीक क्रमिक मालम होता है : प्रस्चर-प+चर् -प-+यल-प+यल्ल–पयल्ल । यदि 'प्र+सर' से 'पयल्ल' को लाना हो तो-प्र+सर-प+हर -4+यर
१. स्थान आठ हैं: कंठ, मूर्धा, जिह्वामूल, दंत, नासिका, ओष्ट अने तालु।
२. आस्य प्रयत्न चार हैं:-स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट, विवृत और ईपद्विवृत । ३. करण तीन हैं:-जिह्वाके मूलका मध्य, अन, और उपात्र ।
४. बाह्य प्रयत्न आठ हैं:-विवार, संवार, श्वास, नाद, घोप, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण ।
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[१४०
धर्मामृत
प+यल-प+यल्ल-पयल्ल । प्रस्तुत 'पयल्ल' से 'फैलना' और गु० 'फेलबुं' क्रियापद आया है:-पयल्ल-पइल्ल-पेल्ल-फेल'फैलना' या 'फेलq। घाति करम
आत्मा के मूल शुद्धतम स्वभाव को नाश करनेवाले संस्कार का काम क्रोध लोभ मद मोह माया मत्सर को बढाने वाले संस्कार का-जैन पारिभाषिक नाम 'घाति कम है। कर्म से करम । अन्तःस्वरवृद्धि । देखो 'काज' को टिप्पणी १२। खायक
जिन जिन सदत्तियों द्वारा क्रोध मान माया और लोभ वगेरे दुष्ट वृत्तिर्या सर्वथा क्षीण हो जाय वा क्रोधादिक दुर्वृत्तियां मन्द मन्दतर मन्दतम हो जाय वे सब सदवृत्तियों का जैन पारिभाषिक नाम क्षायक-खायक-भाव है। क्षायक-दुष्ट वृत्तियों का क्षय करनेवाला।
भजन ३ सरा १९. पूंजी-धनमाल घर वाडी खेत बगैरे।
संस्कृत का 'पुञ्ज' शब्द 'समूह' अर्थ का घोतक है। अमरकोशकार कहता है कि “स्याद् निकायः पुञ्ज-राशी"(सिंहादिवर्ग द्वितीयकांड श्लो० ४२) हेमचंद्राचार्य भी कहते हैं कि "पुज-उस्करी संहतिः'- अभिधानचिंतामणि कट्टा
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परमाद
_ [१४१] कांड श्लो० ४७) अमरकोश का टीकाकार महेश्वर कहता है कि " चत्वारि धान्यादिराशेः” अर्थात् पुञ्ज, उत्कर, राशि और . कूट शब्द से धान्य वगेरे का ढेर, बोधित होता है। पुञ्ज माने
धान्य आदि का बडा ढेर । ' पुञ्ज' शब्द से 'पुञ्जिका' शब्द हुआ और 'पुञ्जिका' से प्राकृत 'पुंजिआ' शब्द आया। प्रस्तुत 'पूंजी' शब्द, 'पुंजिआ' से आया मालूम होता है । 'पुञ्ज' का उक्त अर्थ और 'पुञ्ज' से बना हुआ 'पूंजी' का प्रचलित अर्थ उन दोनों अर्थों में विशेष भेद नहि है । धान्य, घर, आभूषण, बाडी, खेत यह सब 'पूंजी' में ही समा जाता है। प्राचीन समय में तो धातु के कागजं के वा चमडे के मुद्रित सिकों की अपेक्षा धान्य वगेरे ही स्थिर धन गिना जाता था।
२० परमाद-प्रमाद-आलस्य-स्वार्थपरायणता ।
सं० 'प्रमाद' से सीधा ‘परमाद' पद आया है । 'प्र' के संयुक्त उच्चारण को सरल करने के लिए उसमें 'अ' कारका प्रक्षेप किया गया है। इस प्रकार कितने ही संयुक्त अक्षरों में 'अन्तःस्वरवृद्धि होती है। 'काज' शब्द का टिप्पण १२ देखो ।
परमाद' का अर्थ आलस्य है । आलस्य का स्पष्ट भाव स्वार्थपरायणता है । अपने निजी वैभव विलास के हेतु, दूसरे प्राणिओं के प्राणों की उपेक्षा-अपने से भिन्न मनुष्य वगेरे प्राणिओं के जीवन की उपेक्षा का नाम स्वार्थपरायणता है।
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[१४२]
धर्मामृत
१ मद्यपान याने कोई भी केफी पदार्थ का सेवन करनामद्यपान करना, किसी भी आसवको पोना, तमाकु सुंघना, बीडी पीना, चरस गांजा इत्यादि पीना । २ विषय विलास में मस्त रहना । ३ क्रोध लोभ आदि दुष्ट संस्कारोंको पुष्ट बनाना । ४ किसीकी व्यक्तिगत निंदा करना । ५ जीवन के वास्तविक विकासको रोध करनेवाली कथाएं कहना वा पढना अथवा मिथ्या गपशप लगाना । इस प्रकार जैनशास्त्र में प्रमाद के पांच भेद बताये हैं ।
२१ निरखो - देखो - बराबर नजर करो ।
सं० निर्+ईक्ष धातुसे प्रा० 'निरिक्ख' । 'निरिक्ख' पदसे 'नीरखना' | गूजराती 'नीरखवं' | 'निरिक्खउ' क्रियापद से निरीखड - नीरखो । २२ करो
सं० कर करतु- प्रा० करउ । 'करउसे करो ' २३ वधार्या - वढाया
पूर्वोक्त 'सुधारो' की (देखो टिप्पण १३) व्युत्पत्तिमें जो कुछ बताया है वह सब प्रस्तुत 'वाय' के संबंध में भी अक्षरशः समजना | 'वधार्थी' भूतकालदर्शक कृदंत है। उसकी निष्पत्ति का क्रम इस प्रकार बन सकता है। सं० 'वृधू' से प्रा० बधू । प्रस्तुत 'वधू' को प्रेरणा सूचक 'आर' प्रत्यय जोडने से 'धार'
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फिलावो
[१४३]
और 'वार' का भूतकृदंत 'वधारिय' । 'वधारिय' के प्रथमा का बहुवचन ' वधारिया' । ' वधारिया' का त्वरित उच्चारण 'वधार्या' | अथवा अन्य क्रमः-‘वृद्धिकार' - बुद्धिआर - वद्धिआर - वचार - बधार । प्रस्तुत 'वार' का भूतकृदंत 'वधारिअ' से उक्त रीति से 'वधार्या' । २४. फिलाबो- प्रसार करो ।
मूल धातु प्रा० 'पयल' का प्रेरकरूप 'पयल्लावेउ' । 'पयल्लावेउ' से 'फिलावो' वा 'फेलावो' क्रियापद आता है । इस सम्बन्ध में अधिक विवेचन 'फैल' को टि०१८ में किया गया
}
२५. गहो - ग्रहण करो ।
सं० ग्रह प्रा० गह गहउ - गहो ।
२६. रमावो -- रमण करो - रमो ।
मूल धातु 'रम्' से प्राकृत प्रेरक 'रमाउ' | 'रमा' से प्रस्तुत रमावो ।
प्राकृत में प्रेरणादर्शक 'अ' 'ए' 'आव' और 'आवे' प्रत्यय का उपयोग है । इसके लिए हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण का अध्याय अष्टम, तृतीयपाद सूत्र १५० - १५१ - १५३ को देखना चाहिए ।
भजन ४ था
२७. तसकर-चोर डाकु - लुंट करनेवाले ।
सं० ' तस्कर' के संयुक्त 'क' में 'भ' को अंतःस्वरवृद्धि
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[१४४]
धर्मामृत होने से 'तसकर' होता है । 'तस्कर' को व्युत्पत्ति को दिखलाते हुए वैयाकरण और कोशकार 'तस्कर' पद में 'तत्+कर' ऐसे दो पद बताते हैं । परन्तु 'तस्कर' के अर्थ को देखने से 'तत्+कर' ऐसा पृथक्करण घटमान नहि होता। कोशो में 'चौर' वाची जितने शब्द आए हैं उन सब में साक्षात् वा परंपरा से 'चौर्य' का भाव पाया जाता है किंतु प्रस्तुत 'तस्कर' की 'तत्+कर' व्युत्पत्ति में चौर्य के भाव का गंध भी नहि । इस संबंध में विचार करने से मालूम होता है कि 'तस्कर' का मूलभूत कोई प्राचीन देश्य शब्द होगा जिस को संस्कार कर 'तस्कर' शब्द बनाया हो अथवा त्रास सूचक 'त्रस्' धातु से 'तस्कर' का 'तस्' भाग बना हो । कुछ भी हो परंतु 'तत्+कर' से 'तस्कर' बनाने की रीत वरावर नहि लगती। शब्दशोधक साक्षर इस ओर जरूर लक्ष्य करें।
२८. निहाले-देखे-बराबर देखे
सं० निभालयते प्रा० 'निहालए' वा 'निहालइ । उस पर से 'निहाले । आचार्य हेमचंद्र अपने धातुपारायण में "भलिण आभण्डने" धातु बताते हैं । " आभण्डनम्-निरूपणम् "(धातुपारायण पृ० २६९) 'भल्' धातु दसमा गण का है, उसका अर्थ 'निरूपण' है। 'निरूपण' का व्यापक भाव, 'निहालने में संकुचित हुआ है ऐसी एक कल्पना । अथवा 'नि'
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हेगा
[१४५]
उपसर्ग के साथ 'भल्' धातु का अर्थ 'प्रत्यक्षीकरण' हो गया हो । वाग्व्यापार के क्रम को देखने से 'निभाल' से ' निहाल ' को लाना ठीक मालूम होता है ।
२९. हेगा - होगा ।
'हेगा' पद 'होगा' के अर्थ में आया है। दिल्ली तरफ के लोक अपनी बोलचाल की भाषा में 'होगा' के बदले 'हेगा' का व्यवहार असंकोच से करते हैं। दिल्ली के एक मेरे मित्र अपने पत्रव्यवहार में 'होगा' नहि लिखते किन्तु 'हेगा' लिखते हैं ।
३०. परना-पड जाना ।
सं० पतन प्रा० पडण । 'पडण' से 'परना' । प्राकृत में 'पतन' के 'न' का 'ण' हुआ, 'ग' के प्रभाव से 'त' को 'ड' में आना पडा । 'ण' मूर्धन्य होने से ऐसा परिवर्तन हो गया । बाद 'ड' का 'र' हो गया । 'ण' 'ड,' 'र' ये सब मूर्धन्यस्थानीय वर्ण हैं ।
भजन ५ वां ३१. पहिराया - पहिराना ।
सं० परि + धा- प्रा० परि+हा । 'परिहा' के 'र' और 'ह' का व्यत्यय होने से 'पहिरा' हुआ । प्रस्तुत 'पहिरा' में 'पहेरना' वा ' पहेरवुं' (गुज०) क्रियापद का मूल है ! प्राकृत में और
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[१४६]
धर्मामृत
अन्य अधिक व्यापक लोक भाषा में अनेक स्थलों में अक्षरों का व्यत्यय होता हैं । वक्ता के त्वरा और अज्ञान, उक्त व्यत्यय के कारण प्रतीत होते हैं ।
'वाराणसी' का ' वाणारसी' | 'अचलपुर' का 'अलचपुर्' । आलान' का 'आनाल' | 'महाराष्ट्र' का 'मरहदु' | 'हूद' का 'द्रह' । 'हिंस' का 'सिंह' वगेरे । व्यत्यय के ओर अधिक प्रयोग देखने के लिए हेमचंद्र प्राकृत व्याकरण ८-२-११६ से १२४ सूत्र को देखो ।
३२ चवदह - चौदह
सं० चतुर्दश- चउदस - चउदह - चवदह | 'चवदह' में मूल 'चतु' का 'उ', 'व' में परिणत हो गया है । 'व' और 'उ' दोनों ओष्टस्थानाय है |
३३. भांति - प्रकार- विविधता
सं० भक्ति- प्रा० भत्ति-भंति-भांति-भांत-भात | 'पांच' शब्द में जिस प्रकार अनुस्वार का मृदु उच्चारण है उसी प्रकार प्रस्तुत 'भांत' में भी समजना चाहिए। आचार्य हेमचंद्रने 'भक्ति' के अर्थ इस प्रकार बताये हैं ।
(
" भक्ति: सेवा-गौणवृत्त्योः भङ्गयां श्रद्धा-विभागयो: " ( अनेकार्थसंग्रह द्वितीयकांड श्रो० १७९) प्रस्तुत में उक्त अर्थों में गिनाया हुआ 'भङ्ग' अर्थ उपयुक्त है । भङ्गिविच्छित्ति ।
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धायो
_[१४७] विच्छित्ति विविध प्रकार का छेदन-विविध प्रकार का भाग-भिन्न भिन्न प्रकार । 'विच्छित्ति' अर्थवाले 'भक्ति' शब्द की निष्पत्ति “भंज्' धातु से है और सेवा अर्थवाला 'भक्ति ''शब्द, ‘भज' धातु से बना है यह ख्याल में रहे ।
३४. धायो-तृप्त हुआ।
स० 'ध्रात' से प्रा० धात-धाय । 'धाय' का प्रथमैकवचन 'धोयो' और सं० 'ध्रात' में अन्तःस्वरवृद्धि होकर 'वरात' हुआ। 'धरात' का प्रा० 'धराय' और उससे 'धरायो' होता है। अर्थात् 'धायो' और 'धरायो' दोनों का मूल 'ध्रात' शब्द में है। "धैं तृप्तौ" धातु भ्वादि गण में है। 'तृप्ति' का अर्थ प्रतीत है। 'धराएँ' (गुज०) और 'धराना' क्रियापद का मूल प्रस्तुत '|' धातु में है।
३५. भाया-भाइ-भैया।
सं० भ्राता-प्रा० भाया । प्रा० 'भाया' से 'भाउ' 'भैया' 'भाया' और 'भाई' इत्यादि अनेक रूप होते हैं।
३६. भाया-पसन्द आया ।
सं० 'भावितक' से प्रा० भाविअध। 'भाविअ का लुप्त होकर 'भाइअ। उससे उच्चारण त्वरा के कारण 'भाव और 'भाव' से 'भाया' ! 'भाव्यु' (गुज.) पद भी 'भावितक' का
And
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धर्मामृत
[१४८]
ही रूपांतर है । 'भाव' वा 'फाववुं' (गुज०) क्रियापद का मूल भी 'भू' धातु जन्य 'भावि' धातु में है ।
भजन ६ वां
३७. प्यारे - वहाला - प्रियतम ।
1
सं० प्रियकार - प्रा० पियआर - पियार-प्यार । 'प्रियकार का अर्थ 'प्रिय करनेवाला - इष्ट करनेवाला' । प्रस्तुत 'पियार' शब्द का उपयोग, तेरहवीं शताब्दी के " कुमारपालप्रतिबोध' नामक ग्रंथ में हुआ है और भविष्यदतकथा में भी हुआ है । ' पियार ' शब्द, अपभ्रंशप्राकृत का है। कुम्भकार-कुंभार । लोहकार-लोहार । उसी प्रकार 'प्रियकार' से 'पियार' शब्द आया है अथवा सं० ' प्रियतर' शब्द से भी 'पियार' शब्द की निष्पत्ति हो सकती है (!) ३८. जावनो - जाना - गमन करना ।
सं० या - प्रा० जा । 'जावुं' (गुज०) और 'जाना' ये दोनों क्रियापदों का मूल 'जा' धातुमें है ।
३९. लपट्यो - लिप्त - आसक्त ।
-
सं० 'लिप्तक' से प्रा० लिपतिय- लिपटिय-लपटिअ-लपट्यो । 'लिक' में 'अन्तःस्वरवृद्धि' होने से 'लिपति' और 'त' का 'ट' रूप परिणाम से 'लिपटि' हुआ । प्रस्तुत 'लपट्चों' का पूर्वरूप लिपटिअ' है । कीतनेक बोलनेवाले दन्य अक्षरों को नहि बोल सकते परंतु उन के स्थान में मूर्धन्य अक्षरों का उच्चारण
,
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नीसरजावो
[१४९] करते हैं। प्रस्तुतमें 'त' के 'ट' होने का ऐसा हि कुछ कारण होना चाहिए। 'लिपटना' और 'लपटवू' (गुज०) क्रियापद भी उक्त 'लिप्त' से आया है।
४०. नीसरजावो-नीकलजाओ-बहार नीकलो।
सं०. 'निःसर से प्रा० 'नीसर' धातु। काठियावाड के ग्रामीण लोग 'नीहQ पद का भी प्रयोग करते हैं। उसका . भी मूल प्रस्तुत 'नीसर में है।
_ 'नीसर जावो' यह पद अखंड है वा उसमें 'नीसर' और 'जावो' ऐसे दो पद हैं ? यह प्रश्न विशेष विचारणीय है। प्राकृत भाषा में उपयुक्त क्रियापदों के प्रत्ययों को देखने से मालूम होता है कि 'नीसर जावो' यह कदाच अखंड क्रियापद भी हो । 'हो' धातु के आज्ञार्थ वा विध्यर्थ तृतीय पुरुष एकवचन में 'होएजाई' चा 'होजाउ' रूप होते हैं। 'होएज्जाउ' का अर्थ है 'होजाओ' ! प्रस्तुत 'होजाओ' पद का उपयोग प्रचलित हिंदी में सुप्रतीत . . . है। यह 'होएजाउ' वा 'होजाउ' पद प्राकृत में अखंड है-उसमें मूल धातु 'हो' है और 'एजाउ' वा 'जार' अंश . प्रत्यय का है । 'होएजाउ' पद के अनुसार 'होजाओ. पद . अखंड न बन सके ? और उसी के अनुसार 'नीसर' से . 'नीसरे जाउ' क्रियापद बना कर उससे 'नीसरिजाउ-नीसरजाओ..... -नीसरजावो ऐसा क्यों न हो सके? 'नीसरिजाउ क्रियापद .
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[१५०
धर्मामृत
प्राकृत के 'बहुलम् नियम से बन सकेगा यह ख्याल में रहे । तात्पर्य यह है कि लाइजाउ-लेजाओ। खाइजाउ-खाजाओ। दाइजाउ-देजाओ । इत्यादिक में 'ला', 'खा' और 'दा' प्रभृति मूल धातु है और 'इज्जाउ' इतना अंश प्रत्यय का अखंड है ऐसी कल्पना हो सकती है और इस कल्पना में व्याकरण का बाध नहि है । अब दूसरा एक ओर प्रश्न ऊठता है कि जिस प्रकार 'लेजाओ' इत्यादि अखंड क्रियापद हो तो क्रिया के पूर्णभाव को बताने वाले 'खा गया' 'कर गया' ले गया' 'दे गया' वगेरे पद भी अखंड है वा उनमें 'खा' 'गया' 'कर' 'गया' इस तरह भिन्न भिन्न अंश है ? प्रस्तुत प्रश्न और उपर्युक्त 'लेजाओ' इत्यादिक को अखंडता की कल्पना भी विशेष विचारणीय है और इसकी चर्चा विशेष विचार तथा अधिक समय की अपेक्षा रखती है उस से इस चर्चा को अन्य प्रसंग पर रखना उचित है। 'खा गया 'सो गया' इत्यादि पदों में जो 'गया' अंश है वह 'गम्' धात्वर्थ का बोध नहि कराता परंतु उसके पूर्वग 'खा' 'सो' इत्यादिक से जो जो क्रियाएं सूचित होती है उन सब की पूर्णता को बताता है यह बात ख्याल में रहे । यदि 'खा' 'सो' इत्यादि पद 'खादित्वा' 'सुप्वा' की तरह संबंधक भूतकृदंत हो और 'गयो' पद 'गम्' धात्वर्थ का बोधक हो तो तो प्रस्तुत अखंड वा सखंड की चर्चा की आवश्यकत .
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इग
[१५१]
ही नहि । क्योंकि 'खा गया' का अर्थ ' खाकर गया' और 'सो गया' का अर्थ 'सोकर गया' ऐसा हो तो 'खा गया' 'सो गया' ये दोनों पद भिन्न हो है— उसमें कोई विवाद नहि ।
वाला
४१. इग - एक
सं०
• एक प्रा० इक्क - इक-इग
४२. छिन - क्षण - कम से कम काल
'खिन' का टिप्पण १४ देखो । भजब ७ वां
४३ अवधू - अबधूत-मस्त - आत्मलक्षी - आत्मा की धुन
stic
सं० अवधूत प्रा० अवधूअ । अवधू—अवधू
अवधूत
अबधूत
अथवा 'अबधू' को अन्य व्युत्पत्ति भी इस प्रकार है:
सं० आत्मधूत - प्रा० अप्पधूत
अप्पधूअ
अवधूत, अवधू, अवधू
प्रस्तुत अन्य व्युत्पत्ति में अर्थदृष्टि से भी असंगतता नहि | आत्मना धूतः - आत्मधूतः अथवा आत्मा धृतः यत्व सौ आत्मतः इस प्रकार तत्पुरुष वा बहुव्रीहि समास घट सकता है । 'धूत' शब्द 'महान् त्यागी' - 'महान् संयमी' – 'उग्र आन
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[१५२]
धर्मामृत लक्षी' के भाव को बतानेके लिए जैन आगमोमें और अन्य साहित्य में भी प्रसिद्ध है अर्थात् जो पुरुष, आध्यात्मिक दृष्टिसे संयमी-त्यागी वा आत्मलक्षी हो वह 'आत्मधूत' कहा जाता है। 'धूत' के उक्त अर्थ को दृढ करने के लिए आचाराङ्ग सूत्र का .. 'धूत' नामक अध्ययन पर्याप्त है। समासमें पूर्व निपातका नियम प्राकृत में नियत नहि इससे बहुव्रीहि समास में भी 'आत्मधूत' होने को बाधा नहि।।
४४ ताता-तप्त-उष्ण-गरम
सं० तप्त-प्रा० तत्त-ताता । तातुं. (गु०) 'ताती तरवार' प्रयोगमें 'तातो' शब्द तरवार की गरमी-तीक्ष्णता-को सूचित करता है।
४५ घरटी-आटा पीसने की घंटी
'घरट्टी' शब्द देश्य प्रतीत होता है। देशी नाममाला में तीसरे वर्ग के श्लोक दसवेंकी टीका में आचार्य हेमचंद्र 'चिंचणी' शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए 'घरट्टी' और 'घरट्टिका' ऐसे दो शब्दों का निर्देश करते हैं: 'घरट्टी' की व्युत्पत्ति अकलित है। वह शब्द देश्य होनेसे अधिक प्राचीन होने की संभावना अनुचित नहि । 'जल खींचने का यंत्र' इस अर्थका बोधक 'अरघट्टक' शब्द के साथ प्रस्तुत 'घरट्टी' का साम्य हो ऐसा प्रतीत होता. है। 'अरघट्टक'का स्त्रीलिंगी रूप 'अरघटिका' होता है, उस पर
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घरटी
[१५३] से वर्णलोप और वर्णव्यत्यय पा कर 'घरट्टिका' वा 'घरट्टी' शब्द बना हो ! ! ! निश्चित नहि । अथवा जब पीसते हैं तब 'घड घड' ध्वनि होता है। उस ध्वनि के अनुकरण द्वारा 'घरट्टी' शब्द आया हो !!! प्रचलित 'घंटी' शब्द का मूल तो 'घरट्टी' में है । 'घरट्टी' के 'रका, परवर्ती 'ट्ट' के ध्वनिप्राबल्य से '' उच्चारण हुआ और वह 'ड', 'ण' रूप में परिणत होकर 'घंटो' शब्द हुआ । 'र' 'ड' और 'ण' सब वर्ण मूर्धन्य है यह ख्याल में रहे । 'तेल पीलने की घाणा' वाचक 'घाणो' वा 'घाणी' शब्द कदाच प्रस्तुत 'घंटी' के साथ सम्बन्ध रखता होः घण्टी-घण्णीघाणी । 'घरट्टी' 'घण्टी' और 'घाणी' की वास्तविक व्युत्पत्ति पर कोई महाशय अधिक प्रकाश डाले यह इष्ट है। .
अथवा 'बंटी' शब्द के लिए एक ओर कल्पना हो सकती है:
'चलन' अर्थवाला 'घट्ट धातु, प्रथम गणमें और दशवें गण में विद्यमान है । उस धातु से 'घट्टते' अथवा 'घट्टयति' या सा घटिका' शब्द हो सकता है। 'घट्टिका' पर से 'वक्र' के 'वं प्रयोग के समान 'घंटिआ' शब्द होकर उससे 'घंटी शब्द हो सकता है और पूर्वोक्त 'पाणी' शब्द भी इसी प्रकार से आ सकता है । 'घाणी' और 'घंटी का मूल एक होने पर भी जो उच्चारण भेद हुआ है बह अर्थभेद का द्योतक हो ! ! ! और
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[१५४]
धर्मामृत देश्य माना हुआ 'घरट्टी' शब्द भी कदाच 'घट्टिका' में 'र' के के प्रक्षेष से बना हो !!!
४६. आटो-आटा-पीसा हुआ लोट ।
अपने अनेकार्थसंग्रह कोश में 'अट्ट' शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं कि "अट्टो हट्ट
अट्टालकयो शे। चतुष्क-भक्तयोः"- (द्वितीय कांड श्लो० .७८-७९) उक्त श्लोक के टीकाकार महेन्द्रसूरि 'अट्ट' के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कहते हैं कि-भक्तं गोधूमादिचूर्णम्"(टीका पृ० १६ ) अर्थात् अट्ट माने गेहूं विगेरे का चूर्ण-लोटआटा । प्रस्तुत उल्लेख को देखने से मालूम होता है कि आटा अर्थवाला 'अट्ट' शब्द संस्कृत कोशो में है। भाषा में प्रचलित 'आटा' शब्द उक्त 'अट्ट' का रूपान्तर है। 'अट्ट' शब्द में मूल धातु 'अद्' होना चाहिए क्योंकि 'आटा खाद्य पदार्थ है
और 'अद्' धातु का अर्थ भी 'खाना' है । तो भी वैयाकरण हेमचन्द्रसूरि ने 'अट्ट' शब्द का मूल हिंसा अर्थवाला 'अट्ट' धातु बताया है । 'आटा' का विशेष संबन्ध खाने के साथ है इसलिए उसके मूल में 'अद्' धातु की कल्पना ठीक लगती है परन्तु 'आटा' बनाने में हिंसा भी है इसलिए 'अट्ट' के मूल में हिंसार्थ वाला 'अ' धातु की भी कल्पना अनुचित नहीं । गुजराती भाषा में तो 'आटा' शब्द का उपयोग त्रास को भी बताता है:
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आटो
[१५५]
'काम करी करीने आटो नीकळी गयो' अर्थात् 'काम कर करके अधिक त्रास हुआ' प्रस्तुत उपयोग लाक्षणिक है। मूल 'अट्ट' शब्द शुद्ध संस्कृत है कि देश्य है ? यह प्रश्न अवश्य विचारणीय है। - ४७ वटमें-मार्गमें
सं० वर्म-प्रा० वट्ट । 'वट्ट उपर से 'वाट', 'वट' । गूजराती 'वटेमार्गु'-(प्रवासी) के 'वटे' के मूलमें भी प्रस्तुत 'बट्ट' है परंतु वहां का 'वटे' सप्तमी विभक्ति युक्त मालूम होता है।
भजन ८ वां ४८ विनजारा-वणजारा-घूम फिर कर व्यापार करनेवाला।
सं० वाणिज्यकार-प्रा० वाणिज्जकार-वाणिज्जआरवाणिजार-'वणजार' वा 'विनजार' । 'वाणिज्य' शब्द के मूल में व्यवहार अर्थ का द्योतक 'पण' धातु है। व्यापार करने वाली प्राचीन जाति का द्योतक 'पणि' शब्द का संबंध भी 'पण' धातु से है।
४९. लह्यो-लिया-प्राप्त किया।
सं० 'लम' से प्रा० लभिम । 'लभिय' से लहिअ और 'लहिअ' का लह्यो।
५०. टांडो-समूह-जत्था । 'टांडो' शब्द की व्युत्पत्ति विचारणीय है।
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[१५६]
धर्मामृत
भजन ९ वां ५१. सूना-शून्य-खाली। सं० शून्य-प्रा० सुन्न । 'सुन्न' से सूना । गुज० सूनुं । ५२. चूनियो-चूना-बंधाया।
सं० 'चिनोति' के 'चिनो' उपर से प्रा. 'चिण' धातु आया है। 'चिण' का भूतकृदंत 'चिणि'। 'चिणिअ में आध स्वर का परि-र्तन होने से 'चुणि'। 'चुणि' से 'चुनियो'
और 'चिणिअ' से चण्यो (गुज०) हिंदी का 'चुनना और गुजराती के 'चणवु क्रियापद का का मूल धातु
. ५३. एह-ए। ___ सं० एषः-प्रा. एस । 'एस' उपर से 'एह' वा 'ए' दोनों । रूप आते हैं।
भजन १० वां ५४. सवगत-सर्वव्यापक
सं० सर्वगत-प्रा० सव्वगत-सवगअ । प्रा० 'सव्वगत' से 'सबगत' पद आया है।
५५. जाने-जाने-समजे सं० जानाति-प्रा० .जाणइ-जाणे ।
-समजे। जानइ-जाने
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जगपरिमित
[१५७] ५६. जगपरिमित-जगत के समान परिमाणवाला-जगत जैसा बडा ।
सं० जगत्परिमित-प्रा० जगपरिमित । ५७. माने-जाने-समजे । सं० मन्यते प्रा० मन्नइ-मानइ-माने ।
"मनिंच ज्ञाने"-(धातु पारायण चौथा गण अंक १२०) प्रसिद्ध 'मन्' धातु, संस्कृत धातु कोशो में 'ज्ञान' अर्थवाला बताया है।
भजन ११ वाँ ५८. मीता-मित्र । सं० मित्र-प्रा० मित्त । 'मित्त' पर से मीता । ५९. पायो-प्राप्त किया।
सं० प्राप्त-प्रा० पापित-पाविअ-पाइअ-पाय-पायो । प्रा०-पापित-पाविअ-पामिअ-पाम्यो । 'पाम्यो' शब्द गूजराती
• ६०. परतीता-प्रतीति होनी-विश्वास होना ।
सं० 'प्रतीत' से सीधा 'परतीता' पद आया है। 'प्र' में 'अ' कार का प्रक्षेप करने से उसकी निप्पत्ति होती है ।
६१. पख-स्वपक्ष-स्वमत का आग्रह । सं पक्ष-प्रा० पक्ख । 'पक्ख' से पख ।
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[१५८]
धर्मामृत
'पाखे' 'पांख' 'पंखी' 'पंखा' ये सब शब्दों के मूलमें भी 'पक्ष' शब्द है । 'पखाज' शब्द का 'पख' भी 'पक्ष' जन्य है । ( पखाज - पक्षवाद्य )
६२. भांखे - भाषण करे - बोले
सं० भाषते । 'ष' का 'ख' उच्चारण करने से ' भाखते ' । 'भाखते' से 'भाखे' वा 'भांखे' । 'भा' के 'आ' का अनुनासिक ध्वनि करने से 'भा' का 'भां' हो जाता है । एक अवर्ण के अढार भेद है और उसमें उसका अनुनासिक भेद भी समाविष्ट ६३. रीता - खाली - निष्फल |
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सं० रिक्त - प्रा०रित । 'रित्त' से रीता । 'रिक्त' में धातु 'रिच्' है ।
६४. छिनाला - व्यभिचारी । प्रस्तुत में 'एक लक्ष्य पर स्थिर न रहनेवाला ' '
(6
आचार्य हेमचन्द्र अपनी देशीनाममाला में लिखते हैं कि जारेसु छिन्न- छिन्नाला " - ( वर्ग तृतीय लो० २७ ) उक्त उल्लेख से 'छिन्नाल' शब्द का 'जार' - ' व्यभिचारी' अर्थ प्रतीत है । प्रस्तुत 'छिनाला' वा गुजराती के 'छिनाळवा' शब्द का मूल 'छिन्नाल' शब्द में है । 'छिन्नाल' शब्द यद्यपि देश्य है तो भी विशेष विचार करने से उसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार हो सकती है । 'छिन्नाल' शब्द में 'छिन्न' और 'काल' ये दो पद
·
मूल .
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छिनाला
[१५९] मालूम होते हैं। जो पुरुष या स्त्री, काल का छेद करते हैं यानि समय-को लांघ जाते हैं अर्थात् समाजहितचिन्तक धर्मशास्त्रकारों ने स्मृतियों में जो समय स्त्रीसंग के लिए नियत किया है उस समय को न मान कर उस समय को छेदनेवाले-उस समयका उल्लंघन करनेवाले और अपने स्वच्छन्द से यथेष्ट वर्तनेवाले हैं वे 'छिन्नकाल' कहे जा सकते हैं। छिन्नः कालः यैः ते छिनकालाःजिन्होंने काल को छिन्न कर दिया है वे । 'छिन्नकाल' शब्द का ऐसा व्यापक भाव देखने से एक पत्नीवाला गृहस्थ भी यदि ऋतुकाल के अतिरिक्त स्त्री संग करता हो तो वह भी 'छिनकाल' के उपनाम को पाता है और जो अतिभोगी है वह तो स्पष्टतया 'छिन्नाल' ही है । जब 'छिन्नाल' शब्द प्रवृत्त हुआ होगा तब उसका उक्त व्यापक भाव होगा परंतु समय बीतने पर उसका उक्त भाव संकुचित हो गया है और वर्तमान में वह शब्द लोक प्रतीत 'व्यभिचारी' के भाव को सूचित करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से तो 'छिन्नाल' शब्द का उक्त व्यापक भाव ही ठाक प्रतीत होता हैः सं. छिन्तकाल प्रा० छिन्नआल-छिनाल । प्रस्तुत व्युत्पत्ति संगत होने से छिन्नाल शब्द व्युत्पन्न दोस्वता है तो भी साहित्य में उसका प्रचार विरल होने से उसको देश्य में गिना गया लगता है अथवा 'छिन्नकाल के समान 'छिन्नाचार' शब्द से भी हिन्नाले पद
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.
[१६०
धर्मामृत आ सकता है । छिन्न:-आचारः येन सः छिन्नाचारः प्रा-छिन्नायारो-छिन्नायालो-छिन्नालो-छिनालो। जिस पुरुष वा स्त्रीने शास्त्रविहित आचार को छेद दिया हो-तोड दिया हो वे 'छिन्नाचार' कहे जाते हैं। प्राकृत भाषाओ में 'र' और 'ल' का परस्पर परिवर्तन सुप्रतीत है। अथवा 'छिन्नाल'का पर्याय 'छिन्न' को देखने से दूसरी भो कल्पना होती है। पुराने समय में जो पुरुष जिन इंद्रिय से अपराध करता था उसकी वह इंद्रिय काट दो जाती थी-छेदी जाती थी। असत्य बोलने वालों की जोभ छेदी जाती थी, हाथ से चौर्य करने वालों का हाथ छेदा जाता था इसी प्रकार व्यभिचारी पुरुष की जननेंद्रिय छेदी जाती थी इस से उसकी प्रसिद्धि 'छिन्न' शब्द से होती थी। इस कारण छिन्न शब्द 'व्यभिचारी' अर्थ में बताया गया है। वही 'छिन्न' को 'ल' प्रत्यय लगाने से और उसके अन्त्यस्वर को दीर्घ करने से भी 'छिन्नाल' शब्द बना हो। 'छिन्न' से 'छिन्नाल' बनाने की कल्पना में पूर्वोक्त व्यापक भाव आ सके गा वा न आ सकेगा यह अनिश्चित है। कुछ भी हो उक्त कल्पनात्रय से 'छिन्नाल शब्द व्युत्पन्न दीख पडता है । दर्शित व्युत्पत्ति घटमान है वा वा अघटमान तत्र व्युत्पत्तिविदां प्रामाण्यम् ।
६५. झख-मच्छ-मच्छी। सं० 'झष के 'घ' का 'ख' बोलने से झख ।
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डे
[१६१]
भजन १२ वां ६६. बूडे-बूड जाय । - सं० बुडति-प्रा० बुड्डइ । उस पर से 'बूडे ' पद आया है । 'बोळवू' (गूज० ) क्रियापद का मूल भी 'बुह' में है। 'बुड' धातु छट्ठा गण का है । संभव है कि 'वुड' धातु देश्य हो इस तरह का उसका विलक्षण उच्चारण है।
६७. बामण-ब्राह्मण । ' सं० ब्राह्मण-प्रा० बम्हण । 'बम्हण' शब्द से बामण । 'ब्राह्मण' में मूल धातु 'बृह' है । 'वृह' का अर्थ बृहत्ता है ।
६८. काठ-काष्ठ-लकडा ।
सं० काष्ठ-प्रा--कद-काठ । - 'काठी काटुं' वगेरे गुजराती शब्दों के मूल में 'काष्ठ' शब्द है। ६९. होठ--ओष्ठ ।
सं० ओष्ठ-प्रा० ओट । 'ओ' के 'ओ' को 'ह' सदृश बोलने. से 'होठ' पद आया है। 'होठ' में सर्वथा स्पष्ट हो नहि है परन्तु गुज० 'ओळवू' का 'होळ उच्चारण के समान 'होठ' के 'ह' का उच्चारण है।
७०. हलावे-हिलाते ।
सं० 'चल' का प्रेरक 'चाल' । 'चाल' का प्राकृत चलावचलावइ-चलावे-हलावे । 'हलाव में मूल 'च' हा के समान बोला जाता है।
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[१६२]
धर्मामृत ७१. बहेरा-बधिर-कानों से न सुन सके ऐसा । सं० बधिर-प्रा० बहिर । 'बहिर' से 'बहेरा' वा 'बेरा' । ७२. नेउर-पेर का आभूषण-झांझर . सं० नुपूर-प्रा० नेऊर-नेउर । ७३. वाजे-बजता है। सं० वाचते-प्रा० वजए-बाजे । 'वागे' (गूज०)
'बजना' और (गूज०) 'वागवु' ए दोनों क्रियापदां का मूल प्रा० 'वज्ज' में है और वह 'वज्ज' संस्कृत 'वायते' के 'वाद्य अंश का ही रूपांतर है।
७४. गहेरा-गभीर - सं० गभीर-प्रा० गहीर-गहेरा-घेरा । ।
७५. पहरे-वस्त्र पहिरे
सं० परिदधाति प्रा० परिहाइ-पहिराइ-पहिरइ-पहिरेपहेरे । 'परिहाइ' में 'र' और 'ह' का व्यत्यय होने पर 'पहिराई __ पद आता है।
७६ छोत-अछोत
प्रस्तुत में 'छोत' शब्द स्पृश्य जातिका वाचक है और 'अछोत' शब्द अस्पृश्य जाति का। भजनकार ज्ञानानंद कहते हैं कि कितने ही लोग पानी पीना इत्यादि क्रिया में 'छुवा अछुवा' के विचार को प्रधान रखते हैं अर्थात् अन्य सदाचार हो या न
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पाखंड
[१६३]
हो परन्तु छुवा अछुवा का कल्पित आचार तो रहना ही चाहिए ऐसी जड मान्यता को रखने वाले कभी भी परमात्मा को नहि पा सकते वा नहि पहिचान सकते इतना ही नहि किंतु मानव, ऐसी कितनी ही विवेकहीन क्रियाएं वा रूढिएं पकड रखें तो भी वह सब निरा पाखंड है ऐसा प्रस्तुत भजनकारका स्पष्ट कथन है।
'छोत' शब्द का मूल 'छुप' धातु में है । 'छुप' धातु से भूतकृदंत छुप्त प्रा० 'छुत्त' और प्रा० 'छुत्त' से 'छोत' वा छूत | न छोत - 'अछोत' । 'छुना' और छूवुं (गुज०) क्रियापद का मूल भी 'प' धातु में है । "पंत् स्पर्शे" - (धातुपारायण तुदादिगण अंक ६१) धातु यद्यपि 'छुप' है तो भी वह मूल संस्कृत है वा देश्य यह कैसे कहा जाय ? प्रसिद्ध 'स्पृश' धातु के साथ उसका कोइ प्रकार का संबंध है या नहि ? यह भी विचारणीय है ।
I
७७. पाखंड – जूठा - घतिंग
मूल 'पाषण्ड' | 'ष' का 'ख' उच्चारण होने से पाखंड | अशोक की धर्मलिपिओं में 'पासंड' शब्द का प्रयोग आता इससे प्रतीत होता है कि 'पाखंड' कितना पुराना है । धर्मलिपियों में प्रयुक्त 'पाखंड' शब्द का 'जूठ' अर्थ नहि किंतु मत - संप्रदाय वा कोई भी धर्मपंथ अर्थ है । जैनशास्त्र में भी 'पाखंड' शब्द का प्रयोग आता है, वहां उसका अर्थ है 'अमुक संप्रदाय का
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[१६४]
धर्मामृत मुनि' "पब्वइए अणगारे पासंडे चरग-तावसे भिक्खू । पारवायएं य संमणे" प्रस्तुत गाथा में भिन्न भिन्न संप्रदाय के साधुओं के साधारण नाम बताये हैं। ___'पासंड' वा 'पाखंड' शब्द मूलतः 'झूठ' अर्थ में नहीं है किंतु समय बीतने पर वह शब्द शनैः शनैः 'झूठ' अर्थ में आ गया। कारण-वे वे संप्रदायों में जैसे जैसे 'झूठ-धतिंग' बढता गया वैसे वैसे संप्रदाय सामान्यवाची भी 'पासंड' वा 'पाखंड' शब्द केवल 'झूठ-धतिंग' अर्थ में रूढ होता गया । अमरकोशकार लिखता है कि-" पाखण्डाः सर्वलिङ्गिनः"(ब्रह्मवर्ग द्वितीयकांड श्लो० ३४५) अर्थात् "सब मत वालों के लिए 'पाखंड' शब्द का व्यवहार है।" अमरकोशकार के समय में 'पाखंड' शब्द 'झूठ' अर्थ में प्रचलित था ही नहि वह कैसे कहा जाय ? परंतु कोशकार स्वयं बौद्ध होने से उस के ध्यान में अशोक की धर्मलिपि में वा बौद्धपिटको में प्रयुक्त 'पाखंड' शब्द का मूल भाव रहा होगा ततः उसने 'पाखंड' शब्दे का मूल भाव ही अपने कोश में बताया होना चाहिए । अमरकोश के टोकाकार ने 'पाखंड' शब्द का, मूळ कोशकार से सर्वथा विपरीत अर्थ बताया है। टीकाकार महेश्वर कहता है कि"पाखण्डः बौद्ध-क्षपणकादिषु दुःशास्त्रवर्तिपु" अर्थात् “दुःशास्त्रो में मानने वाले बौद्ध और जैन इत्यादि के लिए 'पाखण्ड' शब्द
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पाखंड
१६५] है" इतना लिख कर ही टीकाकार नहि रुकते किंतु वे 'पाखंड' की निरुक्ति भी इस प्रकार बताते हैं:
"पोलनाच त्रयो धर्मः 'पा' शब्देन निगयते । . तं खण्डयन्ति ते तस्मात् पाखण्डास्तेन हेतुना" ॥ अर्थात् 'पा' माने तीनों वेदो में कथित धर्म का पालन और 'खंड' माने वेदोक्त धर्म का खंडन-जो लोग वेदोक्त धर्म का खंडन करते है वे 'पाखण्ड' शब्द से बोधित होते है (पा-खंड --पाखंड ) 'पाखंड' की प्रस्तुत निरुक्ति कैसी विलक्षण है? अस्तु । टीकाकार ने तो सांप्रदायिक आवेश में आकर 'पाखंड' शब्द का मूल अर्थ को विकृत कर ही दिया। इसी प्रकार 'पाखंड' का अर्थ विकृत होते होते आज तो उसका अर्थ 'निरा असत्य 'धतिंग ढांग हो गया। दूसरे कारणों के साथ धार्मिक दुराग्रह भी शब्द के अर्थ को बदलने के लिए कीस प्रकार साधक होता है इस का प्रस्तुत 'पाखंड' शब्द अच्छा नमूना है। धर्मलिपि के आधार से 'पासंड' के मूल अर्थ का पता लगता है किंतु उसकी मूल व्युत्पत्ति का पता नहि लगता। क्या 'पाप+खंड' शब्द से 'पाखंड' शब्द बना होगा वा और कोई व्युत्पत्ति होगी यह अवश्य शोधनीय है। पापं खण्डयति इति पाखण्डः अर्थात् पाप का नाश करने वाला हो उसका नाम पाखंड ! पापख-हुपावखण्ड-पायखंड-पाखंड? सब संप्रदाय वाले पाप को नाज्ञा
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[१६६]
धर्मामृत
करने का दावा रखते हैं इस बात को लक्ष्यगत कर उक्त व्युत्पत्ति की कल्पना ऊठी है ।
भजन १३ वां
७८. संघयण - शरीर का बांधा ।
सं० संहनन - प्रा० संघणण - संघयण ( जैनपारिभाषिक ) " गात्रं वपुः संहननं शरीरम्" इत्यादि अमरकोश (द्वितीयकांड मनुष्य वर्ग श्लो० ७० ) के अनुसार संस्कृत साहित्य में 'संहनन' शब्द शरीर का वाचक है परंतु जैनसाहित्य में ' संहनन' शब्द प्रधानता से शरीर का वाचक न होकर शरीर के बंधारण का वाचक हो गया है । 'संघणण' में दो 'ण' साथ आने से एक 'ण' '' हट गया है इसका कारण वाग्व्यापार है ।
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७९. संठाण - शरीर का आकार
सं० संस्थान - प्रा० संठाण । संस्कृत साहित्य में भी 'संस्थान' शब्द शरीर की रचना अर्थ में प्रचलित है: "संनिवेशे च संस्थानम्" - ( अमरकोश नानार्थ वर्ग श्लो० १२३ ) " संस्थानं संनिवेशः स्यात् " – ( है मअभिधान चिन्तामणि कांड ६ लो० १५२ ) । भजन १४ वां
८०. थारे - तेरे
थारे ( मारवाडी ) तारे (गुजराती ) तेरे ( हिंदी ) ये सब समान शब्द है और पर्याय रूप है । मूल शब्द 'त्वत्' है ।
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गनी
_ [१६७ ८१. ठगनी-शठ-धूर्ता ।
ठगनी और ठगणी (गुज०) दोनों समान शब्द हैं। उसके मूल में 'स्थग' (स्थगे संवरणे-धातुपारायण भ्वादिगण अंक १०३०) धातु है । 'स्थग' धातु का अर्थ 'संवरण है। 'संवरण' का अर्थ आच्छादन-गोपन-ढांकना है। ठगने की क्रिया में 'ढांकना' क्रिया मुख्य रहती है इसी कारण से 'स्थग' धातु से 'ठग', 'ठगनी', 'ठगणी' 'ठगाई' शब्द लाने में असंगतता नहि । देशीनाममाला की टीका में आचार्य हेमचंद्र ने 'धूर्त' अर्थ में 'ठक.' शब्द का प्रयोग किया है: “कालओ धूर्तः ठकः इत्यर्थः' -(वर्ग द्वितीय गा० २८)।
स्थगति इति स्थगः-प्रा० ठग । - रमणी', 'कमनी' इत्यादि प्रयोगों के अनुसार स्थगनीप्रा० ठगनी-ठगणी | हिंदी 'ठगना, गूजराती 'ठग क्रियापद का मूल भी 'स्थग्' धातु ही है। 'स्थगन' शब्द 'तिरोधान' अर्थ में सुप्रतीत है: "उदन-व्यवधा-अन्तर्धा-पिधान-स्थगनानि च-"(हैमअभिधानचिंतामणि कांड ६, 'लो० ११३.)
८२. हिरिदय-हृदय
सं० हृदय । 'ह' और 'ऋ' के बीच में अन्तःवरवृद्धि के नियम से 'इ' आ जाने से और 'ऋ' का 'रिद्धि के समान हो जाने से 'हृदय' शब्द ही सीधा 'हिरिदय के रूप में आ जाता है।
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[१६८]
. धर्मामृत ८३. पैसे प्रवेश करे। . सं० प्रविश्-प्रविशति-प्रा० प्रविसइ-पइसइ-पेसेइ-पेसे वा पैसे।
८४. लाड-आनन्द-मौज ।
सं० 'लड' धातु 'विलास' के अर्थ में प्रसिद्ध है। "लड विलासे" (धातु पारायण भ्वादिगण अंक-२५४) 'ललना' और 'लालन' शब्द भी इसी धातु से आये हैं । 'पच् ' धातु से 'पाक' शब्द की तरह 'लड' धातु से 'लाड' शब्द आया है।
८५. गोतो-गोता लगाना-छिपजाना ।
सं० गुप्त प्रा०-गुत्त-गोत्त-गोतो अथवा 'गूढ' शब्द से 'गोता' शब्द आया हो । शब्द साम्य और अर्थसाम्य की दृष्टि से तो 'गूढ' की अपेक्षा 'गुप्त' और 'गोता' के बीच साक्षात् संबंध मालूम होता है।
८६. इहांसेती-इवरसे ।
'इहांसेती' शब्दमें 'सेती' वचन पंचमी विभक्ति का सूचक है एसा मालूम होता है। प्राकृतमें पञ्चमी विभक्ति का सूचक 'सुंतो' प्रत्यय है। क्या 'सुतो' और 'सेतो' में कोई प्रकार का संबंध घट सकता है ?
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दश दरवाजे
[१६९] भजन १६ वां · दश दरवाजे।
. शरीर के अंदर से मल नीकलने के दरवाजे दश है। दो आंख, दो कान, दो नाक, दो कक्षा, गुदा और जननेंद्रिय; ए दश स्थानों से निरंतर मल नीकलता रहता है। 'नाक' के दो छिद्र होने से 'दो नाक' कहा गया है।
८८. बुंद
'बिन्दु शब्द में स्वर का व्यत्यय होने पर अन्य 'इ' का 'अ' होने से 'बुंद' शब्द होता है:
बिन्दु-बुदि (व्यत्यय) से बुंद । गुजराती भाषामें 'बिन्दु' के अर्थ में 'मांडु' शब्द आता है। यह 'मोडु' भी विन्दु' का ही परिणाम है। 'बिन्द' में 'न' कार के प्रभाव से स्थान साम्य से 'व' का अनुनासिक 'म' हो गया है। और 'द', 'ड' के रूप में आया है।
८९. षट् रस छ रस।
मधुर, अम्ल (खा) लवण (खारा) कटु (कडवा) तिक्त (तीता) और तूग ये छ रस हे।
९०. भूखो-जीसकी भूख शांत न हुई हो ऐसा।
सं. त्रुभुक्षितः प्रा. बुहक्खिओ । 'वुहुक्खि' में 'ब' और 'ह' एक हो जाने से 'भ' हो गया है अतः 'हक्खि' से 'भुक्ति शब्द बनता है । 'भुक्खिअ' से 'भूखो' शब्द सहज में आता है।
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{१७०]
धर्मामृत गूजराती में इसी अर्थ में 'भुख्या' शब्द प्रचलित है। उसका । मूल भी 'भुक्खि ' में है। 'भूख' शब्द का मूल 'बुभुक्षा है: बुभुक्षा-बुहुक्खा-भुक्खा-भूख । 'भुक्खा' शब्द को आचार्य हेमचंद्रने देश्य माना है: "छुहाए भुक्खा"-(देशीनाममाला वर्ग ६, गाथा १०६) पूर्वोक्त प्रकार से 'भुक्खा' शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट प्रतीत होती है फिर उसको देश्य गिनने का कारण नहि जान पड़ता है। 'बुभुक्षित' और 'बुभुक्षा इत्यादि में मूल धातु 'भुज' है यह ख्याल में रहे।
९१. जालम-लुच्चा।
सं० 'जाल्म' में 'ल' और 'म' के बीच 'अ' आ जाने से जालम' शब्द आ सकता है। संस्कृत कोशोमें 'जाम' और नीच' दोनों को समानार्थक बताया है: “ नीचः प्राकृतश्च पृथग्जनः । निहीनः अपसदः जाल्मः"--(अमरकोश शूद्र वर्ग कांड २, श्लो० १६) हेमचंद्र ने तो अपने अभिधान चिन्तामणि कोश में प्रस्तुत शब्द को मूर्ख का पर्याय कहा है (कांड ३, श्लो० १६) यह शब्द मूल से संस्कृत है वा अन्य भाषा का है ? यह विचारणीय है।
९२. तालम-धूर्त-ठग। . 'तालम'. की व्युत्पत्ति ज्ञात नहि वा यह शब्द परभाषा का प्रतीत होता है। 'जालम' और 'तालम' में अर्थसाम्य है।
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पांचो
[१७१] भजन १७ वां पांचो-पांच इंद्रियां दोय-राग और द्वेष ९३. चार
सं० चत्वारः प्रा० चत्तारो-चत्तार-चतार-चयार~च्यार -चार ।
चार-क्रोव मान माया और लोभ अथवा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये चार घाती कर्म । देखो -'घातिकरम'
९४. काटके-काट कर-छेद कर । सं०-कृत्-कर्त-प्रा० कट । प्रस्तुत 'कट्ट' से 'काटना क्रियापद आया है 'कांतना' क्रियापद भी 'कृत् से ही नीकला हैः कृत्-कृन्त-कंत-कांत "कृतैत् छेदने "-(धातुपारायण तुदादिगण अंक ११)
९५. सोल सं० षोडश प्रा० सोलस-सोलह-सोल वा सोळ ।
'षोडश' में 'षट+दश' ऐसे दो पद है। 'पटन दश' का अर्थ-जिसमें छह अधिक है ऐसे दश अर्थात्-सोलह ।
सोल-कषायमोह के सोलह प्रकार-अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के रूप से क्रोध, नान, माया लोभ कषायों के प्रत्येक के चार चार प्रकार होकर सोलह भेद होते हैं।
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[१७२]
धर्मामृत ९६, कहावे-कहा जाते हैं।
कथ्यते-कथाप्यते-कहावीअइ-कहाबोइ-कहावे । दशमें गणमें कर्तासूचक 'अय विकरणकी तरह 'आपय' प्रत्यय भी होता है उसका प्रा० 'आव' प्रत्यय प्रसिद्ध है।
भजन १८ वां ९७, ऊरध-ऊंचा
सं० अर्ब । 'र' और 'च' की बीच में 'अ'. आने से 'ऊरध्व' और उच्चारण की क्लिष्टता को मिटाने के लिए अंत्य • . ध्व' का 'व' लुप्त हो जाने से ऊरध ।
९८. पहिचाने-पहिचान करे-ओलख करे ।
प्रत्यभिजानोति-पच्चहिजाणइ-पच्चहिजानइ-पहिचाने । उच्चारण को त्वरा से 'पञ्चहिजा' का 'पहिचा' हो गया मालम होता है। गूजराती 'पिछाणवू' और 'पिछाण' शब्द का मूल भी 'प्रत्यभिजाना' में हैः प्रत्यभिजाना-पञ्चहिजाण–पहिचाणपिछाण और पिछाणवू । .
भजन १९ वां ९९. वरम-ब्रह्मज्ञान-व्यापक भाव का अनुभव
सं० ब्रह्म-बरम्ह-बरम । 'ब्रह्म' के 'व' में, बीच में 'अ' — आया और 'ह्म' का 'म्ह! होकर उच्चारण सौकर्य के लिए
'बर-ह-'बरम हो गया है।
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धरम
[१७३ ]
१००. धरम - शुकल
धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो ध्यान जैन प्रवचन में
प्रसिद्ध है ।
१०१. कनदोरो -कटीका दोरा-धागा--कटीका भूषण । कटीदवर - कढीदवर - कडीदोर - कनदोर - कंदोर | 'कटीदवर' में 'कटी' शब्द संस्कृत है और ' दवर' शब्द 'धागे' के अर्थ में देश्य प्राकृत है । " दवरो तन्तुः " - ( देशोनाममाला वर्ग ५ गा० ३५ ) 'दवर' शब्द का मूल समज में नहि आता । कटयाः दवरो कटीदवरो-कटीका डोरा | अमरकोश का टीकाकार महेश्वर लिखता है कि " शृङ्खलम्' इति एकं कटिभूषणस्य 'कडदोरा' इति ख्यातस्य " - ( अमरकोश टीका पृ० १५८ श्लो० १०७ ) अर्थात् “पुरुष के कटिभूपण के लिए 'शृङ्खल' (गू० सांकळी ) शब्द है जिसको भाषा में 'कडदोरा ' कहते हैं " महेश्वर के उपर्युक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि (गुज०) 'कंदोरो' का मूल 'कडदोरो' शब्द है 'कनकदारो' नहि । प्रस्तुत 'कडदोरा', पुरुष की कटीका आभूषण है, त्री की कटीका नहि यह ख्याल में रहे । भजनकार ने 'कनदोरो' के स्थान में 'शम' की कल्पना की है अर्थात् योगियों का कंदोरा 'शम' है । १०२ कोपीन - लंगोट सं० कौपीन - प्रा० कोपीन ।
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[१७४]
धर्मामृत . 'कौपीन' की व्युत्पत्ति वैयाकरणेांने इस प्रकार बताई है: 'कूपम् अर्हति' इति 'कौपीनम्' अर्थात् 'कूवा में डालने योग्य हो वह 'कौपीन' । परन्तु यह व्युत्पत्ति कल्पित प्रतीत होती है। 'कौपीन' की ठीक व्युत्पत्ति गवेषणीय है। संभव है कि 'कौपीन' का मूल ‘गुप्' धातु में हो । " गुपि" गोपन-कुत्सनयोः "(धातुपारायण स्वादि, अंक ७६३) 'गुप' धातु का अर्थ है 'गोपन' और 'कौपीन' में भी 'गोपन' का भाव स्पष्ट है। गोपन-गुप्त रखना-छिपा रखना। कदाच मूल शब्द 'गोपीन' हो और उसपर से 'कौपीन' ऐसा संस्कार किया हो । जो भी कुछ हो परन्तु वैयाकरणों की व्युत्पत्ति कल्पित लगती हैं।
१०३ निरजरा-कर्मों का जर जाना-कर्मों का नाश होजाना ।
सं० निर्जरा (जैन पारिभाषिक) .. १०४ चाख-चखना .. सं० "जक्षक् भक्ष-हसनयो:"- (धातुपारायण अदादि गण __ अंक-३३)। . . . जक्ष-प्रा० जक्ख । 'जक्ख' परसे 'चक्ख' । 'चक्ख' से
'चखना' । 'चाखवु' (गुज०) अथवा "चषी भक्षणे"- (धातु पारायण भ्वादि गण अंक-९२८)। .. - 'चष' के 'ष' का 'ख' उच्चारण होने से 'चख' और 'चख
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वालम
[१७५] से 'चखना' 'चाखवू पद आ सकते हैं । वागव्यापार की दृष्टि से 'चष' की अपेक्षा 'जक्ष' से 'चखना' और 'चाखवू' को लाना ठीक प्रतीत होता है।
भजन २० वां १०५ वालम-अधिक प्रिय-बल्लभतम-प्रियतम । . सं० वल्लभतम-प्रा० वल्लतम-वालहअम-बालम । 'प्रियतम' उपर से 'प्रीतम आता है इसी प्रकार 'वल्लभतम' से 'बालम' रूप आने में कोई असंगति नहि । 'प्रीतम' और 'वालम में अर्थ की एकता है । सद्गत रा० रा० नरसिंहराब भाई 'बालम' को बनाने के लिए अन्य प्रकार बताते हैं:" वल्लभ:-बल्लहु-हल्लउव्हालउ-हालव-हालम-बालम । " (गुजराती भाषा अने साहित्य पू० २३१ )।
भजन २२ वर्मा १०६. महिल-बडा मकान ।
'महालय' और 'महिल' शब्द में अर्थसाम्य तो है परन्तु शब्दसाम्य भी है।
१०७. गोखें-जरोखे में। सं० गवाक्ष प्रा० गववख-उक्ख-गांख ।
'गोखलो' (गुज०) शब्द भी 'गोख' को त्वार्थिक ला लगाने से आता है।
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[१७६]
धर्मामृत
'गवाक्ष' का शब्दार्थ 'गाय की आंख' होता है । 'वाता - यन' की रचना गाय की आंख जैसी होती होगी इससे 'वातायन' भी 'गवाक्ष' के नाम से प्रतीत हुआ हो ऐसा मालूम होता है । आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि
" वातायनो गवाक्षश्च जालके " - ( हैं अभिधानचिंतामणि कांड ४ श्लो० ७८ ) काठीयावाड में तो भींत में जहां दीपक रखते हैं उस जगह का भी नाम 'गोखलो' है । वातायन के आकार साम्य से ऐसी रूढि चल पडी होगी ।
१०६. डेरा - वास - निवास ।
सं० ' द्वार' से प्रा० 'देर' शब्द आता है । प्रस्तुत 'डेरा'' और प्रा० 'देर' में साम्य है और अर्थ में भो विशेष भेद नहीं दीखता । जहां निवास होता है वहां 'द्वार' भी होना चाहिए इस कारण से 'डेरा' शब्द 'निवास' अर्थ को प्रतीत करने लगा हो !!! वा 'डेरा' शब्द संस्कृत प्राकृतमूलक न होकर अन्य भाषा का हो। भजन २४ वां
पांच जात- १ एक इंद्रियवाला जीव - पेड-पत्ते इत्यादि । २ दो इन्द्रियवाला जीव - शंख-कीडे इत्यादि । ३ तीन इन्द्रिय वाला जीव चींटी इत्यादि । ४ चार इन्द्रियवाला जीव - भमरा इत्यादि । ५ पांच इंद्रियवाला जीव - मानव - पशु इत्यादि । आत्मा का स्वरूप उक्त पांच जात का नहि ।
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छांह
_[१७७] १०७. छांह-छाया ।
सं० छाया-प्रा० छाही-छांह । छायो (गुज०) 'छाया' में 'य' अर्धस्वर है उसके स्थान में 'ह' का उच्चारण हुआ है। प्रस्तुत 'ह' महाप्राण नहि है किन्तु 'य' के समान उच्चारण वाला है। ___ शुद्ध आत्मा में कोई कुल की छाया भी नहीं है। ऐसा भाव भजनकार का है।
प्रतिछाया-पडिछाया-पडछायो (गुज०)। प्रतिछायापडिछाही-पडछाई, परछाइ, पडछांह, परछांह, (गुज० पडछांयो)
भजन २५ नां १०८. डूंगर-डुंगरा।
"डुंगरो सेले"-(देशीनाममाला वर्ग ४ गाथा ११) आचार्य हेमचन्द्र 'डुगर' शब्द को 'शैल' अर्थ में बताते हैं और उसको 'देश्य' कहते हैं । 'ढुंगर' पर जाना कष्टमय होता है । इससे इसकी व्युत्पत्ति 'दुर्गतर' शब्द से हो सकती है। दुर्गतर-दुग्गअर-दुग्गर-डुंगर । 'दुर्गतर' और 'डुंगर' में अर्थसाम्य के साथ शब्दसाम्य भी है और वाग्व्यापार की प्रक्रिया से भी 'दुर्गतर' से 'इंगरे' बनता सयुक्तिक मालूम होता है ।
१०९. नातरां-पुनर्विवाह-विजातीय संबंध । 'नातरा' की व्युत्पत्ति निश्चित रीत से ज्ञात नहीं हैं परन्तु
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[१७८]
धर्मामृत
'नातरां' शब्द में ' ज्ञाति + पर ' ये दा शब्दों का सम्भव हो सकता है । ज्ञातेः परम् ज्ञातिपरम् अर्थात् ज्ञाति से भिन्न । ज्ञातिपर - नातियर नातर - नातरं, नातरां । अथवा प्रशस्तो ज्ञातिः ज्ञातिरूपम् - नातिरूवं - नातिरूअं - नातिरूउं - नातरूं । कितनेक प्रयोगों में प्रशंसा वाचक शब्द निन्दा को व्यक्त करते 'हैं. इस तरह 'ज्ञातिरूप' का प्रशंसा सूचक 'रूप' प्रत्यय निन्दा को व्यक्त करता है ऐसा समजना चाहिए। जैसे 'महत्तर' शब्द का वाच्य, हरिजन है परन्तु शब्द प्रशस्त है इसी प्रकार ज्ञातिरूप' में समजना संगत लगता है । अथवा सं० ज्ञाति + इतर - प्रा० नाति + इतर - नातिअर - नातर - नातरुं । इस प्रकार - भी कल्पना हो सकती है ।
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११०. कवडी - कौडी ।
सं० कपर्दिका - प्रा० - कवडिआ
भजन : २६ वां
१११. वरमा - ब्रह्मा ।
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भजन २७ वां
प्रकार गति करना - चलना ।
कवडिआ - कवडी
कउडिआ - कौडी
समिति-पांच समितिः
१. ईर्ष्या समिति - दूसरे को लेश भी तकलीफ न हो इस
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"
गुपति
[१७९]
२. भाषा समिति - दूसरे को लेश भी तकलीफ न हो इस
प्रकार हितमित सत्य बोलना ।
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३. एषणा समिति - दूसरे को लेश भी तकलीफ न हो इस प्रकार अपने अन्नवस्त्र की शोध करना ।
४. आदानभाण्डमात्र निक्षेपणा समिति-दूसरे को लेश भी तकलीफ न हो इस प्रकार अपने जीवननिर्वाह के साधनों को रखना |
५. पारिष्टापनिका समिति - दूसरे को लेश भी तकलीफ न हो इस प्रकार अपने मलमूत्रादि को छोडना । गुपति - तीन गुप्ति
मनोगुप्ति-मन का निग्रह करना ।
चोगुप्ति - वचन का निग्रह करना ।
काय गुप्ति - शरीर का निग्रह करना ।
अर्थात् मन वचन और शरीर के दुष्ट व्यापारों को रोकना । भजन २८ वां
११२. कायर - कायर - डरपोक
सं० कातर- प्रा० कायर - कायर | ११३. संसृति - संसार-फिरना |
भजन २९ व
११४. आगममां
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[१८०
धर्मामृत भजन में लिखी हुई हकीकत से समान आशययुक्त हकीकत भगवती सूत्र के आठवें शतक के दशम उद्देशक में - मिलती है । (पृ० ११८ भगवती तृतीय भाग, श्री रायचन्द्रजिनागम संग्रह का मुद्रण)।
भजन ३० वां ११५. ग्यान-ज्ञान 'ज्ञान' का विकृत उच्चारण ‘ग्यान' । ११६. चार चोरक्रोध मान माया लाभ ये चार चोर ।
. भजन ३१ वां ११७. सलूने-कांतिवाले-लावण्यवाले ।
'लावण्य ' नाम कांति का है। सं० लावण्य-प्रा० लावण्णलाउण्ण-लोण्ण-लोन । जो लावण्यसहित है वह सलावण्य । 'सल्लूने' में मूल शब्द 'सलावण्य है। ‘सलून' प्रकृति है और "ए' प्रथमा विभक्ति का प्रत्यय है। हिंदी भाषा में प्रथमा विभक्ति में 'ए' प्रत्यय का व्यवहार नहि है। गूजराती में प्रथमा विभक्ति में 'घोडो' 'ससलो' इत्यादि प्रयोगो में 'ओ' प्रत्यय का उपयोग है और मराठी में 'ठाणे' 'पूर्ण' 'आठवले' इत्यादि प्रयोगो में 'ए' प्रत्यय का प्रयोग है। प्राकृतो में
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जाम
[१८१] मागधीप्राकृत में प्रथमा विभक्ति में 'समणे' 'महावीरे' इत्यादि लक्ष्यो में 'ए' प्रत्यय का व्यवहार है । प्रस्तुत 'सळूने' में यही "ए' प्रत्यय का संभव है।
११८. ताल-तेरा। गुजराती-तारा । 'र' का 'ल' और 'ल' का 'र' सर्वत्र बनता रहता है । ११९. जाम-प्रहर ।
सं० याम-प्रा० जाम । आदि के 'य' के स्थान में प्रायः 'ज' का उच्चारण अद्यावधि प्रचलित है । जो (यः) जथा (यथा) जथारथ (यथार्थ) जमुना (यमुना) इत्यादि ।
१२०. जिउ-जीव । सं० जीवकः प्रा० जीवओ-जीवउ-जीवु-जीउ-जिउ । १२१. मगन-आसक्त ।
सं०-मग्न । 'अ' बीचमें आने से 'मगन' । मूलधातु 'मस्ज' है जिसका 'मजति' 'निमजति' रूप बनता है । "टुमम्जोत् शुद्धौ” “शुद्धया स्नानं ब्रुडनं च लभ्यते"-(धातुपारायण तुदादिगण अंक-३८) यद्यपि 'मस्ज' धातु का अर्थ 'शुद्धि' है तथापि 'शुद्धि' शब्द 'स्नान' और 'बुडना' दोनों का लक्षक है यह हेमचंद्र का उक्त कथन ख्याल में रहे ।
भजन ३२ वां १२२. वाउरे-मूरख-वायडा ।
wmummonam MARATHomtammomumememes
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[१८२]
धर्मामृत
सं० वातलकः प्रा० वायल से - वावल से - वाउलओ - वाउले - वाउरे - बाउरे | बावरो (गुज०) 'ए' प्रत्यय है और " वाउर प्रकृति है यह ख्याल में रहे । 'ए' प्रत्यय की समज के लिए. 'सल्लूने' का टिप्पण देखो।
१२३. अकुलाय-आकुल होना । गुज० - अकळाय । स० 'आकुल' शब्द से ' आकुलयति ' क्रियापद बनता उसका प्रा० आकुलेइ । प्रस्तुत 'अकुलाय' में प्रकृतिरूपः 'आकुले' है ।
१२४. सेज - शय्या - बिछाना
स० - शय्या - प्रा० सेज्जा - सेज 1
१२५. अघाय - अतृप्त |
सं० घ्रात प्रा० घाय-न घाय अघाय । यद्यपि ' घ्रात " शब्द का अर्थ 'सुंघनेवाला' है । परंतु प्रस्तुत में 'सुंघना' इतर सब इंद्रियों के विषयका उपलक्षण है अर्थात् उस उपलक्षण को ध्यान में लेनेसे 'घाय' माने सर्व इंद्रिय के विषयों को प्राप्त और 'अघाय' माने जिसको एक भी इंद्रिय का विषय नहि मिला हो. वैसा अर्थात् अतृप्त ।
भजन ३३ वां
१२६. छेह - अंत - छेद
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उलटा .
(१८३] सं० छेद प्रा० छेओ-छेहो-छेह । 'छेह का 'ह' स्वर के बदले में आया है इससे महाप्राण नहि है यह ख्यालमें रहे । देखो 'छांह' का टिप्पण | "छेओ अंतम्मि दिअरे अ- (देशी नाममाला वर्ग ३ गाथा ३८) हेमचंद्राचार्य 'अंत' अर्थमें 'छे शब्द को देश्य कहते हैं। देश्य 'छेअ' शब्द का दूसरा अर्थ 'देवर' भी है। 'अंत' अर्थवाला 'छेअ' की प्रकृति 'छेद' माटम होती है परंतु 'देवर' अर्थवाला 'छेअ' की प्रकृति अवगत नहि, कोई भाषाविद अवश्य प्रकाशित करे।
१२७ उलटा-विपर्यस्त-उलटा गुज० उलटुं ।
"उल्लुटुं मिच्छाए" (देशीनाममाला वर्ग १ गाथा ८९) उल्लेखानुसार 'उल्लुट' शब्द का अर्थ 'मिथ्या है । सं० पर्यस्त प्रा० पल्लट्ट । प्रस्तुत 'उल्लुट्ट' की प्रकृति 'पल्लट्ट' में मालूम होतो है । पल्लट-वल्लट्ट-उल्लुट्ट । आदि में 'प' का 'घ' होना औत्सर्गिक नहि है किंतु आपवादिक है। कदाच 'ल के सानिध्य से 'प' का 'व' हो गया हो।
हिंदी 'पलटना' 'बदलना' । गुज.) 'पलटवं बदल पदों का भी मूल 'पल्ली' शब्द में है।
विटाल, गु० वटाळ, वटलवू शब्द की प्रकृति भी 'पल्ला हो सकता है। वटलवू-धर्म वा जाति को छोड़कर अन्य धर्म में वा अन्य जाति में जाना।
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[१८४ ]
१२८. प्यासे - तृषित
I
सं० पिपासितः - प्रा० पिपासिए - पिआसिए - प्यासे अथवा सं० पिपासुकः - प्रा० पिवा सुए - पियासुए - प्यासुए -प्यासे प्यास' का शब्द मूल 'पिपासा' है : पिपासा - पिवासा - पियासा-. पियास - प्यास |
१२९. सयन - स्वजन
सं० स्वजन - सयण-सयन
धर्मामृत -
१३०. रुख - वृक्ष
सं० वृक्ष - प्रा० रुक्ख - रुख । 'वृक्ष' के आदि का 'व' वाग्व्यापार से लुप्त हो गया है। 'वृक्ष' में मूल धातु 'वृश्व' है, 'वृश्च' माने 'काटना' " ओवस्चौत् छेदने " – ( धातुपारायण तुदादिगण अंक २७ )
भजन ३४वां
१३१. पाहार-पहाड-पर्वत
पाहाड- पहाड
सं० पाषाण - प्रा० पाहाण 'पाहाण' से
पाहार - पहार
भजन में 'जैने पाहार' छपा है परंतु 'जैसे पाहार' होना चाहिए । अर्थात् जैसे पाहाड खडे खडे तप करते हैं वैसे तप करना भी मन को वश किये बिना व्यर्थ है । १३२. तिरस - तृषा - प्यास - इच्छा ।
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मढी
[१८५]
सं० तृषा - तिरसा - तिरस । प्राकृत में 'ऋ' के स्थान में 'इ' का भी उच्चारण होता है जैसे कृपा - किया। गुज० तरस, तरा। भजन ३५वां
१३३. मढी - मढी - संन्यासियों का निवास स्थान | सं० मठिका प्रा० मदिआ - मढी | संस्कृत धातुओं में 'निवास' अर्थवाला 'मठ' धातु है । प्रस्तुत 'महा' की वा संस्कृत 'मठ' की प्रकृति 'मठ' धातु है ऐसा मत वैयाकरणों का 1 "मट - आवसथ्य- आवसथाः स्युः छात्र - त्रतिवेश्सनि”–" मठन्ति निवसन्ति अत्र मठः " - ( हैम अभिधानचिन्तामणि कांड ४ श्लो०. ६० टीका ) 'मठ' का अर्थ है 'ब्रह्मचारी छात्रों का वा -मुनियों का निवास स्थान' | 'मठ' के मूल के लिए अन्य भी कल्पना हो सकती है: सं० 'मृष्ट' शब्द 'शुद्ध' - 'साफ-सुथरा ' अर्थ में है । 'सृष्ट' का प्रा० 'मट्टू' और संभव है कि 'मह'
I
'पर से 'मठ' आया हो ।
१३४. तीसना - तृष्णा - लोभ |
सं० तृष्णा-प्रा० तिसना- तीसना ।
'ऋ' का 'इ' उच्चारण और 'ग' के बीच में 'अ' कार
'का प्रवेश होने से 'तृष्णा' से 'तिसना' बन जाता 1
१३५. पावडली - पावडी ।
सं० पादुका - प्रा० पाउआ । 'क' के स्थान में स्वार्थिक''
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[१८६]
धर्मामृत आने से और '' का 'व' हो जाने से पावडी । 'पावडी' से भी फिर स्वार्थिक 'ल' आने से 'पावडली' बन जाता है ।
१३६. साचो-संचय करो-एकठा करो ।
'सं+चि' उपर से 'संच (गुज०) प्रस्तुत 'साचा का मूल 'संचि' धातु में है। 'संचो' क्रिया का मूल भी 'संचि' है।
१३७. गोर-अभिमान । सं० गौरव-प्रा० गोरव 'गोरव' से गोर । ११३८. अंगिटी-आग रखने की हण्डिया ।
सं० 'अग्निष्ठ' प्रा० अग्गिटू । 'अग्गि' से 'अंगिठी' शब्द आया है।
जिसमें आग रक्खी जाती है उसका नाम 'अग्निष्ठ' है । 'अग्निष्ठ'' शब्द की सिद्धि व्याकरण प्रतीत है। देखो हैम व्याकरण २-३-७० सूत्र । पाणनीय व्याकरण ८-३-९७ सूत्र |
भजन ३६ वां १३९. लाठी-लाठी-लकडी सं० यष्टि-लद्धि-लाठी। १४०, पकरूं-पकडं-धर रक्खं
सं० प्रकृष्ट प्रा० पकड्ड । संभव है कि 'पकड्ड' से 'पकडना' और गूजराती 'पक़डवु' पद नीकला हो । 'प्रकृष्ट' माने अतिशय खींचा हुआ-जोरसे धरा हुआ । 'पकडना' और 'प्रकृष्ट' के
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भभूत
[१८७] अर्थ में तो साम्य पाया जाता है । 'प्रकृष्ट' में 'प्र+कृष्' धातु है यह ख्याल में रहे।
१४१. भभूत-भभूति-पवित्र भस्म । विभूति-बिभूति-भिभूति
भभूत ।
। भभूति पांचुं चोर-पांच इंद्रियों को 'चोर' रूप से बताया है।
'हुणी' का अर्थ अनवगत है। पाठ शुद्ध है वा अशुद्ध ?
... १४२. सींगी-सिंग' से बना हुआ वाहा । ... सं० शृङ्गिका प्रा० सिंगिआ-सिंगी-सोंगी ।
भजन ३७ वां १४३. तोलों-तब तक १४.४. वेर-समय
सं० वेला-
(वेर
वेळा (गुज०)
१४५. सिणगार-सिंगार
'सिणगार' का मूल शब्द 'शृङ्गार' है। उसके का 'इ. होने से सिंगार और 'सि' तथा 'ग' के बीच के टिक न
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धर्मामृत
{१८८] अनुनासिक में 'अ' का प्रक्षेप होने से 'सिणगार' और प्रक्षेप न करने से सिंगार । 'शङ्गार' में जो 'ङ' है वह मूलमें 'न्' था परंतु 'ग' के योग से 'न्', 'ङ' में परिणत हुआ है इससे कहा गया है कि मौलिक 'न्' में अकार का प्रक्षेप हुआ है । 'शृङ्गार' शब्द का जो अर्थ प्रचलित है उसके साथ 'शृङ्गार' की व्युत्पत्ति का कोई संबंध है या नहि ? यह विचारणीय है। 'शृङ्गार' की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार की मिलती है: आचार्य हेमचन्द्र 'शृङ्गार' शब्द को 'श्री' धातु से वा ' शृङ्ग' शब्द से नीकालते हैं। १ " श्रयति एनं जनः शृङ्गारः अर्थात् जिस का आश्रय सब लोक करे वह शृङ्गार । २ रसेषु शृङ्गम्-उत्कर्षम्इयर्ति इति वा शृङ्गार:-रसो में जो उच्च स्थान को प्राप्त करे वह शृङ्गार । उक्त दोनों व्युत्पत्तियां 'शृङ्गार' के प्रसिद्ध अर्थ को लक्ष्यगत कर की गई है ऐसा प्रतीत होता है। शृङ्गार का आश्रय सब लोग करते हैं अथवा हास्यादि सब रसो में 'शृङ्गार' मुख्य रस है यह भी प्रसिद्ध बात है। काव्यप्रकाश के चतुर्थ उल्लासगत २९ वी कारिका की टीकामें भी 'शृङ्ग' शब्द से “शृङ्गार' को बनाया हैः
"शङ्ग हि मन्मथोद्भेदः तदागमनहेतुकः ।
पुरुषप्रमदाभूमिः शृङ्गार इति गीयते ॥ इति शृङ्गारपद'निरुक्तिः” अर्थात् शृङ्ग माने कामदेव का ऊगम, जिस के
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सिणगार
[१८९] होने पर कामदेव को आना ही पड़ता है और जिसका स्थान पुरुष और प्रमदा है उसका नाम 'शृङ्गार' । उक्त व्युत्पत्तियां है तो अर्थानुकूल परंतु शृङ्गार' का संबध 'शृङ्ग' से क्यों लगाया गया ? यह समज में नहि आता । हमारे ख्याल में 'शृङ्गार' के दो रूप है। आंतर और बाह्यः रसात्मक शृङ्गार आंतररूप है.
और रसात्मक शङ्गार को व्यक्त करने के लिए शरीर पर लगी हुई आभूषणोदि वेशभूषा का नाम बाह्य शृङ्गार है । आंतर और बाह्य शङ्गार में परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध है। कभी आंतर बाह्य का निमित्त हाता है, कभी बाह्य भी आंतर का निमित्त होता है। 'शृङ्गार' का आविर्भाव आजकलका नहि, और रसों के आविर्भाव का इतिहास हो सकता है परन्तु 'शृङ्गार' के आविर्भाव का नहि; क्यों कि जब से सृष्टि हुई है तब से शृङ्गार की भी. सृष्टि है-प्राणी मात्र में उसकी व्याप्ति है। उसके रूपमें परिवर्तन होना स्वाभाविक है परन्तु दुनिया में कभी 'शृङ्गार नहि था' ऐसा कोई कह सकेगा? हम सुनते हैं कि हमारे पूर्वज मानव वृक्षवासी थे। वे जब शृङ्गार करते थे तब हडिओं के आपण पहनते थे और माथे पर सिंग भी लगाते थे । आजकल की मुल अरण्यवासियों के शृङ्गार के चित्रों को देखने से यह बात स्पष्ट रूप से ज्ञात होती है। इन शृङ्गों-सिंगों के आभूषण के काम से कदाच 'शृंगार' शब्द का संबंध श्रृंग से लगाया गया हो।
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[१९०]
धर्मामृत कल्पना मात्र है। पीछे से तो 'शृङ्गार' का अर्थ ही 'सुरत' हो गयाः " शृङ्गारो गजमण्डने ॥६०७॥ सुरते रसभेदे च "(हैम अनेकार्थ संग्रह) अर्थात् शृंगार माने गज का आभूषण, सुरत-मैथुन और श्रृंगाररस ।
दूसरी कल्पना-'शृङ्गार' का सम्बन्ध 'शृङ्ग' से नहि और 'श्री' धातु से भी नहि । संस्कृत 'संस्कार' शब्द है । उसका . 'संखार' रूप तो पालीपिटको में और जैनआगमोमें सुप्रतीत है। 'संखार' से 'संगार' वा 'सिंगार' होना कठिन नहि मालूम होता। अर्थ का भी सम्बन्ध घट सकता है। परन्तु प्रस्तुत कल्पनाद्वय का संवाद नहि इसलिए अभी तो कल्पनामात्र है । 'संस्कार' का अर्थ इस प्रकार है:-"संस्कारः प्रतियत्नेऽनुभवे मानसकर्मणि" (६१०-हैमअनेकार्थ संग्रह ) संस्कार माने प्रतियत्न, अनुभव और मनोव्यापार ।
भजन ३८ वां १४६. उलटपलट-सव तरफ से-इधर से और उधर से । . देशीनाममाला में 'अल्लडपल्लट्ट' शब्द आता है। "अल्लडपल्लर्टी अंगपरिवत्ते"-(वर्ग १ गाथा ४८.) 'अल्टपल्ट' माने शरीर को इधर से उधर और उधर से इधर परिवर्तित करना । सम्भव है कि प्रस्तुत 'स्लटपलट' शब्द का देश्य 'अल्लडपल्लट्ट' से सम्बन्ध हो । मात्र भजन के 'उलटपलट' शब्द का अर्थ व्यापक
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उलटपलट
[१९१] विस्तीर्ण करना चाहिए । इसी प्रकार गुजरातो 'उलटपालट' शब्द का. भी संबन्ध 'अल्लट्टपल्लट्ट' से बैठेगा । देश्य 'अल्लमपल्ल में मूल शब्द 'पर्यस्त' हो सकता है । 'पर्यस्त' का प्राकृत होगा "पल्लट्ट' । यही 'पल्ल' द्विरुक्त होने से 'पल्लपल्लट्ट' होकर उससे देश्य 'अल्लट्टपल्लट्ट' शब्द आया हो ? इस तरह ले उसको लाने में उसके अर्थ की भी क्षति नहि ।
१४७. विमासी-विचार करके
'वि+मर्श धातु से प्राकृत 'विमास' होकर उसपर से 'विमासी' रूप आता है। सं० विमृश्य-प्रा०विमासिअ-विमासी
भजन ३९ वां १४८. भो-भय सं० भय-अ०प्रा० भयु-भउ-भो ।
भजन ४१ वां १४९. त्रिगुन-सत्व, रज और तम यह तीन गुन ! १५०. फांसा-पाश
फांसी सं० पाश-फास-फंस-फांसा गुज०
फांसलो
'फंगना' और 'फसवु (गुज०) क्रियापद का भी मन 'पाश' में है । " पशण बन्धे" (घातपारायण अगदिगा
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... धर्मामृत
[१९२] १८६) धातु से 'पाश' शब्द बना है। 'पश' माने बांधना।
१५१. बिकानी-जिस का वेचाण हुआ ऐसी-बिकः गई।
सं० वि+की+ना-प्रा० विक्किण । प्रस्तुत 'विकानी' कोः । प्रकृति प्रा० 'विकिण' है।
भजन ४२ वां १५२. पखालो-साफ करो . ___ सं० प्रक्षालयतु-प्रा०-पक्खालउ-पखालउ--पखालो। 'प्र' के साथ 'क्षल' धातु का आज्ञार्थ तृतीय पुरुष एकवचन । "क्षलण शौचे"-(धातुपारायण चुरादिगण अंक १२१)
भजन ४३ वां १५३. समजल-शमरूप पाणी १५४. मयल-मेल
| मयल सं० मलिन प्रा० मइल
मेल
'मलिन' में 'ल' और 'न' दोनों समान स्थानीय (दत्य अथवा नासिका स्थान ) होने से एक-पूर्व-'ल' लुप्त हो गया हो और फिर शेष 'न', 'ल' के रूप में आ गया होः मलिनमइन-मइल । वाग्व्यापार की प्रक्रिया कहीं कहीं विलक्षण माल्टम होती है।
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लुस
__ [१९३] . भजन ४५ वां १५५. लुस-चोरना
सं० लूषति प्रा० लूसइ-लुसे ___ "लूष स्तेये"-(धातुपारायण भ्वादिगण अंक ५०१) "लष-चोरना"
१५६. संचुं-इकट्ठा करूं
'सं+चि' धातु उपर से 'संधु क्रियापद बना है । 'साचो' उपर का टिप्पण देखो।
भजन ४६ वां - १५७. नाऊमें-नावा में
सं० नावा-नाऊ । 'व' का 'उ' । १५८. धोर-दौडना सं० धाव' से भूतकृदंत धौत-धोत-धोड-धोर । १५९. धाउ-दौड सं० धाव-धाउ । विषय की दौड़ में दौडना । १६०. बढाऊ-बढना
सं०-वर्ध-वड्व-बड्ढाव-बड्डार-बढाउ-बटाउ । 'वहाव में 'आ' स्वार्थिक है । प्रेरणा सूचक नहि ।
__ भजन ४८ वां १६१. घाम-वाग्मी
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धर्मामृत
सं० धर्म - धम्म - घाम । "उष्णेऽपि धर्मः " - ( अमरकोश
[१९४]
तृतीयकांड, नानार्थ वर्ग श्लो० १४१ )
भजन ४९ वां
१६२. भीजे - पीघले
भिद्यते - भिज्जए - भीजए -भीजे
C
'भिंजना' और 'भजावुं' (गु० ) क्रियापद की प्रकृति 'भिज्जए' में है ।
' भिद्' धातु द्वैधीकरण-भेद - अर्थ में है । विना भेद हुए चित्त पोघलता नहि इससे 'भिज्जए' से 'भीजे' लाना ठीक दीखता है । १६३. चेंल-दास
सं० चेट - प्रा० चेडो - चेलो ।
भजन ५१ वां
१६४. छीलर - पाणी का गड्ढा - खाबोचिया
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“छिल्लरं पल्वलम् " ( देशी नाममाला वर्ग ३ गाथा २८) छिल्लर शब्द देश्य है उस पर से 'छीलर ' शब्द आया है ।
4
भजन ५२ वां
१६५. ऊपगृह - घर के पास का भाग । सं० उपगृह । भजन ५४ वां
१६६. सत्त - सत्य अथवा सत्त्व
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[१९५]
सं० सत्य - सत्त | सरखावो - सत्तवादी वा सं० सत्व- सत्त । १६७. सहड - सढ - पवन का संचय करनेवाले श्वेत कपडे । सितपट - सियपढ - सियड - सहड - सड - सठ । " संकोइओ सियवडो " - ( उपदेशपद टीका )
सहड
भजन ५७ वां
परखत - परीक्षा करना ।
परि + ईक्ष - परीक्ष- प्रा० परिक्ख - परिवखंत ( चर्त० कृ० ) ' परखत' का मूल ' परिक्खंत ' में है ।
भजन ५८ वां
१६८. वलुधो - विशेष लुब्ध ।
सं० विलुब्धकः - विलुद्धओ - वल्धओ
4
चट्टो
बलुंधो
बलूंभवु' (गुज०) का मूल भी 'विलुब्ध' में है | १६९. विसहर - विषधर - साप |
सं० विषधर - प्रा० बिसहर ।
१७०. मोझार - मध्य में बीच में में ।
सं० मध्यकार - प्रा० मज्झयार । " मज्जयम्मि मन"( देशी नाममाला वर्ग ६ ० १२९)
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[१९६]
धर्मामृतः __ के अनुसार 'मझआर' शब्द देश्य है।
आदि के 'म' का विवृततम उच्चारण करने से : मोझार' पद हुआ है। देश्य होने पर भी संस्कृत मध्य प्रा० ' मझ' से उसका साम्य अवश्य है।
भजन ५९ वां १७१. रेन-रात्रि सं० रजनी-प्रा० रयनी-रेण । १७२. तुंसाढा-तेरा । . 'तुसाढा' पंजाबी भाषा का पद है।
भजन ६१ वां १७३. ऊजड-शून्य जगह
"सुण्णे उज्जडं"- (देशीनाममाला वर्ग १ गाथा ९६ ) के अनुसार 'उजड' शव्द देश्य है । उजड-ऊजड । उद्ध्वस्ता जना यस्मात् तद् उजनम् अर्थात् जिस स्थान से मानव नीकल गए हैं वह स्थान उजन । 'उज्जन' से प्रा० उज्जण । ।
प्रा० 'उज्जण' से 'उज्जड' शब्द आना शक्य है परंतु प्रचाराभाव होने से नहि लाया गया हो ।
१७४. पायाल-पाताल-निम्नतम स्थान | सं० पाताल प्रा. पायाल ।
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थो,
[१९७] १७५- थोथु-खाली-कुछ भी न मिला हो ऐसा । ___ "थूत्' अव्यय का द्विरुक्त प्रयोग 'थूत्-थूत्' ऐसा होता है। 'थूत्थूत्' का प्राकृत उच्चारण थुत्थू है। प्रकृत 'थुत्यू से "थोथु' शब्द आना सहज है। सांप आदमी को काटता है परन्तु उससे सापका पेट नहीं भरता, उसकी भूख नहीं शमती। इससे कहावत है कि “साप खाता है पर उसका मुंह 'थोथा' न्याने खाली है" । 'थूत् । अव्यय 'धुंक' का वाचक है अतः 'थोथु' का अर्थ भी 'धुक' ही होगा । खाने पर भी मुख में मात्र थुक हो रहता है किन्तु और कुछ भी नहि आता ऐसा भाव प्रस्तुत 'थो)' का है । द्विरुक्ति से मात्र 'थुक हो धुंक' . भाव स्पष्ट होता है।
१७६. उखाणो-कहावत । स० उपाख्यान-प्रा० ओक्वाण-उखाणो वा उखाणुं
१७७. वयरीडूं-चैरी
सं० वैरी-प्रा० वइरी। स्वार्थिक 'ई' प्रत्यय आने ने वयरीहूं।
१७८. आंबू-अंकित करूं-वश करूं ।
'आंकुं' क्रियापद का मूल 'अ' धातु है जिससे की 'अंकुश' शब्द बना है। जब कोई किसी को बना करता है.
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(१९८]
धर्मामृत तब वह, वश किए हुए प्राणी पर अंकन-चिह्न-अपने विजय का निशान करता है। प्रस्तुत 'आकुं' में इसी प्रकार के निशान करने का भाव है।
भजन ६२ वां १७९. निखरेंगे-निकलेंगे।
भजन ६४ वां १८०. चार-मनुष्यगति, तिर्यंचगति, नरकगति और देवगति ।
१८१. भमरी-भ्रमण करना-नाचते हुए गोलाकार में घुमना । सं० भ्रमरी-प्रा० भमरी।
भजन ६५ वां १८२. रातुं-रजोगुणयुक्त-राजस सं० रक्त-प्रा० रत्त-गतुं १८३. स्वेत-सत्त्वगुणयुक्त-सात्त्विक । श्वेत-स्वेत ।
भजन ६६ वां १८४. तोर रंग का-तेरे रंग का । १८५. सूडा-तोता-पोपट ।
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नीके
सं० शुक- प्रा० सुग, सुअ
१८६. नीके-नीला ।
सं० नीलक-नीक । जिस प्रकार 'मलिन' शब्द से 'महल' होता है इसी प्रकार 'नीलक' से 'नीक' की उत्पत्ति शक्य है ऐसी कल्पना है । और उसी प्रकार 'नील' से 'लीला' ( गुज०) शब्द भी आया है ।
[१९९]
स्वार्थिक 'ड' आने से सुअड
सूडा | गुजराती में सूडो ।
भजन ६७ वां
१८७. आश्रव - पाप और पुण्य आने का मार्ग |
( जैन परिभाषिक) बौद्ध पिटको में भी ऐसा शब्द इसी
अर्थ में आता है ।
भजन ६८ वां
१८८. विलई - विलय होना - नाश होना
सं०- 'विलीयते ' प्रा० - 'विलीयए' । 'विल्ई' की प्रकृति
'विलीयए' है ।
१८९. ऊधर्यु–उद्धार करना - चहार नीकालना
उद्धरि-ऊपर्यु |
सं० उद्धृतम् - प्रा०
उमरियं ।
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[२००]
धर्मामृत भजन ६९ वां १९७. पंचम अंगे-भगवती सूत्र में । 'भगवती' का मूल . नाम 'व्याख्याप्रज्ञप्ति है।
प्रस्तुत भजन की १०वी कडी में जो भाव बताया गया है वह भाव श्री रायचन्द्रजिनागमसंग्रहमुद्रित भगवती सूत्र में शतक १२ . उद्देशक २-पृ० २६० कंडिका ९ में बताया गया है।
भजन ७० वां १९१. त्राजुए-तराजु से
(त्राजुअ-बाजवू (गु०) सं० तुलायुग-तुराजुअ
। तराजुअ। 'तुलायुग' में 'ल' का 'र होकर त्वरित उच्चारण के कारण 'त्राजुअ' शब्द हो गया है।
भजन ७१ वां १९२. मंजारी-बिल्ली-बिलाडी
मज्जारी
सं० मार्जारी-प्रा०
मंजारी
- - भजन ७३ वां
१९३. नार-नाला-पाणी का छोटा नाला
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पर्यो
[२०१] सं० नालिका-नारिआ-नार ।
सुरसरि-सुरसरित्-गंगा। . १९४. पर्यो-पडा . सं० पतितः-प्रा० पडिओ-परिओ-पर्यो । देखो 'परना' का टिप्पण।
१९५. वधिक-कसाई सं० 'वधिक' वा 'वधक' ।
भजन ७४ वां १९६ सेमर-सेमर का वृक्ष । सं० शाल्मल-प्रा० सम्मल-सम्मर-मर ।
भजन ७५ वां १९७. औगुन-अवगुण
. । अवगुण-ओगुण-ओगुन । - सं०
अपगुण १९८. घरी-घडो सं० घटिका-प्रा० घडिा-घड़ी-घरी ।
वस्तुतः 'घटी' शब्द 'लघु घडा' को दर्शाता है पान्न सच्छिद्र घटकी जललवण का वालकापतन की क्रिया में कालज्ञान होता है इसलिए 'घटी' दाब्द भी कालवाची हो गया है।
and
1
द
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[२०२]
भजन ७६ वां १९९. सलोना - नमकीन - लवणवाला |
सं० सलवण - प्रा० - सलउण - सलोण - सलोना |
२००. रोना- रुदन करना ।
सं० रोदन - प्रा० रोअण - रोअन - रोना ।
भजन ७७ वां
२०१. ठाढे - खडे
सं०- स्तब्धः- प्रा० ठड्ढे - ठाढे | भजन ७८ वां
धर्मामृत
२०२. हाड - हड्डी । सं०-अस्थि-प्रा० अट्ठि-अड्डि- हड्डि - हाड - हाडकुं । जिस तरह ' ओष्ठ' का 'होठ' हो गया है उसी प्रकार ‘अस्थि' का ‘हड्ड' हुआ है । स्वरस्थानीय 'ह' महाप्राण नहि है यह ख्याल में रहें । देशीनाममाला में भी 'हड्डं अट्ठिम्मि' - ( वर्ग ८ गाथा ५९ ) कह कर 'हड्ड' शब्द को देश्य बताया है परंतु 'हड्ड' शब्द भी 'अस्थि' प्रकृतिक है । २०३. पोली - पूला
।
1
" "पूल' संघाते " ("पूली तृणोच्चयः " धातुपारायण भ्वादिगण अंक ४२६ ) धातु से 'पोली' शब्द बना है । पूली माने घास का समूह - पूला ।
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साही
भजन ७९ वां
२०४. साही - सहायक सं० सहायी - साही |
२०५. जूझिहै - जूझेगा - युद्ध करेगा । सं० योत्स्यति - प्रा० जुज्झिहि - जूझिहै ।
भजन ८० वां
१११ ' कवडी' |
२०६. कौडी
सं० कपर्दिका प्रा० कवड्डिा - कउडिया - कौडी । देखो
[२०३]
२०७. संवारै ठीक करे
समारइ -संवारइ-संवारे अथवा
सं० - समारयति - प्रा० सं० सं + मृज् - प्रा० सं + मारज् - संमारजइ - संमारअइ- संमारइ
संवारइ-संवारे ।
भजन ८१ वां
२०८. वाती - बत्ती |
सं० वर्तिका - प्रा० वत्तिआ - त्राती ।
२०९. वरै - जलती है ।
सं० ज्वलति - प्रा० – वलइ - बरइ-बरे ।
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-
-
[२०४]
धर्मामृत भजन ८३ वां २१०. एळे-(गुज०) कीडे की माफक । सं० इलिका-इलिकायाः प्रा० इलिआए-एळे । ...
'ए' शब्द 'व्यर्थ' को बताता है। 'इलिकायाः' इलिका के समान-जिस प्रकार 'इलिका' का जन्म व्यर्थ है इसी प्रकार आत्मज्ञान के विना मानव का भी जन्म व्यर्थ है यह भाव “एळे' शब्द का है । 'इव' शब्द अध्याहृत है ।
२११. मावठा (गुज०) माघमास की वृष्टि । सं० माघवृष्ट-प्रा० माहवटू-मावटुं। २१२. वूठी-बरसना-वृष्टि हुई। . सं० वृष्ट प्रा० वुद्ध स्त्रीलिंगी-बुट्ठी-चूठी। . २१३. लोचन (गुज.) उखाडना । सं० 'लुञ्चन' का अपभ्रष्ट लोचन ।
भजन ८४ वां २१४. हैडं (गुज०) हृदय ।
सं० हृदय-प्रा० हिअय । स्वार्थिक 'ड' लगने से 'हिअयड' इस पर से हैहूं ।
२१५. करेश (गुज०) करेगा। "
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पडशे ।
(२०५]
करिहिसि सं० करिष्यसि-प्रा० । करेहिसि । करेश ।
करेइसि । करीश ।
करेसि । २१६. पडशे (गुज०)। ___ पतिष्यति-प्रा० पडिस्सइ । पडशे ।
पडेस्सइ)
भजन ८५ वां २१७. आंगमे-आक्रमण करे ।
सं० आक्रामति प्रा०-अकमइ-आकमइ-आंकने-आंगने (१) अथवा सं०-आगमयते-प्रा० आगमए-आंगमे । आगमयतेप्रतीक्षा करना।
२१८. दुग्धा-आपत्ति-कष्ट ।
संभव है कि सं० 'दुःखाधि' शब्द से यह शब्द निकला हो ? अथवा 'दग्ध' (जलन) से 'दुग्धा' बन गया हा! अथवा 'दुःखदाह' शब्द से 'दुक्खडाह' होकर उस परसे 'दुधा' हो गया हो ?
२१९. सांपडवी-प्राप्त करनी ।
सं० संपादयितव्य-प्रा० संशडिअम । 'सांपडली' का मूल 'संपाडिअच' में है।
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२०६]
धर्मामृत २२०. नरखे-देखे। सं० निरीक्षते-प्रा० निरिक्खए-नरखे।
भजन ८६ वां २२१. पांगरे-अंकुरयुक्त हो।
सं० प्र+अङ्कुरे-प्राङ्कुर-प्राङ्कुरयति । 'क' का 'ग' होने से और संयुक्त के पूर्व का हस्व होने से प्रा० 'पङ्गरेइ'। 'पङ्गुरेइ' से पांगरे । 'पांगरे' माने अंकुरयुक्त हो-विशेष पल्लवित हो "धन वरसे वन पांगरे" माने वृष्टि होती है तब वन अंकुरित होता है। 'पांगरवु (गुज०) क्रियापदका मूल 'प्राङ्कुर' में हैं।
गूजराती भाषा में 'रस्सी' के अर्थ का सूचक 'पांगरा' शब्द है। उक्त 'पांगरा' की व्युत्पत्ति रस्सीसूचक सं० 'प्रग्रह' शब्द से करने की है। बालक को शयन करने के 'घोडिये की रस्सी को गूजराती में 'पांगरा' कहते हैं।
२२२. वणश्यो-विनष्ट हुआ।
सं० विनष्टः प्रा० विणसिओ-वणश्यो। गुजराती के 'विणस क्रियापदका मूल 'वि+नश' में हैं।
२२३. वगडयु-विगड गया।
सं० वि+घट-विघटित । प्रा० वि+घड-विघडिअ । 'वगडयं शब्द का मूल 'विघडिअ' शब्द में है और 'बिगडना'
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'मही
_[२०७] तथा 'बगडवू' (गुज०) क्रियापद का मूल 'विघड' धातु में है। अथवा सं० 'कृत' के स्थान में अनेक जगह प्रा० 'कड' प्रयोग आता है। 'कड' को 'वि' पूर्व करने से और 'क' का “ग' करने से 'विगड' शब्द होता है। प्रस्तुत 'विगड से भी “बिगडना, बगडच्यु' और 'बगडq का होना संभवित है और अर्थमें भी कोई क्षति नहि । 'विगड' माने विकृत-विकार प्राप्त -बिगड गया।
२२४. मही-दही।
संस्कृत के कोशोमें 'गो' के पर्यायोमें 'माहेयी' और 'माहा' शब्द आते हैं। जिस प्रकार 'गव्य' शब्द से दूध, दही और घी का बोध होता है उसी प्रकार 'माहेय' शब्द ले दूध और दही का बोध होता है। क्यों कि 'माहेय' का मूल 'माहेयी' और "माही' शब्द है तथा उनका अर्थ 'गाया है। माहेव्याः इदम् अथवा माहाया इदम् 'माहेयम्' । प्रस्तुत 'महो' शब्द की मूल प्रकृति. 'माहेय' शब्द है। दूध वेचनेवाली को 'महियारी' कहते हैं। क्योंकि 'महियारो' शब्द का भी संबंध उक्त 'माहेयी' या 'माहा' से है। जो 'माहेयी' वा 'माही को पालती है-चगनी है वह 'महियारी एसा भाव 'महियारी' शब्दमें होना चाहिए। "माहेयी सौरभेयी गौ:"-(अमरकोश वैश्य वर्ग कां. २
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[२०.८]
धर्मामृत श्लो० ६६) “गौः सौरभेयी माहेयो माहा" -(हैम अभिधान चिंतामणि कांड ४ श्लो० ३३१)। .
२२५. माखण-मक्खन . .
सं० म्रक्षण प्रा० मक्खण-माखण । अमरकोश और हैमकोश दोनोंमें 'म्रक्षण' शब्द तो है परंतु वहां उसका अर्थ तैल-स्नेह-किया गया है। "म्रक्षणाऽभ्यञ्जने तैलम्' - (अमरकोश वैश्यवर्ग श्लो० ५०) "तैलं स्नेहोऽभ्यञ्जनं च " (हैम आभधान चिंतामणि कां० ३ श्लो० ८०) अमरकोश का टीकाकार तो कहता है कि 'म्रक्षण' इत्यादि उक्त श्लोक अमरकोश में मूलमें नहि है किंतु प्रक्षिप्त है: "म्रक्षण" इत्यर्ध क्षेपकम् "-(अमरकोश टीका) । जैन ग्रंथोमें 'मक्खन ' शब्द 'माखन' के अर्थ में आता है इसको देखकर 'म्रक्षण' से 'माखण' की कल्पना सूझी है। संस्कृत के हैम धातुपाठमें भी 'मक्ष धातु 'स्नेह अर्थ में नहि मिलता। " म्रक्षण म्लेच्छने" "म्रक्ष संघाते" (धातुपारायण चुरादिगण १४९, भ्वादिगण ५६८) इस प्रकार एक 'नक्ष' धातु का ‘म्लेच्छन' अर्थ है और दूसरे का 'संघात । परंतु 'स्नेह अर्थ में 'म्रक्ष धातु होना ही चाहिए क्योंकि आचार्य हेमचंद्र अपने प्राकृत व्याकरण में "म्रक्षेः चोप्पड:-(८-४-१९१) सूत्र बनाकर 'म्रक्ष' और 'चोप्पड' को पर्यायरूप बताते हैं। कितनेक धातु सौत्र याने सूत्रोक्त होते
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1
साथरो
[२०९]
1
1
हैं। वैसे सौत्र धातु, धातुपाठ में नहि आते । संभव है कि प्रस्तुत 'क्ष' धातु सौत्र हो जिस का अर्थ 'चोपडना' है । उस 'क्ष' धातु से 'क्षण' बन कर उससे प्रा० 'मक्खन' रूप होगा जो 'माखन' को मूल है । आचार्य हेमचंद्रने अपने प्राकृत द्वयाश्रय में सर्ग ७ श्लो० ३६ में 'मक्खंतं' रूपका 'चोपडने' अर्थ में प्रयोग किया है । “म्रक्षयन्तम्-विलेपनं कुर्वन्तम्" (द्वयाश्रयटीका) इससे भी 'चोपडने' अर्थ में 'भ्रक्ष' धातु का होना मानना न्याय्य है । भजन ८७ वां
२२६. साथरो- पत्तों का बिछौना ।
सं० - स्रस्तर - प्रा० सत्थर - साथरो ।
" संस्तर - स्रस्तरौ समौ " - ( हैम अभिधान चिन्तामणि कां०
३ श्लो० ३४६ ) " संस्तरः पल्लवादिरचिता शय्या " - टीका ।
२२७. परहरि-छोड करके ।
सं० परि + - परिहृत्य प्रा० परिहरिय- परहरी ।
२२८. धसे - घसना - प्रगल्भ - होना गर्व करना ।
सं०- धृष् प्रा०-धस्-घसइ - घसे |
२२९. तनडानी - शरीरकी
सं० तनुक प्रा० तणुअ । स्वार्थिक 'तु' प्रत्यय होने से
तणुअड - तनडा - षष्टी तनडानी । 'तनु ' शब्द 'शरीर' अर्थ में
प्रसिद्ध है ।
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.
[२१०
धर्मामृत भजन ८८ वां २३०. नांणे-न लाना । न+आंणे-नांणे । सं० आनयति-प्रा० आणेइ-आणे-आंणे । .
२३१. अडिखम-समर्थ-बलवान्
सं०-क्षम-प्रा०-खम । 'खम' का पूर्वग 'अडि' की व्युत्पत्ति अवगत नहि है। संभव है कि सं० 'आढयक्षम' शब्दसे प्रस्तुत 'अडिखम' का संबंध हो : स०-आढयक्षमअढयक्षम-अढिअखम-अडिअखम-अडिखम । 'आढयक्षम माने समर्थतम ।
२३२. आखडे-परस्पर मारामारी करे
'आखडे' के मूलमें "स्खदिष् खदने" वा "खिट उत्त्रासे" वातु का संभव है-(हैम धातुपारायण भ्वादि १००५, १७८)
'खदन'-विदारण करना और 'उत्त्रास'-त्रस्त करना । प्रस्तुत में दोनों धात्वर्थ घटमान है। सं० स्खद-आ+स्खद् । प्रा० अक्खद-अक्खड-अक्खडइ-आखडइ-आखडे । अथवा खिट-आ+खिट-आखेट प्रा० आखेड। आखेडइ-आखडइआखडे । 'खिट' की अपेक्षा 'स्खद् से लाना ठीक लगता है।
भजन ८९ वां २३३. मरद-पुरुष । सं० 'मयं' और प्रस्तुत 'मरद ' में अक्षरसाम्य और
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विसारी
- [२१] अर्थसाम्य दोनों हैं। पुरुषवाची माटी, माटीडी (गू०) माडु (कच्छी ) श_ का मूल भी 'मर्त्य ही प्रतीत होता है।
२३४. विसारी-बीसर जाना-विस्मरण हो जाना । सं० विस्मर-बीसर । 'विसारी' का मूल 'वीसर' में है।
भजन ९० वां २३५. राची-चना-दाग करना-आसक्त होना । सं० रन-यति प्रा० रज्जा-राजइ-राचद ।
ग्रा० 'रज' का भूतकृदंत रजिअ-राजिअ-चिअ-राची। गुज० 'राचवू' का मूल प्रस्तुत 'रज' में हैं।
२३६. पांच-पांच तन्मात्रा-पृथ्वी तन्मात्रा, जल तन्मात्रा, वायु तन्मात्रा, तेज तन्मात्रा, शब्द तन्मात्रा । - पचीस-सांख्यदर्शन संमत प्रकृति के परिणामरूप पचीस तत्त्व हैं।
२३७. अलगा-लगा हुआ नहि--भिन्न ।
सं० अलग्न-प्रा० अलग्ग । प्रस्तुत 'अलगा' शब्द का 'अलग्ग' शब्द के साथ अक्षरसाम्य और अर्थ साम्य दानां हैं।
२३८. ओळख्या--पहिचाना । सं० अवलक्षते-प्रा० ओलक्खार--ओलखे (गुज०)।
सं० अवलक्षितः-प्रा० ओलविखओ ओळल्यो (")। बहुवचन-ओळख्या।
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[२१२]
भजन ९१ वां
२३९. लवरी -- बकवाद - - बहु बोलना
धर्मामृत
सं०-‘लप्' प्रा०--'लव्' । प्रस्तुत 'लव्' धातु 'लवरी' का मूल है । '२' प्रत्यय स्वार्थिक है । २४०. झगडो - कलह
'झगडा' की व्युत्पत्ति अनवगत है । परन्तु देशीनाममाला में " विद्दवियम्मि जगढिओ " - ( वर्ग ३ गाथा ४४ ) 'कदर्थित' अर्थ में 'जगड' शब्द आता है । 'कदर्थना' और 'कलह' में अधिक साम्य है इससे संभव है कि प्रस्तुत 'झगडा' शब्द का 'जगडिअ ' से संबंध हो ।
२४१. दाम - पैसा
सं० द्रव्य - प्रा० दञ्च के साथ 'दाम' का संबंध होना शक्य है । दव्व - दाब - दाम । 'द्रव्य' शब्द धन का वाचक है और 'दाम' भी । कल्पित 'द्रम्म' शब्द से 'दाम' आता है परंतु 'द्रम्म' की व्युत्पत्ति निश्रित नहि । संभव है कि 'द्रम्म' वाच्य सिक्का तांबेका बनता हो और जिस तरह पैसावाचक 'तांविया' शब्द ताम्र से संबंध रखता है इसी तरह 'द्रम्भ' भी 'ताम्र' से संबंधित हो: ताम्र-तंत्र - तम्म- दम्म - द्रम्म । '२' कार प्रक्षिप्त मानना होगा ।
--
२४२. वाळ- केश
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खरशे
[२१३] . सं० बाल-बाळ "चिकुरः कुन्तलो बालः कचः केशः" (अमरकोश मनुष्यवर्ग श्लो० ९५) "कुन्तलाः कचाः वालाः स्युः"-(हैमअभिधान चिंतामणि कांड ३ श्लो० २३१)
२४३. खरशे-खर जायगा । सं० क्षरिष्यति-प्रा० खरिसइ-खरिस्से-खरशे। मूल धातु 'क्षर' है।
भजन ९२ वां २४४. रुदामां-हृदय में 'हृदय' शब्द का ही 'रुदा ऐसा विकृत उच्चारण है।
भजन ९३ वां २४५. दीवेल-दीप में जलने योग्य तैल । सं० दीपस्य तैलम्-दीपतैलम्-प्रा०-दोवतेल-दीवएल-दोवेल। गूजराती में
'दीवेल' का प्रसिद्ध अर्थ एरंडी का तैल है। 'कोपरेल' 'एरंडेल . इत्यादि शब्दो में अन्त्य 'एल' 'तैल' का विकृत उच्चारण है।
'तैल' शब्द का साधारण भ'व 'तिलों का तेल' है परन्तु 'कोपरेल' आदि शब्दों का अन्त्य 'एल' जो 'तैल का परिणाम है (तैल-तेल-एल) उसका भाव 'तिलों का तेल' नहि समजना किन्तु मात्र तेल --स्नेह-समजना । आचार्य हेमचन्द्र के कथनानुसार म्रक्षण, तैल, स्नेह, अभ्यञ्जन ये चारों शब्द पर्यायवाची हैं:--"म्रक्षणं तैलं स्नेहः अन्यञ्जनम्।" - (हैमअभिधानचिन्तामणि कांड ३.श्लो०८०-८१
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[२१४]
धर्मामृत संस्कृत के वैयाकरण लोक, 'सर्षपतैल' प्रभृति शब्दो में 'सर्षप के साथ लगा हुआ 'तैल' को प्रत्यय कहते हैं : "तिलादिभ्यः स्नेहे तैल:".-७-१-१३६ । ___ 'तिल प्रकृतिक 'तैल' के अर्थ को लक्षणा से व्यापक करने से 'सर्षपतैल' आदि शब्द सिद्ध हो जाते हैं फिर भी 'तैल' प्रत्यय की कल्पना क्यों की होगी?
२४६. परणायु-दीवा रखनेका आधार
संस्कृत में 'परायण' शब्द 'आश्रय' के अर्थ में आता है। संभव है कि 'परायण' में 'ण' और 'य' का व्यत्यय होकर 'परणाय' शब्द आया हो । निश्चित नहि।
" परायणं स्याद् अभीष्टे तत्पर--आश्रययोः अपि" (हैम अनेकार्थ संग्रह कांड ४ श्लो० ८४) अर्थात् परायण-१ अभीष्ट २ तत्पर ३ आश्रय।
२४७. दीवेट-बत्ती-बाट।
सं०-दीपवर्ति प्रा० दीववट्टि । दो 'व' साथमें आने से उच्चारणमें कुछ क्लिष्टताका भास होता है उसको हटाने के लिए
और त्वरित उच्चारण के कारण एक 'व' को हट जाना पड़ा : 'दीवअहि' 'अ' की 'य' श्रुति होने से 'दीवयट्टि' । 'य' का संप्रसारण होनेसे दीवइटि-डीवेष्टि-दीवेट। 'दीवेटिया' शब्द का मूल भी प्रस्तुत 'दीपवर्ति' शब्द है। वर्ति शब्द के पांच अर्थ वताए हैं :
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अणभे
" वर्तिः गात्रानुलेपिन्यां दगायां दीपकस्य च । दीपे भेषज निर्माण - नयनाञ्जनलेखयोः ॥ १९० ॥ (हैम अनेकार्थ संग्रह द्वितीय कांड ) अर्थात् वर्ति - १ अगरवाट, २ दीपकी वाट, ३ दीप, ४ ओषध की वाट और आंख में आंजने की वाट ।
२४८. अणभे-भयरहित - अभय - अभयदशा प्राप्त होने पर । सं०-न+भय - अभय प्रा० अणभय- अणभइ - अणभे । २४९. ताळु-ताला
सं० तालकम्–प्रा०-तालअं - तालउं - तालुं - तालुं । "द्वारयंत्रं तु तालकम्”– (हैमअभिधान चिंतामणि ४ कांड श्लो० ७१) " द्वारपिधानाय लोहमयं यन्त्रं द्वारयन्त्रम्" - टीका)
' द्वारयंत्र ' - हार को ढकने के लिए लोहे का यंत्र और 'तालक' दोनों पर्याय शब्द है । प्रस्तुत 'तालक' शब्द अमरकोश में नहि है ।
भजन ९४ वां
[२१५]
गाथा ७ वीं का भाव
चरण १- क्रोध को निकालना हो तो क्रोध के ही प्रति क्रोध करना चाहिए |
चरण २ - अभिमान का नाश करना हो तो ' में सत्र से बडा दोन हुं ' ऐसा अभिमान रखना चाहिए ।
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[२१६]
. धर्मामृत चरण ३-'माया' का ध्वंस करना हा तो प्रवृत्ति मात्र साक्षी भाव से करनी चाहिए । 'अंदर कुछ और बाहर कुछ' ऐसी वृत्ति का नाम 'माया' है ऐसी माया का नाश करना हो तो जो जो प्रवृत्ति करनी पड़ती है उसमें आसक्त न होकर उन सव को साक्षी भाव से-तटस्थ भाव से-उपेक्षा भाव से करने की माया रखनी चाहिए अर्थात् बाहिर से कर्ता होना और अन्तर से साक्षिभाव से रहना यह भी एक प्रकार की माया ही है । ऐसी ही माया, दोषरूप माया का अंत कर देगी और आत्मस्वरूप की प्राप्ति में साधनरूप होगी।
चरण ४-लोभ को मिटाना हो तो लोभसमान संकुचित नहि होने का लोभ रखना चाहिए । संकुचित न होने की वृत्ति--अर्थात् व्यापकवृत्ति--रखने का लोभ रखने से लोभदोप हट जायगा।
२५०. सौंदरी-छींदरी-रस्सी-नालियेर के छालों से बनी हुई रस्सी।
'सौंदरी'. शब्द की मूल व्युत्पत्ति अवगत नहि. देशीनाममाला में 'रज्जु-रस्सी' के अर्थ में 'सिंदु' और 'सिंदुरय' शब्द आया है । 'सिंदुरय' शब्द से 'सौंदरी' शब्द सरलतासे आ सकता है। 'सिंदु' शब्द को स्वार्थिक 'र' प्रत्यय करने से भी उससे 'सौंदरो' शब्द आ सकता है । 'सिंदी' शब्द 'खजूरी' के
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अडोल
[२१७] अर्थ में देशीनाममाला में आया है। संभव है कि-'सौंदरी' खजूरी के रेसों से बनती हो उससे उसका नाम सींदरी हुआ हो।
"सिंदु रज्जू" – ( देशीनाममाला वर्ग ८, गाथा २८) "सिंदुरयंxरज्जूए" (देशीनाममाला वर्ग ८ गाथा ५४ ) "सिंदीxखजूरो"-( देशीनाममाला वर्ग ८ गाथा २९)
'सौंदरी' का पर्याय छौंदरी, छींदरुं भी गुजराती भाषा में प्रतीत है और उनकी उपपत्ति 'सौंदरी के अनुसार है।
२५१, अडोल-अकंप-निश्चळ ।
"दुलण-उत्क्षेपे"-(धातुपारायण चुरादिगग अंक १२६) दोलयति इति दोल: न दोलः अदोल:-प्रा० अडोल ।
__ हिंदी 'डोलना' और गुजराती 'डोलवू' की मूल प्रकृति उक्त 'दुल' धातु है । 'डोली' शब्द भी 'दोला' से आया है।
भजन ९५ वां २५२. अंधार-अंधेरा । अन्ध+कार-अन्धकार प्रा० अंधआर-अंधार-अंधारू ।
अन्धकार माने अन्धा करनेवाला-'अन्धकार का आवरण आने से आंख से कुछ भी नहि दोखता-वह अंधी हो जाती है इससे उसका-अंधकार का नाम 'अंधार' यथार्थ है ।
२५३. संभाळ-बचाव-रक्षा करो।
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[२१८]
धर्मामृत सं० भू-संभारय-प्रा० संभालय-संभाल । 'भृ' धातु 'धारण' और 'पोषण' अर्थमें प्रसिद्ध है।
२५४. उजाळ- प्रकाशित कर । सं० उज्ज्वालय-उज्जालय-उजाळ । 'ज्वल' धातु का 'दीप्ति' अर्थ प्रतीत है। २५५. निभाव्यो-निर्वाह किया । सं० निर्वाहितः-निव्वहाविओ-निव्हाव्यो-निभाव्यो।
भजन ९७ वां
२५६. फकीरांदी 'दो' शब्द पष्ठीविभक्ति का सूचक है और पंजाबी भाषा
२५७. चवावे-चावना। "चर्व अदने"-(धातुपारायण भ्वादिगण अंक ४५२) सं० चर्वयति प्रा०-चवावेइ-चबावें।
'चावना' और गुजरातो 'चावयूँ क्रियापद का मूल 'चर्व' धातु में है।
२५८. ओढ़ें
सं० अव+स्तृ-प्रा० ओत्थ-ओढ । 'स्तृ' धातु 'आच्छादन' अर्थ में प्रसिद्ध है। "स्तूंगट आच्छादने"-(धातुपारायण
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समाई
[२१९] स्वादिगण अंक ७)। हिन्दी 'ओढना,' 'ओढ'' 'ओढवू (गू०) शब्दे की प्रकृति भी 'अव--स्तृ' है।
भजन ९८ वां २५९. समाई सं० समाप्यते - प्रा० समावीअइ-समाई । २६०. मुकर-दर्पण । सं० मुकुर । २६१. जस छाई -जैसी छाया । सं० छाया प्रा० छाहो-छाई । २६२. आपा-आत्मा सं आत्मा-प्रा० अप्पा-आपा । २६३. चीन्हे-पीछान करे ।
सं० चिह्न-चिह्नित-प्रा० चिन्हिअ-सप्तमी-चिन्हिएचिन्हे ।
२६४. काई-सेबाल-सल
'नील सेवाल' अर्थ में देश्य 'कावी' शब्द है. प्रस्तुत 'काई', देश्य 'कावी' का रूपांतर है । "कावी णीला"-"कावी नीलवर्णा"-( देशीनाममाला वर्ग २ गा० २६)।
२६५. माटी । सं० मृत्तिका-प्रा० मट्टिआ-माटी २६६. मनसा-इच्छा । सं०मनीषा-प्रा०मनीसा-मनसा। २६७.परसै-स्पर्श करे ।संस्पृशति-प्रा०फरिसइ-परसे।
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________________
शब्दका अंक
१२३
१२५
४३
१३८
११४
४६
१८७
१७८
२१७
४१
८६
३
१४६
१२७
१७६
१७३
१८९
१६५
९७
शब्दों की व्युत्पत्तियां और समजुती में आए हुए शब्दों की सूचि
शब्द
शब्दका अंक
२१०
अकुलाय
अघाय
अवधू
अंगिठी
आगममां
आटो
आश्रव
आंकुं
आंगमे
इग
इहांसेती
उठ .
उलट पलट
उलटा
उखाणो
ऊजट
ऊधर्यु
ऊपग्रह .
ऊरध
एके
५३
१९७
१०१
२१५
२२
११०
९६
१२
शब्द
एह
औगुन
कनदोरो
करेश
करो
कवडी
कहावे
काज
काठ
काटके
૬૮
९४
११२
१०२
२०६
१४० पृ०
१४
२५
७४
गहेरा
२७ भजन गुपति
१०७-२२ भजन गोखें
८५
गोतो
कायर
कोपीन
कोडी
सायक
सिन
गहो
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________________
२२१
गोर
११५
४५
घरी
६०८
चवदह
११८
१३७
ग्यान
घरटी १९८ १४० पृ. घाति करम १६१
घाम ३२ १०४
चाख • ९३-११६-१८० चार
चूनियो चेल छिन
छिनाला .१६४ छीलर १२६
छोत १०७-२४ भजन छांह
जगपरिमित
६५ झख
५० टांडो २०१ ठाढे
ठगनी
डूंगर १०६ पृ० १७६ डेरा २७ तसकर ४४
ताता ताल
तालस १३२ तिरस १३४ तीसना १७२ तुंसाढा १८४ तोर १४३ तोलों
সালথ १४९ निगुन
८० १७५ थोडं
१६ भजन दश २१८ दुग्धा १७ भजन दोय
घरन १५९ घाट
धायो
छेह
थारे
जागो जाने
११९ ९१
जाम जालम जावनो जिउ
-
m
१२०
२०५
जूझिहै
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________________
१५८
२२०
१५७
१०९
१९३
१७९
१०३
२१
१०
२८
१८६
४०
११
७२
१४०
६१
१५२
१६
२१६
धोर
नरखे
नाऊमें
नातरां
नार
निखरेंगे
निरजरा
निरखो
निवारो
५७ भजन
६०
३०
२०
१९४
७५
निहाले
नीके
नीसरजावो
नींद
नेउर
पकरूं
पख
पखालो
पछतावो
पडशे
परखत
परतीता
परना
परमाद
पर्यो
पहरे
૨૨
९८
३१
७७
१७४
५९
१३५
१३१
८३
२०३
१९०
२२१
२४ भजन
३६ भजन
१७ भजन
१७
१९
३७
१२८
२४
१८
१५०
२२३
१६०
९९
१११
पहिचाने
पहिराया
पाखंड
पायाल
पायो
पावडली
पाहार
पैसे
पोली
पंचम अंगे
पांगरे
पांच जात
पांच
पांचो
पांत
पूंजी
प्यारे
प्यासे
फिलाबो
फैल
फांसा
चगडथुं
चढाऊ
वरम
चरमा
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________________
રરરૂ
२२४ २२५
. ०
२०९
७१ १२२
वहेरा
वाउरे
२०८
9 ur T
वाती वामण बिकानी बुंद
मही साखण माने मावठा मीता मोझार मंजारी रमावो रयन रातुं
१५१
१७० १९२
v
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१४४
बेर
१४१
भभूत
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م
भमरी
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रीता
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M s
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१
२००
०
भयो भाया भाया भांखे भांति भीजे
m
mr ur ur r mr mr ur /
०
रोना लपटयो लयो लाठी लाड
"
१६२
१३९
भूखो
१
१४८
भोर
२१३
लोचन
१२१
__ ४७
मगन सडी
१३३
૨૨૨
वटमें वणश्यो वधाचा
२३
मनुवा
१५४
मयल महिल
वधिक वयरीई
१७७
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________________
. २२४
___ . सुधारो
१८५
सूडा
संचुं
वृठी
.
- १६८ . . वलुधो
वाजे .
वालम ४८ .. विनजारा
विमासी. - १८८ विलई १६९
विसहर
... विहानी २१२ १५
वेला वीत्यां षट् रस
सत्त ५४ सबगत . १५३ समजल २७ भजन । समिति .
सयन ११७
सलूने सलोना सहड साचो
साही १४५. লিং
७. . . मुतां
सूना . १२४ . सेज
१९६ सेमर . ९५ सोलं
संघयण __ १५६ .
.संठाण
. संभारो २०७
संवार संसृति
सांपडवी १४२ सींगी
स्चेत
हलावे २०२ ८२ हिरिदय
हेगा २१४ ६९ ३६ भजन पृ० १८५ टुंगी
१८३
१२९
१९९ १६.
२०४
होठ
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_