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. धर्मामृत चरण ३-'माया' का ध्वंस करना हा तो प्रवृत्ति मात्र साक्षी भाव से करनी चाहिए । 'अंदर कुछ और बाहर कुछ' ऐसी वृत्ति का नाम 'माया' है ऐसी माया का नाश करना हो तो जो जो प्रवृत्ति करनी पड़ती है उसमें आसक्त न होकर उन सव को साक्षी भाव से-तटस्थ भाव से-उपेक्षा भाव से करने की माया रखनी चाहिए अर्थात् बाहिर से कर्ता होना और अन्तर से साक्षिभाव से रहना यह भी एक प्रकार की माया ही है । ऐसी ही माया, दोषरूप माया का अंत कर देगी और आत्मस्वरूप की प्राप्ति में साधनरूप होगी।
चरण ४-लोभ को मिटाना हो तो लोभसमान संकुचित नहि होने का लोभ रखना चाहिए । संकुचित न होने की वृत्ति--अर्थात् व्यापकवृत्ति--रखने का लोभ रखने से लोभदोप हट जायगा।
२५०. सौंदरी-छींदरी-रस्सी-नालियेर के छालों से बनी हुई रस्सी।
'सौंदरी'. शब्द की मूल व्युत्पत्ति अवगत नहि. देशीनाममाला में 'रज्जु-रस्सी' के अर्थ में 'सिंदु' और 'सिंदुरय' शब्द आया है । 'सिंदुरय' शब्द से 'सौंदरी' शब्द सरलतासे आ सकता है। 'सिंदु' शब्द को स्वार्थिक 'र' प्रत्यय करने से भी उससे 'सौंदरो' शब्द आ सकता है । 'सिंदी' शब्द 'खजूरी' के