________________
संभारो
[१२५]
परिणम जाता है । इस परिवर्तन का द्योतक " इको य अचि " यह पाणिनीय सूत्र है और " इवर्णादे : अस्वे स्वरे य-व-र-लम् ” यह सूत्र आचार्य हेमचंद्र का है । दोनों सूत्रमें ' इकः ' और ' इवर्णादे: 'पद पंचम्यंत है और षष्ठयंत भी है । जब पंचम्यंत हो तब ' व ' आगमवत् होता है और षष्टयंत की विवक्षा हो तब 'उ', 'व' में बदल जाता है । दोनों प्रकार के अर्थ वैयाकरणों को संमत है और ये दोनों अर्थ है भी वाख्यापारानुसार ।
६. संभारो-ठीक स्मरण में लाओ - बराबर याद करो । सं० संस्मरतु प्रा० संम्हरतु - संभरउ - संभारउ - संभारो । ' संम्हर' का स्वरभार को सुरक्षित रखने के लिए उसके उपर से 'संभार' हुआ दीखता है | हिन्दी 'संभारना' और गुजराती 'संभारखं ' क्रियापद का मूल प्रस्तुत ' संम्हर' में है ।
७. स्रुतां - सोते सोते ।
सं० सुप्त - प्रा० सुत्त । 'सुत्त' गुजराती 'सूतुं' की निष्पत्ति है ।
उपर से 'सुतां' और
,
'सूतुं
का बहुवचन
"
सुतां ' है । अथवा सं० स्वपताम् रूप 'स्वप्' धातु का वर्तमान कृदन्त ‘स्वपत्' का षष्ठी बहुवचनांत है उस पर से भी प्रस्तुत 'सुतां' आ सकता है ! स्वपताम्- सुपताम्सुअताम् - सुतां । 'सुत्त' से 'सुतां' बनाने की अपेक्षा