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धर्मामृत
प्रवाह में कभी नहि चलता, इस कारण गड्डरिकाप्रवाहानुसारी उनके सहचर उस विवेकी को अपनेसे पृथक् समजते हैं और जब वह विवेकी, गड्डरिकाप्रवाह की मूलभूत अविद्या व रूढिको सर्वथा - छोडकर उसका प्रतिवाद करता है तब उसको जातिसे बहार भी घोषित करते हैं । इस दृष्टिको लेकर भजनकारके उक्त शब्द समज में आ जाते हैं और उनके जीवन में ऐसी कोई घटना भी घटी होगी ऐसी कल्पना असंगत नहीं दीखती ।
गडरिकाप्रवाह के अगुआने आनंदघन जैसे पवित्र पुरुषको भी जातबहार घोषित किया था यह हकीकत जैनसमाज में सुप्रतीत है | सत्संस्कारसंपन्न श्रीमान् रायचंद भाई के संबंध में भी ऐसा ही व्यवहार किया गया था । वैदिक परंपरामें भी भक्तराज नरसिंह महेता, संत तुकाराम और पूज्य गांधीजी के लिए भी गडरिकाप्रवाहगामी सनातनी लोग ऐसा ही व्यवहार कर रहे हैं।
१८. फैल - फैलना - प्रसरना - प्रचार होना ।
गु० 'फेलवं' और हिन्दी 'फैलना' दोनों समानार्थक क्रियापद हैं । 'फैलता है' अर्थ में 'पयल' क्रियापद का प्रचार प्राकृत भाषा में प्रतीत है । 'प्र' + 'सर' के आदेश को बताते हुए आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि "प्रसरेः पय- उखेल्लो”( ८-४-७७) अर्थात् 'प्र+सर' के अर्थ में 'पयल' और 'उवेल ' यह दो धातुओं का उपयोग करना चाहिए ।