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विनयविजय
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परम पुरुष तुहि अकल अमूरति युही, अकल अगोचर भूप, बरन्यो न जात हे ॥ परम० ॥ १ ॥टेक॥ तिन जगत भूप, परम वल्लभ रूप, एक अनेक तुंही गिन्यो न गिनात हे ॥ परम० ॥२॥ अंग अनंग नाहिं, त्रिभुवन को तुं सांइ, सब जीवन को सुखदाइ, सुख में सोहात हे ॥ परम० ॥ ३ ॥ सख अनंत तेरो. ग्रह्यो ह न आवे घेरो. इन्द्र इन्द्रादिक हेरो, तो हुँ नहिं पात हे ॥ परम० ॥ ४ ॥ तुंही अविनाशी कहायो, लखेमें न का नहीं आयो । विनय करी जो चायो, ताकुं प्रभु पायो हे ॥ परम० ॥ ५ ॥