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धर्मामृत * स्वपताम् ' से 'सुतां' बनाना अधिक संगत जान पड़ता है क्योंकि 'सुतां' में चालु क्रिया का भाव है वह 'स्वपताम् ' में
अनायास सिद्ध है और विभक्त्यर्थ भी ठीक वही है। 'अस्माकं स्वपतां स्वपतां चौ रेण धनं हृतम् ' वाक्य में 'स्वपतां स्वपता' का जो भाव है ठीक वही भाव ‘सुतां सुतां रयन विहानी' के "सुतां सुतां' पद का है । अर्थसाधक ऐसा पुष्ट प्रमाण होने से “सुतां' पद ' स्वपताम् ' से लाना अच्छा है।
गुजराती 'सुतेलं' और हिन्दी 'सोएला' पद प्रा. 'सुत्त' के स्वार्थ 'इल्ल' प्रत्यययुक्त ‘सुत्तेल्ल' पद का विपरिणाम है।
गुजराती 'करेलु' 'गएलुं' इत्यादि में और मराठी ‘केले' - 'गेले' प्रभृति में स्वार्थिक 'इल्ल' प्रत्यय का उपयोग सुस्पष्ट है।
८. रयन-रात्री।
सं० रजनी-प्रा० रयणी-रयन । रंगराग और गाना नाचना वगेरे विलास संवन्धी क्रियाओं के लिए दिन की अपेक्षा रात्रि विशेष अनुकूल होती है। इसी कारण को लेकर शब्दों को गढनेवाले प्रचीन लोगों ने 'रात्रि' के अर्थ में 'रजनी' शब्द को संकेतित किया जान पड़ता है, उस प्राचीन संकेत के अनुसार कोषकारों ने भी 'रजनी' शब्द की व्युत्पत्ति :राग' अर्थवाले 'रञ्' धातु से बताई है: "रजन्ति अस्याम् इति रजनी"(हैम अभिधानचिंतामणि टीका कां. २ श्लो० ५६) रात्रि