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धर्मामृत संस्कृत के वैयाकरण लोक, 'सर्षपतैल' प्रभृति शब्दो में 'सर्षप के साथ लगा हुआ 'तैल' को प्रत्यय कहते हैं : "तिलादिभ्यः स्नेहे तैल:".-७-१-१३६ । ___ 'तिल प्रकृतिक 'तैल' के अर्थ को लक्षणा से व्यापक करने से 'सर्षपतैल' आदि शब्द सिद्ध हो जाते हैं फिर भी 'तैल' प्रत्यय की कल्पना क्यों की होगी?
२४६. परणायु-दीवा रखनेका आधार
संस्कृत में 'परायण' शब्द 'आश्रय' के अर्थ में आता है। संभव है कि 'परायण' में 'ण' और 'य' का व्यत्यय होकर 'परणाय' शब्द आया हो । निश्चित नहि।
" परायणं स्याद् अभीष्टे तत्पर--आश्रययोः अपि" (हैम अनेकार्थ संग्रह कांड ४ श्लो० ८४) अर्थात् परायण-१ अभीष्ट २ तत्पर ३ आश्रय।
२४७. दीवेट-बत्ती-बाट।
सं०-दीपवर्ति प्रा० दीववट्टि । दो 'व' साथमें आने से उच्चारणमें कुछ क्लिष्टताका भास होता है उसको हटाने के लिए
और त्वरित उच्चारण के कारण एक 'व' को हट जाना पड़ा : 'दीवअहि' 'अ' की 'य' श्रुति होने से 'दीवयट्टि' । 'य' का संप्रसारण होनेसे दीवइटि-डीवेष्टि-दीवेट। 'दीवेटिया' शब्द का मूल भी प्रस्तुत 'दीपवर्ति' शब्द है। वर्ति शब्द के पांच अर्थ वताए हैं :