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फैल
[१३९] . विशेष विचार करने से प्रतीत होता है कि 'असर' और 'पयल्ल' के बीच में अर्थसाम्य उपरांत शब्दसाम्य भी है। कोई भी वक्ता कैसा भी अपभ्रष्ट उच्चारण करे तो भी कंठ वगैरे स्थान, आस्य प्रयत्न, करण और बाह्य प्रयत्न इन सब का ऐसा व्यापार बनता है कि अपभ्रष्ट वक्ता भी मूल अक्षरों के स्थान में प्रायः ऐसा ही दूसरा वर्ण बोलता है कि मूल अक्षरे और उच्चारणायात दूसरा वर्ण ये दोनों के बीच में कंठस्थानादि की अपेक्षा अवश्य समानता होती है। संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश वा प्रचलित कोई भी भाषा हो वे सब उच्चारण की उक्त मर्यादा को नहि लांघती। इस मर्यादा को लेकर 'पयल्ल' और 'प्रसर' की भी परीक्षा करनी चाहिए । वाग्व्यापार की प्रक्रिया देखने से ता 'प्रसर' की अपेक्षा 'प्रचर' से 'पयल्ल' आना ठीक क्रमिक मालम होता है : प्रस्चर-प+चर् -प-+यल-प+यल्ल–पयल्ल । यदि 'प्र+सर' से 'पयल्ल' को लाना हो तो-प्र+सर-प+हर -4+यर
१. स्थान आठ हैं: कंठ, मूर्धा, जिह्वामूल, दंत, नासिका, ओष्ट अने तालु।
२. आस्य प्रयत्न चार हैं:-स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट, विवृत और ईपद्विवृत । ३. करण तीन हैं:-जिह्वाके मूलका मध्य, अन, और उपात्र ।
४. बाह्य प्रयत्न आठ हैं:-विवार, संवार, श्वास, नाद, घोप, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण ।