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धर्मामृत . 'कौपीन' की व्युत्पत्ति वैयाकरणेांने इस प्रकार बताई है: 'कूपम् अर्हति' इति 'कौपीनम्' अर्थात् 'कूवा में डालने योग्य हो वह 'कौपीन' । परन्तु यह व्युत्पत्ति कल्पित प्रतीत होती है। 'कौपीन' की ठीक व्युत्पत्ति गवेषणीय है। संभव है कि 'कौपीन' का मूल ‘गुप्' धातु में हो । " गुपि" गोपन-कुत्सनयोः "(धातुपारायण स्वादि, अंक ७६३) 'गुप' धातु का अर्थ है 'गोपन' और 'कौपीन' में भी 'गोपन' का भाव स्पष्ट है। गोपन-गुप्त रखना-छिपा रखना। कदाच मूल शब्द 'गोपीन' हो और उसपर से 'कौपीन' ऐसा संस्कार किया हो । जो भी कुछ हो परन्तु वैयाकरणों की व्युत्पत्ति कल्पित लगती हैं।
१०३ निरजरा-कर्मों का जर जाना-कर्मों का नाश होजाना ।
सं० निर्जरा (जैन पारिभाषिक) .. १०४ चाख-चखना .. सं० "जक्षक् भक्ष-हसनयो:"- (धातुपारायण अदादि गण __ अंक-३३)। . . . जक्ष-प्रा० जक्ख । 'जक्ख' परसे 'चक्ख' । 'चक्ख' से
'चखना' । 'चाखवु' (गुज०) अथवा "चषी भक्षणे"- (धातु पारायण भ्वादि गण अंक-९२८)। .. - 'चष' के 'ष' का 'ख' उच्चारण होने से 'चख' और 'चख