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सूरदास
(७३)
राग आला-मांड, तीन ताल, या दीपचंदी
तुम मेरी राखो लाज हरी ।
तुम जानत सब अन्तरजामी । करनी कछु न करी ॥ १ ॥
औगुन मोसे बिसरत नाहीं, पल छिन घरी घरी ।
सब प्रपंच की पोट बांध करि अपने सीस धरी
दारा सुत धन मोह लिये हों सुधि बुधि सब बिसरी ।
सूर पतित को बेग उधारो,
॥ २ ॥
अब मेरी नाव भरी ॥ ३ ॥
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