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धर्मामृत
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राग धन्याश्री-तीन ताल थरमगुरु जैन कहो क्यों होवे, गुरु उपदेश विना जन मूढा, दर्शन जैन विगोवे । परमगुरु जैन कहां क्यों होवे ॥ टेक ॥१॥ कहत कृपानिधि समजल झीले, कर्म मयल जो धोवें । बहुल पाप मल अंग न धारे, शुद्ध रूप निज जोवे ॥ प० २॥ स्यादवाद पूरन जो जाने, नयगर्भित जस वाचा । गुन पर्याय द्रव्य जो बूझे, सोइ जैन हे साचा ॥ ५० ॥ ३ ॥
क्रिया मूढमति जो अज्ञानी, चालत चाल अपूठी। जैन दशा ऊनमें ही नाही, कहे सो सब ही जूठी ।।१०४॥
पर परनति अपनी कर माने, किरिया गर्वे घेहेलो। उनकुं जैन कहो क्युं कहिये, सो मूरखमें पहिलो ।। ५० ॥ ५ ॥
ज्ञानभाव ज्ञान सब मांही, शिव साधन सईहिए। नाम मेखसें काम न सोझे, भाव ऊदासे रहिए ॥ १०॥६॥
ज्ञान सकल नय साधन साधो, क्रिया ज्ञानको दासी । क्रिया करत घरतु हे ममता, याहि गले में फांसी ॥ ५० ७॥