________________
1
1
साथरो
[२०९]
1
1
हैं। वैसे सौत्र धातु, धातुपाठ में नहि आते । संभव है कि प्रस्तुत 'क्ष' धातु सौत्र हो जिस का अर्थ 'चोपडना' है । उस 'क्ष' धातु से 'क्षण' बन कर उससे प्रा० 'मक्खन' रूप होगा जो 'माखन' को मूल है । आचार्य हेमचंद्रने अपने प्राकृत द्वयाश्रय में सर्ग ७ श्लो० ३६ में 'मक्खंतं' रूपका 'चोपडने' अर्थ में प्रयोग किया है । “म्रक्षयन्तम्-विलेपनं कुर्वन्तम्" (द्वयाश्रयटीका) इससे भी 'चोपडने' अर्थ में 'भ्रक्ष' धातु का होना मानना न्याय्य है । भजन ८७ वां
२२६. साथरो- पत्तों का बिछौना ।
सं० - स्रस्तर - प्रा० सत्थर - साथरो ।
" संस्तर - स्रस्तरौ समौ " - ( हैम अभिधान चिन्तामणि कां०
३ श्लो० ३४६ ) " संस्तरः पल्लवादिरचिता शय्या " - टीका ।
२२७. परहरि-छोड करके ।
सं० परि + - परिहृत्य प्रा० परिहरिय- परहरी ।
२२८. धसे - घसना - प्रगल्भ - होना गर्व करना ।
सं०- धृष् प्रा०-धस्-घसइ - घसे |
२२९. तनडानी - शरीरकी
सं० तनुक प्रा० तणुअ । स्वार्थिक 'तु' प्रत्यय होने से
तणुअड - तनडा - षष्टी तनडानी । 'तनु ' शब्द 'शरीर' अर्थ में
प्रसिद्ध है ।