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धर्मामृत
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ही रूपांतर है । 'भाव' वा 'फाववुं' (गुज०) क्रियापद का मूल भी 'भू' धातु जन्य 'भावि' धातु में है ।
भजन ६ वां
३७. प्यारे - वहाला - प्रियतम ।
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सं० प्रियकार - प्रा० पियआर - पियार-प्यार । 'प्रियकार का अर्थ 'प्रिय करनेवाला - इष्ट करनेवाला' । प्रस्तुत 'पियार' शब्द का उपयोग, तेरहवीं शताब्दी के " कुमारपालप्रतिबोध' नामक ग्रंथ में हुआ है और भविष्यदतकथा में भी हुआ है । ' पियार ' शब्द, अपभ्रंशप्राकृत का है। कुम्भकार-कुंभार । लोहकार-लोहार । उसी प्रकार 'प्रियकार' से 'पियार' शब्द आया है अथवा सं० ' प्रियतर' शब्द से भी 'पियार' शब्द की निष्पत्ति हो सकती है (!) ३८. जावनो - जाना - गमन करना ।
सं० या - प्रा० जा । 'जावुं' (गुज०) और 'जाना' ये दोनों क्रियापदों का मूल 'जा' धातुमें है ।
३९. लपट्यो - लिप्त - आसक्त ।
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सं० 'लिप्तक' से प्रा० लिपतिय- लिपटिय-लपटिअ-लपट्यो । 'लिक' में 'अन्तःस्वरवृद्धि' होने से 'लिपति' और 'त' का 'ट' रूप परिणाम से 'लिपटि' हुआ । प्रस्तुत 'लपट्चों' का पूर्वरूप लिपटिअ' है । कीतनेक बोलनेवाले दन्य अक्षरों को नहि बोल सकते परंतु उन के स्थान में मूर्धन्य अक्षरों का उच्चारण
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