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राग धन्याश्री- तीन ताल
धर्मामृत
परम प्रभु सब जन शब्दें ध्यावे ॥
जब लग अंतर भरम न भांजे, तब लग कोउ न पावे ॥ प०१ ॥ सकल अंस देखे जग जोगी, जो खिनु समता आवे । ममता अंघ न देखे याको, चित्त चिहुं उरे ध्यावे ॥ १०२ ॥
सहज शक्ति अरु भक्ति सुगुरु की, जो चित्त जोग जगावे । गुन पर्याय द्रव्यसुं अपने, तो लय कोउ लगावे ॥ ५०३ ॥
पढत पूरान वेद अरु गीता, मूरख अर्थ न भावे । इत उत फरत ग्रहत रस नाही, ज्यों पशु चर्वित चावे ॥ ५०४ ॥
पुद्गल से न्यारो प्रभु मेरो, पुद्गल आप छिपावे | उनसें अंतर नहीं हमारे, अब कहां भागो जावे ॥ १०५ ॥
अकल अलख अज अजर निरंजन, सो प्रभु सहज सुहावे । अंतरजामी पूरन प्रगट्यो, सेवक जस गुन गावे ॥ प० ॥ ६ ॥
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