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________________ [१२०] धर्मामृत ' ' पोर' का 'ओ' विवृत है और 'भोर का ओ' संवृत है । काठियावाडी ' पोरो खावो '' विश्राम लेना ' प्रयोगका ' पोरो' और होता है कि ' पोर' शब्द भी ' प्रहर' का रूपांतर है । ' प्रहर' के पारस्परिक संबन्ध से ऐसा सूचित एक प्रहर तक प्रवृत्ति करने बाद विश्राम लेने की वा विश्राम देने की प्रथा लोकव्यवहार में प्रचलित थी । क्या ही अच्छा हो कि ' पोगे' का यह भाव आज भी लोगों के ध्यान में आवे विशेषतः श्रीमानों के । ' प्रहर' में 'प्र' उपसर्ग है ओर 'हर' 'हृ' धातु का प्रयोग है । 'प्र' के साथ 'हृ' धातु का अर्थ ' प्रहार करना ' प्रसिद्ध है । आचार्य हेमचन्द्र ने ' प्रहर' की व्युत्पत्ति के संबन्ध में लिखा है कि – “ प्रहियते अस्मिन् कालसूचकं वायम् इति प्रहरः " अर्थात् समयदर्शक घंटा के उपर जिस समय पर प्रहार हो वह समय ' प्रहर' समजना - ( अभिधानचिन्तामणि टीका द्वितीय काण्ड श्लो. ५९ ) इस प्रकार कालदर्शक ' प्रहर' शब्द के साथ 'प्रहार' क्रिया का भी संबन्ध ठीक बैठता है । 'प्राह' शब्द भी प्रातः काल का वाचक है । 'महर' और 'प्राण' में जो अक्षरसाम्य और अर्थसाम्य है वह प्रतीत है ।
SR No.010847
Book TitleBhajansangraha Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherGoleccha Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages259
LanguageHindi Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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