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धर्मामृत
{१८८] अनुनासिक में 'अ' का प्रक्षेप होने से 'सिणगार' और प्रक्षेप न करने से सिंगार । 'शङ्गार' में जो 'ङ' है वह मूलमें 'न्' था परंतु 'ग' के योग से 'न्', 'ङ' में परिणत हुआ है इससे कहा गया है कि मौलिक 'न्' में अकार का प्रक्षेप हुआ है । 'शृङ्गार' शब्द का जो अर्थ प्रचलित है उसके साथ 'शृङ्गार' की व्युत्पत्ति का कोई संबंध है या नहि ? यह विचारणीय है। 'शृङ्गार' की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार की मिलती है: आचार्य हेमचन्द्र 'शृङ्गार' शब्द को 'श्री' धातु से वा ' शृङ्ग' शब्द से नीकालते हैं। १ " श्रयति एनं जनः शृङ्गारः अर्थात् जिस का आश्रय सब लोक करे वह शृङ्गार । २ रसेषु शृङ्गम्-उत्कर्षम्इयर्ति इति वा शृङ्गार:-रसो में जो उच्च स्थान को प्राप्त करे वह शृङ्गार । उक्त दोनों व्युत्पत्तियां 'शृङ्गार' के प्रसिद्ध अर्थ को लक्ष्यगत कर की गई है ऐसा प्रतीत होता है। शृङ्गार का आश्रय सब लोग करते हैं अथवा हास्यादि सब रसो में 'शृङ्गार' मुख्य रस है यह भी प्रसिद्ध बात है। काव्यप्रकाश के चतुर्थ उल्लासगत २९ वी कारिका की टीकामें भी 'शृङ्ग' शब्द से “शृङ्गार' को बनाया हैः
"शङ्ग हि मन्मथोद्भेदः तदागमनहेतुकः ।
पुरुषप्रमदाभूमिः शृङ्गार इति गीयते ॥ इति शृङ्गारपद'निरुक्तिः” अर्थात् शृङ्ग माने कामदेव का ऊगम, जिस के