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पांत
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'पङ्क्ति' उपरसे सोधा 'पंगत' (गुजराती) पद
आता है । दिवशात्
'पांत' और 'पंगत' दोनोंका समान अर्थ है तो भी 'पांत' और 'पंगत' का उपयोग भिन्न भिन्न प्रसंग में होता है ।
श्रीमीरांबाइके -'
"मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई" इस भजन के साथ प्रस्तुत द्वितीय भजनकी तुलना करनी चाहिए ।
प्रस्तुत भजनमें भजनकार अपने खुद के लिए " जाति पांत खोई" ऐसा कथन करता है उसका भावार्थ इस प्रकार होना चाहिए ।
श्री मीरांबाईने भी अपने भजनमें अपने खुद के लिये ऐसा ही कहा है। श्री मीरांबाईने अपनी कल्पित जातपांत क्यों खोई और किस प्रकार खोई ? इसका उत्तर सुप्रतीत है | परंतु भजन कार ज्ञानानंदजी ने अपनी स्वजातिके लिए जो उपर्युक्त प्रयोग किया है उसके संबंध में उनके जीवनकी खास कोई घटना ज्ञात नहि है तो भी उनके उपर्युक्त उल्लेख के लिए एक कल्पना हो सकती है:
सम्यग्ज्ञानस्पर्शित विवेकी मानवका विकास होता रहता है अर्थात् उनके जीवन में रूढाचरण अन्तर्हित होकर जीवनशुद्धि को करने वाले सदाचरण प्रतिदिन प्रकटते रहते हैं और पलटते भी रहते हैं । जब ऐसा होता है तब वह विवेकी, गडरिका