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पड़ती है। उन्हीं का विस्तृत प्रभाव मुझे गुजरात औरे महाराष्ट्र के संतो पर दिखायी पड़ता है । इस संग्रह में जो जैन कवि बताये गये हैं -- ज्ञानानन्द, विनयविजय, यशोविजय, आनन्दघन, आदि -- उनकी भी कृतियों में, हिन्दी और गुजराती दोनों प्रकार की माणिक-मालाओं में, गूथने वाला तार मुझे वही कबीरदास की बानी से निकला हुआ रहस्य-संवाद दिखायी देता है । जैन सम्प्रदाय में उत्पन्न इन महात्माओं में, जिनकी कविता का संग्रह इस पुस्तिका में दिया गया है, मुझे ज्ञानानन्द की वानी विशेष रीति से गहरी, मार्मिक और प्यारी लगी । इनकी बानी उसी रंग में रंगी है और उन्हीं सिद्धान्तों को पुष्ट करने वाली है जिनका परिचय कबीर और मीरा ने कराया है - आन्तरिक प्रेम की वही मस्ती, संसार की चीज़ों से वही खिंचाव, धर्म के नाम पर चलायी गयी रूढियों के प्रति वही ताड़ना, बाह्य रूपान्तरों में उसी एक मालिक की खोज और बाहर से अपनी शक्तियों को खींच कर उसे अन्तर्मुखी करने में ही ईश्वर के समीप पहुंचने का उपाय ।
शब्दों और अलंकारों का प्रयोग भी उसी प्रकार का है । राम-नाम, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नगरी, तस्कर, मन्दिर के दस दरवाजे, चार वेद, भस्म, सुन्नत, अल्ला, जोगी, प्वाला, मतवाला, पिया, महल, ज्ञानी, गुरु, सद्गुरु, अंतरजामी, अलख, अजर, निरंजन, पंखिया, पंजर-ये शब्द उसी ध्वनि, उपमा और उप्रेक्षा के बीच आय हैं जो संत-साहित्य की विशेष सम्पत्ति है। उस साहित्य से परिचय रखने वाले तुरत इसका अनुभव करेंगे । संग्रह के कुछ गीतों में कवि का जैन सम्प्रदाय से सम्बन्ध प्रगट . होता है किन्तु यह केवल कुछ शब्दों के प्रयोग में; कर्तव्यशिक्षा