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धर्मामृत तब वह, वश किए हुए प्राणी पर अंकन-चिह्न-अपने विजय का निशान करता है। प्रस्तुत 'आकुं' में इसी प्रकार के निशान करने का भाव है।
भजन ६२ वां १७९. निखरेंगे-निकलेंगे।
भजन ६४ वां १८०. चार-मनुष्यगति, तिर्यंचगति, नरकगति और देवगति ।
१८१. भमरी-भ्रमण करना-नाचते हुए गोलाकार में घुमना । सं० भ्रमरी-प्रा० भमरी।
भजन ६५ वां १८२. रातुं-रजोगुणयुक्त-राजस सं० रक्त-प्रा० रत्त-गतुं १८३. स्वेत-सत्त्वगुणयुक्त-सात्त्विक । श्वेत-स्वेत ।
भजन ६६ वां १८४. तोर रंग का-तेरे रंग का । १८५. सूडा-तोता-पोपट ।