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ज्ञानानन्द
(३)
दोहा
अब ही प्यारे चेत ले, घर पूंजी संभारो ।
सहु परमाद तुं छांड दे,
निरखो कागल सारो ॥ टेक ॥
मगरुरी तुम मत करो,
नहीं परगल तुझ माया |
पूंजी तो ओछी घणी,
व्यापार वधार्या
गाफील होकर मत रहे, पग देख फिलावो ।
घटमें निधि चारित हो,
ज्ञानानंद रमावो
॥ १
॥२॥
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