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· धर्मामृत
. (५५), जो जो देखे वीतरागने, सो सो होशे वीरा रे। ' विन देखे होसे नहीं कोइ, काइ होय अधीरा रे ॥ जो० १ ॥
समय एक नहीं घटसी जो, सुख दुःख की पीडा रे । तुं क्युं सोच करे मन कूडा, होवे वन जो हीरा रे ॥ जो०२॥
लगे न तीर कमान वान, क्युं मारी सके नहीं मिरा रे । तुं संभारे पुरुष बल अपनो, सुख अनंत तो पीरा रे ॥ जो०३ ॥
नयन ध्यान धरो वा प्रभु को, जो टारे भव भीरा रे। जस सचेतन धरम निज अपनो, जो तारे भव तीरा रे ॥ जो०४॥