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धर्मामृत
सं० वातलकः प्रा० वायल से - वावल से - वाउलओ - वाउले - वाउरे - बाउरे | बावरो (गुज०) 'ए' प्रत्यय है और " वाउर प्रकृति है यह ख्याल में रहे । 'ए' प्रत्यय की समज के लिए. 'सल्लूने' का टिप्पण देखो।
१२३. अकुलाय-आकुल होना । गुज० - अकळाय । स० 'आकुल' शब्द से ' आकुलयति ' क्रियापद बनता उसका प्रा० आकुलेइ । प्रस्तुत 'अकुलाय' में प्रकृतिरूपः 'आकुले' है ।
१२४. सेज - शय्या - बिछाना
स० - शय्या - प्रा० सेज्जा - सेज 1
१२५. अघाय - अतृप्त |
सं० घ्रात प्रा० घाय-न घाय अघाय । यद्यपि ' घ्रात " शब्द का अर्थ 'सुंघनेवाला' है । परंतु प्रस्तुत में 'सुंघना' इतर सब इंद्रियों के विषयका उपलक्षण है अर्थात् उस उपलक्षण को ध्यान में लेनेसे 'घाय' माने सर्व इंद्रिय के विषयों को प्राप्त और 'अघाय' माने जिसको एक भी इंद्रिय का विषय नहि मिला हो. वैसा अर्थात् अतृप्त ।
भजन ३३ वां
१२६. छेह - अंत - छेद