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धर्मामृत
सुख जल विषम विषय मृगतृष्णा, होत मूढमति प्यासी । विभ्रम भूमि भइ पर आसी, तुं तो सहज विलासी ॥ चे०७ ।। याको पिता मोह दुःख भ्राता, होत विषय रति मासी । भवसुत भरता अविरति प्रानी, मिथ्या मति ए हांसी ॥ चे०८॥
आसा छोर रहेजो जोगी, सो होवे सिव वासी। उनको सुजस बखाने ज्ञाता, अंतर दृष्टि प्रकासी ॥ चे० ९॥